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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ ये कहानी है एक निकाह की, एक सच्ची कहानी जिसे इसीलिये लिखा गया है कि लोग पढ़ कर जानें कि "एक निकाह ऐसा भी" हो सकता है।
࿐ कहने को तो ये बस एक निकाह की कहानी है लेकिन इस के अंदर कई कहानियाँ हैं जिन में पैग़ामात हैं, अस्बाक़ हैं, दर्द है और गुज़ारिशात हैं।
࿐ आज मेरे निकाह को बस 2 दिन बाक़ी हैं और मै लिखना शुरू कर रहा हूँ, एक नई नई कैफ़ियत साथ है और ज़हन में जैसे अवराक़ पे अवराक़ छप रहे हैं, लिख रहा हूँ फिर मिटा रहा हूँ, अल्फ़ाज़ के चुनाव में फँस सा जाता हूँ फिर थोड़ी देर तक जमा कर के एक जुमला बना रहा हूँ।
࿐ उम्मीद करता हूँ कि मेरी इस कहानी को मेरी कैफ़ियत को महसूस करते हुये पढ़ने वाले ये नहीं कहेंगे कि उनका क़ीमती वक़्त किसी बेकार जगह लग गया, वो ज़रूर इसे फ़ायदेमन्द पायेंगे।
࿐ मग़रिब की अज़ान हो रही है, अल्लाह त'आला का नाम ले कर और उस के आखिरी रसूल, हमारे प्यारे नबी ﷺ पर दुरूदो सलाम पेश कर के अब इस कहानी को शुरू करता हूँ।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ बात शुरु होती है बात कुछ इस तरह शुरू हुई कि मेरी अपनी एक मेट्रिमोनियल सर्विस (Matrimonial Service) है जिसका नाम "ई निकाह सर्विस (E Nikah Service)" है, मैंने इसे तक़रीबन डेढ़ साल पहले शुरू किया था और अब तक 50 के क़रीब निकाह इस सर्विस के ज़रिये हो चुके हैं।
࿐ इसे शुरू करने की एक वजह बयान करता चलूँ कि एक दिन मुझे किसी बदमज़हब ने अपने टेलीग्राम ग्रुप में शामिल किया जहाँ मैंने देखा कि सुन्नियों की प्रोफाइल्स भी डाली जा रही हैं!
࿐ ये देख कर बड़ा अफ़सोस हुआ कि रिश्ते तलाश करने के लिये हमारे सुन्नी भाई-बहन बदमज़हबों के पास जा रहे हैं जो कि कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा पढ़े लिखे समझदार लोग अच्छी तरह लगा सकते हैं।
࿐ मैंने अपनी टीम अब्दे मुस्तफ़ा ऑफ़िशियल में इस बात को रखा कि हमें भी एक ऐसी सर्विस शुरू करनी चाहिये जो सिर्फ सुन्नियों के लिये हो और रिश्ते तलाश करने के लिये उन्हें गैरों के पास ना जाना पड़े।
࿐ मेरी बात को सुनने के बाद टीम के अक्सर बल्कि कह लें 90 फ़ीसद लोगों ने मना किया क्योंकि उन्हें इस में कई ऐसी बातें नज़र आ रही थी जो उनके इंकार का सबब बनी मगर मैंने सोच लिया था कि अब एक बार शुरू करके तजरिबा करूँगा फिर अगर ना हुआ तो बंद कर दूँगा कुछ लोगों ने कहा कि ये ज़िम्मेदारी वाला काम है और इस में ज़मानत जैसा मामला आ जाता है तो कुछ भी होने की सूरत में आपको निशाना बनाया जा सकता है, ये सुनने के बाद भी मै पीछे नहीं हटा और काम शुरू कर दिया।
࿐ ऐलान करने की देर थी कि मजमा लग गया यानी कसरत से लोग आने लगे और फ़िर मुझे क्या पता था कि वो भी आयेगी कि जहाँ मेरी तलाश मुकम्मल होने के इंतिज़ार में है। (मग़रिब की नमाज़ पढ़ ली है, अब कुछ ज़रूरत की चीज़ें लेने जाना है फ़िर फ़ारिग़ होते ही लिखना शुरू करता हूँ)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ ई निकाह सर्विस के बारे में और भी काफ़ी कुछ लिखा जा सकता है कि किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, कितनी मुश्किलें सामने आयीं और फिर अल्लाह त'आला ने कैसे मदद भेजी, मै यहाँ इस की तफ़सील ना लिखते हुये वापस अपनी कहानी पे आता हूँ।
࿐ एक दिन उनकी प्रोफ़ाइल आई जिन से मेरा निकाह होने को है.......जी हाँ! यानी अत्तारिया साहिबा की प्रोफाइल, देखते ही ज़ाहिर हो गया था कि किसी दीनदार लड़की की प्रोफाइल है और तलाश में भी दीनदार को ही तरजीह दी जायेगी।
࿐ यूँ तो दिन भर में दर्जनों प्रोफ़ाइल्स बनाता हूँ और चूँकि सब को एक नज़र देखना भी होता है तो लोगों की पसंद और उनके मुतालिबात पढ़ कर काफी तजरिबा भी हासिल हुआ इसीलिये ये प्रोफ़ाइल नज़र से गुज़री तो गुज़रते गुज़रते ज़हन में नक़्श हो गयी और इरादा बन गया कि अगर निकाह करना हुआ तो पहले इनसे बात की जायेगी और फिर वो दिन भी आया कि जब मैंने इनके भाई से बात की।
࿐ मैंने अपने इरादे से जब उन्हें आगाह किया तो इत्तिफ़ाक़ की बात ये है कि उनके ज़हन में भी ये बात जगह कर चुकी थी क्योंकि हम दोनों का राब्ता ई-निकाह और कुछ दीनी मसाइल को लेकर काफी पहले से था तो आपस में एक हद तक जान पहचान थी और फिर उन्होनें भी एक बार इशारतन इस इरादे का इज़हार किया था तो जब मैंने सराहतन बात की, फिर बात आगे जानी ही थी।
࿐ (अब आज बारात निकलेगी, मै तैय्यार हो के बैठा हुआ हूँ, गाड़ियाँ आने वाली है, मग़रिब के बाद यहाँ से रवाना होना है और रात भर के सफर के बाद सुबह हम वहाँ पहुँचेंगे, ये सफ़र हज़ारीबाग (झारखण्ड, इंडिया) से भाटापारा (छत्तीसगढ़, इंडिया) तक का है, अब फुरसत पाते ही फिर लिखना शुरू करूँगा।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ बात बड़ों तक पहुँची ज़रूरी है कि इस तरह के फैसलों में अपने बड़ों को शरीक किया जाये लिहाज़ा बात बड़ों तक पहुँची तो मुलाक़ात की तरकीब बन गयी, पहले लड़की वालों की तरफ़ से हमे पेशकश की गयी कि उनके घर मेहमान बनें लेकिन मैने इससे मना किया क्योंकि जब हमें असल शय जो मकसूद है वो मिल चुकी थी यानी दीनदारी तो फिर महज़ रस्म अदा करने के लिये जाना, खर्च बढ़ाना और बात सिर्फ़ इतनी नहीं बल्कि 4 तरह के लोगों को ले जा कर 40 तरह की बातें निकालने का मौक़ा देना सहीह मालूम नहीं हुआ।
࿐ आज कल देखने दिखाने के तरीक़े ने भी निकाह को मुश्किल बना दिया है, कई-कई लोग देखने जाते हैं फिर नाश्ते खाने में कमी हो जाये तो तरह-तरह की बातें निकालते हैं, हर शख्स के सोचने समझने का अंदाज़ अलग होता है तो ज़ाहिर सी बात है कि जितने लोग होंगे उतनी बातें होंगी और फिर काम मुश्किल होता चला जायेगा।
࿐ ऐसी ही कई बातों को मद्दे नज़र रखते हुये मैने दरमियान में से ये मरहला निकाला कि हम असल शय पसंद होने के बाद फ़िर कुछ लोगों को ले कर देखने जायें ताकि वो बातें देखी जायें कि जिन्हें देखना यहाँ ज़रूरी नहीं।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ मुलाक़ात होती है शुरू में मेरा इरादा भी यही था कि पहले इधर से लोग जायें लेकिन दूरी की वजह से घर वालों ने कहा कि पहले लड़की वालों का आना मुनासिब रहेगा क्योंकि अस्ल उनका राज़ी होना है लिहाज़ा वो आयें और देख समझ लें फिर आगे बात होगी और साथ ये भी कहा कि जब तुम्हें ये रिश्ता पसंद है तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं लिहाज़ा मैने अपनी तरफ से जाने वाले मरहले को ही निकाल दिया ताकि निकाह और आसानी से हो जाये।
࿐ चुनाँचे उधर से चंद लोग आये और फिर बात आगे बढ़ी, आने वालों में लड़की के वालिद, वालिदा, भाई और बहन थे।
࿐ यहाँ आने के बाद उन्होंने कई चीज़ें देखी पर तरजीह जिस चीज़ को दी वो थी दीनदारी, दिन भर रुकने के बाद वापसी हुयी और नतीजा अब तक ये निकला था कि वो राय मश्वरे के बाद जवाब देंगे। चंद दिनों के बाद ही उधर से मुस्बत (Postive) जवाब आ गया और क़रीब 2 महीने बाद निकाह की तारीख़ रखी गयी।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ शादी की तैयारियाँ शुरू आज कल शादी की तैयारियों का मतलब है कि हफ़्तों बल्कि महीनों पहले से कमर कस लेना जैसे कोई बड़ी जंग हो और इतना ज़्यादा काम फैला दिया जाता है कि कुछ ना कुछ फिर भी अधूरा रह जाता है लेकिन यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था, बस ज़रूरत की कुछ चीज़ें लेनी थी जो कि बड़ी आसानी से ले ली गई जिन की तफ़्सील अब हम बयान करेंगे और साथ ही मुक़ाबिल में उन बातों को भी लायेंगे कि जिन से निकाह मुश्किल से मुश्किल हो गया है।
࿐ दावत देना दावत देना अच्छी बात है, हम इससे मना नहीं करते लेकिन इसका भी कोई तरीक़ा है, कोई हद्द है और कोई सलीक़ा है।
࿐ आज कल तो हाल ये है कि गरीब से गरीब जिस के पास 100 लोगों को सही से खिलाने के लिये पैसे नहीं वो भी क़र्ज़ ले कर हज़ार से ज्यादा लोगों को दावत खिला रहा है।
࿐ महीने भर पहले से ही कार्ड्स, न्यौता वग़ैरह ले कर रिश्तेदारों के घरों के चक्कर काटना शुरू कर दिया जाता है और हमने देखा कि इसके बावजूद भी कई लोग बाक़ी रह जाते हैं जिन्हें मुँह फुला कर बैठने का मौक़ा मिल जाता है।
࿐ 200 मुल्कों में दावत दे कर आने के बाद फिर उनके लिये इंतिज़ाम करने में जो हाल होता है वो बताने बैठे तो एक अलग दर्द भरी कहानी बन जायेगी लिहाज़ा बस ये अर्ज करना चाहेंगे कि इस तरह दावत का रिवाज सही नहीं है।
࿐ इस में अमीर से गरीब सब परेशान होते हैं, जान लीजिये कि कम से कम लोगों को दावत दे कर ही निकाह आसानी से किया जा सकता है वरना नहीं।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ कितने लोगों को दावत दी गयी? दावत के लिये मुन्तज़िर तो बिला मुबालगा 500 से ज़्यादा घर थे जिन्हें बिल्कुल यक़ीन सा था कि उन्हें दावत दी जायेगी, ऊपर से खुद के घर वाले भी एक अर्से तक इसी गुमान में थे कि बड़े बेटे की शादी में खुल के दावत करेंगे और सब को बुला कर धूम धाम से निकाह किया जायेगा फ़िर भले ही इस के लिये क़र्ज़ के दरिया में डूबना क्यों ना पड़े और ये एक मजबूरी भी थी जो इस तरह सुनने को मिलती है कि "सब का खाया है तो सब को खिलाना पड़ेगा" जैसे मानो सब ने दावत नहीं बल्कि क़र्ज़ के तौर पे खिलाया हो।
࿐ मैंने यहाँ पाबंदी लगायी और किसी को भी दावत नहीं दी गयी!
࿐ बारात और वलीमा में शरीक होने के लिये 10-12 लोगों को बुलाया गया जिन में रिश्तेदारो के साथ चंद दोस्त शामिल थे और वलीमा भी कैसे हुआ, इसकी तफ़सील आगे बयान की जायेगी। हमें लगता है कि ये बात काफ़ी अजीब लगने वाली है कि दावत क्यों नहीं दी गयी? क्या दावत देना गलत है? फिर और भी कई तरह की बातें और सवालात ज़हन में आ सकते हैं कि क्या पैसे नहीं थे? क्या पैसे बचाये जा रहे थे? या कोइ और वजह थी? तो आइये इस पर भी थोड़ी गुफ़्तगू कर ली जाये कि निकाह में दावत देने की हैसियत क्या है और इसे लोगों ने क्या बना रखा है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ सहाबा ने नबी को दावत नहीं दी!
࿐ अहदे रिसालत की एक मिसाल पेश करते हुये हम अपनी गुफ़्तगू को शुरू कर रहे हैं, चुनाँचे पहले मुस्लिम शरीफ की एक रिवायत यहाँ नक़्ल की जाती है, मुलाहिज़ा फ़रमायें।
࿐ मुस्लिम शरीफ़ में एक बाब है जिस का नाम है : "باب استحباب نکاح البکر" यानी कुँवारी लड़की से निकाह करने का इस्तिहबाब इस में रिवायत है कि हज़रते जाबिर बिन अब्दुल्लाह रदिअल्लाहु त'आला अन्हुमा बयान करते हैं कि मैने रसूलुल्लाह ﷺ के अहद में एक औरत से निकाह किया, जब मेरी मुलाक़ात रसूलुल्लाह ﷺ से हुई तो आप ने फ़रमाया : ए जाबिर! क्या तुम ने शादी कर ली है? मैने कहा : बेवा से।
࿐ आप ने फ़रमाया : कुँवारी से शादी क्यों ना की, वो तुम से खेलती, तुम उस से खेलते! मैने कहा : या रसूलुल्लाह ﷺ मेरी कुछ बहनें हैं, मुझे ये खदसा हुआ कि कहीं वो मेरी बहनों की परवरिश और मेरे दरमियान हाइल ना जाये।
࿐ आप ﷺ ने फ़रमाया : अगर ये बात है तो ठीक है, औरत से उसकी दीनदारी, उसके माल और जमाल की बिना पर निकाह किया जाता है, तुम्हारे हाथ खाक आलूद हों, तुम दीनदारी को मुक़द्दम रखा करो।
࿐ यहाँ ये बात क़ाबिले ग़ौर है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने हज़रते जाबिर से निकाह के बारे में पूछा जिस से साफ ज़ाहिर होता है कि हज़रते जाबिर ने हुज़ूर ﷺ को निकाह की दावत नहीं दी और ऐसा रिवाज था ही नहीं कि निकाह के बारे में हर एक को इत्तिला दी जाये वरना हज़रते जाबिर सबसे पहले अल्लाह के नबी को दावत देते और फिर ये भी देखें कि हुज़ूर ﷺ ने हज़रते जाबिर से ये नहीं कहा कि तुमने निकाह में मुझे क्यों नहीं बुलाया? ऐसी सिर्फ़ एक मिसाल नहीं और भी हैं जिनसे ज़ाहिर होता है कि ये मुरव्वजा दावत देने का तरीक़ा एक नया तरीक़ा है जिस से मुश्किलें ही मुश्किलें पैदा हुई हैं।
࿐ आप ने ये रिवायत पढ़ ली, अब ज़रा सोचें कि अगर आप अपने क़रीबी असातिज़ा, अपने दोस्तों, अपने भाईयों को बताये बिना निकाह कर लें तो क्या होगा! ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ और मेरा बयान अभी जारी है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ हज़रते अब्दुर्रहमान औफ़ की शादी में दावत एक और मिसाल यहॉं हज़रते अब्दुर्रहमान बिन औफ़ की पेश की जाती है जो कि अशरा -ए- मुबश्शरा में से हैं और आपका शुमार सबसे मालदार सहाबा में होता है।
࿐ आप की शादी के चंद दिनों बाद जब आप बारगाहे रिसालत में आये तो आपके कपड़ों पे ज़र्द निशानात लगे थे जिन्हें देख कर हुज़ूर ﷺ ने पूछा कि : ये कैसा रंग है? आप ने बताया कि या रसूलल्लाह, मैने एक औरत से निकाह कर लिया है! हुज़ूर ﷺ ने पूछा कि : तुम ने महर कितना दिया? कहा कि या रसूलल्लाह ﷺ! गुठली के बराबर सोना फिर हुज़ूर ﷺ ने फरमाया कि तुम वलीमा करो, ख्वाह एक बकरी से।
࿐ (देखिये सहीह बुखारी, किताबुल बुयू'अ) इस रिवायत से भी समझ में आता है कि निकाह की तकरीब में सब को दावत देने का कोई तसव्वुर ना था वरना हज़रते अब्दुर्रहमान बिन औफ़ सबसे पहले हुज़ूर ﷺ को दावत देते।
࿐ अब रहा ये कि हुज़ूर ﷺ ने वलीमा का हुक्म दिया तो पहले जान लीजिये कि वलीमा किसे कहते हैं और इस का तरीक़ा क्या है, ये दुरुस्त नहीं कि अपनी ईजाद की हुई मुश्किलों को वलीमे के नाम पर चलायें और खुद की बनाई हुई ज़हमत को सुन्नत का नाम दें।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ वलीमा किसे कहते हैं?
