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࿐ ये आज की बात नहीं कि लोग अपने नसब और खानदान पर फ़ख्र करते हैं बल्कि ये पुराने ज़माने से चला आ रहा है।
࿐ अहले अरब भी अपने नसब व खानदान पर फ़ख्र करते थे तो अल्लाह त'आला ने आयत उतारी कि ये नसब फ़ख्र करने की चीज़ नहीं है बल्कि क़ाबिले फ़ख्र तो तक़वा और परहेज़गारी है।
࿐ हसब नसब की तफ़सील में उलमा -ए- अहले सुन्नत ने बहुत कुछ लिखा है, हमने जो पढ़ा उसे आसान अल्फ़ाज़ में बयान करने की कोशिश करते हैं ताकि लोग इस मस'अले को अच्छे से समझ सकें।
࿐ बहरुल उलूम हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अब्दुल मन्नान आज़मी के कलम से बहरुल उलूम हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अब्दुल मन्नान आज़मी रहीमहुल्लाहु त'आला से सवाल किया गया कि क्या फ़रमाते हैं उलमा -ए- अहले सुन्नत इस मस'अले के बारे में कि कुछ लोग इस्लाम में बराबरी के मौज़ू को ले कर गुफ़्तगू कर रहे थे कि क़ुरआन में मुत्तक़ी और परहेज़गार को ही अफ़ज़ल क़रार दिया गया है तो फिर ये इस्लाम में हसब व नसब की बरतरी कहाँ से दाखिल हो गयी जबकि रंग व नस्ल और हसबो नसब, हर किस्म की छुआ छूत, ऊँच नीच को रसूलुल्लाह ﷺ ने खत्म कर दिया था फिर उन लोगों में से ज़ैद ने कहा कि उलमा ने सय्यिदों को बढ़ा दिया है तो बकर ने कहा कि हुज़ूर ﷺ ने खुद हज़रते फ़ातिमा को सय्यिदतुन निसा और हसनैन करीमैन को सय्यिद कहा है तो ज़ैद ने कहा कि क़ुरआन सय्यिद के बारे में कुछ नहीं कहता तो ये सय्यिद कहना मानना कुफ्र है!
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࿐ (यानी सवाल से ये मालूम होता है कि इस मस'अले को ले कर लोग किस तरह शुब्हात के शिकार हैं और ला इल्मी में क्या क्या कह जाते हैं, लिहाज़ा साइल कहता है कि) इस मस'अले की हक़ीक़त को क़ुरआनो हदीस से मुदल्लल तहरीर फ़रमायें।
࿐ आप रहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि बेशक क़ुरआन शरीफ़ में अल्लाह त'आला ने फ़रमाया : "अल्लाह त'आला के नज़दीक ज़्यादा बुज़ुर्ग वही है जो ज़्यादा परहेज़गार है।"
࿐ और पूरी आयत यूँ है : "ए लोगों हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और मुखतलफ़ क़ौम और क़बीले बनाये ताकि तुम आपस में एक दूसरे को पहचानो (और) अल्लाह के नज़दीक बुज़ुर्ग तो वही है जो सबसे ज़्यादा मुत्तक़ी है।
࿐ इस आयत की तफ़्सीर में जलालैन, सावी, जमाल, मदारिक, किशाफ़, रूहुल मानी तफ़्सीरों में लिखा है कि अहले अरब अपने अपने नसब व खानदान पर फ़ख्र करते थे तो अल्लाह त'आला ने ये आयत उतारी कि नसब फ़ख्र करने की चीज़ नहीं है, क़ाबिले फ़ख्र तो तक़वा और परहेज़गारी है! (अगर्चे इस पर भी इतराना मना है!)
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࿐ क़ौम और क़बीला में हमने तुम को बांटा है और फ़ख्र के लिये नहीं बल्कि इम्तियाज़ व तफ़र्रुक़ के लिये। (ताकि पहचाने जाओ)
࿐ जब ये आयात नाज़िल हुई तो अरब में सैकड़ों क़बीले, खानदान और कौमें थी, किसी का नाम मुदर था, किसी का रबिया, किसी का ओस, किसी का खज़रज, कोई अब्दुल कै़स और कोई बनू हाशिम और बनू अब्दुल मुत्तलीब, ज़ाहिर है के ये तमाम अस्मा (नाम) इन कौ़मो के लिए आसमान से नहीं उतरे थे और ना अल्लाह पाक ने वहीं भेज कर उन के ये नाम रखा था, सारे नाम उन लोगों की अपनी मर्ज़ी से रखे हुए थे अल्लाह पाक फरमाता है ये सब मैंने ही किया, तुम्हारे ये सारे नाम मेरी मर्ज़ी और मेरे हुक्म से है और क़ुरआन ए अज़ीम तो क़यामत तक के लिए है तो आइंदा भी जो कौ़में अपना कोई नाम रखेगी या रख चुकी है जैसे मुगल, मंसूरी, सब अल्लाह पाक की मर्ज़ी और उसी के हुक्म से है बशर्ते के कोई ऐसा नाम ना हो जिसकी सरीह मुमानत आयी हो (यानी जिससे साफ मना किया गया हो)
࿐ (जो हद्द से बढ़ते हुए ये तक कह दे के हम सय्यद वगैरा कुछ नहीं मानते तो उसके मुतल्लिक़ आप रहिमाहुल्लाहू तआला लिखते हैं के) ये कितना बड़ा ज़ुल्म है के दुनिया की तमाम कौ़मों ने अपनी मर्ज़ी से जो चाहा अपना नाम रखा और अल्लाह पाक ने इसे बर क़रार रखा तो क्या इमाम हसन और इमाम हुसैन की अवलाद को ये हक़ नहीं के अपने आप को सय्यद कहें या केहलवाएं?
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࿐ (अगर बिल्कुल इनकार कर दिया जाए कौ़म और क़बिले का तो ये क़ुरआन का इनकार होगा के) अल्लाह पाक फरमाता है के "हमने तुम में मुख्तालफ कौ़म और क़बिले बनाए"
इस फरमान "अल्लाह पाक के नज़दीक मुत्ताक़ी ही बुज़ुर्ग है" का इक़रार कर के दूसरे हिस्से का इनकार नहीं किया जा सकता।
࿐ अल्लाह ताआला फरमाता है " ऐ यहूदियों! किताबुल्लह के बाज़ हिस्से पर ईमान लाते हो और बाज़ का इनकार करते हो! *(अल बक़रह : 85)*
(यानी कुल्ली तौर पर कौ़म व क़बिले की तक़सीम का इनकार भी नहीं किया जा सकता)
࿐ (जो इस में हद से बढ़ कर ये तक कह जाते हैं के सय्यद वगैरा मानना कुफ्र है तो) इस पर एक दूसरे पहलू से ग़ौर कीजिए के जो कहते हैं के क़ुरआन में सय्यद नहीं तो सय्यद को नहीं माना जायेगा तो मालूम नहीं उन्होंने क्या मुराद लिया है, क्या वो ये कहना चाहते है के पूरे क़ुरआन में सय्यद लफ्ज़ कहीं नहीं आया है तो ये ग़लत है, हज़रते यहया अलैहिस्सलाम के तज़किरे में उन्हें सय्यद कहा गया है और अगर ये मतलब है के इमाम हसन और हुसैन कि अवलाद को क़ुरआन में सय्यद नहीं कहा गया तो सही है लेकिन इस बुनियाद पर सय्यद मानने और कहने से इंकार निरी जहालत और ला इल्मी है।
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࿐ हुज़ूर सल्लल्लाहों त'आला अलैही वसल्लम को हाशमी और मुत्तलबी कहा जाता है हालाकि क़ुरआन में आप को हाशमी और मुतलबी नहीं कहा गया तो क्या अब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहों ताआला अलैहि वसल्लम के हाशमी होने का भी इंकार करेंगे और आपको मुत्तलबी कहने को कुफ्र कहेंगे?
एक बात और का़बिले गौर है के हुज़ूर सल्लल्लाहों त'आला अलैहि वसल्लम ने इमामैन करीमैन के लिए फ़रमाया :
سيدا شباب اهل الجنة
(البداية والنهاية لابن كثير، ج8،ص179)
इमाम हसन के लिए फ़रमाया :
ان ابنى هذا سيد
(مشكوة، كتاب الفضائل فصل اول)
अरबी सादाते किराम की जड़ बुनियाद इन्हीं दोनों बुजुर्गो से है!
࿐ सवाल ये है के ये दोनों बुज़ुर्ग सादात में दाख़िल है या खारिज, अगर दाख़िल हैं तो बताईए के हुज़ूर सल्लल्लाहों ताआला अलैहि वसल्लम इन को सय्यद कह कर क्या हुए और अगर ख़ारिज है तो सादात की इबतेदा कहाँ से हैं, क्या अब इनको सय्यद कहने के लिए हुज़ूर सल्लल्लाहों त'आला अलैहि वसल्लम की हदीस काफी नहीं?