࿐ वलीमा यानी शादी के बाद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दावत देना लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि सब को बुलाया जाये और ये मतलब भी नहीं कि खाना ही खिलाया जाये बल्कि नाश्ता करवा देना भी सुन्नत की अदायगी के लिये काफ़ी है, अब आइये इसकी थोड़ी तफसील बयान कर दी जाये।
࿐ अल्लामा अइनी हनफ़ी रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं : शादी के मौक़े पर शबे ज़ुफाफ गुज़ारने के बाद रिश्तेदारों और दोस्तों को जो दावत की जाती है, उसको वलीमा कहते हैं, चूँकि रसूलुल्लाह ﷺ ने वलीमा करने का हुक्म दिया है इसीलिये बाज़ फ़ुक़हा ने इस ज़ाहिर हदीस के एतबार से वलीमा को वाजिब कहा है और अक्सर उलमा के नज़दीक वलीमा करना मुस्तहब है।
࿐ तलवीह में मज़कूर है कि इमाम शाफ़ई के नज़दीक वलीमा करना मुस्तहब है और एक क़ौल ये है कि वलीमा करना वाजिब है।
࿐ अल्लामा खिताबी ने कहा है कि जो शख्स साहिबे हैसियत हो वो एक बकरी की मिक़्दार दावत करे और जिस शख्स के पास इतनी क़ुदरत ना हो तो कोई हरज नहीं है क्योंकि नबी ﷺ ने अपनी बाज़ अज़वाज का वलीमा सत्तू और खजूरों के साथ भी किया है।
(شرح صحیح بخاری، ج4، ص575، علامہ غلام رسول سعیدی رحمہ اللہ تعالی، ملخصا)
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࿐ वलीमा, दिखावा या मजबूरी?
࿐ हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अमजद अली आज़मी रहीमहुल्लाहु त'आला वलीमा के मुतल्लिक़ लिखते हैं कि दावते सुन्नत के लिये किसी ज़्यादा एहतिमाम की ज़रूरत नहीं अगर दो चार लोगों को कुछ मामूली चीज़ अगर्चे पेट भर कर ना हो अगर्चे दाल रोटी चटनी रोटी हो या इससे भी कम खिला दें तो सुन्नत अदा हो जायेगी और अगर इसकी भी इस्तिताअत ना हो तो कुछ इल्ज़ाम नहीं (यानी ना खिलाये तो कोई हर्ज नही) (فتاوی امجدیہ، ج4، ص225)
࿐ मगर हमें सुन्नत तो अदा करनी नहीं है बल्कि क़र्ज़ ले कर जिस जिस का खाया है उस का क़र्ज़ अदा करना है और दुनिया को दिखाना और राज़ी करना है तो ऐसा वलीमा असल में वलीमा नहीं। कई ऐसे लोग हैं कि उनके पास वलीमा के लिए टेंट (Tent) लगाने के भी पैसे नहीं हैं पर क़र्ज़ ले कर हज़ार की तादाद में लोगों का पेट भरना पड़ता है फिर भी लोगों से यही सुनने को मिलता है कि मुझे पापड़ नही मिला, मुझे मछली का पीस नही मिला, मुझे ज़र्दा नहीं मिला और मुझे कोल्ड ड्रिंक (Cold Drink) नसीब नहीं हुई।
࿐ अल्लाह त'आला हमें सुन्नत पर अमल करने और सादगी की तौफ़ीक़ अता फरमाये।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ दावत देना कितना ज़रूरी?
࿐ (एतिदाली बहस) हम मिसालें पेश कर चुके कि सबसे बेहतरीन ज़माने यानी हुजूर ﷺ के ज़माने में निकाह की तक़रीब में इस तरह दावत देने का रिवाज ना था जैसा कि आज कल हमारे दरमियान राइज है और हम ये भी नहीं कहते कि दावत देना कोई गुमराही है लेकिन इसकी असल हैसियत को समझना ज़रूरी है।
࿐ अल्लामा गुलाम रसूल सईदी रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि ये बिलकुल सहीह है कि (रसूलुल्लाह ﷺ, और सहाबा के दौर में मजलिसे निकाह क़ाइम करने का रिवाज ना था) निकाह करना सुन्नत है और इस सुन्नत के लिये मजलिस और महफिल मुनअकिद करने का रिवाज खैरूल क़ुरुन (यानी नबी और सहाबा के ज़माने में) ना था (मजीद लिखते हैं जिसका मफहूम ये है कि) ये अमल बुरी बिद्द'अत (गुमराही) नहीं बल्कि मुस्तहब है। (شرح صحیح مسلم، ج3، ص998)
࿐ हम कहते हैं कि निकाह में उलमा, मुतल्लिक़ीन, अहबाब, रिश्तेदारों और दोस्तों को दावत देना कोई गुमराही नहीं है और ये तरीके से किया जाये तो अच्छा भी है लेकिन जिस तरह आज कल रिवाज है ये निकाह को मुश्किल बनाने वाली शय है।
࿐ होना ये चाहिये कि बंदा अपनी हैसियत के मुताबिक़ दावत दे और अगर इस्तिताअत नहीं तो दावत ना दे लेकिन आज कल ये मजबूरी बन चुकी है कि दावत देना है तो देना है, अब चाहे इसके लिये खुद को तकलीफ में क्यों ना डालना पड़े।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ तकल्लुफ़ भरी दावत का नुक़सान 200 मुल्कों में (यानी दूर दूर के रिश्तेदारों, तमाम दोस्तों, भाईयों, भाईयों के दोस्तों और दोस्तों के भाईयों को) दावत देना फिर उनके लिये 56 भोग (यानी तरह तरह के ख़ानों) का इंतिज़ाम करना किसी ज़हमत से कम नहीं है।
࿐ ऐसी तकल्लुफ़ भरी दावतों से बहुत नुक़सान हुआ है, पहला नुक़सान तो ये कि इसका ऐसा रिवाज चल पड़ा कि छोटे क्या और बड़े क्या, अमीर क्या और गरीब क्या सब इसे लाज़िम समझने लगे।
࿐ कुछ तो मजबूर हैं और बाक़ी दिखावे से बाज़ नहीं आते, अगर्चे क़ुदरत नहीं रखते फिर भी कहते हैं ना कि जब घोड़े ने नाल लगवायी मेढ़की ने भी टांग उठायी, ऐसा ही कुछ हाल हमारे मुसलमानों का है कि दिखावे के चक्कर में मुसीबत को गले लगा लेते हैं।
࿐ एक नुकसान ये हुआ कि लोगों ने मिलना कम कर दिया और वो इस तरह के शादी बियाह ही नहीं बल्कि इसके इलावा भी मुलाक़ात के साथ तकल्लुफ़ भरी दावतों को जोड़ दिया गया तो अब मुलाक़ात करना भी आसान ना रहा कि मिलेंगे तो फिर इन चीजों के साथ मिलना होगा।
࿐ हमारे अकाबिरीन ने हमें इससे खबरदार किया था लेकिन हमने जाना नहीं, माना नहीं और फिर जो हुआ वो हमारे सामने है। हमारे अस्लाफ का तर्ज़े अमल ये था कि वो खाने में तकल्लुफ़ को पसन्द नहीं करते थे, चुनान्चे : एक बुज़ुर्ग फरमाते हैं कि मुझे इसकी कोई परवाह नहीं कि मेरे भाईयों में से मेरे पास कौन आता है क्योंकि मै उनके लिये तकल्लुफ़ नहीं करता, खाने को जो कुछ होता है पेश कर देता हूँ।
࿐ अगर मै उनके लिये तकल्लुफ़ से काम लूँ तो उनका आना मुझे बुरा लगेगा। (احیاء العلوم) ये जुमला क़ाबिले गौर है कि "अगर मै उनके लिये तकल्लुफ़ से काम लूँ तो उनका आना मुझे बुरा लगेगा।" आज अगर कुछ लोग मेहमान को बोझ समझते हैं तो उसकी वजह भी तकल्लुफ़ है।
࿐ एक बुज़ुर्ग ने तो जब अपने दोस्त को तकल्लुफ़ करता देखा तो कहने लगे कि आम हालात में ना तो तुम ऐसा खाना खाते हो और ना मै, तो फिर इकट्ठा ऐसा खाना क्यूँ खायें? या तो तुम ये तकल्लुफ़ छोड़ दो या मै तुमसे मिलना छोड़ दूँ। (احیاء العلوم)
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࿐ हज़रते सलमान फ़ारसी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु फरमाते हैं कि नबी -ए- करीम ﷺ ने हमें हुक्म दिया कि जो चीज़ हमारे पास नहीं उसके बारे में हम मेहमान के लिये तकल्लुफ़ ना करें और जो कुछ मौजूद हो पेश कर दें। (التاریخ الکبیر للبخاری)
࿐ हज़रते फुज़ैल बिन अयाज़ फरमाते हैं कि लोगों ने तकल्लुफ़ की वजह से मिलना छोड़ दिया है कि उनमें से एक अपने एक भाई की दावत करता है और तकल्लुफ़ से काम लेता है जिसकी वजह से वो दोबारा इसके पास ना आता। (احیاء العلوم)
࿐ इमाम गज़ाली अलैहिर्रहमा ने हज़रते अली रदिअल्लाहु त'आला अन्हु के मुतल्लिक़ लिखा है कि जब आपको दावत दी जाती तो आप फरमाते कि मै तीन शराइत के साथ तुम्हारी दावत क़ुबूल करूँगा।
(1) तुम बाज़ार से कोई नयी चीज़ नहीं लाओगे।
(2) घर में जो कुछ हो वो सारा पेश नहीं करोगे।
(3) अपने अहलो अयाल को भूखा नहीं रखोगे। (ایضاً)
࿐ हम तकल्लुफ़ में इतना बढ़ चुके हैं कि अब इसे ज़रूरी समझने लगे हैं।
࿐ इसी वजह से हम लाखों रूपये लुटाने के बाद भी शिकायतें सुनते हैं, अगर हम सादगी अपनायें तो नताइज कुछ और होंगे।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ इस निकाह में दावत की तफसील जिस इलाके से मेरा ताल्लुक़ है, ये रस्मो रिवाज के मामले में काफी बढ़ा हुआ है, अल्लामा मुफ्ती अहमद यार खान नईमी रहीमहुल्लाहु त'आला ने उत्तर प्रदेश के बारे में लिखा है कि हिंदुस्तान में रस्मो रिवाज सबसे ज़्यादा यहाँ है और चूँकि यूपी, बिहार और बंगाल आपस में मुंसलिक हैं तो हालात काफी मिलते जुलते हैं।
࿐ दावत देने का रिवाज भी इन इलाकों में बहुत अलग है यानी एक ही शादी में कई कई बार दावत देनी पड़ती है जिस की शुरुआत रिश्ते की बात शुरू होते ही हो जाती है।
࿐ जब एक दूसरे से मुलाक़ात होती है तो भी आम दावत दे कर भीड़ जमा की जाती है फिर अगर निकाह तय हो गया तो निकाह के एक हफ़्ते पहले से ही दावत का सिलसिला शुरू हो जाता है, लगन की दावत अलग, मड़वा की अलग फिर घर में रिश्तेदारों का ऐसा हुजूम लगा होता है कि हर दिन दावत हो रही होती है फिर निकाह, बारात और वलीमा तो अपनी जगह बाक़ी है और इन सब में बे हिसाब माल खर्च होता है जो सिर्फ़ निकाह को मुश्किल नहीं बनाता बल्कि मुस्तक़बिल को भी मुश्किल में डाल देता है।
࿐ इस निकाह में दावत कुछ यूँ हुई कि :
(1) लड़की वालों की तरफ़ से 4 लोग आये जिनके लिये नाश्ते और खाने का इंतिज़ाम किया गया और साथ में घर के लोग और कुछ क़रीबी रिश्तेदार थे जिन को मिला कर कुल तादाद 20 के क़रीब थी।
(2) दूसरी बार दावत का एहतिमाम निकाह के दिन हुआ जिस में बारातियों की तादाद सिर्फ़ 14 थी बाक़ी लड़की वालो ने अपने मुतल्लिकीन में दावत की थी।
(3) तीसरी मर्तबा दावत -ए- वलीमा जिस में कुल 20-25 थे।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ शादी और कपड़े ऐसा कैसे हो सकता है कि हम शादी ब्याह की बात करें और कपड़े का नाम ना लें ! ये तो शादी का एक ऐसा अहम हिस्सा बन चुका है कि इसके बिना शादी हो ही नहीं सकती।
࿐ हम ये नहीं कहते कि शादी में बिल्कुल ही कपड़े ना खरीदे जायें लेकिन जिस तरह आज कल रिवाज है ये निकाह को मुश्किल से मुश्किल बनाने वाली चीज़ है।
࿐ दूल्हा और दुल्हन के लिये काफ़ी महँगे कपड़े लिये जाते हैं फिर घर वालों और रिश्तेदारों के लिये भी कपड़े बनवाने पड़ते हैं जिससे शादी का खर्च आसमान छूने लगता है।
࿐ एक मज़े की बात ये है कि इतना कुछ करने के बाद भी कई लोग नाराज़ हो जाते हैं और वो कुछ यूँ कि जिन्हें कपड़ा नहीं मिलता वो मुँह फुला लेते हैं कि उन्हें कपड़ा नहीं मिला और जिन्हें मिलता है उन में से बाज़ की ये शिकायत होती है कि सस्ता कपड़ा मिला।
࿐ जान लीजिये कि अगर आप किसी को राज़ी करना चाहते हैं तो दुनिया की रू से नहीं कर सकते, जिसे राज़ी होना हो वो दीन की रू से ही हो सकता है वरना कोई रास्ता नहीं।
࿐ अब हम बतायेंगे कि इस निकाह में कपड़ों पर कितना माल खर्च किया गया और किस किस के लिये कितने जोड़े बनवाए गये।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ इस निकाह में कपड़े
࿐ दुल्हन के जोड़े : दुल्हन के लिये कपड़े खरीदने में किस क़द्र माल खर्च किया जाता है ये कोई ढकी छुपी बात नहीं, एक नहीं बल्कि कई कई जोड़े लिये जाते हैं और ये ख़र्च बढ़ाने के सिवा कुछ नहीं।
࿐ एक जगह से खबर मिली कि फ़ुलाँ की शादी में दुल्हन को 30 जोड़े कपड़े दिये गये!
࿐ ये सब निकाह को मुश्किल बनाने वाली बातें नहीं तो और क्या है? इस निकाह में दुल्हन के लिये सिर्फ़ एक कपड़ा (सलवार सूट) लिया गया जिस की क़ीमत इतनी थी कि जितने में आज कल की शादियों में दूल्हे के लिये एक कोट या एक शेरवानी भी शायद ना ली जा सके! लोग शेरवानी के नाम पर 10-15 हज़ार तक लगा देते हैं और इस निकाह में सबके कपड़े मिला कर भी इतना खर्च नहीं हुआ।
࿐ कपड़े लेने के बाद उसे लड़की वालों के यहाँ भेज दिया गया ताकि वो अपने हिसाब से उस की सिलाई करवा सकें और इस के बाद दुल्हन के लिये कोई कपड़ा नहीं ख़रीदा गया।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ दूल्हे के कपड़े :
࿐ दूल्हे के लिये जो कपड़े लिये गये उन में कोट, शेरवानी या कोई क़ीमती सूट, बूट वग़ैरह कुछ भी नहीं था बल्कि फ़क़त एक जुब्बा पजामा और एक इमामा था।
࿐ इन सब में जो ख़र्च आया वो इतना था कि जितने में आज कल की शादियों में दूल्हे का जूता भी नहीं आता।
࿐ घर वालों के लिये कपड़े : लड़के के घर में माँ बाप, भाई बहन किसी के लिये भी कपड़े नहीं लिये गये, एक रूमाल तक नहीं! रिश्तेदारों के लिये कपड़े : किसी रिश्तेदार के लिये भी कोई कपड़ा नहीं लिया गया।
࿐ निकाह के दिन कपड़ों की लेन देन : खास निकाह के दिन भी कपड़ों की लेन देन का रिवाज आम तौर पर देखने को मिलता है, निकाह से पहले लड़की वाले दूल्हे को कपड़े पेश करते हैं जिस पर निकाह होता है और कपड़े ही नहीं बल्कि ऊपर से नीचे तक का पूरा सामान होता है फिर लड़के वाले भी एक टोकरी में दुल्हन के लिये कई चीज़ें पेश करते हैं।
࿐ इस निकाह में निकाह के दिन बस लड़की के लिये एक नक़ाब, एक हिजाब, चप्पल और चूड़ियाँ दी गयी बाक़ी निकाह तक और किसी किस्म की कोई लेन देन नहीं हुई।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ निकाह होता है ज़ुहर के वक़्त निकाह हुआ, निकाह से पहले मुख़्तसर महफ़िले नात का एहतिमाम किया गया जिस में बड़ी सादगी के साथ नातो मनक़बत के अश'आर पढ़े गये।
࿐ बरातियों के लिये नाश्ते और खाने का इंतिज़ाम किया गया था और फिर मग़रिब के बाद रुख़्सती हुयी।
࿐ लड़की विदा होती है विदाई के वक़्त भी कई किस्म की रस्में आवाम में राइज हैं जिन में से कुछ तो बेहयाई से भरी होती हैं पर अल्लाह त'आला की तौफ़ीक़ से इस निकाह में ऐसी कोई रस्म अदा नहीं की गयी।
࿐ विदाई के वक़्त लड़की के वालिद ने मुझ से कुछ बातें कही जो कुछ यूँ थी कि : बेटा! जब मै आपको देखने आया था तो आपकी बातों से मै बहुत मुतास्सिर हुआ और यही वजह है कि इतनी दूर अपनी शहज़ादी को भेज रहा हूँ और फिर अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथों में थमा दिया (उस वक़्त उनकी खामोशी गोया कह रही थी कि अब मै अपने जिगर के टुकड़े को तुम्हारे हवाले कर रहा हूँ, इसका ख्याल रखना.....)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ विदाई के वक़्त रोना धोना जब लड़की घर से जाने लगती है तो देखा जाता है कि घर वाले रोने लगते हैं, ये एक क़ल्बी मैलान और एक लगाव की वजह से भी होता है जो अपनी बेटी या बहन से होता है लेकिन ग़ौर करें तो जिस तरह आज कल रोने धोने का रिवाज है इस में देखा गया है कि रोने को लाज़मी समझते हैं और बाज़ देहातों में तो मातम की महफ़िल लग जाती है जिस में वो औरतें भी आ कर नोहा कर रही होती हैं जिन का लड़की से दूर दूर तक का कोई रिश्ता नहीं होता।
࿐ अगर ग़ैर इख्तियारी तौर पर रोना आ जाये तो इस पर कोई कलाम नहीं लेकिन तकल्लुफ़ के साथ रोना मुनासिब नहीं और पहले ज़माने में जो शादियाँ होती थी उन के बारे में पढ़ें तो बहुत ज़्यादा ऐसा कुछ रोने रुलाने का ज़िक्र नहीं मिलता जिस से मालूम होता है कि ये बर्रे सगीर (हिन्दुस्तान और पाकिस्तान) में ज़्यादा राइज है।
࿐ इस निकाह में विदाई के वक़्त किसी को रोते रुलाते नहीं देखा गया जिस से बाज़ लोगों को बड़ी हैरानी भी हुई, विदाई बहुत ही पुर सुकून अंदाज़ में हुयी जो कि बहुत कम देखने को मिलती है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ कहाँ लिखा है कि सुन्नत है?
࿐ विदाई के वक़्त किसी ने लड़की के भाई से कहा कि आप दूल्हे से गले मिलें और कहें कि मेरी बहन का ख्याल रखना, उसे तकलीफ़ ना देना वग़ैरह नसीहत करें कि ये सुन्नत है तो लड़की के भाई ने फौरन कहा कि पहले तो साबित किया जाये कि ये सुन्नत है!
࿐ इतना सुनना था कि सामने से कहने वाला खामोश हो गया। ऐसा अक्सर होता है कि कई बातों को लोग सुन्नत से ताबीर कर देते हैं हालाँकि सुन्नत में उस की कोई अस्ल नहीं होती।
࿐ अगर कोई ये कहे कि हर एक बात को इस तरह पकड़ कर सख़्ती करने की क्या ज़रूरत है तो हम कहेंगे कि बहुत ज़रूरी है, सख़्ती ना करने का और आज़ाद छोड़ देने का ही नतीजा है कि निकाह में इतनी ज्यादा चीज़ें घुस आयी हैं और इसे मुश्किल से मुश्किल बना दिया है।
࿐ सादगी से निकाह का यही मतलब है कि हम वाक़ई उसे सादगी से करें, ऐसा ना हो कि बस नाम हो कि हमने सादगी से निकाह किया और उस में लाखों रूपये खर्च कर दें और छोटी छोटी बात कह कर रस्मों को अदा करें।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ निकाह में सजावट (डेकोरेशन)
࿐ शादियों में सजावट भी एक बड़े ख़र्च वाला काम है, एक शादी में लाख रूपये के क़रीब सिर्फ़ सजावट में लग जाते हैं!
࿐ घर की सजावट, गाड़ी की सजावट और फिर लोगों को खाना खिलाने के लिये पंडाल (Tent) वग़ैरह का इंतिज़ाम करने में लाख रुपये का खर्च आ ही जाता है और फिर कुछ लोग तो मेहंदी के लिये अलग सजावट, हल्दी के लिये अलग सजावट और निकाह के लिये अलग करते हैं और शादी में आये लोगों के लिये एक खास जगह तैय्यार की जाती है जहाँ वो तस्वीरें (Selfies) ले सकें।
࿐ इस निकाह में मैने अपने घर को या गाड़ियों को बज़ाहिर नहीं सजाया, इस में एक रूपये भी खर्च नहीं किये लेकिन असल में यही वो सजावट है जिसे सादगी कहते हैं, जहाँ आसानी होती है और सुकून होता है। लड़की वालों ने भी मियाना रवी के साथ शामियाने वग़ैरह का इंतिज़ाम किया था और घर को भी काबा नहीं बनाया था!
࿐ इस जुमले "काबा नहीं बनाया था" पर हज़रते सलमान फ़ारसी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु के निकाह से मुतल्लिक़ एक रिवायत यहाँ नक़्ल कर देना मुनासिब मालूम होता है, क़ारिईन मुलाहिज़ा फ़रमायें :
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ हज़रते सलमान फारसी का निकाह हज़रते सलमान फारसी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु का निकाह है......., बारात में आपके दोस्त अहबाब भी दुल्हन के घर चले......., घर पहुँचे तो आप रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने इनसे फरमाया : "अल्लाह त'आला आप लोगों को जज़ा -ए- खैर अता फ़रमाये, अब आप लोग लौट जायें" और घर के अंदर ना जाने दिया जिस तरह कि बेवकूफ लोग अपने दोस्तों को ज़ौजा के घर दाखिल कर लेते हैं।
࿐ जब आप रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने घर खूब सजा धजा देखा तो फरमाने लगे कि तुम्हारे घर को बुखार आ गया है या काबा शरीफ यहाँ मुन्तक़िल हो गया है? अहले खाना ने कहा कि ऐसा नहीं है, फिर आप रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने दरवाज़े पर लटके पर्दे के सिवा सारे पर्दे उतरवा दिये फिर अंदर दाखिल हुये और वहाँ बहुत सारा सामान देखा तो पूछा कि इतना समान किस लिये है? घर में मौजूद लोगों ने कहा कि ये आपके और आपकी ज़ौजा के लिये है।
࿐ आपने फरमाया : मुझे मेरे खलील मुहम्मद ﷺ ने ज़्यादा मालो दौलत जमा करने की नहीं बल्कि इस बात की नसीहत फ़रमायी थी कि तुम्हारे पास दुनियावी माल सिर्फ इतना हो जितना मुसाफिर का ज़ादे राह होता है। फिर आप ने वहाँ एक खादिम को देखा तो पूछा कि ये किस के लिये है? घर वालों ने कहा कि ये आप की और आप की अहलिया की खिदमत के लिये है। आप ने फ़रमाया : मुझे मेरे खलील ﷺ ने खादिम रखने की नसीहत नहीं फ़रमायी बल्कि सिर्फ उसे रोकने का फ़रमाया जिस से मै निकाह करूँ और फ़रमाया कि अगर तुम ने (अपने सुसराल वालों से) मज़ीद कुछ लिया तो तुम्हारी औरतें तुम्हारी नाफ़रमान हो जायेंगी और इसका गुनाह खाविन्द (हसबेण्ड) पर होगा और औरतों के गुनाह में भी कोई कमी नहीं होगी!
࿐ फिर आप रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने वहाँ मौजूद औरतों से फरमाया कि तुम सब यहाँ से जाओगी या यूँ ही मेरे और मेरी बीवी के दरमियान आड़ बनी रहोगी? वो बोलीं कि हम चले जायेंगे। जब आप अपनी बीवी के पास गये तो फ़रमाया : जो मै कहूँगा मानोगी? बीवी बोली : जी हाँ! मै आप की इता'अत करूँगी।
࿐ फिर आप ने फ़रमाया : मुझे मेरे खलील ﷺ ने नसीहत फरमायी है कि जब अपनी बीवी के पास जाओ तो उसके साथ मिल कर अल्लाह त'आला की इबादत करो। फिर दोनो मियाँ बीवी उठे और जब तक हो सका अल्लाह त'आला की इबादत में मसरूफ़ रहे, उसके बाद हक़ -ए- ज़ौजियत अदा किया।
(ملخصاً و ملتقطاً: حلیة الاولیاء و طبقات الاصفیاء، اردو ترجمہ بہ نام اللہ والوں کی باتیں، ج1، ص348، 349، ط مکتبة المدینة کراچی، س1434ھ)
࿐ काश कि हम भी अपने निकाह में दुनिया की रंगीनियों को छोड़कर सुन्नत -ए- मुस्तफ़ा की सादगी को अपनायें। अल्लाह त'आला हमें इस की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ सेहरा
࿐ मैने सेहरा भी नहीं पहना था, सर पे इमाम था, आज कल दूल्हे का सेहरा बनाने में भी हज़ारों रूपये खर्च हो जाते हैं जिस का कोई फ़ायदा नज़र नहीं आता और फिर सेहरे को लेकर बड़ी अजीब अजीब रस्में भी अदा की जाती हैं जिसकी कुछ तफ्सील आइये इन सवालों में देखते हैं जो उलमा -ए- अहले सुन्नत के पास भेजे गये, चुनाँचे बहरुल उलूम, हज़रते अल्लामा मुफ़्ती अब्दुल मन्नान आज़मी रहीमहुल्लाहु त'आला से सवाल किया गया कि शादी होने वाले नोशा को सेहरा बाँधने से क़ब्ल पाँच लोगों के सर में सेहरा को टेक कर फिर नोशा को बाँधना कैसा है? बल्कि मैने पीरे तरीक़त को ऐसा करते हुये देखा है और उन पर क्या हुक्म है? आप रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि दूल्हा को फूल का सेहरा पहनना जाइज़ है (बहारे शरीअत) बाक़ी ये तफ़्सील के किस तरह पहने और कौन पहनाये और पहनने से पहले किसी और को छुलाये या ना छुलाये इसकी तफ़्सील नज़र से नहीं गुज़री, आप ने जो तफ़्सील ज़िक्र की अगर इस से मक़्सद नेक फाली हो तो हर्ज नहीं और इस को ज़रूरी समझना या इस से कोई ग़लत निय्यत हो तो मम्नूअ होना चाहिये।
(فتاوی بحر العلوم، ج5، ص359)
࿐ फ़तावा फैज़ुर्रसूल में सवाल हुआ कि क्या सेहरा बाँधना जाइज़ है? और जो देवबंदियों ने इसे शिर्क लिखा है वो कैसे? जवाब : उलमा -ए- अहले सुन्नत के नज़दीक शादी में फूलों का सेहरा बाँधना जाइज़ है और देवबंदियों का इसे शिर्क लिखना उनकी जहालते क़दीमा है।
) فتاوی فیض الرسول، ج2، ص491)
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࿐ सेहरा
࿐ फ़तावा ख़लीलिया में सवाल है कि शादी बियाह में नोशा को सेहरा बाँधना जाइज़ है या नहीं? जवाब : खुशबू लगाना सुन्नत है और खुशबू की चीज़ें फूल पत्ती वग़ैरह हुज़ूर ﷺ को पसंद हैं तो फूलों का हार पहनने और गले में डालना खुशबू से फ़ायदा लेना और दूसरों को फाइदा पहुँचाना है इस के नाजाइज़ होने की कोई वजह नहीं और जो नाजाइज़ कहे अगर सच्चा है तो बताये अल्लाह रसूल ने इस से कहाँ मना किया है।
(فتاوی خلیلیہ، ج2، ص71)
࿐ इसी की तीसरी जिल्द में एक सवाल है कि शादी के मौके पर दूल्हे के सर पे सेहरा बाँधना और बाज़ू में धागा और कुछ मोतियाँ वग़ैरह बाँधना कैसा है? जवाब : खुशबू लगाना सुन्नत है और खुशबू की चीज़ें फूल पत्ती वग़ैरह हुज़ूर ﷺ को पसंद हैं, फ़रमाते हैं ﷺ कि : حب الی من دنیاکم النسا والطیب (الحدیث) यानी तुम्हारी दुनिया में से दो चीज़ों की मुहब्बत मेरे दिल में डाल दी गई "निकाह और खुशबू" और कुतुबे हदीस में वारिद कि हुज़ूर ﷺ खुशबू की चीज़ को रद्द ना फ़रमाते थे। (अबू दाऊद)
࿐ बल्कि मुसलमानों को हुक्म दिया कि जिस के सामने खुशबू, फूल पत्ती वग़ैरह पेश की जाये तो इसे रद्द ना करें कि इस का बोझ हल्का और बू अच्छी है (मुस्लिम) तो सेहरा कि सर पर बाँधे या हार कि गले में पहने, इन में फूलों से इसी क़द्र ज़ाइद है कि इन्हें एक डोरे में पिरो लिया है और गले में डालना या सर पर बाँधना, वही खुशबू से खुद फाइदा लेना और दूसरों को फ़रहत पहुँचाना है तो इस क़द्र से मुमानिअत या हुरमत या नाजवाज़ी कहाँ से आ गयी लिहाज़ा जाइज़ है।
࿐ और जो इसे नाजाइज़ कहता है शरीअते मुतहरा पर इफ्तिरा करता है अगर सच्चा है तो बताये कि अल्लाह व रसूल ने इसे कहाँ मना किया है और जब अल्लाह व रसूल ने मना ना फ़रमाया तो दूसरा अपनी तरफ़ से मना करने वाला कौन है, शर'अ किसी की ज़ुबान का नाम नहीं कि जिसे चाहे आदमी बज़ोरे ज़ुबान, बे दलीले शरई हराम कह दे।
࿐ सेहरा ना शरअन मम्नूअ है ना शरअन ज़रूरी व मुस्तहब बल्कि एक दुनियावी रस्म है।
࿐ की तो क्या, ना की तो क्या? अलबत्ता नलकियों और पन्नी वाले सेहरे हारू वग़ैरह पहनना या इस्तिमाल करना मम्नूअ है कि मुशरिकीन से मुशाबिहत का शैबा पाया जाता है।
(فتاوی خلیلہ ،ج3، ص237)
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࿐ सेहरा
࿐ हज़रते अल्लामा मुफ़्ती अजमल क़ादरी रहीमहुल्लाहु त'आला से सेहरे के मुतल्लिक़ सवाल किया गया कि सेहरा बाँधना जाइज़ है? आप रहीमहुल्लाहु त'आला जवाब में लिखते हैं कि इस मसअले में जवाब से पहले ये मुनासिब समझता हूँ कि चन्द शरीअत के ज़रूरी उमूर और जो मिस्ले मुक़द्दमात हैं, हदिया -ए- नाज़िरीन करूँ ताकि इस मसअले के समझने में आसानी हो जाये और इसी के लिये ही नहीं बल्कि दीगर मसाइल के लिये भी ये उसूल इंशा अल्लाह कार आमद साबित होंगे।
࿐ (1) शरीअत में बाज़ अहकाम बिस्सराहत क़ुरआनो हदीस में ज़िक्र किये गये हैं कि जिन से बाज़ का हराम होना, बाज़ का हलाल होना मालूम हो गया मस्लन गाय की हिल्लत और खिंज़ीर की हुरमत और दूसरी किस्म में वो अहकाम हैं कि जिन का ना ज़ाहिरन हलाल होना मालूम हो ना उन का सराहतन हराम होना साबित हो यानी शरीअत ने उनकी हिल्लत व हुरमत (यानी हलाल होने या हराम होने पर) जवाज़ और अदमे जवाज़ (यानी जाइज़ या नाजाइज़ होने पर) सुकूत फ़रमाया है,इनके करने ना करने की बहस ही ना की लिहाज़ा पहले तो इस अम्र का सुबूत पेश करना ज़रूरी है कि आया शरीअत में वाक़यी कुछ ऐसे उमूर हैं जिन के लिये सुकूत इख्तियार किया गया, ज़ाहिरन इनका कोई हुक्म ना फ़रमाया तो इस मज़मून के लिये एक दो हदीस नहीं बल्कि मुतअद्दिद अहादीस ऐसी मिलती हैं जिन से फुक़हा -ए- किराम ने क़वाइद का इस्तिम्बात किया। चुनाँचे तिर्मिज़ी शरीफ़ में हज़रते सलमान फ़ारसी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया : الحلال ما احل اللہ فی کتابہ والحرام ما حرم اللہ فی کتابہ و ما سکت عنہ فھو مما عفا عنہ यानी हलाल वो है जो खुदा ने अपनी किताब में हलाल किया और हराम वो है जो अल्लाह ने अपनी किताब में हराम बताया और जिस का ज़िक्र ना फ़रमाया वो अल्लाह त'आला की तरफ़ माफ़ है यानी उस के फेल पर कुछ मुवाखिज़ा नहीं उसका इंकार करना हमारे लिये बाइसे अज़ाब नहीं।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ सेहरा
࿐ इसी मज़मून की तस्दीक़ आयाते क़ुरआनी में मौजूद है, अल्लाह त'आला फ़रमाता है : ऐ ईमान वालों! वो बातें ना पूछो कि अगर तुम पर खोल दी जायें तो तुम्हें बुरा लगे और अगर क़ुरआन उतरते वक़्त पूछोगे तो तुम पर ज़ाहिर कर दी जायेंगी, अल्लाह ने अव्वल से माफ़ फ़रमायी हैं, अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है।
࿐ दारक़ुत्नी में रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया : ان اللہ فرض فرائض فلا تضیعوھا و حرم حرمات فلا تنتھکوھا وحد حدود افلا تعتدوھا و سکت عن اشیاء من غیر نسیان فلا تبحثوا عنھا बेशक अल्लाह त'आला ने कुछ बातें फ़र्ज़ की उन्हें हाथ से ना दो और कुछ हराम फरमायी उनकी हुरमत ना तोड़ो और कुछ हदें बाँधी उनसे आगे ना बढ़ो और कुछ चीज़ों से बे भूले सुकूत फ़रमाया उन में कविष ना करो।