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࿐ हमने शुरू में कहा और अभी भी कहते हैं के जिस आयत में अल्लाह पाक ने परहेज़गारी को ही बुज़ुर्गी क़रार दिया है तो वो हक़ है और हुज़ूर सल्लल्लाहों ताआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया :
لا فضل لعربي على عجمى... الخ
(مسند احمد بن حنبل،ج5،ص411)
"अरबी को अजमी पर फजी़लत हासिल नहीं"
࿐ ये सही है, बेशक आयात वा अहदीस में फ़रमाया गया के नसब वा खानदान पर फख्र नाजायज़ वा ममनू है, फजी़लत का मदार तक्वा और अमल पर है तो जो आदमी भी कौमियत और नसब पर झूठा फखर करेगा मुजरिम ओर गुन्हेगार होगा, सय्यद हो या ग़ैर सय्यद।
लेकिन दुसरी तरफ ये आयत भी है :
قل لا اسالکم علیہ اجرا الا المودۃ فی القربی
(الشوری:23)
࿐ तफ़सीर की जिन किताबो का ज़िक्र आया है उन सब में आयत का ये मतलब बयान किया गया ए पैगम्बर आप मुसलमानो से ये कह दें की हमें तबलीग का मुआव्ज़ा नहीं चाहिये, तुम हमारी आल और हमारी इतरत से मुहब्बत करो और मुहब्बत की तीन क़िस्में हैं, शेहवत की वजह से मुहब्बत जैसे मिया बीवी की, ताज़ीम की वजह से मुहब्बत जैसे बाप से मुहब्बत और ज़ाहिर है की अहले बैत की मुहब्बत ताज़ीम की वजह से है तो क़ुरआने करीम सादात की ताज़ीम का हुक्म देता है।
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࿐ कसीरुत तादाद (तादाद में बहुत) हदीसें हैं जिन रसूलुल्लाह के अहले क़राबत से मुहब्बत व ताज़ीम का हुक्म है, तफ़सील के लिये आला हज़रत फाज़िले बरेल्वी मौलाना अहमद रज़ा खान रहिमहुल्लाहू त'आला की किताब :
"اراۃ الادب لفاضل النس"
देखी जाये
࿐ पस यक तरफा आयत व अहादीस देखना और क़ुरआनो हदीस में जो इनकी ताज़ीम व तकरीम का हुक्म आया है उनसे आँखें बंद कर लेना कहाँ का इन्साफ है और अगर गौर किया जाये तो साफ पता चल जायेगा की जिस आयत और हदीस का पहले ज़िक्र हुआ उन में आबा (बाप दादा) पर फख्र की मुमानत का हुक्म है तो इसके मुकल्लफ़ वही लोग होंगे जिनको उर्फे आम में नसबी बरतरी हासिल हो वही फख्र बिल आबा के मुर्तकीब हो सकेंगे भला वो लोग फख्र कैसे करें जिन के नसब ऐसे हो ही नहीं पस मालूम हुआ की इस आयत के मुकल्लफ़ साहिबान -ए- अन्साब (नसब वाले हज़रात) हैं और दुसरी आयत व अहादीस में सब लोगों को सादात की ताज़ीम करना चाहिये तो इन दोनो आयतो में तारुज़ नहीं, सादात और साहिबाने नसब की ड्यूटी फख्र से परहेज़ और सादाते किराम के साथ हुस्ने सुलूक और एहतिराम का बक़िया लोगों को हुक्म।
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࿐ जब तक दोनो अपने वज़िफे पर अमल करें सहीह इस्लामी सूरते हाल है।
࿐ लेकीन फर्ज़ किजीये किसी सैयद ने ऐलान के साथ अपने आबा पर फख्र करने की हरकत की तो वो फासिक़े मुअल्लीन हो गया, इमामत में अब उस का तरजीही हक़ खत्म हो गया बल्कि अब गैरे सैयद जो फासिक़ नहीं है उसके (यानी सैयद साहिब के) मुक़ाबले में इमामत का अहल ज़्यादा होगा और आखिरत में इसका दर्जा भी बुलंद होगा।
अब अगर कोई चाहे की इन सैयद साहिब की सजा सब सैयदो को दी जाये जो आबा पर फख्र नहीं करते और सब से इमामत के हुक़ूक़ छीन लिये जायें, ये शरीअत को पसंद नहीं।
࿐ इमामत की एक मिसाल मैने पेश की (इसी तरह) क़ाज़ी बनाना या मुआशराती बर्ताव जैसे ताज़ीम के लिये खड़ा होना या इब्तेदा करना सलाम में सारे मसाईल का यही हुक्म होगा, इसी तरह आखिरत में फज़ाइले दरजात का
हाल होगा।
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࿐ और फर्ज़ किजीये की सैयद और गैर सैयद तमाम तर मज़्हबी तरजीहत में बराबर हैं तो यहां सैयद को ज़रूर तरजीहे हुक़ूक़ हासिल होना चाहिये की क़ुरआन में है :
الا المودۃ فی القربی
࿐ अब जो आयत है की अल्लाह त'आला के नज़दीक परहेज़गारी और तक़्वा ही बुज़ुर्गी है तो इसका ये मतलब नहीं की सैयद की कोई फज़ीलत ही नहीं या ये जो फ़रमाया गया की मेरी आल से मुहब्बत करो तो इसका ये मतलब भी नहीं की सैयद कैसा ही बदकिरदार हो महज़ सैयद होने के नाते गैर सैयद उलमा, सुलाहा के तमाम हुक़ूक़ पर बाला होगा।
࿐ सवाल में एक ऐसे शख्स का ज़िक्र था जिस ने कहा कि उलमा ने बाद में सय्यिदों को बढ़ा दिया है यानी इनका मर्तबा बढ़ा कर बयान किया वरना इस्लाम में सब बराबर हैं तो आप राहीमहुल्लाहु त'आला लिखते हैं कि सवाल में एक बात और भी निहायत तकलीफ़ देह कही गयी है कि बाद के उलमा ने सय्यिदों को बढ़ा दिया, हदीस शरीफ़ में है कि :
اذکر کم اللہ فی اھل بیتی
(سنن ابن ماجہ، باب فضائل الصحابہ، 36)
࿐ तिर्मिज़ी ने इस हदीस की हसन कहा, तबरानी और हाकिम ने भी रिवायत किया।
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࿐ अल्लाह त'आला जिस ने क़ुरआन उतारा और रसूलुल्लाह ﷺ जिनसे फज़ाइले अहले बैत में कसीर हदीसें मरवी हैं, क्या बाद के उलमा में शुमार होंगे?
࿐ बुखारी शरीफ़ में है : हज़रते अबू बकर सिद्दीक़ रदिअल्लाहु त'आला अन्हु फ़रमाते हैं कि :
لقرابۃ رسول اللہ احب الی ان اصل من قرابتی
(کتاب فضائل الصحابہ)
࿐ मेरे नज़दीक मेरे क़राबत दारों से ज़्यादा रसूलुल्लाह ﷺ के क़राबत दार सिला रहमी के मुस्तहिक़ हैं, हदीस की किताबों में है, हज़रते उमर फ़ारूक़ रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने अहले बैत का वज़ीफ़ा दूसरों से ज़्यादा मुक़र्रर किया, क्या ये दोनों हज़रात बाद के उलमा में से हैं?
࿐ हक़ ये है कि सय्यिदों को जो कुछ इज़्ज़त मिली है वो अल्लाह त'आला और उस के रसूल ﷺ की तरफ़ से है, उलमा को क्या इख्तियार है कि अपने पास से कुछ दें।
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࿐ (मज़ीद लिखते हैं कि) ऊँच नीच का मतलब अगर ये है कि जिस तरह हिन्दू धर्म में था कि ब्राह्मण कोई गुनाह करे तो हल्की सज़ा और शूद्र वही गुनाह करे तो सख्त सज़ा, इस्लाम में इस किस्म की कोई तफरीक़ नहीं, हदीस शरीफ़ तो सब जानते हैं :
ان فاطمۃ بنت محمد لو سرقت لقطعۃ یدھا
(صحیح البخاری، 1003/2)
࿐ दूसरे मज़ाहिब में जिस तरह ऊँची नीची ज़ातों के इबादत खाने बने हैं कि तुम लोग ऊँचे लोगों के इबादत खानों में जा नहीं सकते और तुम लोग मज़हब की मुक़द्दस किताब पढ़ नहीं सकते, इस्लाम में ऐसी कोई तफरीक़ नहीं है कि ज़ात की बुनियाद में किसी मजलिस में जाने या क़ुरआनो हदीस की तालीमो त'अल्लुम और उलमा के दर्जे पर फ़ाइज़ होने से रोका जाये।
࿐ इसी तरह मुआशरती मुआमलात में जो चीज़ें छूत छात के नाम से मुरव्वज हैं कि कोई किसी का झूठा नहीं कहा सकता, कोई किसी के खाने का बर्तन नहीं छू सकता, इस ना बराबरी का भी इस्लाम में कोई मक़ाम नहीं बल्कि ये सारे मुआमलाते इस्लामी आम तौर से इसी तरह राइज हैं जैसा शरीअत ने हुक्म दिया है।
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࿐ इस्तिस्ना का ज़िक्र नहीं किया जा सकता मगर हमारे ख्याल में इसके अवामिल भी नसबी ऊँच नीच के बजाये सरवत और ग़ुर्बत के असरात हैं।
࿐ आज एक बनिया और साहूकार चाहे किसी बिरादरी का हो जब अपनी कार पर आता है तो बड़े-बड़े नामो नसब वाले खड़े हो कर आदाब बजा लाते हैं और कुर्सी खाली कर देते हैं इसीलिये अस्ल इलाज ये है कि आपस में एक दूसरे में कीड़े ना डाले जायें, जो लोग किसी एहसासे कमतरी में मुब्तिला हैं वो इल्मी, अख़लाक़ी और तहज़ीबी हैसिय्यत से अपने अंदर कमाल पैदा करें फिर उन्हें किसी तरजीही सुलूक की शिकायत ना होगी।
(فتاوی بحر العلوم، ج6، ص385 تا 390، ملخصا و ملتقطا)
࿐ फतावा अजमलिया में तफ़सीली बहस
हज़रत अल्लामा मुफ़्ती शाह अजमल क़ादरी रहीमहुल्लाहु त'आला से बिरादरी के मुतल्लिक़ ये सवालात किये गये कि हिंदुस्तान में हमारी बिरादरी यानी वो लोग जो हलाक़ी करते हैं, ये कि बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं, मुख्तलफ़ मक़ामात पर मुख्तलफ़ नामों से मशहूर हैं, हज्जाम, नाई, ख़लीफ़ा, हलाक़, सिद्दीक़, इब्राहीमी, लुक़मानी और सलमानी वग़ैरह।
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࿐ (1) हज्जाम : इस पेशे करने वाले को आम तौर पे कहा जाता है लेकिन दर हक़ीक़त हज्जाम पछना लगाने वाले को कहते हैं, इसीलिये ये लोग इसके ख़िलाफ़ हैं।
࿐ (2) नाई : ये पयामे मौत सुनाने वाले को कहते हैं, "ने" बजाने वाले को कहते हैं, ते सब इस नाम के ख़िलाफ़ हैं।
࿐ (3) ख़लीफ़ा : बाज़ का ख्याल है कि हज़रते आदम अलैहिस्सलाम को अल्लाह त'आला ने ख़लीफ़ा फ़रमाया :
(انی جاعل فی الارض خلیفہ)