࿐ लिहाज़ा इन से साबित हुआ कि बहुत सी बातें ऐसी हैं कि अगर उनका हुक्म देते तो लाज़िम हो जाती और बहुत सी ऐसी कि मना फ़रमाते तो मम्नूअ हो जाती फिर बंदा उन्हें छोड़ता या करता गुनाह में पड़ता, उस मालिक मेहरबान ने अपने अहकाम में इसका ज़िक्र ना फ़रमाया और ये कुछ भूल कर नहीं कि वो भूल और ऐब से पाक है बल्कि हम पर मेहरबानी के लिये कि ये मशक़्क़त में पड़ें यहाँ तक कि आयते मज़कूरा में फ़रमाता है कि तुम अभी इसकी छेड़ ना करो कि पूछोगे तो हुक्म मुनासिब दिया जायेगा और तुम को दिक़्क़त व दुश्वारी होगी तो इस आयत और दोनों हदीसों से आफताब की तरह रौशन हो गया कि बाज़ वो चीज़ें हैं कि जिन के लिये शरीअत में सुकूत इख्तियार फ़रमाया गया है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ सेहरा
࿐ अब ये अम्र ग़ौर तलब है कि जिन चीज़ों के लिये शरीअत ने सुकूत इख्तियार फ़रमाया है वो जाइज़ हैं या नाजाइज़ तो उनका हुक्म ज़िम्नन इस आयत व हदीस से मालूम हो चुका है कि इनका करना माफ़ी का हुक्म रखता है और हम इन में से किसी को करें तो हम पर कोई मुवाखिज़ा नहीं लिहाज़ा ये सराहतन साबित हुआ कि अस्ल चीजों में मुबाह होना है चुनाँचे मुल्ला अली क़ारी रहीमहुल्लाहु त'आला मिरक़ात शरह मिश्कात में पहली हदीस के मुतल्लिक़ इफ़ादा फ़रमाते हैं : فیہ ان الاصل فی الاشیاء الاباحۃ इस हदीस से साबित हुआ कि असल सब चीज़ों में मुबाह होता है और शैख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिसे द्हेल्वी मिश्कात की शरह अश'अतुल लम'आत में फ़रमाते हैं : این دلیل است برآنکہ اصل در اشیاء اباحت است यानी ये हदीस दलील इसकी है कि असल चीज़ों में मुबाह होना है।
࿐ बिलजुमला क़ुरआनो हदीस से जिसकी भलाई या बुराई साबित हो वो भली या बुरी है और जिस चीज़ की निस्बत कुछ भलाई बुराई का सुबूत ना हो वो माफ़, जाइज़, मुबाह, रवा है, उसके करने पर सवाब नहीं और ना करने पर अज़ाब नहीं होता, हम को इख्तियार है कि अगर चाहें तो कर सकते हैं और अगर ना करें तो हर्ज भी नहीं, इस का फ़ेल ना हमारे ज़िम्मे ज़रूरी और इस का तर्क ना हमारे लिये हतमी व लाज़मी।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ शरीअत में किसी चीज़ के जाइज़ होने के लिये ये ज़रूरी नहीं कि उस को हुज़ूर ﷺ या सहाबा -ए- किराम या ताबईने इज़ाम रिदवानुल्लाह त'आला अजमईन खुद करें या किसी को हुक्म दें जब ही वो चीज़ जाइज़ होगी वरना नाजाइज़ बिदअत शिर्क है, इमाम अल्लामा अहमद बिन मुहम्मद क़स्तलानी मवाहिबे लदुनिया शरीफ़ में फ़रमाते हैं : الفعل یدل علی الجواز و عدم الفعل لا یدل علی المنع यानी किसी चीज़ का करना तो उसके जाइज़ होने की दलील है और उस का ना करना मुमानिअत की दलील नहीं, नीज़ शाह अब्दुल अज़ीज़ साहिब मरहूम व मग़फ़ूर तोहफ़ा अस्ना अशरिया में लिखते हैं : نہ کردن چیزے دیگر است و منع فرمودن چیزے دیگر लिहाज़ा अगर कोई चीज़ कुरुने सलासा (शुरू के तीन ज़मानों में यानी हुज़ूर ﷺ का ज़माना, सहाबा का और ताबईन के ज़माने) में किसी ने नहीं की तो वो नाजाइज़ नहीं होगी और इस का ना करना दो वजह से हो सकता है या उनके पाक मशागिल ज़रूरियात की ही तकमील के लिये हो, मुबाहात से एहतियातन परहेज़ किया हो या ये फैले मुबाह उस ज़माने में मौजूद ही ना हो, उनके ज़माने के बाद पैदा हुआ हो तो अब इस पर क्या दलील है कि उन्होंने इस फैल को नाजाइज़ होने की वजह से नहीं किया।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ हासिल कलाम कि इन तीनो उमूर पर ताम्मुल करने के बाद हर नाज़िर को बग़ैर किसी पोशीदगी और खिफ़ा के मालूम हो जायेगा कि ये सेहरा जाइज़ है कि क़ुरआनो हदीस में ना इस का सराहतन हुक्म है ना सराहतन मुमानात, बल्कि शर'अ ने इसके बारे में सुकूत फ़रमाया है तो ये दूसरे नंबर के ऐतबार से मुबाह, जाइज़, रवा हुआ जैसे किसी हाजत के लिये बुखारी शरीफ़ का ख़त्म करवाना, निहायत लज़ीज़ लज़ीज़ तरह तरह की ग़िज़ायें पुलाव बिरयानी खशका गिलानी वग़ैरह खाना, बहुत उम्दा लिबास नये नये वज़ा के पहनना, कपड़े के लिये नई तराश उचकनें और सदरियाँ और क़मीस ज़ेब तन करना, दूल्हा को जामा पहनाना, दुल्हन को पालकी में बैठाना और इस के अलावा विलायती बनी चीज़ों का इस्तिमाल करना, क्या मना करने वालों की ज़ुबान का नाम शरीअत है? अगर अपने क़ौल के सच्चे और बात के पक्के हैं तो बतायें कि इन चीज़ों का इस्तिमाल जो रात दिन करते देखते हैं और खुद भी करते हैं तो क्या ये जाइज़ बिदअत नहीं, क्या इनका जाइज़ होना किसी आयत व हदीस से साबित है, क्या इनके लिये कोई नस वारिद हुयी है कि इनको मिस्ले फ़र्ज़ो वाजिब समझ कर किया करो?
࿐ अगर नहीं है तो सब पर बिदअत व गुमराही का हुक्म क्यों नहीं देते? वाह रे दिलेरी, अल्लाह त'आला उनको हमारे लिये मुबाह फ़रमाये और तुम बिदअत व शिर्क का हुक्म लगा कर अल्लाह त'आला और हुज़ूर ﷺ पर तोहमत और इफ्तिरा बाँधो, ज़रा खुदा से डरो।
࿐ शरीअत का ये क़ाइदा है कि किसी चीज़ के जाइज़ होने के लिये दलील की ज़रूरत नहीं क्योंकि ये साबित हो चुका कि अस्ल अशिया में इबाहत है, हाँ नाजाइज़ होने के लिये दलील की ज़रूरत है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ चुनाँचे अल्लामा अब्दुल ग़नी नबूलूसी फ़रमाते हैं : لیس الاحتیاط فی الافتراء علی اللہ تعالیٰ باثبات الحرمۃ او الکراھۃ الذین لا بد لھما من دلیل بل فی الاباحۃ التی ھی الاصل यानी ये कुछ एहतियात नहीं कि किसी चीज़ को हराम या मकरूह कह कर खुदा पर इफ्तिरा करो कि हुरमत व कराहत के लिये दलील दरकार है बल्कि एहतियात इस में है कि इबाहत मानी जाये कि अस्ल वही है।
࿐ नीज़ इस मज़मून के मवाकिफ़ मुल्ला अली क़ारी फ़रमाते हैं कि और इस में बहुत सी सराहत से इस बहस का ख़ातिमा कर दिया : من المعلوم ان الاصل فی کل مسئلۃ ھو الصحۃ و اما القول بالفساد والکراھۃ فیحتاج الی حجۃ من الکتاب او السنۃ او اجماع الامۃ यानी यक़ीनी बात है कि अस्ल हर मसअले में सेहत है और फसाद या कराहत मानना ये मोहताज इसका है कि क़ुरआन शरीफ़ या हदीस या इज्मा -ए- उम्मत से उस पर दलील क़ाइम की जाये।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ इन अक़वाल से साबित हो गया कि जाइज़ कहने वाले को दलील पेश करने की ज़रूरत नहीं, नाजाइज़ कहने वाले पर दलील का पेश करना लाज़मी व ज़रूरी है लिहाज़ा अगर तुम सेहरा बाँधना नाजाइज़ कहते हो तो क़ुरआनो हदीस से साबित करो कि सेहरा बाँधना नाजाइज़ है और कौन सी आयत व हदीस में सराहरन सेहरा बाँधने वाले को गुनाहगार और सेहरे को बिदअत से गिनाया है, वल्लाह तुम हरगिज़ ना दिखा सकोगे तो मुसलमानों में क्यों फसाद पैदा करते हो।
࿐ अब रहा सेहरा का हिन्दुओं के सेहरे मुशाबेह होना तो इस अम्र का समझना ज़रूरी है कि कौन सा तशब्बो कुफ़्फ़ार के साथ मम्नूअ है, दुर्रे मुख़्तार में बहरुर राइक़ से मंक़ूल है : التشبہ بھم لا یکرہ فی کل شیء بل فی المذموم و فی ما یقصد بہ التشبہ यानी कुफ़्फ़ार से तशब्बो हर चीज़ में मकरूह नहीं बल्कि बुरी बात में और वहाँ कि उस में मुशाबिहत का क़स्द किया जाये लिहाज़ा ना किसी के सेहरा बाँधते वक़्त ये निय्यत होती है कि इस में कुफ़्फ़ार से मुशाबिहत की जा रही है, ना खुद सेहरा मम्नूअ है बल्कि इस का मुबाह होना साबित हो चुका तो फिर ख्वाहमख्वाह कहाँ से तशब्बो बिल हिनूद हो गया, इलावा बारी'न उनके सेहरे में और मुसलमानों के सेहरे में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है कि उनके सेहरे में पन्नी, नल्की, गोता वग़ैरह होता है और मुसलमानों के यहाँ सिर्फ फूलों को ले कर एक डोरे में पिरो लिया जाता है तो ज़रा इंसाफ से खुदा को समी'अ व बसीर समझ कर कहना कि आया अब भी मुसलमानों के सेहरे को हिन्दुओं के सेहरे से मुशाबिहत हो गयी और अगर फिर आप तशब्बो साबित करें तो आप के अँगरखे, उचकन, सदरी वग़ैरह तमाम कुफ़्फ़ार से मुशाबे हो गये तो इन तमाम को भी नाजाइज़ कहिये।
࿐ खुलासा जवाब का ये है कि फूलों का सेहरा बग़ैर पन्नी, नल्की, गोता ना शर'अन मम्नूअ ना शर'अन वाजिब या मुस्तहब बल्कि जाइज़ व मुबाह व रवा है, अगर किसी ने बाँधा तो उस को सवाब नहीं मिलता और किसी ने नहीं बाँधा तो इस में अज़ाब नहीं, जो कोई इसे हराम गुनाह बिदअत, ज़लालत बताये वो सख्त झूठा बरसरे बातिल और जो इसे ज़रूरी व लाज़िम और तर्क को शर'अन मोजिबे तश्नी जाने वो निरा जाहिल। (فتاوی اجملیہ، ج3، ص371)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ सेहरा
࿐ ये तहक़ीक़ जो सेहरे के मुतल्लिक़ बयान की गयी इस में ये साबित किया गया है कि सेहरा अगर फ़ूलों का बाँधा जाये तो ये एक मुबाह अमल है यानी ये कोई ज़रूरी नहीं और ना कोई सवाब का काम है और इसे छोड़ने पर यानी ना बाँधने पर कोई गुनाह भी नहीं, इतनी तफ़्सील इसीलिये बयान की गयी ताकि लोग इसकी अस्ल हैसियत को जाने और जो बदमज़हब इसे हद्द से बढ़कर नाजाइज़ व बिदअत बल्कि शिर्क तक कह जाते हैं उनके क़ौल का रद्द किया गया है। अगर निकाह में फ़ूलों का सेहरा पहना जाये तो इस में शरअन कोई हर्ज नहीं, उलमा -ए- अहले सुन्नत ने इस का जाइज़ होना साबित किया है लेकिन साथ ही ये भी बयान किया है कि सिर्फ़ फ़ूलों का सेहरा हो और इसे लाज़िमो ज़रूरी ना समझा जाये।
࿐ इन बातों का लिहाज़ करते हुये दूल्हे का सेहरा पहनना मुबाह है, आइये इस पे मज़ीद कुछ तफ़्सील नक़्ल करते हैं ताकि ये एक तहक़ीक़ी बहस हो जाये और सेहरे के ताल्लुक़ से इस क़द्र तफ़्सील आपको कहीं और नहीं मिलेगी (अल्लाह त'आला की तौफ़ीक़ से हमने इसे इस रिसाले में जमा किया है।)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ मलकुल उलमा, हज़रते अल्लामा मुफ़्ती ज़फ़रुद्दीन क़ादरी रहीमहुल्लाहु त'आला से सेहरे के मुतल्लिक़ सवाल किया गया कि सेहरा बाँधना दुरुस्त है या नहीं? आप लिखते हैं कि सेहरा सिर्फ़ फूलों का हो तो जाइज़ है।
(لعدم المانع والان الاصل فی الاشیاء الاباحۃ)
࿐ वहाबिया का इस को नाजाइज़ ठहराना, तशब्बो बिल कुफ़्फ़ार बताना महज़ जहालत व ख़्याले खाम है, जो अम्र फ़ी नफ़्सिही शरअन मज़मूम ना हो उस में बिला क़स्द मुशाबे होना मना नहीं है बल्कि इस निय्यत से करना कि कुफ़्फ़ार की सी शक्ल पैदा हो या अगर्चे इरादा ना करें मगर वो फ़ेल खुद शियारे कुफ़्फ़ार हो जिस से जिस से वो पहचाने जाते हों तो नाजाइज़ है और इस की बाज़ सूरतों पर "जिस ने किसी क़ौम से मुशाबिहत इख्तियार की तो वो उन्हीं में से है" भी सादिक़ वरना अगर मुत्लक़न इश्तिराक मोजिबे मुमानिअत हो तो अंगरखा, कुर्ता, टोपी पहनना वग़ैरह वग़ैरह भी हराम हो जायें कि ये सब हिनूद भी पहनते हैं मगर जिस तरह वहाँ पर्दे का फ़र्क़ किफ़ायत करता है, यहाँ भी शिआर ना होना काफी है, दुर्रे मुख़्तार में है : التشبہ بھم لا یکرہ فی کل شیء بل فی المذموم و فیما یقصدبہ التشبیہ (فتاوی ملک العلماء، ص474)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ सेहरा
࿐ सदरुश्शरिया, हज़रते अल्लामा मुफ़्ती अमजद अली आज़मी रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि सेहरा बाँधने में कोई हर्ज नहीं जब कि इस किस्म का सेहरा ना हो जो खास हिन्दुओं की रस्म है।
(فتاوی امجدیہ، ج4، ص45)
࿐ मलफूज़ाते आला हज़रत में है के खाल फूलों का सेहरा बाँधना जाइज़ है।
(ملفوظات اعلی حضرت، ص97)
࿐ वक़ारे मिल्लत, हज़रते अल्लामा मुफ़्ती वक़ारुद्दीन क़ादरी रहमतुल्लाह त'आला से सेहरे के मुतल्लिक़ सवाल किया गया, जवाब में आप लिखते हैं कि सेहरा बाँधना मुसलमानों में शादी की रस्म है और रस्मों के बारे में क़ानून ये है कि जिन रस्मों की मुमानिअत क़ुरआनो हदीस में आ गयी वो रस्में नाजाइज़ हैं और जिन की मुमानिअत क़ुरआनो हदीस में नहीं आयी वो जाइज़, सेहरे की मुख़ालिफ़त पर कोई दलील नहीं है, लिहाज़ा जाइज़ है।
(وقار الفتاوى، ج1، ص350)
࿐ एक और सवाल के जवाब में आप लिखते हैं कि शादी में फूलों का सेहरा बाँधना जाइज़ है, शरीअत का क़ाइदा ये है कि "अस्ल अशिया में इबाहत है" यानी अशिया में अस्ल जवाज़ है चुनाँचे क़ुरआनो हदीस में जब तक किसी चीज़ की मुमानिअत ना हो उस वक़्त तक वो जाइज़ है, मुमानिअत होने के बाद वो नाजाइज़ हो जाती है, ये उसूल फ़िक़्ह हनफ़िया की किताबों में मुतअद्दिद जगह लिखा हुआ है। चुनाँचे अल्लामा सय्यिद मुहम्मद अमीन बिन आबिदीन (शामी) मुतवफ़्फ़ा 1252 हिजरी ने इस बात को साबित करने के लिये एक उनवान मुक़र्रर फ़रमाया है : الاصل فی الاشیاء الاباحۃ बल्कि हदीस में भी ये बात है जो कि मिश्कात में है : فما احل فھو حلال و ما حرم فھو حرام وما سکت عنہ فھو عفو (مشکوٰۃ المصابیح، باب ما یحل اکلہ و ما یحرم، الفصل الثالث، ص362) यानी जिस को अल्लाह त'आला ने हलाल फ़रमाया वो हलाल है और जिसे हराम क़रार दिया वो हराम है और जिस चीज़ के बारे में सुकूत फ़रमाया वो माफ़ है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ हज़रते अल्लामा कहफुल वरा मिस्बाही सेहरे के मुतल्लिक़ लिखते हैं कि फूलों का सेहरा बांधने में कोई हर्ज नहीं बल्कि इस के ज़रिये लोगों को खुशबू पहुँचा कर उनको खुश करने की निय्यत हो तो इस में सवाब भी है कि मोमिन को खुश करना सवाब का काम है। हदीसे पाक में है कि अपने मोमिन भाई को देख कर मुस्कुराना सदक़ा है यानी इस में भी सवाब है कि इस से भी क़ल्बे मोमिन की तालीफ़ होती है।
(فتاوی رضا دار الیتامی، ص407)
࿐ हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अमजद अली आज़मी एक सवाल के जवाब में लिखते हैं कि सेहरा बाँधना जाइज़ है, हाँ वो सेहरा जिस में नलकियाँ होती हैं जो ख़ास हिंदुओं में राइज है, नाजाइज़ है।
(فتاوی امجدیہ، ج4، ص11)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ सेहरा
࿐ तन्वीरुल फ़तावा में है कि शादी के मौके पर दूल्हे को जो फूलों का सेहरा बाँधते हैं अगर ये उस इलाके में ग़ैर मुस्लिम की ऐसी रस्म है कि वो उनके मज़हबी रुसूमात में शामिल हो कि देखने वाला यही समझे कि ग़ैर मुस्लिम घराने की शादी है तो वहाँ मुसलमान सेहरा बाँधने से इज्तिनाब करें ताकि ग़ैर मुस्लिमों के साथ तशब्बो ना आये और अगर उस इलाके या उर्फ़ में किसी भी मज़हब में मज़हबी रुसूमात में शामिल ना हो बल्कि उस मुआशरे में तमाम लोग (मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम) शादी के मौके पर इस को सिर्फ़ खुशी के तौर पर इस्तिमाल करते हो तो फिर जाइज़ है, कोई क़बाहत नहीं और कराहत नहीं क्योंकि अस्ल में हर चीज़ मुबाह (जाइज़) है, अगर कोई किसी चीज़ को हराम, मकरूह, फ़र्ज़, वाजिब सुन्नत या मुस्तहब का हुक्म लगाता है तो उसके मवाकिफ़ दलील लाना उस के ज़िम्मे है।
(تنویر الفتاوی،. ص91)
࿐ मज़कूरा मुकम्मल बहस को अगर आप पढ़ चुके तो ग़ौर करें कि उलमा -ए- अहले सुन्नत ने इस मसअले पे कितनी तफ़्सील से कलाम फ़रमाया है, कहने को तो ये एक छोटा मसअला है जिस पे शायद कोई इस क़द्र तवील बहस की तवक़्क़ो ना करे लेकिन इस मसअले में कई बातें आ गयी हैं जिन्हें अच्छी तरह समझना जरूरी है। हमारे पास इस पर और भी हवाले मौजूद हैं पर फ़िलहाल यहाँ इक्तिफा करते हैं।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ शादियाँ और कैमरा
࿐ कैमरे के बिना भी आज कल शादियाँ मुकम्मल नहीं होती, जब तक सैकड़ों की तादाद में दूल्हा दुल्हन की फ़ोटो ना ले ली जायें तब तक सुकून नहीं मिलता, फिर वीडियोग्राफी के नाम पर जो जो हरकतें की जाती हैं, बयान करना मुश्किल है।
࿐ फोटो और वीडियो के नाम पर बेहयाई को बढ़ावा दिया जा रहा है, वीडियो बनवा कर फिर उसकी मिक्सिंग करवाते हैं जो कि किसी फिल्म की तरह होती है, मनाज़िर के पीछे गाने चल रहे होते हैं और मनाज़िर भी ऐसे होते हैं कि हर तरफ़ बेपर्दगी नज़र आती है।
࿐ मुसलमानों को चाहिये कि इन सब बातों से निकाह को पाक करें, अल्लाह का शुक्र है कि इस निकाह में ये सब नहीं हुआ।
࿐ निकाह के वक़्त भी मैने किसी को फोटो या वीडियो लेने के लिये मुक़र्रर नहीं किया था कि तुम्हें फ़ुलाँ वक़्त फ़ुलाँ तरफ से वीडियो या फोटो लेनी है।
࿐ लड़की वालों ने भी ये सब नहीं किया, हाँ ये है कि आज कल बेश्तर लोगों के पास कैमरे वाला स्मार्टफोन है तो बाज़ लोगों ने फोटोज़ वग़ैरह ली हैं लेकिन पर्दे का एहतिमाम और सादगी ऐसी थी कि इन सब चीज़ों के लिये मौके फ़राहम नहीं किये गये, पर्दे का ज़िक्र आ गया है तो अब इस पे थोड़ी बात कर लेते हैं।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ शादियाँ और पर्दा
࿐ पर्दे की बात करें तो आज कल शादियों में ये सिर्फ शामियाने (Tent) में नज़र आते हैं और मेज़, कुर्सियों वग़ैरह में पर्दे डाल दिये जाते हैं और दूसरी तरफ़ औरतें बे पर्दा नज़र आती हैं! मर्दों और औरतों की मख़लूत (Mix) भीड़ होती है जहाँ कोई तमीज़ नहीं की जाती कि किस का किस से पर्दा करना फ़र्ज़ क़रार दिया गया है।
࿐ ये मुसलमानों की ग़ैरत कहाँ चली गयी?
࿐ अगर ये कहा जाये कि अक़्लों पे पर्दा पड़ चुका है तो ग़लत ना होगा, अफ़्सोस की बात तो ये है कि वो पढ़े लिखे लोग जो खुद को दीनदार कहते हैं, दावे करते हैं, फ़ारिगुत तहसील हैं और खवास में शुमार होते हैं वो लोग भी शादियों में सब कुछ बाला -ए- ताक़ रख कर जहालत पर उतर आते हैं, अब जब ये हाल है तो हम आवाम से क्या उम्मीद रख सकते हैं? हमने कई पढ़े लिखे लोगों के घरों की शादियों को देखा और उनके बारे में सुना तो दिल तड़प उठा कि जब ये इस तरह करेंगे तो फिर हम आवाम को किस मुँह से समझायें।
࿐ निकाह में लाखों रूपये खर्च कर के और हर तरह की रस्मों को अदा कर के कहा जाता है कि हमने सादगी से निकाह किया, दर अस्ल ये सादगी का नाम बदनाम करना है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ शादियाँ और पर्दा
࿐ इस निकाह में पर्दे का खास एहतिमाम था और वो कुछ यूँ कि औरतों और मर्दों के लिये अलग इंतिज़ाम था और अहम बात ये कि भीड़ बहुत ज़्यादा जमा नहीं की गयी थी, ज़्यादा भीड़ का होना भी एक वजह है कि हम निकाह को आसान नहीं कर पा रहे हैं, जितने ज्यादा लोग जमा होंगे उतनी ही मुश्किलें बढ़ेंगी, हर काम पेचीदा हो जायेगा और सब को समझाना नामुम्किन सी बात है।
࿐ आप खुद सोचें कि एक बाप के लिये अपने बेटे को समझाना मुश्किल हो चुका है, सालों पहले उसके पीछे लगने के बाद उसके सर पर टोपी रखवाने में कामयाबी नहीं मिल रही तो ऐसे में अगर आप सोचते हैं कि भीड़ जमा कर के सब की इस्लाह कर लेंगे और वो भी उसी दिन तो ये खुश फहमी के सिवा कुछ नहीं बल्कि उल्टा होगा या कि मुआमला आपके हाथ से निकल जायेगा, आप जितने लोगों को बुलायेंगे वो सब एक अलग ज़हन के साथ आपके मामले में भी शामिल होंगे और मुश्किलें बढ़ती चली जायेंगी।
࿐ इस निकाह में दुल्हन के लिये पर्दे का जो इंतिज़ाम था उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि बारात में 10-11 मर्द गये थे उन में से किसी ने दुल्हन का चेहरा नहीं देखा! मसाफ़त इतनी थी कि वापसी में 16 के क़रीब हम सफर में रहे और रास्ते में हमने नमाज़ पढ़ी, खाना खाया और फिर आराम भी किया लेकिन किसी ने चेहरा तक ना देखा।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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*एक 👳♀️ निकाह🧕 ऐसा भी*
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࿐ शादियाँ और पर्दा
࿐ बारात वापस घर पहुँची तो गाड़ी बिल्कुल घर के दरवाज़े पे लगायी गयी, मै गाड़ी से उतरा तो देखा सामने कुछ औरतें जमा हैं जो शायद कुछ रस्मों को अदा करना चाहती हैं लेकिन मुझे पता था कि यहाँ क्या करना है।
࿐ मैने अपनी बीवी को गाड़ी से उतारा और उसका नाम पुकारते हुये हाथ आगे बढ़ाया, उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया और फिर उसे थाम कर मै आगे बढ़ा तो सब किनारा पकड़ने लगे, मै सीधे बिना रुके कमरे तक गया और अंदर जा कर दरवाज़ा बंद कर दिया, इस तरह कई रस्मों से छुटकारा मिल गया, वैसे तो पहले से ही तम्बीह कर दी गयी थी कि ऐसी वैसी कोई रस्म अदा नहीं की जायेगी लेकिन जब कुछ लोग जमा हो जायें तो अचानक बहुत कुछ ऐसा हो जाता है कि जिसकी हमने तवक़्क़ो नहीं की होती।
࿐ दुल्हन को देखने दिखाने के बारे में जो आज कल तरीक़ा राइज है वो बहुत ग़लत है, कोई भी कहीं से भी दुल्हन को देखने चले जाता है, दूल्हे के दोस्त, उसके भाई, उसके भाई के दोस्त, रिश्तेदारों में मर्दों में कोई भी जा कर मिलने के बहाने तोहफ़े वग़ैरह देता है, हँसी मज़ाक़ तक करने लगते हैं और फिर तस्वीरें (Selfies) वग़ैरह ले कर उसे आम कर देते हैं, मैने इन सब पर ऐसी पाबंदी लगायी थी कि कोई मर्द देखने के लिये नहीं आया चाहे वो घर के लोग ही क्यों ना हों।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ शादियाँ और पर्दा
࿐ मुहल्ले बल्कि आस पास के इलाक़ों तक ये बातें होने लगी कि फुलाँ अपनी बीवी किसी को देखने नहीं दे रहा है, मैने तो मर्दों पे पाबंदी लगायी थी लेकिन ये इस तरह थी कि औरतें भी आने से पहले सोचती थीं कि देखने जायें या ना जायें, कहीं ऐसा ना हो कि हमें भी मना कर दिया जाये।
࿐ कुछ हफ्तों तक ये सिलसिला जारी रहा कि दो तीन औरतें आती और मेरी वालिदा से जा कर इजाज़त माँगती फिर मेरी वालिदा मुझे बताती फिर मेरे कहने के बाद ही कोई कमरे में दाखिल होता।
࿐ ये सब को बहुत अजीब लग रहा था, तरह-तरह की बातें होने लगी कि आखिर ये कैसा तरीक़ा है और अजीब लगना ही था कि जहाँ एक तरफ़ दुल्हन को खुले आम शादी घरों में स्टेज पर बैठा दिया जाता हो और दीदारे आम करवाया जाता हो तो ऐसे में इस तरह पर्दे की पाबन्दी देख कर अजीब लगना कोई अजब नहीं।
(आज शादी के 2 महीने मुकम्मल हो चुके हैं और मै ये लिख रहा हूँ, आज तक कोई मर्द, यहाँ तक कि क़रीबी रिश्तेदारों में भी कोई कमरे तक नहीं आया कि चलो दुल्हन को देख कर आयें)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ शादियाँ और नमाज़
࿐ निकाह और इस जैसी दूसरी महफ़िल और तक़रीब वग़ैरह में नमाज़ की अदायगी को ले कर लोग काफ़ी सुस्ती का मुज़ाहिरा करते हैं, जो हमेशा नमाज़ पढ़ते हैं वो भी ऐसे मौक़ों पे नमाज़ क़ज़ा कर देते हैं, हर चीज़ का इंतिज़ाम तो कर लेते हैं लेकिन नमाज़े के मुआमले में बे फ़िक्र नज़र आते हैं।
࿐ इस निकाह में जहाँ तक हो सका नमाज़ की अदायगी पे तवज्जो दी गयी, खास कर मै और मेरी बीवी ने कोशिश की कि नमाज़ क़ज़ा ना हो इधर से जाते वक़्त चूँकि रात का वक़्त था और सफ़र सूनसान इलाक़ों में हो रहा था, हमने आबादी वाला इलाक़ा तलाश किया लेकिन बहुत तलाश के बावजूद ना मिलने पर एक जगह जंगल के दरमियान से गुज़र रहे रास्ते पे ही क़याम किया जहाँ एक दो घर नज़र आ रहे थे और वहीं मैने नमाज़ अदा की।
࿐ वापसी के वक़्त चूँकि ठंड का मौसम था तो कोहरा (कुहासा) बहुत ज़्यादा था, इतना ज़्यादा कि आगे रास्ता भी बा मुश्किल नज़र आ रहा था तो ऐसे में हमें एक जगह गाड़ी रोक कर कुहासे के कम होने का इंतिज़ार करना पड़ा और वहीं हमने इशा की नमाज़ अदा की।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ एक क़ाबिले ज़िक्र वाकिया
࿐ बारात वापस आ रही थी, रास्ते में फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त हो गया, मैने काफी देर तक किसी मुनासिब जगह को तलाश किया फिर जब वक़्त कम बाक़ी रह गया तो मैने ड्राइवर से कहा कि गाड़ी रोक दो ताकि हम कोई भी साफ सी जगह देख कर नमाज़ अदा कर लें।
࿐ ड्राइवर ने कहा कि थोड़ी ही दूरी पर एक आबादी वाला इलाक़ा है जहाँ एक मस्जिद भी है तो आप वहीं पर नमाज़ अदा कर लीजियेगा, फिर हमारे वहाँ पहुँचने तक फ़ज्र में बहुत कम वक़्त बाक़ी रह गया था, गाड़ी जैसे ही मस्जिद के पास रुकी तो मैने अपनी बीवी को साथ लिया और हम दोनों ने मस्जिद में नमाज़ अदा की लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं होती, मुझे मस्जिद में दाखिल होने से पहले ही लगा था कि हम दोनों का एक साथ मस्जिद में जाना लोगों को अजीब लगेगा और यही हुआ कि जब हम बाहर निकले तो बाज़ लोगों के चेहरे के नक़्शे बदले हुये थे और कई तरह की बातें होने लगी थी।
࿐ एक औरत को मस्जिद में जा कर नमाज़ पढ़ता देख कुछ लोगों को काफ़ी हैरानी हुयी और होनी भी थी कि उन्होंने ऐसा पहली बार देखा था जब मेरे सामने ये बात लायी गयी तो मैने समझाना शुरू किया और फिर इसी पर बहस भी होने लगी, बिल आखिर सब को ख़ामोश होना पड़ा और मैने थोड़े सख़्त लहजे में लोगों को झिंझोड़ने की कोशिश की और फिर इसी ज़िमन में शादी को मुश्किल बनाने वाली रुसूमात का रद्द किया गया।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ मुख़ालिफ़त के लिये तैय्यार रहें
࿐ ये बता देना चाहता हूँ और कई लोगों का सवाल भी है कि जिस तरह रिवाज है उसके ख़िलाफ़ जा कर निकाह को आसान कैसे किया जाये?
࿐ यानी एक शख्स आखिर किस तरह इन चीज़ों पर पाबंदी लगाये और ये काम किस तरह किया जा सकता है?