है और सबसे पहले हलाक़ी हज़रते आदम अलैहिस्सलाम पर हज़रते जिब्रईल अलैहिस्सलाम ने फ़रमा कर जन्नत में दाखिल किया, इसीलिये हमको ये निस्बत ख़लीफ़ा की है।
࿐ (4) हलाक़ : दर अस्ल इस पेशे को करने वाले की निस्बत लफ़्ज़े हलाक़ ही आया है मगर हिंदुस्तान में जिनके आबा व अजदाद ने भी इस पेशे को नहीं किया है और वो हिकमत या जर्राही (ज़ख्म चीर फाड़ का पेशा) या मुलाज़िमत करते हैं वो हलाक़ कहना पसन्द नहीं करते।
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࿐ (5) सिद्दीक़ : बाज़ का ख्याल है कि हज़रते अबू बकर सिद्दीक़ रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने हुज़ूर ﷺ की तराश की है, इसीलिये निस्बत सिद्दीक़ है।
࿐ चूँकि हलाक़ कराना, लबों का कटवाना, खतना कराना वग़ैरह ये सुन्नते इब्राहीमी है और हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम की निस्बत तो क़ुरआने पाक में है :
انہ کان صدیقا نبیا
इसीलिये निस्बते सिद्दीकिया है, हम सिद्दीक़ हैं।
࿐ (6) इब्राहीमी : इन लोगों का ख्याल है कि जो सुन्नतें हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम पर नाज़िल हुयी हैं वो हमारी रोज़ी का ज़रिया बना दी गयी हैं, इसीलिये इब्राहीमी निस्बत लेते हैं।
࿐ (7) लुक़मानी : कहते हैं कि हज़रते लुक़मान अलैहिस्सलाम हकीम थे और हलाक़ कराना और जर्राहि और फ़सद और हिकमत सब इन्हीं से है, इसीलिये हम को निस्बत लुक़मानी मिली।
࿐ (8) सलमानी : बाज़ हज़रात कहते हैं कि हमारे बाप दादा अपने आप को हज़रते सलमान फ़ारसी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से तबर्रुकन निस्बत लेते थे और उनकी फ़ातिहा दिलाते थे नीज़ "फैज़ुर्रहमान फ़ी फ़ज़ाइलिस सलमान" में हज़रते सलमान फ़ारसी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से मरवी है कि जो शख्स, इस पेशे को करने वाले का फ़र्ज़ है कि इस्लाह व तक़वा को पकड़ें और उन तरीक़ों से वाकिफ़िय्यत पैदा करें जिन से इस का ये काम करना हलाल और रोज़ी हासिल करने का बाइस हो वरना काम को बा-क़ाइदा करने वाला गुनाहगार है। जो शख्स इस पेशे को बा-क़ाइदा करेगा वो मुफ़्लिस व मुहताज नहीं रहेगा और उस का मुँह कियामत के दिन 14वीं के रात के चाँद की तरह चमकेगा।
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࿐ (साइल मज़ीद लिखता है) हमें शजरा -ए- नसब मिलाना हरगिज़ मंज़ूर नहीं, बल्कि अपनी क़ौम की शनाख्त है, अल्लाह के हबीब के महबूब सहाबी से तबर्रुकन निस्बत है ताकि शनाख्त में आसानी हो, नीज़ इसी नाम की सुन्नी अंजुमनें क़ाइम हैं, बा-क़ाइदा नाम है और हर बिरादरी से ताल्लुक़ रखने वालों के, दूसरी जमाअतों के हम पल्ला मौज़ू नाम भी है नीज़ हम सलमानी हज़रात ये भी डरते हैं कि किसी दूसरे नबी से हमने निस्बत ली तो हमें डर है कि हुज़ूर ﷺ को नागवार ना हो और जैसा कि हज़रते उमर फ़ारूक़ जब तौरात पढ़ते थे तो हुज़ूर के चेहरा -ए- अक़्दस पर आसारे ग़ुस्सा नुमाया होते थे, इसीलिये हम लुक़्मानी, इब्राहीमी, सिद्दीक़ी निस्बतों के ख़िलाफ़ हैं।
࿐ अब जनाबे वाला इन तमाम सवालात पर ग़ौर फ़रमायें और हमें क़ुरआनो हदीस की रौशनी में फ़रमाइये कि जब शजरा -ए- नसब मिलाना मंज़ूर नहीं है, कुफू की शनाख्त मंज़ूर है, क़ौम के बिखरे हुये शीराज़ा को जमा करना मक़्सूद है और सलमानी नाम पर मुन्तज़िम हैं जो हम को किसी ऐसे नाम पर जो हमारी शनाख्त में धोका डाले जैसे कि सिद्दीक़ जब कि हिंदुस्तान में कलाल, रंगरेज़, रंग साज़, चूड़ी साज़, अपने आप को सिद्दीक़ी कहते हैं नीज़ हज़रते सिद्दीके अकबर की औलाद अस्ली सिद्दीक़ हैं तो क्या शनाख्त कुफू की रही।
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࿐ इब्राहीमी : म'अमर भी अपने आप को इब्राहमी कहते हैं नीज़ हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम का ये पेशा ना था।
࿐ दूसरे पारसी, ईसाई वग़ैरह भी निस्बते इब्राहीमी पर पाबंद हैं, खतना वग़ैरह करते हैं नीज़ तराशी वग़ैरह करते हैं।
࿐ लुक़्मानी : हिन्दू मुस्लिम जो भी इस पेशे को करते हैं अगर निस्बते लुक़्मानिया ही लेते हैं तो इस का इतलाक़ हर तबीब, जर्राह पर और बाल तराशने वाले पर हो सकता है तो हमको क्या इम्तियाज़ रहा, इन सब वुजूहात की बिना पर हम सलमानी को बेहतर और मुनासिब समझते हैं और अपने शरीज़ा को किसी दूसरे नाम से मुंतशिर समझते हैं और अपने शरीज़ा को किसी दूसरे नाम से मुंतशिर नहीं करना चाहते जब कि इसी नाम से हम गवर्नमेंट से अपने कई हुक़ूक़ मनवा चुके हैं।
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࿐ आप रहीमहुल्लाहु त'आला इस तवील सवाल के जवाब में लिखते हैं :
मुक़द्दिमा -ए- ऊला : हिन्दुस्तान के मुसलमानों में क़ौमिय्यत का लिहाज़ दो उमूर से है :
(1) नसब
(2) पेशा
࿐ नसब का मतलब क़राबत और नस्ल है और नसब के ऐतबार से चार क़ौमें मशहूर हैं :
(1) सय्यिद, मुगल, पठान और शैख़। फिर शैख़ दो तरह के हैं, एक क़ुरैशी जिन्हें सिद्दीक़ी, शैख़ फ़ारूक़ी, शैख़ उस्मानी, शैख़ अलवी, शैख़ अब्बासी, शैख़ जफ़री कहते हैं।
࿐ दूसरे शैख़ हैं ग़ैरे क़ुरैशी जो शैख़ अंसारी कहलाते हैं। ये अक़वाम अपना अपना नसब साबित करती हैं और अपने आप को इनकी नस्ल व औलाद में कहती हैं। पेशा जो बा माना कसब व हुनर के हैं तो पेशे के ही लिहाज़ से हर पेशे वाले का नाम मुक़र्रर किया गया है।
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࿐ मस्लन तेल निकालने वाले को तेली, रोगन गार, अत्तार, लोहे के काम करने वाले को लुहार, आहिंगार, हद्दाद, रूई धुनने वाले को धुन्ना, पुम्बा ज़न, नदाफ़ कपड़ा बनाने वाले को जुलाहा, जामा बाफ़, हाइक, कपड़ा रंगने वाले को रंगरेज़, सब्बाग़, जानवर चराने वाले को चरवाहा, शबा राई, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को कुम्हार, कासा साज़, फक्खार, कमान बनाने वाले को कमान गार, कमान साज़ क़व्वास, ख़त बनाने वाले को हज्जाम, मुँह तराश, हलाक़, तवर्दू, फ़ारसी अरबी में पेश के लिहाज़ से नाम रखा गया है।
࿐ बिलजुमला क़ौमिय्यत का इसी बिना का लिहाज़ इस क़द्र ज़रूरी है कि अगर कोई शख्स इन में से किसी पेशे को करेगा तो पेशे की बिना पर उसकी क़ौमिय्यत पर कोई असर नहीं कि ना नसबी क़ौम इस को अपनी क़ौम से खारिज करे ना पेशे की क़ौम इस को अपने अंदर दाखिल करे।
࿐ इस तरह जो पेशावार क़ौम में से जो शख़्स अपने पेशे को छोड़ देते हैं तो उसकी पेशे वाली क़ौमिय्यत नहीं बदलती, ना कोई नसबी क़ौम उस को अपने अंदर शामिल करे, ना इस पेशा वाली क़ौम उस को अपने अंदर अपनी क़ौम से खारिज करे तो साबित हो गया कि नसबी अक़वाम और पेशावार अक़वाम में बुनियादी तौर पर इम्तियाज़ हासिल है।
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࿐ मुक़द्दिमा -ए- सानिया : नसबी अक़वाम को अपने सिलसिला -ए- नसब पर एतिमाद हासिल करना ज़रूरी है, अब वो एतिमाद तो शजरा -ए- नसब पर हो या बा-तारीक़ा शोहरते तवातुर के हो, या किसी मशहूर खानदान से उसे सहीह इत्तिसाल (जुड़ा हुआ) हो।
࿐ और बिला किसी सुबूत के अपना नसब खुलफ़ा -ए- राशिदीन या सहाबा -ए- किराम या किसी बुज़ुर्ग की तरफ़ निस्बत कर देना मम्नूअ है।
࿐ बुखारी, मुस्लिम, अबू दाऊद वग़ैरह कुतुब में ये हदीस है : من انتمی الی غیرابیہ فالجنۃ علیہ حرام
࿐ यानी जो अपने बाप के सिवा किसी दूसरे को अपना बाप बना ले दानिस्ता तो इस पर जन्नत हराम है।
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࿐ दूसरी हदीस सिहाह सित्ता की ये है :
من ادعی الی غیرابیہ فعلیہ لعنٹ اللہ والملائکۃ والناس اجمعین لا یقبل اللہ منہ یوم القیامۃ صرفا ولا عدلا
࿐ जो दूसरों को अपना बाप बनाये उस पर अल्लाह, फ़िरिश्तों और आदमियों की लानत है, अल्लाह त'आला कियामत के दिन उस का फ़र्ज़ क़ुबूल करे ना नफ़्ल।
࿐ अहादीस से साबित हो गया कि बग़ैर तहक़ीक़ व सुबूत के अपने आप को किसी से मंसूब करना लानत का सबब है और अपने ऊपर जन्नत को हराम करना है, उस के फ़र्ज़ और नफ़्ल ग़ैरे मक़बूल तो बिला सुबूत के जो अपने आप को सय्यिद या मुग़ल या पठान ठहराये या क़ुरैशी या शैख़ सिद्दीक़ी या शैख़ फ़ारूक़ी या शैख़ उस्मानी या शैख़ अलवी या शैख़ अब्बासी या शैख़ जफरी कहलाये या शैख़ अंसारी क़रार दे और उस के पास इन हज़रात तक इत्तिसाले नसब का कोई सुबूत ना हो और वो महज़ हुसूले इज़्ज़त की बिना पर इन बा इज़्ज़त अक़वाम की तरफ़ नसब को मंसूब करे तो वो अपना हुक्म इन अहादीस में देखे और दुनिया की नापायेदार इज़्ज़त के मुक़ाबले में हक़ीक़ी उखरवी इज़्ज़त को ना खोये।
࿐ बिला शुब्हा हक़ीक़ी इज़्ज़त अल्लाह त'आला और उस के रसूल की इताअत में है, ना उनकी मुख़ालिफ़त में।
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࿐ मुक़द्दिमा -ए- सालसा : कसब, पेशा, ख़िदमत ये सब मु'तरदिफ़ अल्फ़ाज़ हैं और कसब के माना जो हुसूले नफ़ा के लिये काम किया जाये।
जामिउल उलूम में है :
ھو الفعل المفضی الی اجتلاب نفع الی اخرہ
࿐ तो शरई ऐतबार से हर कसब व पेशा जाइज़ है जिस में कोई क़बाहते शरई ना हो।
फ़तावा आलमगीरी में है :
و افضل اسباب کسب الجھاد ثم التجارۃ ثم المزارعۃ ثم الصناعۃ
࿐ यानी अस्बाबे कसब में सब से बेहतर जिहाद है फिर तिजारत फिर ज़र'अत फिर हुनर का काम।
࿐ और जिन को कसब व पेशों में किसी तरह की शरई क़बाहत लाज़िम आये वो कसब खबीस और क़ाबिले आर है।
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࿐ रद्दुल मुहतार में है :
ما خبث من المکاسب فلزم عنہ العار
(رد المحتار، ج5، ص481)
࿐ यानी जो कसब खबीस हैं उन से आर लाज़मी आती है तो शरई ऐतबार से कसब व पेशा के अल्फ़ाज़ व क़बीह होने बल्कि आर और ग़ैरे आर होने का मदार इसी नज़रिये पर है।
࿐ अब रहा उर्फ़ तो उर्फ़ ने बाज़ पेशों को बा इज़्ज़त क़रार दिया है और बाज़ को ज़लील और क़ाबिले आर ठहराया है। लिहाज़ा बाज़ पेशे ऐसे हैं जो उर्फी ऐतबार से ज़लील और क़ाबिले आर हैं लेकिन शरई ऐतबार से ना ज़लील ना क़ाबिले आर और बाज़ ऐसे हैं जो उर्फी ऐतबार से बा इज़्ज़त हैं लेकिन शरीअत उन्हें खबीस व ज़लील और क़ाबिले आर क़रार देती है तो अब ये लाज़िम नहीं हर वो पेशा जिसे उर्फ ज़लील और क़ाबिले आर क़रार दे वो शरई ऐतबार से भी ज़लील और क़ाबिले आर हो।
࿐ बिलजुम्ला उर्फ़ जिन पेशों को ज़लील व क़ाबिले आर रखता है तो उस पेशे की ज़िल्लत की बिना पर उस पेशे को करने वाले को भी ज़लील क़रार देता है तो इस की ज़िल्लत व इज़्ज़त का दारोमदार उर्फ़ की बिना पर है ना कि शरीअत के ऐतबार से।
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࿐ मुक़द्दिमा -ए- रबीआ : उर्फी ऐतबार से भी वो पेशा व कसब ज़लील और क़ाबिले आर होता है जो दूसरे के लिये किसी उजरत व नफ़ा के इवज़ (बदले में) किया जाये और जो काम अपने लिये किया जाये वो उस का पेशा कहलाता है, ना उसे अहले उर्फ़ ज़लील और क़ाबिले आर समझते हैं और जो शख्स खुद अपनी बकरियाँ चराये वो ऐब नहीं चुनाँचे रसूले करीम ﷺ ने अपनी बकरियाँ चरायीं। (उजरत पर किसी की नहीं)
शरह शिफ़ा शरीफ़ में है कि :
قال المحققون انہ علیہ السلام لم یرع لا حدبا لا جرۃ و انما رعی غنم نفسہ و ھذا لم یکن عیبا
(شرح شفا مصری، ص448)
࿐ यानी उलमा -ए- मुहक़्किक़ीन ने फ़रमाया कि हुज़ूर ﷺ ने किसी की उजरत पर बकरियाँ नहीं चरायीं बल्कि खुद अपनी बकरियाँ चरायीं और ऐसा चराना ऐब नहीं और इसी तरह दूसरे अम्बिया -ए- किराम ने जो भी काम किये तो वो खुद अपने काम हैं किसी दूसरे के उजरत पर नहीं किये।
࿐ तो ये अम्र साबित हो गया कि वो पेशा ऐब व आर है जो दूसरे के उजरत व नफ़ा के इवज़ में किया जाये और जब खुद अपना काम किया तो उर्फ़ में ना वो आर कहलाता है ना ऐब व आर होता है।
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࿐ बिल जुम्ला कोई पेशावर, अम्बिया अलैहिमुस्सलाम के किसी फेल को अपने पेशे की सनद में नहीं ला सकता क्योंकि पेशावर और अम्बिया अलैहिमुस्सलाम के अफ़'आल में चंद वजह से फ़र्क़ है :
(1) ये हज़रात अपना काम करते हैं और हर पेशावर दूसरे के लिये करता है।
(2) इन हज़रात के फेल को उजरत से कोई इलाक़ा नहीं और पेशावर उजरत व नफ़ा के लिये काम करता है।
(3) इन हज़रात के फेल ना दूसरों के लिये हैं ना बाग़र्ज़े उजरत है, वो ऐब व आर नहीं और पेशावर दूसरों के लिये बाग़र्ज़े उजरत करता है तो वो उर्फ़ में ऐब व आर क़रार पाया।
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࿐ (4) हज़राते अम्बिया के अफ़'आल कसीर फ़वाइद और हिकमतों पर मबनी होते हैं चुनाँचे शिफ़ा शरीफ़ की शरह में है:
فھل ارعی الأنبياء للغنم من فائدۃ؟ فیقال: نعم فی ذلک ای رعی العنم للانبیاء حکمۃ بالغۃ لا یدرکھا الا الاصفیاء
(شرح شفا،ص46)
࿐ और पेशावर के फ़ेल में वो फवाइद और हिकमतें नहीं हो सकती तो अग़राज़ व मक़ासिद के बदल जाने से फ़ेल के अहकाम भी बदल जाते हैं लिहाज़ा किसी पेशावर को अपने पेशे की सनद में हज़राते अम्बिया -ए- किराम के किसी फ़ेल के ज़िक्र करने का हक़ हासिल नहीं।
࿐ मुक़द्दिमा -ए- ख़मीसा : अगर्चे शरीअते मुतहिरा में अक्सर मक़ामात पर पेशा और पेशावर की उर्फ़ी ज़िल्लत और ऐब व आर का ऐतबार नहीं किया है लेकिन बाज़ मक़ामात ऐसे भी हैं कि जिन में शरीअत ने उर्फ़ी ज़िल्लत और ऐब व आर का ऐतबार किया है जैसे मसअला -ए- कफा'अत और ताज़ीमे अम्बिया की बहस कि अम्बिया की शान में उर्फ़ी ज़िल्लत और ऐब व आर को भी मुअतबर क़रार दे कर अहकाम सादिर फ़रमाये।
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࿐ चुनाँचे फ़तावा आलमगीरी में है :
رجل قال مع غیرہ ان آدم علیہ السلام نسبح الکرباس پس ماہمہ جولاہا بچگاں باشیم فھذا کفر
࿐ यानी एक शख्स ने दूसरे से कहा कि आदम अलैहिस्सलाम ने सूती कपड़े बनाये तो हम सब जुलाहे उनके बच्चे हुये तो ये कुफ्र है।
࿐ शिफ़ा शरीफ़ में है :
رجل غیر رجلا بالفقر فقال تعیر نی وقد رعی النبی صل یاللہ علیہ والہ وسلم النغم فقال مالک قال عرض بذکر النبی صلی اللہ علیہ والہ وسلم فی غیر موقعہ اری ان یودب
(شرح شفا، ص448)
࿐ यानी एक शख्स ने दूसरे पर फ़क़र की मलामत की (कि तू फ़क़ीर है) उस ने कहा तूने मुझे मलामत की हालाँकि नबी -ए- करीम ﷺ ने बकरियाँ चरायीं तो इमाम मालिक ने फरमाया कि उस ने नबी का ज़िक्र ग़ौर लाइक़ मक़ाम पर किया तो मै यक़ीन करता हूँ कि उसे सज़ा दी जाये
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࿐ इन इबारात से साबित हो गया कि उर्फ़ ने जिस पेशे को ज़लील और क़ाबिले ऐब व आर क़रार दिया उसकी निस्बत हज़राते अम्बिया -ए- किराम की तरफ़ करना उनकी इज़्ज़त व वक़ार के ख़िलाफ़ है।
࿐ हज़रते शैख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस द्हेल्वी रहीमहुल्लाहु त'आला मिश्कात की शरह में लिखते हैं कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया :
بتر سید خدارا در حق اصحاب من و یاد نکنید ایشاں راجز بتعظیم و توقیر و ادا کنید حق صحبت ایشاں را بمن سہ بار مکرر فرمود برائے تاکید و مبالغہ نگیر دو نسازید ایشاں را مثل ہدف بعد از من کہ بینداز ید بجانب ایشاں تیر ہائے دشنام و عیوب
(اشعۃ اللمعات، ج4، ص632)
࿐ यानी हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि तुम लोग मेरे अस्हाब के बारे में खुदा से डरो और उन्हें ताज़ीम व तौक़ीर के सिवा याद ना करो और उनके साथ मेरी सोहबत का हक़ अदा करो, हुज़ूर ﷺ ने ये ताक़ीद व मुबालिगा के लिये तीन बार फ़रमाया और इन्हें मेरे बाद मेरे मिस्ले निशाना के ना बनाओ कि इनकी जानिब गालियों और ऐबों के तीर मारो।
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࿐ इस हदीस से साबित व ज़ाहिर हो गया कि इन हज़रात को भी हमेशा ताज़ीम व तौक़ीर के साथ याद किया जाये, इनकी जानिब किसी ऐब की निस्बत ना की जाये, इनका किसी महले आर में ज़िक्र ना किया जाये, इनके लिये किसी हक़ीर व ज़लील शय का साबित करना हुस्ने अदब के ख़िलाफ़ है।
࿐ मुक़द्दिमा -ए- सादिसा : इज़्ज़त व शराफ़त किसी क़ौम के साथ खास नहीं कि जिस में इल्मे दीन हो वही बा-इज़्ज़त और शरीफ़ है।
࿐ अल्लाह त'आला फ़रमाता है :
قل ھل یستوی الذین یعلمون والذین لا یعلمون
࿐ यानी फ़रमा दो क्या इल्म वाले बे इल्म वालों के बराबर हैं।
࿐ इस आयते करीमा से मालूम हुआ कि हक़ीक़ी इज़्ज़त व शराफ़त आलिमे दीन को हासिल है अब चाहे वो किसी भी क़ौम का हो इसीलिये तो आलिमे दीन अल्वी क़ुरैशी का कुफू है।
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࿐ क़ाज़ी खान में है :
العالم المعجمی یکون کفوا للجاھل العربی والعلوی لان شرف العالم فوق شرف النسب
࿐ इसी तरह दीनदारी और परहेज़गारी भी शराफ़त व इज़्ज़त का सबब है, क़ुरआन में अल्लाह त'आला फ़रमाता है :
ان اکرمکم عند اللہ اتقاکم
࿐ यानी तुम में ज़्यादा मर्तबा वाला अल्लाह के नज़दीक वो है जो ज़्यादा तक़वा रखता है।