࿐ तो मै अर्ज़ करना चाहूँगा कि अपने आप को मुख़ालिफ़त के लिये तैय्यार रखें, हर कोई आप को नहीं समझेगा तो हर किसी से उम्मीद भी ना रखें कि यही उम्मीदें तकलीफ़ का सबब बनती हैं, जो आपको समझते हैं, आपका साथ देते हैं बस उन्हें साथ लेकर अल्लाह की ज़ात पे एतिमाद रखते हुये आगे बढ़ें और मुख़ालिफ़त में चाहे कोई भी आ जाये, उसकी परवाह ना करें।
࿐ इस निकाह को मैने आसान बनाने के लिये कई मुश्किलों का सामना किया है जिन्हें सिर्फ मै और मेरा रब जानता है, कभी तो ऐसा लगा कि अब थक कर गिर जाऊँगा लेकिन अल्लाह त'आला ने मदद फ़रमायी और मै इस मक़्सद में कामियाब हुआ।
࿐ याद रखें कि आपकी मुख़ालिफ़त में वो लोग भी आ सकते हैं जिन से आप को तवक़्क़ो है कि वो आपका साथ देंगे और सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मुख़ालिफ़त करने के साथ साथ वो आपको रोकने की भी पूरी कोशिश करेंगे और आपकी राह में मसाइल पैदा करेंगे ताकि आप अपने मक़्सद को छोड़ कर फिर उसी उल्टी दौड़ में दौड़ना शुरू कर दें जिधर सब दौड़ रहे हैं।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ आप सब को राज़ी नहीं कर सकते
࿐ अगर आप चाहते हैं कि घर वालों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों वग़ैरह सब को राज़ी कर के और उनकी बातों पर अमल कर के आसानी से निकाह करें तो ये एक ख्वाब तक ही ठीक है क्योंकि आप किसी भी तरह सब को राज़ी नहीं कर सकते। हमने देखा कि लाखों रूपये खर्च करने के बाद भी लोगों की ज़ुबान पर शिकायतें होती हैं।
࿐ हमें चाहिये कि अल्लाह को राज़ी करने की फिक्र करें और बाक़ी बातों पर खास तवज्जो ना दें।
࿐ मैने इस तरह निकाह कर के लोगों को तकलीफ़ पहुँचाई है, मेरे साथ भी कई लोगों की ख़्वाहिशात जुड़ी हुयी थी जिन्हें मैने पूरा नहीं किया, मैने उनसे माफ़ी माँग ली और वो किया जो मुझे करना था, जहाँ मेरी अर्ज़ को रद्द किया गया वहाँ मुझे अपना फैसला सुना कर अपने इख़्तियार को इस्तिमाल करना पड़ा।
࿐ अब मै चाहता हूँ कि वो बातें भी लिख दूँ जो मैने लड़की वालों या अपने घर वालों से की ताकि इस से उन लोगों को फायदा पहुँचे जो इस तश्वीश में रहते हैं कि आखिर फरीकैन (दोनों तरफ़ के लोगों) से किस तरह बात करके अपना इरादा बताया जाये और अपनी सोच उनके सामने रखी जाये।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ लड़की वालों से बात होती है
࿐ लड़की वाले जब मेरे घर आये तो पहले एक दूसरे के बारे में तआरुफ़ी गुफ्तगू हुयी फिर कारोबार, खानदान और घर मकान वग़ैरह के मुतल्लिक़ बातें हुयी।
࿐ उसके बाद खाना पीना हुआ फिर जब उनकी वापसी का वक़्त क़रीब आ गया तो मैने एक कमरे में उन्हें और अपने घर वालों सब को जमा किया और कहा कि : मुझे आप सब से कुछ बातें करनी है (ये सुन कर सब सुनने के लिये तैयार हो गये, फिर मैने कहा) मेरे वालिदैन की पसंद मेरी पसंद में है और उन्होंने कह दिया है कि जब तुम्हें पसंद है तो फिर हमें कोई एतराज़ नहीं और फिर मै बात करूँ अपनी तो (मैने लड़की का नाम लेते हुये कहा कि) मै "S Attariya" को (उसकी दीनदारी और इल्म को) जानता हूँ, वो मुझे पसंद है (ये मैने लड़की वालों को मुखातिब करते हुये कहा, फिर कहा कि) अब ये जानना ज़रूरी है कि आप इस बारे में क्या कहते हैं, हमारी तरफ से बात मुकम्मल हो गयी है और आप ने अब जब मुझे और मेरे घर वग़ैरह को देख लिया है तो बस अब अहम ये है कि आपकी राय क्या है, आप चाहें तो अभी या यहाँ से जाने के बाद सोच समझ कर जवाब दे सकते हैं।"
࿐ ये सुनने के बाद उन्होंने कहा कि ठीक है, हम वापस जाने के बाद घर में तमाम लोगों के साथ मिल बैठ कर बात करेंगे और फिर जवाब देंगे लेकिन मैने अपनी बात यहाँ ख़त्म नहीं कि बल्कि फिर कहा कि :
"कुछ और बातें हैं जिन्हें जान लीजिये लेकिन उसके बाद ही फैसला कीजियेगा...."
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ लड़की वालों से बात होती है।
࿐ मैने कहा कि मै सादगी के साथ निकाह करना चाहता हूँ और सादगी का मतलब ये है कि बिल्कुल सादगी के साथ और वो कुछ यूँ कि शादी में किसी किस्म की कोई लेन देन नहीं होगी और शादियों को लेकर जितनी भी रस्में राइज हैं उन सब से परहेज़ किया जायेगा और बारात में भी 20 के क़रीब लोग आयेंगे।
࿐ इतना कहने के बाद मैने अपनी बात को ख़त्म किया तो लड़की के वालिद साहब बहुत ख़ुश हुये और मेरे लिये ताऱीफी कलिमात कहे और उन्होने कहा कि हम ज़रूर आपका इस नेक काम में साथ देंगे और फिर वही हुआ कि लड़की वालों ने बहुत साथ दिया और इस निकाह को "एक निकाह ऐसा भी" बनाने में भरपूर तआवुन फ़रमाया।
࿐ वापस जाने से कुछ ही दिनों बाद उनकी जानिब से मुसबत जवाब आया और फिर निकाह की तारीख़ तय हुयी, इस के बाद की कहानी मै बयान कर चुका हूँ, अब कुछ और बातें हैं जिन्हें बयान कर के इस कहानी को मुकम्मल करूँगा।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ लड़की ज़्यादा देखना - निकाह मुश्किल होने की एक वजह ये भी
࿐ ऐसा सुनने और देखने को मिलता है कि कई कई सालों से लोग निकाह की कोशिश कर रहे हैं लेकिन निकाह नहीं हो रहा है, इसकी कई वुजूहात हैं जिनको हम बयान करेंगे, एक वजह है लड़की ज़्यादा देखना यानी कई खूबियाँ एक ही लड़की में तलाश करना।
࿐ मैने लड़की को बिना देखे निकाह किया!
࿐ और एक तरह से कहूँ तो बहुत अच्छी तरह देख कर निकाह किया, अब जो नहीं देखा वो ज़ाहिरी चेहरा था और जो देखा वो दीनदारी थी कि जिसको देखने का हुक्म हमें दिया गया है।
࿐ निकाह तय हो चुका था तब तक मैने लड़की को नहीं देखा, ना तस्वीर में और ना सामने हत्ता कि आज कल जिस तरह लड़के वालों की तरफ से लोग लड़की देखने जाते हैं, ये भी मैने नहीं होने दिया क्योंकि अस्ल शय जो मक़सूद थी वो हमें मिल चुकी थी ये "दीनदारी" फिर दूसरी चीज़ों को देखना और लोगों को दिखाना फिर उन्हें कई तरह की बातें निकालने का मौका देना मुझे दुरुस्त मालूम नहीं हुआ।
࿐ इस बात से मेरे कुछ अपनों को तकलीफ भी हुयी लेकिन यहाँ ये एक इज़ाफ़ी सी रस्म थी जिसे अदा करने से निकाह में ताख़ीर होती और शायद मुश्किलें भी बढ़ जाती।
࿐ देखने दिखाने का जो तवील सिलसिला आज कल शादियों में राइज है, यहॉं ऐसा नही हुआ, बस एक बार लड़की वालों की तरफ से कुछ लोग देखने आये और फिर लड़के वाले सीधा बारात ले कर पहुँचे।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ लड़की ज़्यादा देखना - निकाह मुश्किल होने की एक वजह ये भी
࿐ लड़की वालों ने ये पेशकश की कि हमारी तरफ़ से कुछ लोग उनके घर जायें और देख कर आयें लेकिन सूरते हाल ये थी कि लड़की मुझे पसंद थी और उस की दीनदारी अच्छी तरह मालूम हो चुकी थी फिर मज़ीद कुछ देखने दिखाने का कोई फ़ायदा नहीं था बल्कि नुक़्सान नज़र आ रहा था और वो ये कि जिनको नहीं देखना वो भी देखते, जो नहीं देखना था वो भी देखा जाता, जिनका देखना जरूरी नहीं वो भी देख कर अपनी राय देते जिसकी कोई ज़रूरत नहीं थी ऐसा होता है कि रिश्ता तय होने वाला होता है कि लड़के की बहन कहती है कि मुझे लडक़ी पसन्द नहीं, लड़के की भाभी कहती है कि लड़की का क़द छोटा है, रंग साफ नहीं, नाक चपटी है तो मोटी ज़्यादा है और फिर कभी माँ कहती है कि जोड़ी जम नहीं रही, लड़की की उम्र ज्यादा है वग़ैरह और इन्हीं सब बातों से निकाह में ताख़ीर होती चली जाती है।
࿐ मैने लड़की वालों की पेशकश पर कहा कि जब मैने कह दिया है कि हमारी तरफ से बात मुकम्मल है तो फिर हमारा जाना बस एक रस्मी तौर पर होगा और इसका कोई फ़ायदा नहीं।
࿐ ये मरहला मैने बीच में से निकाल कर निकाह को मज़ीद आसान बनाने की कोशिश की और कामयाब रहा।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ दीनदारी को मुक़द्दम ना रखना
࿐ एक वजह है दीनदारी को आखिर में रखना यानी बात तो दीनदारी की करना लेकिन दूसरी चीज़ों को इससे पहले देखना और फैसला भी इन्हीं चीज़ों की बुनियाद पे करना, मिसाल के तौर पर लड़की या लड़के की दीनदारी तो पसंद आ गयी लेकिन रंग रूप और मालो दौलत या किसी और वजह से रिश्ता नहीं हो पाया तो फिर दीनदारी को मुक़द्दम कहाँ रखा गया?
࿐ इस तरह भी किया जाता है कि पहले तमाम बातें हो जाती हैं, फ़ैसला भी तक़रीबन ले लिया गया होता है और उस के बाद दीनदारी को लाया जाता है कि फ़क़त उसका ज़िक्र कर दिया जाये, लड़की या लड़के के बारे में पहले मालूम किया जाता है कि दिखता या दिखती कैसी है, माली ऐतबार से किस हालत में है, ज़ाहिरी हुस्न कैसा है और फिर आखिर में दीनदारी के नाम पर बस इतना कह दिया जाता है कि हाँ "अरबी पढ़ी है और नमाज़ रोज़ा करते हैं" और हक़ीक़त ये होती है कि ना अरबी सहीह से पढ़ी होती है और ना नमाज़ रोज़े के मसाइल सहीह से मालूम होते हैं तो फिर दीनदारी को मुक़द्दम कहाँ रखा गया?
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ दीनदारी को मुक़द्दम ना रखना
࿐ दोनों तरफ से ही दीनदारी की बात हो रही होती है लेकिन सबसे आखिर में और ऐसा इसीलिये होता है कि दीनदारी देखने वाले खुद नहीं जानते कि इस का सहीह मतलब क्या है, दोनों ही बस अपनी अपनी पसंद के ग़ुलाम होते हैं और अगर कहीं अपने नफ़्स के ख़िलाफ़ जाना पड़े तो ये बहुत गिरां गुज़रता है।
࿐ आज कल तहरीरी शक्ल में पहले जो मालूमात भेजी जाती हैं उस (Bio Data) में भी दीनदारी के हवाले से अक्सर कुछ लिखा नहीं होता और अगर हो भी तो बस एक दो जुमले लिख दिये जाते हैं कि नमाज़ रोज़ा करते हैं.... वग़ैरह और अपने बारे में या अपनी पसंद के बारे में लिखते हुये भी इस का ज़िक्र नहीं करते और करते हैं तो.... वही एक दो जुमले जबकि दूसरी बातें बड़ी तफ़्सील से लिखते हैं कि कितनी असरी तालीम हासिल की है, अंग्रेज़ी कितना जानते हैं, कम्प्यूटर चलाने के लिये कौन सा कोर्स किया है, कहाँ कहाँ जॉब की, कितना तजुर्बा है, कितना पढ़ा लिखा खानदान है और फिर कैसे रिश्ते की तलाश है, इस के जवाब में लिखते हैं कि इतनी असरी तालीम चाहिये, हाइट इतनी चाहिये, उम्र इस से ज़्यादा ना हो, खूबसूरत हो, मालो दौलत इतनी हो और फैमिली में इतने लोग हों वग़ैरह।
࿐ दीनदारी देखने का मतलब ये कि सिर्फ इसे देखा जाये और बाक़ी दूसरी चीज़ों में अगर कोई कमी है तो उसकी वजह से रिश्ता करने से पीछे ना हटें क्योंकि कामिल (Perfect) कोई भी नहीं होता, सब में कमियाँ हैं, आप ये देखें कि दीनदारी जैसी खूबी मौजूद है।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ जहेज़
࿐ जहेज़ लेने देने का बहुत ग़लत तरीक़ा हमारे मुआशरे में राइज हो गया है, इस में मुतालिबा तो होना ही नहीं चाहिये था, ये लड़की वालों पर है कि अपनी बेटी को जो चाहे दें और जहेज़ लड़की की ही मिल्कियत (Property) होती है, उस पे किसी का हक़ नहीं कि बिना लड़की की इजाज़त के उस में तसर्रुफ़ करे लड़के वालों की तरफ़ से जहेज़ का मुतालिबा इस क़द्र आम हो चुका है कि कई लोग तो अब इसे बुरा ही नहीं समझते बल्कि ऐसा तक सुनने को मिला कि जिस लड़के ने जहेज़ और नक़दी वग़ैरह लेने से इंकार किया तो उस लड़के पर ही सवाल उठने लगे और इस तरह की बातें की जाने लगी कि शायद लड़के में कोई कमी होगी, इसीलिये मुतालिबा नहीं किया गया है!
࿐ ये ऐसा ही है जैसे बैंड बाजे को लेकर हुआ कि सुन्नियों में ये इतना ज़्यादा राइज हो गया कि जहाँ बिना बैंड बाजे के बारात गयी तो उसे बदमज़हब समझा जाने लगा।
࿐ (अल्लाह सुन्नियों के हाल पर रहम फ़रमाये) जहेज़ एक बहुत प्यारी सुन्नत है और इसे अदा करने का एक तरीक़ा भी है लेकिन अब इसे इस तरह अदा किया जा रहा है कि कई लोग इसे "लानत" तक कह रहे हैं जो कि नहीं कहना चाहिये, जहेज़ को लानत कहना दुरुस्त नहीं, इस से परहेज़ किया जाये।
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
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࿐ खुशी से जहेज़ देना
࿐ जहेज़ देने का ऐसा रिवाज चल पड़ा है कि बस देना है तो देना है अब चाहे इसके लिये क़र्ज़ लेना पड़े या गाँव गाँव, शहर शहर घूम कर भीक माँगनी पड़े।
࿐ हम बात कर रहे थे मुतालिबे की तो अगर लड़के वाले मुतालिबा ना भी करें तो लड़की वालों को पता होता है कि इतना सामान देना ही होगा, अगर्चे मुतालिबा नहीं हुआ है और इसे खुशी का नाम दे दिया जाता है कि लड़की वालों ने खुशी से जहेज़ दिया लेकिन ये मजबूरी होती है जिस पे खुशी का लेबल लगा दिया है।
࿐ "हमें कुछ नहीं चाहिये" कहने वाले खतरनाक लोग ये जुमला कहने वाले कि "हमें कुछ नहीं चाहिये" अच्छे भी होते हैं कि जिन्हें वाक़यी लालच नहीं होती लेकिन कई लोग इस जुमले को सामने रख कर एक खेल खेल रहे होते हैं कि जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे और वो इस तरह कि बाज़ाहिर तो कहते हैं कि कुछ नहीं चाहिये लेकिन ना मिलने पे बड़ी बातें होने लगती हैं और फिर लड़की वालों के लिये ये जुमला थोड़ी देर के लिये राहत का सामान बनता है फिर अगले ही पल ये बातें सामने आती हैं कि जब लड़के वालों ने कुछ माँगा नहीं है तो हमें चाहिये कि अच्छे से सामान जमा कर दें और फिर ये कि जो बाराती आयेंगे उनके लिये अच्छे से अच्छा इंतिज़ाम करना होगा वरना लोग कहेंगे कि हमने कुछ नहीं लिया था तो कम से कम बारातियों के लिये अच्छा इंतिज़ाम तो करना चाहिये था, यानी ये जुमला बजाए आसानी का सामान बनने के मुश्किलों को बढ़ा देता है और लड़की वालों को आज़माइश में डाल देता है।
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࿐ जहेज़ की शरई हैसियत
࿐ मुसलमानो में ये रिवाज आम हो गया है कि निकाह से पहले लड़की वालो से जहेज़ की माँग की जाती है, अब तो बिल्कुल खुल कर कहा जाता है कि हमें एक लाख रूपये और एक गाड़ी चाहिए!
࿐ लड़की वालों की जान इतने में भी नहीं छूटती बल्कि सैकड़ों बारातियों और रिश्तेदारों के नखरे भी उठाने पड़ते हैं जिस में लाख रुपये खर्च होना आम बात है।
࿐ ऐसा भी देखा गया है कि लड़की वाले एक लाख रूपये देने को तैयार हैं लेकिन गाड़ी देने की ताक़त नहीं रखते तो इस वजह से निकाह करने से इंकार कर दिया जाता है!
࿐ इसे हम निकाह ना कह कर सौदा कहें तो ज़्यादा अच्छा लगेगा।
࿐ शरीअत में जहेज़ की मिक़्दार तय करना बल्कि मिक़्दार ना भी मुअय्यन हो कहीं शादी करते वक़्त जहेज़ का मुतालबा ही करना या शादी हो जाने के बाद मुतालबा करना, ये सब हराम है।
࿐ ये रिश्वत माँगना है और जो माल लिया माले हराम लिया, फ़र्ज़ है कि इसे वापस करे, इस को इस्तिमाल में लाना हराम है।
शामी में है : جعلت المال علی نفسھا عوض عن النکاح و فی النکاح العوض لا یکون علی المراۃ (ج5، ص701) (انظر: مقالاتِ شارح بخاری، ج1، باب سوم، جہیز کی شرعی حیثیت، ص387)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ जहेज़ या कबाड़?