࿐ इस आयते करीमा से साबित हुआ कि बा इज़्ज़त व शरीफ़ वो है जो मुत्तक़ी व परहेज़गार हो अब वो चाहे किसी क़ौम का हो।
࿐ इसी बिना पर ज़लील व हक़ीर पेशों के करने वाले अगर मुत्तक़ी व परहेज़गार हों तो उनकी शहादत उन फ़ासिक़ व फुज्जार से बेहतर है जो उर्फ़ी ऐतबार से बा इज़्ज़त हो।
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࿐ शामी में है :
جعلوا العبرۃ لعدالۃ لا للحرفۃ فکم من دنی صناعۃ اتقاء من ذی منصب و جاہ
(شامی، ج4، ص394)
࿐ इसी में फत्हुल क़दीर से नाकिल है :
اما اھل الصناعۃ الدنیۃ کالقنوانی والزوال والحائک والحجام فقیل لا تقبل لانھا قدتو لاھا قوم الصالحون فما لم یعلم القادح لا یبنی علی ظاہر الصناعۃ
࿐ बिलजुम्ला इल्मे दीन और तक़वा और परहेज़गारी शराफ़त का सबब है और हर दो आलम की इज़्ज़त का बाइस है और दोनों किसी क़ौम पर मुन्हसिर नहीं तो जो अक़वाम इज़्ज़त व शराफ़त की तालिब हैं उन्हें इल्मो अमल में तरक़्क़ी करनी चाहिये। मख़सूस नाम का बदल देना इज़्ज़त व शराफ़त का बाइस नहीं हो सकता फिर ये अम्र भी क़ाबिले लिहाज़ है कि मुसलमान को ना सिर्फ अपनी शराफ़ते क़ौमी पर फ़ख़्र करना जाइज़ है ना दूसरी क़ौम पर ताना करना रवा बल्कि किसी मुसलमान को हक़ारत की निगाह से देखना हराम है और उसे छेड़ कर उस का दिल दुखाना (बा दर्जे अवला) मम्नूअ।
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࿐ हदीस शरीफ़ में है :
من اذی مسلما فقد اذانی و من اذانی فقد اذی اللہ
࿐ जिसने किसी मुसलमान को अज़िय्यत दी उस ने मुझे अज़िय्यत दी और जिस ने मुझे अज़िय्यत दी उस ने अल्लाह को अज़िय्यत दी।
࿐ यहाँ तक कि अगर कोई भंगी या चमार मुसलमान हो गया तो उसे भी हक़ारत की नज़र से देखना हराम है कि अब वो हमारा दीनी भाई है।
࿐ अल्लाह त'आला क़ुरआन में इरशाद फ़रमाता है :
انما المؤمنون اخوۃ
यानी मुसलमान भाई-भाई हैं।
࿐ और इस्लाम से दोनों जहान की इज़्ज़त हासिल हो जाती है।
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࿐ अल हासिल इन मुक़द्दिमात करने के बाद सवालों का जवाब बा-आसानी समझ आ गया होगा कि जिस क़ौम का सवाल में ज़िक्र किया गया उनका नाम सिद्दीक़ी, इब्राहीमी, लुक़मानी, सलमानी इस बिना पर नाम रखना कि इब्राहीमी और सिद्दीक़ी में, इब्राहीमी हज़रते इब्राहीम अलैहिस्सलाम की तरफ निस्बत है और सिद्दीक़ी में हज़रते अबू बकर सिद्दीक़ रदिअल्लाहु त'आला अन्हु की तरफ़ और सलमानी में हज़रते सलमान फ़ारसी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु की जानिब और लुक़मानी में हज़रते लुक़मान रदिअल्लाहु त'आला अन्हु की तरफ़ निस्बत और ये ज़ाहिर है कि इन हज़रात की तरफ़ ना तो नसबी ऐतबार से निस्बत साबित हो सकती है ना पेशे के लिहाज़ से तो इन हज़रात की तरफ़ क़ौम की निस्बत गलत व बे अस्ल है और इसके अलावा जब ये पेशा उर्फ़ में हिक़ारत की निगाह से देखा जाता है तो इस पेशे की अस्ल किसी नबी या सहाबी या वली को क़रार देना बे अदबी व गुस्ताख़ी है जिसकी तफ़सील बयान की जा चुकी।
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࿐ अब बाक़ी रही सवाल करने वाले की ये तौजीह की हमें शजरा -ए- नसब मिलाना हरगिज़ मंज़ूर नहीं बल्कि अपने कफू की शनाख्त के लिये अल्लाह के हबीब सहाबी से तबर्रुकन निस्बत ली है, सहीह नहीं है।
࿐ *अव्वलन :* अगर हम ये तस्लीम भी कर लें कि सवाल करने वाले की इब्राहीमी, लुक़मानी या सलमानी से नसबी निस्बत मुराद नहीं है लेकिन इसी क़ौम के बहुत से नाख्वांदा लोग भी क्या यही समझते रहेंगे?
࿐ नहीं नहीं बल्कि वो अपने आप को इन हज़रात की औलाद में बतायेंगे और आइंदा आने वाली नस्ल अपना नसब ही इन हज़रात से साबित करेंगी तो साइल बताये कि इस का सारा वबाल और गुनाह किस की गर्दन पे पड़ेगा?
࿐ *सानियन (दूसरी बात) :* सवाल करने वाले ने ये दावा किया है कि तबर्रुकन वो अपनी बिरादरी की निस्बत इन बुज़ुर्गों की तरफ़ करते हैं लेकिन हक़ीक़तन इस निस्बत के ज़िमन में इन हज़रात को इस पेशे की अस्ल क़रार दिया जा रहा है तो ये हज़रात भी पेशे की उर्फ़ी ज़िल्लत में मुलव्विस हो जाते हैं।
(والعیاذ باللہ تعالی)
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࿐ *सालिसन (तीसरी बात) :* मुक़द्दिमा -ए- ख़मीसा (जो बयान हुआ उस) से साबित हो चुका कि जिस पेशे को उर्फ़ ने अदना व फ़क़ीर ठहरा लिया है उसकी निस्बत इन हज़रात की तरफ़ हुस्ने अदब के ख़िलाफ़ है तो ऐसी निस्बत जिस में उनकी तरफ अदना हक़ारत का वहम पैदा हो जाये, शरीअते मुतहिरा इसकी किस तरह इजाज़त दे सकती है और इस निस्बत को तबर्रुकन किस तरह कहा जा सकता है।
࿐ इसी तरह लफ़्ज़े ख़लीफ़ा की निस्बत के लिये साइल ने जो लिखा है वो बहुत बे जा है।
࿐ फ़िर आयत से इस्तिदलाल करना और हज़रते जिब्रईल अलैहिस्सलाम के लिये हलाक़ी साबित करना और ज़्यादा दिलेरी व ज़ुर्रत है।
࿐ मौला त'आला हज़राते अम्बिया -ए- किराम अलैहिमुस्सलाम और हज़राते सहाबा व अहले बैते उज़्ज़ाम के साथ हुस्ने अदब की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
࿐ साइल को चाहिये कि हर ऐसे लफ्ज़ को अपना तुर्रा -ए- इम्तियाज़ बनाये जिस में बुज़ुर्गों की शाने अरफा व आला में किसी ऐब व नक़्स का वहम भी ना पैदा हो।
(فتاوی اجملیہ، ج4، کتاب الخطر والاباحۃ، ص53 تا 62)
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࿐ मुफ़्ती -ए- आज़म पाकिस्तान, वक़ारे मिल्लत, हज़रत अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद वक़ारूद्दीन क़ादरी रहीमहुल्लाहु त'आला से सवाल किया गया कि जैसा कि आप को मालूम है कि यहाँ ज़ातों से खानदानों की पहचान होती है जैसे कोई शख्स सय्यिद, क़ुरैशी, मुग़ल और कोई ग़ौरी है।
࿐ अब मै नहीं जानता कि शैख़ कौन और कहाँ से आये और इनका सिलिसला क्या है? मैने कई लोगों से मालूम किया लेकिन कोई माक़ूल जवाब ना दे सका, बराये मेहरबानी सहीह जवाब से नवाज़ें।
࿐ आप जवाब में लिखते हैं कि अल्लाह त'आला फ़रमाता है :
و جعلناکم شعوبا و قبائل لتعارفوا
(الحجرات، آیت13)
࿐ यानी और हमने तुम्हें शाखों और क़बीलों में तक़सीम किया ताकि आपस में पहचान रखो। (कंज़ुल ईमान)
࿐ इन शाखों और क़बीलों में से बाज़ का तज़किरा क़ुरआन व हदीस में है मस्लन बनी इस्माईल, बनी इसराईल, बनू तालिब, बनू हाशिम वग़ैरह।
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࿐ हमारे यहॉं जितनी बिरादरी मारूफ़ हैं, उन में सय्यिद के मुतल्लिक़ तो ये कहा जा सकता है कि हुज़ूर ﷺ ने हदीस में इमाम हसन रदिअल्लाहु त'आला अन्हु के मुतल्लिक़ फ़रमाया जिसे इमाम बुख़ारी रहीमहुल्लाहु त'आला अन्हु ने अपनी सहीह बुख़ारी में नक़्ल किया है :
ن ابنی ھذا سید
(بخاری، کتاب الصلح، ص373)
࿐ यानी मेरा बेटा ये सय्यिद है।
࿐ इसीलिये उनकी औलाद को सय्यिद कहा जाता है, दूसरी बिरादरियाँ कैसे बन गयीं और उनके ये नाम किसने रखे इनके मुतल्लिक़ कुछ नहीं कहा जा सकता।
(وقار الفتاوی، ج3، ص236، 237)
࿐ फ़तावा ख़लीलिया में एक सवाल यूँ हुआ कि ज़ात की शरई क्या हैसिय्यत है?
࿐ क्या जिस तरह लोगों ने पेशे इख़्तियार कर लिये इसी तरह ये ज़ातें बन गयीं मस्लन किसी ने पानी भरने का काम किया तो उसे भिस्ती कहते हैं या किसी ने कपड़ा बनाने का काम इख़्तियार कर लिया तो उस को लोग जुलाहा कहते हैं।
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࿐ जवाब में तहरीर है कि ज़ात पात की तफरीक़ सिर्फ़ दुनियावी इम्तियाज़ और रख रखाव के लिये है, नजाते आख़िरत का दारोमदार तक़वा व परहेज़गारी, हक़ परस्ती और खुदा तरसी पर है।
࿐ जो दुनियावी ऐतबार से आला क़ौमिय्यत में माने जाते हैं वो सुन रखें कि उनकी ये आला नसबी आख़िरत में काम ना आयेगी, हुज़ूरे अक़दस के साथ नसबी ताल्लुक़ के इलावा सारे इलाके ख़त्म हो जायेंगे, यही क़ुरआनो हदीस की सहीह तालीम है।
(فتاوی خلیلیہ، جلد3، ص188)
࿐ ये हुज़ूर के नसब की बरकत है कि वो आख़िरत में भी काम आयेगी, बाक़ी किसी को आला क़ौम या बिरादरी जो दुनिया में कहलाती है, उस से कोई फाइदा ना होगा।
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࿐ फ़तावा हज़रते हाफिज़ूल हदीस (फ़तावा भिक्की शरीफ़) में एक सवाल है कि क्या इस्लाम में क़ौमिय्यत का तसव्वुर है?
࿐ आले रसूल के अलावा कोई दूसरा शख्स अपने नाम के साथ सय्यिद या शाह लिख सकता है? आले रसूल ना हो और सय्यिद कहलवाये तो उसकी इक़्तिदा में नमाज़ कैसी है?
࿐ अल जवाब : इस्लाम में क़ौमिय्यत का कोई लिहाज़ नहीं बल्कि तक़वा मुअतबर है।
अल्लाह त'आला फ़रमाता है :
ان اکرمکم عند اللہ اتقاکم
(سورۂ حجرات، آیت13)
࿐ यक़ीनन अल्लाह के नज़दीक वही बुज़ुर्ग है जो मुत्तक़ी और परहेज़गार है।
࿐ आदतन चूँकि लफ़्ज़े सय्यिद उसी के नाम के साथ मुंसलिक किया जाता है जिस का ताल्लुक़ निस्बतन औलादे रसूल से हो, इसके अलावा अगर कोई शख्स अपने नाम के साथ सय्यिद लिखता है तो इस का मतलब यही है कि वो आले रसूल कहलाने की कोशिश करता है और ये एक शरई जुर्म है और दरोग़ गोयी का जुर्म अपनी जगह, इरशादे नबवी है :
ن انتسب الی غیر ابیہ فلیتبوا مقعدہ من النار
जो शख्स अपने आप को अपने बाप के अलावा किसी और तरफ़ मंसूब करे तो चाहिये कि आग में ठिकाना बना ले।
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࿐ रहा लफ़्ज़े शाह तो हमारे मुल्क में ये सय्यिद के ही मुतरदिफ़ इस्तिमाल होता है लेकिन हिंदुस्तान में ये इस क़द्र आम है कि ग़ैरे सय्यिद के लिये भी बोला जाता है, उर्फ़ और आदत का लिहाज़ रखा जायेगा।
࿐ ऐसा शख़्स (जो सय्यिद ना होने के बावजूद खुद को आले रसूल बताये) फ़ासिके मुअल्लिन है इसीलिये फुक़हा के नज़दीक उसके पीछे नमाज़ मकरूहे तहरीमी, वाजिबुल इआदा होगी।
(فتاوی بھکی شریف، ج1، ص76)
࿐ *मसअला -ए- कुफू :* अब एक मसअला आता है कुफू और ग़ैरे कुफू का।
࿐ इसे हम तफ़सील से बयान करने की कोशिश करेंगे।
࿐ कुफू लफ़्ज़ी मानों में बराबरी के लिये आता है और इस्तिलाहे शरअ में कुफू के ये माना हैं कि मर्द औरत से नसब वग़ैरह में इतना कम ना हो कि उस से निकाह औरत के औलिया के लिये बाइसे नंग व आर (यानी बे-इज़्ज़ती और रुस्वाई का सबब) हो।
࿐ कफा'अत (हसब नसब में हमपल्ला होना) सिर्फ मर्द की जानिब से मुअतबर है यानी औरत अगर्चे कम दर्जे की हो उसका ऐतबार नहीं।
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࿐ ये तो मुख्तसरन तारीफ़ बयान की गई, अब अहले इल्म के लिये इसकी तहक़ीक़ में पहले हम अल्लामा ग़ुलाम रसूल सईदी रहीमहुल्लाहु की शरह सहीह मुस्लिम के कुछ सफ़हात को यहाँ नक़्ल करेंगे।
࿐ *कुफू की तहक़ीक़ :-* अल्लामा सरख़सी लिखते हैं कि इमाम अबू हनीफ़ा कुफू में नसब का ऐतबार करते हैं और सुफ़ियान सौरी कुफू में नसब का मुत्लक़न ऐतबार नहीं करते।
࿐ सुफ़ियान सौरी की पहली दलील ये हदीस है कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि तमाम लोग कंघी के दंदानों की तरह बराबर हैं और किसी अरबी को अजमी पर फ़ज़ीलत नहीं है, फ़ज़ीलत सिर्फ तक़वा से हासिल होती है।
࿐ दूसरी दलील ये हदीस है कि अबू तैबा ने बनू बयाज़ा की एक औरत को निकाह का पैग़ाम दिया, उन्होंने इंकार कर दिया।
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࿐ नबी ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि अबू तैबा से निकाह कर दो, अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो ज़मीन पर बड़ा फितना और फ़साद होगा। उन्होंने कहा कि हाँ हम बा खुशी करेंगे!
࿐ और हज़रते बिलाल रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने अरब की एक क़ौम को निकाह का पैग़ाम दिया, रसूलुल्लाह ﷺ ने इरशाद फरमाया कि उनसे कहो कि रसूलुल्लाह ﷺ ये हुक्म देते हैं कि मेरा निकाह कर दो और हज़रते सलमान फ़ारसी ने हज़रते उमर फ़ारूक़ रदिअल्लाहु त'आला अन्हु की साहिबज़ादी का रिश्ता माँगा, उन्होंने ये पैग़ाम मंज़ूर कर लिया था बाद में किसी और वजह से ये निक़ाह नहीं हुआ।
࿐ अल्लामा सरख़सी एक तवील बहस के बाद सुफ़ियान सौरी की दूसरी दलील में पेश कर्दा अहादीस के जवाब में लिखते हैं कि :
وتاویل الحدیث الاخر الندب الی التواضع و ترک طلب الکفاءت لا الا لزام دبہ تقول ان عند الرضا یجوز العقد
(المبسوط، ج5، ص23)
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࿐ दूसरी हदीस का जवाब ये है कि तवाज़ो और इन्किसार करना और कुफू की तलब को तर्क करना मुस्तहब है और कुफू का ऐतबार करना लाज़िम नहीं है और हम भी यही कहते हैं कि रज़ा के वक़्त (ग़ैरे कफू में) निकाह करना जाइज़ है।
࿐ अल्लामा सरख़सी की इस इबारत से ये वाज़ेह हो गया कि इमाम अबू हनीफ़ा के नज़दीक कुफू को तलब करना लाज़िम नहीं है बल्कि मुस्तहब ये है कि तवाज़ो और इन्किसारी को इख़्तियार कर के ग़ैरे कुफू में निकाह किया जाये।
(و للہ الحمد)
࿐ अल्लामा सरखसी ने जो कुछ बयान किया है, यही इस्लामी तालीमात की रूह है।
࿐ असल चीज़ इस्लाम (ईमान) और आमाले सालिहा हैं।
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࿐ बाज़ उलमा ने लिखा है कि इल्म और तक़वा की फ़ज़ीलत आरिज़ी है और सादात की नसबी फ़ज़ीलत ज़ाती है। आरिज़ी फ़ज़ीलत ज़ाइल हो सकती है पर नसबी फ़ज़ीलत का ज़वाल नहीं हो सकता लेकिन इन बुज़ुर्गों ने ये ग़ौर नहीं किया कि सादात की नसबी फ़ज़ीलत इस्लाम और आमाले सालिहा के बग़ैर ग़ैर मुअतबर और कल'अदम है, माज़ अल्लाह अगर कोई सय्यिद मुर्तद हो जाये तो क्या उस की नसबी फ़ज़ीलत ज़ाइल नहीं हो जायेगी!
࿐ हज़रते नूह अलैहिस्सलाम का बेटा जब ईमान नहीं लाया तो क्या उसे ये नहीं फ़रमाया गया :
ان لیس من اھلک انہ عمل غیر صالح
(ہود:٤٦)
࿐ ये तुम्हारा अहल नहीं है क्योंकि इस के आमाल नेक नहीं है।
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࿐ आज दुनिया में काले और गोरे की तफरीक़ पर नस्ली इम्तियाज़ बरते जा रहे हैं और सफ़ेद फाम अक़वाम सियाह फामों को अपने बराबर के हुक़ूक़ देने को तैयार नहीं हैं भारत में ब्राह्मण ऊँची ज़ात के सपूत है और शूद्र नीच ज़ात का समझा जाता है, इसी तरह एक ज़माने में ग़ुलामों को आज़ाद लोगों का दर्जा नहीं दिया जाता था, आज भी अमीरों और ग़रीबों में तफरीक़ रखी जाती है, आज भी जुलाहों, हज्जामों और मोचियों को नीचा समझा जाता है और ये नहीं समझते कि जुलाहे (कपड़े बनाने वाले) ना हों तो हम सरे आम बरहना नज़र आयें, मोची ना हो तो हम अपने पैरों को गर्मी और गंदगी से बच ना सकें, हज्जाम ना हो तो हम अपने बालों को दुरुस्त ना करे सकें।
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࿐ सलाम हो उस नबी -ए- उम्मी पर जिस ने खुद अपने हाथों से अपनी जूतियों की मरम्मत कर ली कि कहीं तुम जूती गाँठने वालों को हक़ीर ना समझ लेना, जिस ने अरब के एक मुअज़्ज़म घराने में एक ग़ुलाम का रिश्ता करा के इंसानिय्यत और मसावात का झण्डा बुलंद किया, जिस ने खुद अपनी दो साहिब ज़ादियाँ हज़रते रुकैय्या और हज़रते उम्मे कुलसुम को यके बाद दीग़रे एक ग़ैर हाशमी, अमवी नौजवान के निकाह में दी और ये कोई ज़रूरत और इज़्तिरार का मसअला ना था क्योंकि आप के सामने हाशमी खानदान के भी रिश्ते थे लेकिन वो इंसाने कामिल और मुहसिने इंसानियत खुद अपनी साहिब ज़ादियों का रिश्ता ग़ैरे कुफू में कर के ये मिसाल और नमूना क़ाइम करना चाहा था कि जब मै अफ़ज़ल ख़ल्क़ अलल इतलाक़ हो कर रिश्ते के मामले में निस्बत के मुक़ाबिले में इस्लाम और आमाले सालिहा को देखता हूँ तो तुम भी नसबी ख़ुसूसिय्यात के बजाये इस्लाम और तक़वा को तरजीह देना और नसब, माल और दौलत व सन'अत की बुनियाद पर किसी मुसलमान को हक़ीर ना समझना।
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࿐ अफ़ज़ल और अंसब तो यही है कि रंग व नस्ल और सन'अत व हिरफत के इम्तियाज़ात से बाला होकर इस्लाम और तक़वा की बुनियाद पर रिश्ते किये जायें लेकिन इस्लाम दीने फ़ितरत है और इस्लाम ने लोगों के मिज़ाज, उनके माहौल और उनके नफ़्सिय्यात को भी पेशे नज़र रखा।
࿐ चूँकि खाविंद और बीवी ने सारी जिंदगी एक साथ गुज़ारनी होती है इसीलिये इनके माहौल और मिज़ाज में मुकम्मल यगानत (इत्तिफ़ाक़) होनी चाहिये।
࿐ अगर इनके दरमियान किसी वजह से मुनाफ्रत आ जाये तो इस दाइमी रिश्ते में ना खुश गवारियों के आने का खदशा है और जिस घराने और खानदान की लड़की को उर्फ़ और मुआशरे में आला दर्जे की क़रार दिया जाता हो उसकी शादी अगर ऐसे लड़के से कर दी जाये जिसको उर्फ़ और मुआशरे में घटिया समझा जाता हो तो ये लड़की और उस के सरपरस्तों के लिये बाइसे नंग व आर होगा और ऐसे घर में उस लड़की का ज़िन्दगी गुज़ारना दुश्वार हो जायेगा।
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࿐ इसीलिये जम्हूर फुक़हा ने अपने इज्तिहाद से एक मुतवस्सत (दरमियानी) क़ौल किया है और वो ये है कि रिश्ता करते वक़्त तरजीह तो तक़वा और परहेज़गारी को दो लेकिन इसके साथ साथ हसब व नसब और सन'अत व हिरफत की ख़ुसूसिय्यात को भी पेशे नज़र रखो लेकिन अगर लड़की के औलिया और वुरसा लड़की की मर्ज़ी से उस का निकाह ग़ैरे कुफू में कर दें तो वो सहीह और जाइज़ है या लड़की अपनी मर्ज़ी से अज़ खुद ग़ैरे कुफू में निकाह करे और इत्तिला मिलने पर उस लड़की के औलिया इस निकाह की इजाज़त दे दें फिर भी निकाह जाइज़ और सहीह है और लड़की के औलिया इसकी इजाज़त ना दें तो वो इस निकाह को क़ाज़ी से फस्ख करा सकते हैं ताहम इमाम मालिक और मुहक़्किक़ीन फुक़हा -ए- अहनाफ़ के नज़दीक निकाह में सिर्फ दीनदारी में कफा'अत शर्त है और किसी किस्म की कफा'अत निकाह में शर्त नहीं है।
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࿐ क़ुरआने मजीद, अहादीस, आसारे सहाबा और फुक़हा -ए- ताबईन के अक़वाल से यही साबित है और यही हमारा मुख्तार है, हम पहले इस के सुबूत में क़ुरआने मजीद की आयत और अहादीस बयान करेंगे फिर मज़ाहिबे आइम्मा बयान करेंगे और आखिर में मुखालिफीन के दलाइल पर तब्सिरा करेंगे।
࿐ क़ुरआने मजीद से ग़ैरे कुफू में निकाह का सुबूत बाज़ मुताख़िरीन बुज़ुर्गों ने कहा है कि ग़ैरे कुफू में निकाह ख़्वाह लड़की और उसके औलिया और वुरसा की इजाज़त से हो फिर भी हराम है और ये निकाह ज़िना के मुतरदिफ़ है लेकिन इन बुज़ुर्गों ने इस पर ग़ौर नहीं फ़रमाया कि अल्लाह त'आला ने क़ुरआने मजीद में उन तमाम औरतों का ज़िक्र फ़रमा दिया जो नसब, रज़ा'अत, जमा फ़िन निकाह और मनकूहा -ए- ग़ैर होने के ऐतबार से हराम हैं!