࿐ सुन्नत की अदायगी अलग चीज़ है पर जिस तरह आज कल जहेज़ देने का रिवाज है ये अलग चीज़ है, ये बात ढकी छुपी नहीं कि दिखावे को यहाँ काफी दखल होता है यानी लड़की वाले दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने इतना सामान दिया है और अगर न दें तो बिरादरी में जैसे उनकी नाक कट जाती है और फिर लड़के वालों की तरफ से मुतालिबा भी होता है और ना हो तो भी ये ज़हन बना हुआ है कि जो चल रहा है वो तो देना ही पड़ेगा, हम ये नहीं कहते कि आप कुछ ना दें पर वो दें कि जो फ़ायदेमन्द साबित हो, फक़त दिखावे के लिये एक रस्म अदा ना करें।
࿐ हकीमुल उम्मत, अल्लामा मुफ़्ती अहमद यार खान नईमी की ये बातें पढ़ें जो हम अब नक़्ल करने जा रहे हैं और ज़रा सोचें कि क्या वाक़ई हम जहेज़ की सुन्नत अदा कर रहे हैं या पैसे बरबाद कर के काठ कबाड़ दे रहे हैं जो कोई खास काम आने वाला नहीं।
࿐ आप लिखते हैं कि दुल्हन वाले मुसीबत उठा कर पैसा बरबाद कर के काठ कबाड़ यानी मेज़ व कुर्सियाँ वग़ैरह लड़की को दे तो देते हैं मगर दूल्हा का घर इतना तंग और छोटा होता है कि वहाँ रखने को जगह नहीं और अगर दूल्हा मियां किराये के मकान में रहते हैं तो जब दो चार दफा मकान बदलना पड़ता है तो ये तमाम काठ कबाड़ टूट फूट कर ज़ाया हो जाता है।
࿐ जितने रूपये का जहेज़ दिया गया अगर उतना रूपया दिया जाता या उन रुपयों की कोई दुकान या मकान लडक़ी को दे दिया जाता तो लड़के के काम आता और उस की औलाद उम्र भर आप को दुआएँ देती और लड़की की भी सुसराल में इज़्ज़त होती और अगर खुदा ना करे कि कभी लड़की पर की मुसीबत आती तो उस के किराये से अपना बुरा वक़्त निकाल लेती।
࿐ (इस्लामी ज़िन्दगी) ये समझने वाली बातें हैं जिस पे लोगों को ग़ौर करने की ज़रूरत है।
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࿐ जहेज़ का मुतालिबा करने का एक नुक़्सान
࿐ जहेज़ का मुतालिबा करने वाले अपनी इज़्ज़त को अपने हाथों नीलाम करते हैं, कुछ सामान और पैसों के लिये अपने वक़ार और अपने मर्तबे को ज़मी बोस कर देते हैं और बाद में खुद रोना रोते हैं कि हमारी इज़्ज़त नहीं होती, हज़रते सलमान फ़ारसी का एक क़ौल आपने उस रिवायत में पढ़ा होगा जिसे हम बयान कर चुके कि, "मुझे मेरे खलील ﷺ ने खादिम रखने की नसीहत नहीं फ़रमायी बल्कि सिर्फ़ उसे रोकने का फ़रमाया जिस से मै निकाह करूँ और फ़रमाया कि अगर तुम ने (अपने ससुराल वालों से) मज़ीद कुछ लिया तो तुम्हारी औरतें तुम्हारी नाफ़रमान हो जायेंगी और इस का गुनाह खाविंद (Husband) पर होगा और औरतों के गुनाह में भी कोई कमी नहीं होगी इस बात का मुशाहिदा किया गया है कि लड़की वालों से मुतालिबा, लड़के वालों की इज़्ज़त कम कर देता है फिर लड़की भी नाफ़रमान हो जाती है और इज़्दवाजी ज़िंदगी में बस लड़ाई झगड़ों का घर बन कर रह जाता है, अगर मुतालिबा करने वाले चाहते हैं कि उनकी बीवियाँ फ़रमाँ बरदार रहें तो ये बहुत मुश्किल है।
࿐ एक वाकिया एक शादी हुयी जिस में लड़के वालों ने 2 लाख रुपये और काफी सामान लिया था, कुछ दिनों के बाद घर में लड़ाई हुई और बात इतनी बढ़ गयी कि लड़के की माँ ने लड़की को घर से बाहर निकलने को कहा जिस पर लड़की ने फ़ौरन कहा कि "मै ऐसे नहीं निकलने वाली, जो 5 लाख रूपये लिये हैं वो और सारा सामान ले कर जाऊँगी"!
࿐ बताने का मक़्सद ये है कि मुतालिबा कोई अच्छी बात नहीं, ये अच्छे लोगों का काम नहीं, इस से आपको फ़ायदा नहीं होगा बल्कि नुक़्सान ही नुक़्सान है लिहाज़ा इस से बचें।
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࿐ लेन-देन पे पाबंदी लगाना ज़रूरी है
࿐ सिर्फ इतना कहने से काम नहीं चलेगा कि हमें कुछ नहीं चाहिये बल्कि लड़के वालों को चाहिये कि तफ़्सील से इस बात को बयान करें कि "नहीं चाहिये" का क्या मतलब है और इस पे सख्ती भी करे तभी रोखथाम हो सकेगी वरना फिर बात घुमा फिरा कर वहीं आ जाती है कि अच्छी खासी लाखों की लेन देन हो जाती है और कहा जाता है कि हमने कुछ नहीं लिया।
࿐ गाड़ी, बेड, सोफ़ा, अलमारी और महँगे सामानों को क़ुबूल करने से वाज़ेह मना करें, इसके अलावा नक़दी बिल्कुल ना ली जाये, लड़की वालो को सराहत के साथ बतायें कि आप कुछ नहीं लेंगे और इसके बाद वो अपनी बेटी को जो कुछ कपड़े, रोज़मर्रा इस्तेमाल में आने वाले कुछ सामान, कुछ बर्तन, कुछ ज़ेवरात या कुछ माल वग़ैरह जो दे दें तो ये उस लड़की का है।
࿐ लड़की वालों को भी चाहिये कि अगर लड़का सादगी से निकाह करना चाहता है तो उसका साथ दें और मुबालगे से परहेज़ करें, दिखावे से बचें ताकि आप एक निकाह को "एक निकाह ऐसा भी" बना सकें जो दूसरो के लिये मिसाल बन जाये।
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࿐ जहेज़ और उलमा -ए- अहले सुन्नत
࿐ अब हम कुछ उलमा -ए- अहले सुन्नत की तहरीरें पेश करेंगे जो उन्होंने जहेज़ के हवाले से तहरीर फ़रमायी हैं, इन में आप इस मसअले की मज़ीद तफ़्सील मुलाहिज़ा फ़रमायेंगे।
࿐ फ़क़ीहे मिल्लत, हज़रत अल्लामा मुफ़्ती जलालुद्दीन अहमद अमजदी रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि लड़का या उसके घर वालों का शादी करने के लिये नक़द रूपये और सामान जहेज़ माँगना या मोटरसाइकिल और जीप व कार वग़ैरह का मुतालिबा करना हराम व नाजाइज़ है, फ़तावा आलमगीरी में है कि : لو اخذ اھل المراۃ عند التسلیم فللزوج ان یستروہ لانہ رشوۃ کذا فی البحر الرائق यानी औरत के घर वालों ने रुख़्सती के वक़्त कुछ लिया था तो शौहर को उस के वापस लेने का शरअन हक़ है इसीलिये कि वो रिश्वत है और जब लड़के से लेना रिश्वत है तो लड़की से निकाह पर लेना बदर्जा -ए- औला रिश्वत है, इसीलिये कि आयते करीमा اَن تَبتَغُوا بِاَموَالِکُم के मुताबिक़ निकाह के इवज़ महर की सूरत में शौहर पर माल देना वाजिब भी होता है और बीवी पर किसी हाल में निकाह के बदले कोई माल वाजिब नहीं होता लिहाज़ा निकाह पर लड़की या उस के घर वालों से माल वसूल करना रिश्वत ही है और हदीस शरीफ़ में है : لعن رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم الراشی والمرتشی यानी रिश्वत देने वाले और लेने वाले दोनों पर हुज़ूर ﷺ ने लानत फ़रमायी, ये तिर्मिज़ी, अबू दाऊद और इब्ने माजा की रिवायत है और अहमद व बैहक़ी की रिवायत में है कि हुज़ूर ﷺ ने रिश्वत लेने और देने वाले के दरमियान वास्ता बनने वाले पर (भी) लानत फ़रमायी।
(مشکوٰۃ شریف، ص226)
࿐ लिहाज़ा मुसलमानों पर लाज़िम है कि वो हुज़ूर ﷺ की लानत से बचें और अपनी आक़बत ख़राब ना करें यानी लड़की वालों से निकाह के इवज़ किसी चीज़ का मुतालिबा ना करें और माँगने की सूरत में लड़की वाले उनको कुछ ना दें, अगर वो लोग ना माने तो उनके दरमियान वास्ता ना बनें बल्कि उनको ज़लील क़रार दें, ये हुक्म उस सूरत में है जब सराहतन या इशारतन मुतालिबा किया जाये और अगर अपनी खुशी से दिया जाये तो शरअन कोई क़बाहत नहीं।
(فتاوی فیض الرسول، ج2، ص580)
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࿐ हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अजमल क़ादरी रहीमहुल्लाहु त'आला से सवाल किया गया कि शादी के मौके पर लड़की वाले लड़के वाले से रूपया ले कर बारात को खाना खिला सकते हैं या नहीं? ज़ैद ने अपनी लड़की की शादी के मौके पर लड़के वाले से रुपये ले कर बारात को खाना खिला दिया क्योंकि ज़ैद बहुत ग़रीब आदमी था, बारात को खाना खिला भी नहीं सकता था लिहाज़ा उस ने ऐसा किया और देवबंदियों ने इस तरह खाना खिलाने को हराम लिख कर फ़तवा दिया है।
࿐ आप रहीमहुल्लाहु त'आला जवाब में तहरीर फ़रमाते हैं : अगर लड़के वाला बारात के खाने के लिये इस लालच में रूपया देता है कि इसकी वजह से लड़की वाला निकाह कर देगा जैसा कि बाज़ ज़लील अक़वाम में इसका दस्तूर है तो ये यक़ीनन हराम व रिश्वत है, फ़िक़्ह की मशहूर किताब आलमगीरी में है : رجل انفق علی طمع ان یزوجھا قال الشیخ الامام الاستاذ الا اصح انہ یرجع زوجیت نفسھا او لم تزوج لانہ رشوۃ यानी एक शख़्स ने एक औरत पर इस तमा (लालच) में ख़र्च किया कि वो उस से निकाह कर देगा तो शैख़ इमाम उस्ताज़ ने हुक्म दिया कि असह क़ौल ये है कि मर्द वो रक़म वापस ले, औरत निकाह करे या ना करे कि वो रिश्वत है और अगर लड़की वाले ने कहा कि इस क़द्र रूपया दो तो निकाह कर दिया जायेगा वरना नहीं जैसा कि बाज़ जाहिलों में राइज है तो ये भी रिश्वत है।
࿐ फ़तावा खैरिया में है : (سئل) فی امراۃ ابی اقاربھا ان یزوجھا الا ان یدفع طعام الزوج کذا فوعدھم بہ ھل یلزم ام لا (اجاب) لا یلزم ولو دفع فلہ ان یاخذہ قائما اوھا لکا لانہ رشوۃ کما فی البزاریۃ (فتاوی خیریہ مصری، ج1، ص28) उस औरत के मुतल्लिक़ सवाल किया गया जिस के रिश्तेदारों ने ये शर्त की कि शौहर उन्हें इस क़द्र दे तो वो उसका निकाह कर देंगे पस शौहर ने उनसे इतनी मिक़्दार का वादा कर लिया तो वो मिक़्दार बज़िम्मे शौहर लाज़िम होगी या नहीं? अल्लामा खैरुद्दीन ने जवाब दिया कि लाज़िम होगी और शौहर दे चुका तो इसके वापस लेने का उसको हक़ हासिल है अब चाहे वो मौजूद हो या सर्फ हो चुकी हो कि वो रिश्वत है जैसा कि फ़तावा बज़ारिया में है।
࿐ तनवीरुल अब्सार में है और अल्लामा अलाउद्दीन हस्कफ़ी ने इसकी शरह दुर्रे मुख़्तार में, फ़रमाते हैं : اخذ اھل المراۃ شیئا عند التسلیم فللزوج ان یستردہ لانہ رشوۃ (رد المحتار، ج2، ص376) کذا فی البحر الرائق والفتاوی الھندیہ लड़की वालों ने रुख़्सती के वक़्त कुछ लिया तो शौहर को उसके वापस लेने का हक़ हासिल है, इसीलिये कि वो रिश्वत है, इसी तरह बहरुर राइक़ शरह कंजुद दक़ाइक़ और फ़तावा आलमगीरी में है।
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࿐ अगर लड़के वाला लड़की वाले को महज़ बतौरे हदिया या बाग़र्ज़े सिला या बालिहाज़े हमदर्दी व इआनत देता है कि लड़की वाला बारात को खाना खिला सके और ऐसे उमूर अंजाम दे सके कि जिस की बिना पर उसे खानदान और क़ौम के रूबरू शर्मिन्दगी ना हो जैसा कि मुल्के बंगाल के बर्मा का उर्फ़ है तो ये ना रिश्वत है ना हराम चुनाँचे अल्लामा खैरुद्दीन उस्ताज़ साहिब दुर्रे मुख़्तार ने फ़तवा दिया, फ़तावा खैरिया में है : (سئل) فی رجل خطب من آخر اختہ و دفع لہ شیئا یسمی ملاکاودراھم ایضا من عادۃ اھل الزوجۃ اتخاذ طعام بہ ولم یتم امر النکاح ھل للخاطب ان یرجع فیہ ام لا؟ (اجاب) نعم لہ ان یرجع بذلک بشرط عدم الاذن منہ فان اذن لھم باتخاذہ وطعامہ للناس ضار کانہ اطعم الناس بنفسہ طعام مالہ وفیہ لا یرجع (فتاوی خیریہ، ج1، ص27) उस शख़्स के मुतल्लिक़ सवाल किया गया जिस ने एक शख्स को उसकी बहन का पैग़ाम दिया और उसको कुछ वो चीज़ दी जिसको मलाको दराहिम (ملاک و دراہم) कहा जाता है और औरतों की आदत उससे खाना तैयार करने की है और अभी निकाह का काम तकमील को नहीं पहुँचा तो क्या पैग़ाम देने वाला उसे वापस ले या नहीं? अल्लामा ने जवाब दिया कि हाँ! जब उसकी तरफ़ से इजाज़त नहीं तो वो इस बिना पर वापस ले और अगर उसने लड़की वालों को लोगों के लिये खाना पकाने और खिलाने की इजाज़त दे दी है तो गोया उस ने खुद लोगों को खाना खिलाया और इस सूरत में इसे वापस नहीं ले सकता।
࿐ इस इबारत से वाज़ेह हो गया कि जब जानिबे शौहर से लड़की को बाग़र्ज़े ज़ियाफ़त रूपया दिया तो ज़ियाफ़त करना और खाना खिलाना गोया शौहर ही का ज़ियाफ़त करना और खाना खिलाना है इसीलिये वो शौहर इस रक़म का उस से मुतालिबा भी नहीं कर सकता कि हदिया वसला का मुतालिबा नहीं होता है, हमारे मुल्क बंगाल का जब ये उर्फ़ व रिवाज है तो ज़ाहिर है कि ये ज़लील अक़वाम का ही उर्फ़े खास नहीं होगा बल्कि शरीफ़ अक़वाम ज़ी इल्म ज़ी वजाहत शहरी लोगों में भी राइज होगा कि मुल्की उर्फ़ व रिवाज का यही मतलब होता है और क़ाबिले आर भी ना होगा, ना इस में इवज़ व तमा और शर्त व ज़ुल्म मक़सूद होगा ना इस में इहक़ाके बातिल और इब्ताले हक़ मद्दे नज़र होगा, किस तरह हो सकता है बल्कि इस उर्फ़ बंगाल ने मुतय्यन कर दिया कि ये हदिया व हिबा है या बर वसला व मवनत व इम्दाद है और इनको नाजाइज़ो हराम कौन कह सकता है, शरीअत ने बहुत से अहकाम उर्फ़ व रिवाज पर ही सादिर फ़रमाये हैं यहाँ तक कि उर्फ़ जिन जिन खुसूसियात के साथ हो, उन्हीं की रिआयत हुक्म में मलहूज़ है।
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࿐ दुर्रे मुख़्तार में है : المعروف کالمشروط (رد المحتار، ج2، ص368)
࿐ क़ाज़ी खान में है : یعتبر التعارف الثبت عرفا کالثبات شرطا (رد المحتار، ج2، ص398)
࿐ हिदाया में है : ھو المتعارف فینصرف المطلق الیہ (رد المحتار، ص378)
࿐ रद्दुल मुहतार में है : الثبات بالعرف کالثبات بالنص (ص367)
࿐ इसी में है : الفتوی علی اعتبار عرف بلا دھما (ص368)
࿐ इसी में है : یثبت بحکم العرف (ص368)
࿐ इसी में है : والعرف فی الشرع لہ اعتبار لذاعلی : فلو لا العرف لکان القول قولہ (ص373)