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࿐ लेकिन और इसी के बाद फ़रमाया :
و احل لکم ماوراء ذلک ان تبتغوا باموالکم محصنین غیر مسافحین (النساء:24)
࿐ और इन (मुहर्रमाते मज़कूरा) के मा सिवा सब औरतें तुम्हारे लिये हलाल हैं बशर्ते तुम माल (महर) के मुआवज़े में अपनी पाकबाज़ी की तहफ़्फ़ुज़ की ख़ातिर इनसे निकाह करो ना कि ज़िना के लिये।
࿐ इस आयत में लफ़्ज़े "मा" इस्तिमाल किया गया है और इस का इस्तिग़राक़ और उमूम क़तई है जिस की हदीसे सहीह से भी तख्सीस नहीं हो सकती फिर हम और आप के ख्याल में इतनी ताक़त कब है कि इस उमूम की तख्सीस कर के ये कह सकें कि अल्लाह त'आला ने जो महर्रमात बयान फरमायी हैं उनके अलावा तमाम औरतों को मुसलमानों पर हलाल कर दिया है इस में मज़ीद तख्सीस है, महर्रमाते मज़कूरा के मा सिवा तमाम औरतें हलाल नहीं हैं बल्कि एक औरत मज़ीद हराम है और ये वो है जिस का कुफू मर्द के कुफू से आला हो।
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࿐ इसी तरह क़ुरआने मजीद में इरशाद है : जो औरतें तुम्हें पसंद आयें उनसे निकाह कर लो, दो-दो से तीन-तीन से और चार-चार से।
࿐ इस आयत में भी लफ़्ज़े "मा" है जो उमूम के लिये है यानी जिन औरतों से निकाह हराम है उनके अलावा तमाम औरतों को मुसलमानों पर हलाल कर दिया गया है लिहाज़ा जो औरतें तुम्हें पसंद आयें ख़्वाह ग़ैरे कुफू से हो बाहमी रज़ामंदी के साथ उनसे निकाह कर लो।
࿐ क़ुरआने मजीद में है : ऐ लोगों! हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया है और तुम्हारी सनाख्त के लिये अलग अलग खानदान और क़बीले बनाये हैं, बेशक अल्लाह त'आला के नज़दीक तुम में सब से ज़्यादा इज़्ज़त वाला वो है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार हो।
࿐ अल्लामा कुर्तुबी इस आयत की तफ़्सीर में लिखते हैं इमाम अबू दाऊद ने ज़िक्र किया है कि ये आयत अबी हिन्द के बारे में नाज़िल हुयी।
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࿐ इमाम अबू दाऊद अपनी सनद के साथ बयान करते हैं कि ज़ोहरी ने कहा कि रसूलुल्लाह ﷺ ने बनू बयाज़ा को हुक्म दिया कि वो अपनी एक औरत का अबू हिन्द से निकाह कर दें, उन्होंने रसूलुल्लाह ﷺ से कहा हम बेटियों का निकाह अपने ग़ुलामों से कर दें? इस मौके पर ये आयत नाज़िल हुयी, ज़ोहरी कहते हैं कि ये आयत बिल ख़ुसूस अबू हिन्द के बारे में नाज़िल हुयी।
࿐ क़ुरआन मजीद में अल्लाह त'आला फ़रमाता है: जब अल्लाह और उसका रसूल किसी बात का हुक्म दे दें तो किसी मोमिन मर्द और किसी मोमिन औरत को इस हुक्म पर अमल ना करने का इख़्तियार नहीं है। और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करेगा वह खुली गुमराही में जा पड़ेगा।
࿐ अल्लामा आलूसी लिखते हैं कि हज़रत इब्ने अब्बास रदिअल्लाहु त'आला अन्हु, क़तादा और हज़रत मुजाहिद से रवायत है कि ये आयत रसूलुल्लाह ﷺ की फूफी ज़ाद बीवी सैय्यदा ज़ैनब बिंते जहस रदिअल्लाहु त'आला अन्हा और उनके भाई अब्दुल्लाह (बिन जहस) के बारे में नाज़िल हुई है। हज़रत जै़नब हुज़ूर की फूफी उमैमा बिंते अब्दुल मुतल्लिब की शहजादी थी।
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࿐ रसूलुल्लाह ﷺ ने जै़नब बिंते जहस रदिअल्लाहु त'आला अन्हा के लिये अपने आज़ाद कर्दा गुलाम ज़ैद बिन हारिश का निकाह का पैग़ाम दिया।
࿐ हज़रत सैय्यिदा ज़ैनब ने ये पैग़ाम सुन कर कहा या रसूलुल्लाह! ﷺ मै अपनी क़ौम में मुअज़्ज़ज़ हूँ, आप की फूफी की बेटी हूँ इस गुलाम से निकाह नहीं कर सकती और एक रिवायत में है सैय्यिदा ज़ैनब ने फरमाया मै हसब वा नसब के लिहाज़ से इससे बेहतर हूँ। इसके भाई अब्दुल्लाह बिन जहस ने भी यही कहा। इस मौके पर ये आयत नाज़िल हुई , इस आयत के नानज़ होने के बाद दोनों भाई बहन के सरे तस्लीम खम हो गये वह इस निकाह पर राज़ी हो गये।
࿐ रसूलुल्लाह ﷺ ने मुअज़्ज़ज़ आज़ाद अरबी लड़की का निकाह एक गुलाम से कर दिया और यूँ कुफ़ू की बढ़ाई के बुतों के तोड़ने की इब्तिदा आप ने अपने खानदान से की, सलाम हो उस नबी पर जिस ने अपनी फूफी जा़द बहन का निकाह एक गुलाम से करके इंसानियत का परचम बुलंद किया, सिर्फ ज़ुबान से नहीं कहते थे।
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࿐ "ऐ लोगो सुनो! तुम्हारा रब है वो वाहिद है, तुम्हारा बाप वाहिद है, किसी अरबी को अजमी पर फ़ज़ीलत नहीं है, मियार सिर्फ तकवा है।" आपने जो इंसानी मसावात की जो तालीम दी थी उस पर अमल कर के दिखाया और अमल की इब्तिदा अपने घराने से की थी। इमाम राज़ी ने भी इस आयत का यही शाने नुज़ूल बयान फरमाया। बैहकी़ ने भी इस हदीस का ज़िक्र किया है।
(انظر: روح المعانی و تفسير کبیر)
࿐ ग़ैर कुफू मे निकाह के जवाज़ पर क़ुरआन मजीद की इस आयत मे सब से ज़्यादा सराहत है : "और (मुसलमान औरतों को) मुशरिक के निकाह में ना दो जब तक वो ईमान ना लाये ख्वाह वो मुशरिक तुम्हें (हसब व नसब और माल व दौलत के लिहाज़ से) अच्छे क्यों न मालूम हों और बेशक ग़ुलाम मुसलमान आज़ाद मुशरिक से बेहतर है " (अल बक़रा 221)
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࿐ इस आयत मे अल्लाह तआला ने वाज़ेह तौर पर बता दिया है कि मुसलमान आज़ाद लड़कियों का निकाह ग़ुलाम मुसलमान से करना जाइज़ है हालाँकि ग़ुलाम आज़ाद कुफ़ू नहीं होता इस के बावजूद अल्लाह तआला ने आज़ाद मुसलमान लड़कियों का निकाह ग़ुलाम मुसलमानो से जाइज़ क़रार कर दिया है।
࿐ यहाँ तक कि हमने आयते क़ुरआनी की रौशनी मे ग़ैर कुफ़ू में निकाह का जवाज़ बयान किया इस के बाद हम अहादीस की रौशनी मे इस मसअले का हुक्म बयान करेंगे।
࿐ *अहादीस से गैर कुफू में निकाह का सुबूत* इमाम अब्दुल रज़्ज़ाक़ रिवायत करते हैं : यह्या बिन अबी कसीर रिवायत करते है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जब तुम्हारे पास ऐसे शक्स के निकाह का पैग़ाम आये जिसकी दीनदारी और अख़लाक़ तुम्हे पसंद हो तो उस से निकाह कर दो ख्वाह कोई भी शख़्स हो। अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो ज़मीन में बहुत ज़्यादा फ़ितना और फ़साद फैलेगा।
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࿐ ये हदीस जामेअ तिर्मिज़ी में इमाम तिर्मिज़ी ने हज़रत अबू हुरैरा और हज़रत अबू हातिम से रिवायत की है। इमाम तिर्मिज़ी ने हदीस को हसन ग़रीब क़रार दिया है और लिखा है कि ये हज़रते आइशा से भी मरवी है, इमाम हाकिम ने इस हदीस को हज़रते अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से रिवायत किया है। और लिखा है बुखारी और मुस्लिम में ये हदीस नहीं है लेकिन इसकी सनद सहीह है।
࿐ इमाम इब्ने माजा ने इस हदीस को हज़रते अबू हुरैरा से रिवायत किया है। अल्लामा मुत्तक़ी हिंदी ने इस हदीस को इमाम निसाई, इमाम बैहक़ी, इमाम इब्ने अबी हातिम मजई के हवालों से रिवायत किया है इस हदीस को इमाम अबू दाऊद ने भी रिवायत किया है।
࿐ ईमाम अब्दुर रज़्ज़ाक़ रिवायत करते हैं : सहाबी कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया कि मैने मिक़दाद और ज़ैद का निकाह किया ताकि जो अल्लाह ﷻ के नज़दीक मर्तबे वाले हों वो तुम्हारे नज़दीक भी बेहतरीन मुसलमान हो।