࿐ इसी में है : المعمد البناء علی العرف (ص372)
࿐ इन इबारात से ज़ाहिर हो गया कि बाज़ अहकाम शरअ की बिना ही उर्फ़ व रिवाज पर है और जहेज़ वग़ैरह रुसूम शादी के अहकाम उर्फ़ व रिवाज पर ही मबनी हैं।
࿐ अल हासिल जब उर्फ़े बंगाल में लड़के वाले लड़की वाले को खाना व ज़ियाफत के लिये रूपया देना बिला इवज़ व तमा और बग़ैर ख्याले शर्त व ज़ुल्म और बिला लिहाज़ इहक़ाके बातिल व इबताले हक़ के है और इस से हदिया व हिबा या मुआविनत वसला मक़सूद होता है तो ये रिश्वत और हराम किस दलील से है।
࿐ जिन देवबंदियों ने इसका फ़तवा दिया है वो बिल्कुल ग़लत है और तसरीहात फ़िक़्ह की रू से बातिल है ये लोग हक़ीक़तन फ़िक़्ह से नावाकिफ़ हैं, बिला समझते हुये इस तरह के ग़लत फ़तवे लिख कर आवाम को गुमराह किया करते हैं, मौला त'आला उन्हें क़ुबूले हक़ की तौफ़ीक़ दे। (فتاوی اجملیہ، ج3، ص5)
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࿐ हज़रते अल्लामा मुफ़्ती मंज़ूर अहमद यार अल्वी लिखते हैं कि जहेज़ का लेना और देना दोनों जाइज़ व दुरुस्त है, हुज़ूर ﷺ ने खुद ही हज़रते फ़ातिमा रदिअल्लाहु त'आला अन्हा को बतौरे जहेज़ कुछ सामान अता फ़रमाया और हज़रते फ़ातिमा रदिअल्लाहु त'आला अन्हा ने उसे क़ुबूल किया अल्बत्ता जहेज़ के लिये किसी को मजबूर करना ये ज़रूर ग़लत और ग़ैर शरई काम है।
(فتاوی یار علویہ، ص135)
࿐ अब्दे मुस्तफ़ा ऑफ़िशियल एक निकाह ऐसा भी (पार्ट 64) हज़रते अल्लामा मुफ़्ती अब्दुल वाजिद क़ादरी रहीमहुल्लाहु त'आला से सवाल किया गया कि ज़ैद ने अपने दो बेटों की शादी नक़दी ले कर की तो ज़ैद को इमाम बनाना जाइज़ है या नहीं? आप जवाब में लिखते हैं कि ज़ैद ने अपने बेटों को जिस रक़म के इवज़ बेचा वो रक़म खबीस व नाजाइज़ है, इस रिवायत के सबब ज़ैद गुनाहगार मुस्तहिके अज़ाबे नार हुआ।
التراشی والمرتشی کلیھما فی النار
࿐ शादी के मौके पर दूल्हा के सरपरस्तों को सलामी के नाम पर, तिलक के नाम या दीगर इख़राजात के नाम पर कुछ नक़दी देना हराम है, लेना देना दोनों हराम है।
࿐ ज़ैद मज़कूर को इमामत उस वक़्त तक नाजाइज़ है जब तक वो ली गयी रक़म वापस ना करे और तौबा ना करे, तौबा से पहले जितनी नमाज़ें उसके पीछे पढ़ी गयीं या पढ़ी जायेंगी वो सब वाजिबुल इआदा हैं, उसको इमाम बनाम गुनाह है।
(فتاوی یورپ، ص402)
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࿐ एक और सवाल आपसे किया गया कि मेमन एक जमाअत है जिस के यहाँ शादी के मौके पर ये रिवाज है कि लड़के वाले, लड़की वालों से मकान, फर्नीचर और दीगर समान जहेज़ वग़ैरह का तक़ाज़ा करते हैं, अगर्चे इस मकान और दीगर सामान की मालिका लड़की ही रहती है और अगर लड़की को तलाक़ दे दे या लड़के का इंतिक़ाल हो जाये तो इन दोनों सूरतों में मकान और समान वग़ैरह लड़की को मिल जाता है, अब सवाल ये है कि क्या ये जाइज़ है? आप जवाब में लिखते हैं कि लड़की वालों का लड़की वालों से इस किस्म का मुतालिबा करना नाजाइज़ है लेकिन मकान फ़र्नीचर वग़ैरह सब जुदाई और अदमे जुदाई की सूरत में लड़की की ही मिल्कियत में रहता है, इसका मतलब ये हुआ कि शौहर या शौहर के घर वालों ने ये माल नहीं लिया है सिर्फ़ मुतालिबा किया है कि तुम अपनी लड़की को ये चीज़ें दे दो तो ये लोग पगड़ी लेने वाले नहीं हुये (लड़की की हैसियत के मुताबिक़ जहेज़ की क़ीमत का तअय्युन करना पगड़ी कहलाता है) उन्हें ये मुतालिबा नहीं करना चाहिये था।
(وقار الفتاوی، ج1، ص134)
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࿐ एक जगह और लिखते हैं कि ये इंतिहाई अफ़्सोसनाक बात है कि कसरते जहेज़ ने ऐसी तकलीफ देह सूरत इख़्तियार कर ली है कि जिसकी वजह से बहुत से वालिदैन के लिये अपनी लड़कियों का रिश्ता करना नामुम्किन होता जा रहा है, उनके दिन का चैन और रात का सूकून छिन गया है, महज़ इस वजह से कि वो रिश्ता करने वालों की तरफ़ से मुँह माँगा जहेज़ नहीं दे सकते, इस्लामी मुआशरे में इसको ख़त्म करना ज़रूरी है।
࿐ इस सिलसिले में उन लोगों को ख़ास तौर पर क़दम उठाना चाहिये जो बे तहाशा जहेज़ देते हैं, वो आगे आयें और इस बुराई को ख़त्म करने में तआवुन करें और वो जहेज़ की मिक़्दार इतनी कम रखें कि जो ग़रीब लोग भी दे सकें।
(وقار الفتاوى، ج3، ص135)
࿐ हाफ़िज़ मुहम्मद ज़फ़र इक़बाल चिश्ती निज़ामी लिखते हैं कि वालिदैन की तरफ़ से दुल्हन को जो ज़रूरियाते ज़िंदगी का सामान दिया जाता है उसे जहेज़ कहते हैं, दुल्हन को जहेज़ देना जाइज़ है मगर मुरव्वजा तरीक़ा जो जहेज़ देने का राइज है वो किसी भी तरह इस्लामी तरीके से मुताबिक़त नहीं रखता, इस्लाम ने लड़की को विरासत में हक़दार ठहराया है मगर आज कल लोग लड़की को शादी पर उसे जहेज़ के नाम पर काफ़ी सामान दे कर खुश कर देते हैं और उसे हक़ीक़ी हक़ से महरूम कर देते हैं, नबी -ए- करीम ﷺ ने अपनी साहिबज़ादी सय्यिदा फ़ातिमा रदिअल्लाहु त'आला अन्हा को जो जहेज़ दिया उसके मुताबिक़ मुरव्वजा जहेज़ का इस से कोई ताल्लुक़ नहीं।
(انمول تحفہ دلہن، ص112)
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࿐ अल्लामा अब्दुल मुस्तफ़ा आज़मी रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि याद रखो की जहेज़ में सामान का देना ये माँ बाप की मुहब्बत और शफ़क़त की निशानी है और उनकी खुशी की बात है, माँ बाप पर लड़की को जहेज़ देना फ़र्ज़ वाजिब नहीं, लड़की और दामाद को हरगिज़ ये जाइज़ नहीं कि वो ज़बरदस्ती माँ बाप को मजबूर कर के सामाने जहेज़ वसूल करें।
࿐ माँ बाप की हैसियत इस क़ाबिल हो या ना हो मगर जहेज़ में अपनी पसंद की चीज़ों का तक़ाज़ा करना और उनको मजबूर करना कि वो क़र्ज़ लेकर बेटी और दामाद की ख्वाहिश पूरी करें, ये ख़िलाफ़े शरीअत बात है।
࿐ बल्कि आज कल हिन्दुओं के तिलक जैसी रस्म मुसलमानों में चल पड़ी है कि शादी करते वक़्त ही ये शर्त लगा दी जाती है कि जहेज़ में फ़ुलाँ फ़ुलाँ सामान और इतनी इतनी रक़म देनी पड़ेगी चुनाँचे बहुत से ग़रीबों की लड़कियाँ इसीलिये बियाही नहीं जा रही हैं कि इनके माँ बाप जहेज़ की माँग पूरी करने की ताक़त नहीं रखते।
࿐ ये रस्म यक़ीनन ख़िलाफ़े शरीअत है और जबरन माँ बाप को मजबूर कर के ज़बरदस्ती जहेज़ लेना ये नाजाइज़ है लिहाज़ा मुसलमानों पर लाज़िम है कि इस बुरी रस्म को ख़त्म कर दें।
(جنتی زیور، ص111)
✍🏻 अब्दे मुस्तफ़ा
*मुहम्मद साबिर इस्माईली क़ादरी रज़वी*
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࿐ हज़रते अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद फ़ज़्ल करीम हमीदी लिखते हैं कि शादी के मौके पर वालिदैन जो अपनी लड़कियों को सामाने जहेज़ रुख़्सती में देते हैं वो लड़की की मिल्क (प्रॉपर्टी) है, शौहर के मरने के बाद सामाने जहेज़ की तक़सीम मय्यित के वारिसों में नहीं होगी और ना दूसरे वुरसा इसके मालिक और हिस्सेदार हो सकते हैं।
(فتاوی شرعیہ، ج1، ص537)
࿐ हमें लगता है जहेज़ पर इस क़द्र गुफ़्तगू काफ़ी है और इसीलिये हम यहाँ इक्तिफ़ा करते हैं।
࿐ लड़का माल वाला देखना लड़के की अक्सर माली हालत देखी जाती है क्योंकि इसी में लोगों को लड़की की खुशियाँ, मुस्तक़बिल सब नज़र आता है, अगर लड़के की माली हालत अच्छी है और फिर वो दीनदार ना भी हो तो लोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मालदार है तो फिर उसकी बुराईयाँ भी अच्छी लगती हैं लड़का नशा करता है, नमाज़ नहीं पढ़ता, दाढ़ी नहीं रखता और आवारा है फिर भी फ़क़त उसकी मालदारी देख कर लोग खुशी खुशी अपनी लड़कियाँ देने के लिये तैय्यार हो जाते हैं और उनके मुक़ाबिले में अच्छे दीनदार लड़कों को धुत्कार देते हैं और वो भी बस इसीलिये कि ये इस दुनिया की दौलत से मालदार नहीं होते।
࿐ एक हवा हमारे दौर में चली है नौकरी वाले लड़के तलाश करने की और जिनकी नौकरी नहीं उन्हें बेरोज़गार कह कर किनारे कर दिया जाता है, ऐसा लगता है जैसे नौकरी वाले ही अस्ल में जी खा रहे हैं बाक़ी लोग भूखे मर रहे हैं! अक्सर ऐसा होता है कि मालदार लड़का देख कर लोग शादी करते हैं और बाद में खून के आँसू रोते हैं, अगर लड़के की दीनदारी देखी होती तो कभी ऐसा ना होता। होना ये चाहिये कि लड़का अगर दीनदार हो तो उसे तरजीह दी जाये।
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࿐ (महर)
࿐ इस निकाह में लड़की का महर 2500 रुपये था (ब मुताबिक़ हिन्दुस्तान) और ये महरे मुअज्जल था।
࿐ महर औरत का ह़क है जो शौहर पर अदा करना शरीअत ने वाजिब किया है।
࿐ महर की मिक़्दार शरीअत में कम से कम 10 दिरहम है, यानी इससे कम महर नहीं होगा और ज़्यादा से ज़्यादा कोई हद मुकर्रर नहीं की गई है लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं कि जितना चाहें तय करें जैसा कि आजकल अक्सर देखा जाता है।
࿐ कहीं कहीं तो महर इतना कम रखा जाता है कि शरई मिक़्दार को भी नहीं पहुँचता, मस्लन 786 रूपये या ऐसी चीज़ें जो महर नहीं हो सकती मस्लन नमाज़े फज्र की पाबंदी को महर क़रार दे दिया जाता है और कहीं इतना ज़्यादा तय किया जाता है कि शौहर अदा ही नहीं कर पाता अगर्चे तय कर लिया जाता है।
࿐ कुछ इलाको में अंजुमनें या कमेटी वग़ैरह तय करती हैं कि महर कितना होगा हालाँकि उनका हक़ नहीं कि वो इसमें मुदाखलत करें, ये तो लड़की का हक़ है और अब अगर लड़की तय करे तो आजकल की लड़कियाँ ला इल्मी की वजह से बिना किसी का लिहाज़ किये कुछ भी कह देती हैं जो कि सही नहीं। अल्लाह तआ'ला मेरी बीवी को अपनी खास रहमतों से नवाज़े कि जिसने दूसरे मुआमलात की तरह इस मुआमले में भी कई बातों का लिहाज़ करते हुये एक आसान सा महर तय किया और नबी -ए- करीम ﷺ के फ़रमान के मुताबिक़ बेहतरीन और बरकत वाली औरतों में अपना नाम दर्ज करवाया।
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࿐ लड़की उम्र में 7 साल बड़ी इस निकाह में एक बात ये भी ग़ौर तलब है कि लड़की की उम्र लड़के से क़रीब 7 साल ज़्यादा थी।
࿐ सबसे पहले इस इस बात की वज़ाहत करना चाहता हूँ कि ये बात बताने का क्या मक़्सद है, आज कल उम्र के फ़र्क़ को इतना ज़्यादा देखा जाता है कि कुछ महीनों के कम ज़्यादा होने की वजह से रिश्ता नहीं किया जाता, अगर लड़की उम्र में लड़के से 1 साल बड़ी हो तो फ़ौरन इंकार कर दिया जाता है , मैने ये बात यहाँ तरग़ीब के लिये बयान की है ताकि हमारे मुस्लिम भाई अपनी सोच और अपनी फिक्र को बदलें।
࿐ इतना फ़र्क़ कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं लेकिन जब लोगों को पता चला तो कई तरह की बातें होना शुरू हो गयीं, जितने लोग उतनी बातें।
࿐ ये दौरे हाज़िर में होने वाली शादियों के हिसाब से देखा जाये तो बहुत अजीब बात थी कि जहाँ लोग 1 साल के फ़र्क़ में 100 बार सोचने लग जाते हैं वहाँ 7 साल के फ़र्क़ के बावजूद निकाह हो रहा है।
࿐ ये वो बात है कि जैसे ही रिश्ते की बात शुरू हुयी थी तो ये बात सामने आयी और खुद लड़की वालों ने कहा कि उम्र में इतना फ़र्क़ है जो आज कल शादियों में नहीं देखा जाता लेकिन मैने कहा मुझे इस से कोई भी ऐतराज़ नहीं फिर ये बात जब मेरे घर वालों, रिश्तेदारों को पता चली तो ऐतराज़ शुरू हुआ जिस का अव्वलन तो मैने जवाब दिया और फिर अपने फैसले से अपने जवाब पे मुहर लगा दी।
࿐ मै नौजवानों से एक गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि लड़की ज़्यादा ना देखें, अगर फ़क़त दीनदारी मिल जाती है तो आप आँख बंद कर के निकाह कर लें, रंग रूप वग़ैरह ज़्यादा ना देखें वरना आप इन की चमक में अस्ल चीज़ को पाने से महरूम रह जायेंगे और वो अस्ल चीज़ ऐसी है कि जिस में दुनिया व आख़िरत की भलाई पोशीदा है, वो चीज़ जिस में अस्ल मुहब्बत है, वो चीज़ कि जहाँ आ कर इत्तिफ़ाक़ होता है, वो चीज़ कि जो एक अच्छा मुस्तक़बिल तय करती है, वो है "दीनदारी"
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࿐ लड़के की हालत मेरी हालत ये है कि मेरा घर ज़ेरे तामीर है, मै अपने एक रिश्तेदार के खाली पड़े घर में रहता हूँ, मेरे पास कोई सरकारी नौकरी नहीं और तालीम की बात करें तो ये भी बहुत कम है, असरी तालीम बस 12वीं क्लास तक है और दीनी तालीम की कहिये तो मै फ़ारिगुत तहसील नहीं, ना मेरे पास कोई सनद है सिवाये इस के कि मैने उलमा -ए- अहले सुन्नत की सोहबत में रह कर दीन सीखा है और किताबें पढ़ी हैं, ये बातें बता कर मै ये कहना चाहता हूँ लड़की वालों ने मेरा घर या मेरी माली हालत को देखने के बाद भी तरजीह किसी और बात को दी और ये उनकी तरफ़ से एक ऐसा तआवुन था कि जिसे भुला देना यक़ीनन ग़लत होगा, अल्लाह त'आला उनसे राज़ी हो।
࿐ आखिरी कलिमात ये कहानी यहाँ मुकम्मल होती है।
࿐ अल्लाह त'आला हर उस शख्स को जज़ाए ख़ैर दे कि जिस ने इस निकाह को "एक निकाह ऐसा भी" बनाने में अपना किरदार अदा किया और मेरी मदद कर के या मुख़ालिफ़त कर के मेरा साथ दिया।
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