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࿐ हज़रत मिक़दाद का निकाह हज़रत जुबैर बिन अब्दुल मुत्तलिब की लड़की ज़ुबाअह से किया और ज़ैद बिन हारिसा का निकाह ज़ैनब बिंते जहश से किया। मिक़दाद दुश्मनों की कैद में रह चुके थे।
(مصنف عبد الرزاق، ج6، ص154)
࿐ हज़रते मिक़दाद बिन उमर हिज़रे मौत के रहने वाले थे बचपन में मुख्तलिफ हाथो में परवरिश पाई, नौजवानी में अस्वद बिन अब्दे गौस ने बेटा बना लिया इसी वजह से मिक़दाद बिन अस्वद कहलाये।
࿐ रसूलुल्लाह ﷺ ने अपनी चचा ज़ाद बहन हाशमी खातून का निकाह एक ग़ैर क़ुरैशी, ग़रीबुल दयार नौजवान से हसब वा नसब और कुफ़ू का ख्याल किये बग़ैर कर दिया क्योंकि आप के नज़दीक वो अच्छा मुसलमान था और अल्लाह के नज़दीक पसंदीदा था, और अपनी सगी फूफ़ी जाद बहन ज़ैनब बिंते जहश का निकाह यमन से लाये हुये एक ग़ुलाम के साथ कर दिया और हसब व नसब की अज़मत के सारे उसूल और पैमाने बदल डाले।
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࿐ इमाम बैहक़ी ने भी इस हदीस को अपनी सनद के साथ रिवायत किया और इमाम बुखारी ने भी इस हदीस को सहीह बुखारी में बयान किया है।
࿐ इमाम अबू दाऊद रिवायत करते हैं : हकीम बिन उयेना बयान करते हैं कि नबी ﷺ ने हज़रते बिलाल रदिअल्लाहु त'आला अन्हु को एक अंसारी के घर भेजा ताकि वो अपना रिश्ते का पैग़ाम दें, उन अंसारी के घर वालों ने कहा ये तो हबशी ग़ुलाम है! हज़रते बिलाल ने कहा अगर नबी ﷺ ने मुझे तुम्हारे पास आने के लिये ना कहा होता तो मैं कभी ना आता, उन्होंने ने कहा क्या नबी करीम ﷺ ने तुम्हें हुक्म दिया है? हज़रते बिलाल ने कहा हाँ, उन्होंने कहा तुम इस रिश्ते के मालिक हो!
࿐ हज़रते बिलाल ने जाकर नबी ﷺ को खबर दी, उस वक़्त नबी ﷺ के पास सोने का टुकड़ा आया। आप ने वो हज़रते बिलाल को अता फरमाया कि ये अपनी बीवी के पास ले जाना और हज़रते बिलाल के दोस्तों से फ़रमाया तुम अपने भाई के वलीमा की तैयारी करो।
(مراسیل ابو داؤد، ص11-12)
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࿐ रसूलुल्लाह ﷺ ने एक आज़ाद अरबी औरत का निकाह हबशी गुलाम के साथ कर के ये तालीम दी है कि कोई शख़्स हसब वा नसब और सनअत वा हरफ़त में कुफ़ू ना हो लेकिन वो अच्छा मुसलमान हो तो उस को रिश्ता दे देना चाहिये। इस हदीस को इमाम बैहक़ी ने भी मुतअद्दद असानीद के साथ बयान किया है।
(امام ابو بکر احمد بن حسین علی بیھقی، سنن کبری، ج5، ص135)
࿐ इमाम मुस्लिम रिवायत करते हैं : हज़रते फ़ातिमा बिंते क़ैस बयान करती हैं कि अबू उमर बिन हफस ने मुझे तलाके बाइन दे दी, दरअन हालीके वो ग़ायब था उस के वकील ने हज़रते फ़ातिमा के पास कुछ जवाब भेजे, वो नाराज़ हो गईं, वकील ने कहा क़सम बाखुदा तुम्हारा हम पर और कोई हक़ नहीं है।
࿐ हज़रते फ़ातिमा रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम के पास गयीं और ये वाकिया बयान किया।
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࿐ आप ने फ़रमाया तुम्हारे लिये उस पर कोई नक़्फ़ा वाजिब नहीं है। फिर आप ने उन्हें हुक्म दिया कि वो उम्मे शरीक के घर में इद्दत गुज़ारें, फिर फ़रमाया उन के हाँ तो मेरे सहाबा आते रहते हैं तुम इब्ने उम्मे मक्तूम के घर इद्दत गुज़ारो क्योंकि वो एक नाबीना शख्स है।
࿐ तुम आराम से अपने कपड़े रख सकोगी और जब तुम्हारी इद्दत पूरी हो जाये तो मुझे खबर कर देना। वो कहती हैं, जब मेरी इद्दत पूरी हो गयी तो मैंने आपको बताया कि हज़रते मुआविया बिन अबू सूफियान और हज़रते अबू जहम ने मुझे निकाह का पैगाम दिया है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम ने फरमाया अबू जहम तो अपने काँधे से लाठी उतारता ही नहीं है और रहे मुआविया तो वो ग़रीब आदमी हैं उनके पास माल नहीं तुम ओसामा बिन ज़ैद से निकाह कर लो! मैने उन को नापसन्द किया (शायद उन के काले रंग और ग़ुलाम ज़ादे और अदमे कुफ़ू की वजह से) आप ने फिर फ़रमाया ओसामा से निकाह कर लो, मैने उनसे निकाह कर लिया और अल्लाह त'आला ने उस निकाह में बहुत खैर की, औरतें मुझ पर रश्क करती थीं।
(صحیح مسلم، ج1، ص353)
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࿐ हज़रते फ़ातिमा बिंते क़ैस क़ुरैश के एक मुअज़्ज़ज़ घराने की खातून थी। हज़रते ओसामा बिन ज़ैद उन के कुफ़ू ना थे लेकिन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने ये निकाह करके ये वाज़ेह किया कि ग़ैरे कुफ़ू में भी निकाह जाइज़ है और बसा अवक़ात ग़ैरे कुफ़ू के निकाह में बड़ी खैर होती है।
࿐ इमाम बुखारी रिवायत करते हैं : हज़रत इब्ने अब्बास रदिअल्लाहु त'आला अन्हु बयान करते हैं कि बरीरह के खाविंद एक गुलाम थे जिन का नाम मुगीस था। मै उन की तरफ देखता था वो हज़रत बरीरह के पीछे रोते हुये फिरते थे और उन के आँसू उन की दाढ़ी पर बहते थे, नबी ﷺ ने हज़रते अब्बास से कहा क्या तुन्हें इस पर ताज्जुब नहीं होता कि मुगीस को बरीरह से कितनी मुहब्बत है और बरीरह को मुगीस से कितनी नफरत है, फिर नबी ﷺ ने हज़रत बरीरह से फ़रमाया काश की तुम मुगीस से निकाह कर लो! हज़रत बरीरह ने पूछा या रसूल अल्लाह क्या ये आप का हुक्म है? आप ने फरमाया नहीं मै सिर्फ सिफारिश कर रहा हुँ! हज़रते बरीरह ने कहा फिर मुझे मुगीस की कोई ज़रूरत नहीं है।
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࿐ इस वाक़िये की तफ़्सील ये है कि पहले हज़रते बरीरह यहूदियों की लोंडी थी और उन का निकाह हज़रत मुगीस से हो चुका था हज़रते आईशा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने हज़रते बरीरह को यहूदियों से ख़रीद कर आज़ाद कर दिया और हज़रते मुगीस हस्बे साबिक़ गुलाम रहे और ये इस्लाम का क़ायदा है कि जब शादी शुदा लोंडी आज़ाद हो जाये और उस का खाविंद गुलाम हो तो उस आज़ाद शुदा लोंडी को इख़्तियार दिया जाता है आया वो उस गुलाम के निकाह में रहना चाहती है या नहीं।
࿐ हज़रते बरीरह को जब ये इख़्तियार दिया गया तो उन्होने हज़रते मुगीस को मुस्तरद कर दिया, हज़रते बरीरह से फिराक़ में जो हालते ज़ार हुई उस पर रसूलुल्लाह ﷺ को तरस आया और आप ने उन्हे हज़रते मुगीस से निकाह का मश्वरा दिया।
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࿐ इस हदीस में दलील है कि हज़रते बरीराह आज़ाद थी और मुगीस गुलाम थे और हज़रते बरीरह के कुफ़ू न थे। अगर ग़ैरे कुफ़ू में निकाह नाजाइज़ होता तो रसूलुल्लाह ﷺ उन्हें निकाह का मश्वरा क्यों देते?
रसूलुल्लाह ﷺ का हज़रते बरीरह को हज़रते मुगीस के साथ निकाह मश्वरा देना ही इस बात की दलील है की ग़ैरे कुफ़ू मे निकाह जाइज़ और मशरू है अल्बत्ता चूँकि ये हुज़ूर का सिर्फ मश्वरा था जिस की हैसियत सिफारिश की थी कोई तशरीइ नहीं था इसलिये हज़रते बरीरह ने अपने हक़ को इस्तिमाल किया और ये शरअन क़ाबिले मुवाखिज़ा नहीं ताहम् खिलाफे औला ज़रूर है।
(صحیح بخاری ج٢، ص٧٩٥)
࿐ आसारे सहाबा व ताबईन से ग़ैरे कुफ़ू में निकाह का सुबूत इमाम बुखारी रिवायत करते हैं : हज़रत माँ आईशा रदिअल्लाहु त'आला अन्हा बयान करती हैं कि उत्बा बिन रबीआ बिन अब्दुल शम्स के बेटे अबू हुज़ैफा जंगे बद्र मै हुज़ूर ﷺ के हमराह थे।
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࿐ हज़रते अबू हुज़ैफा ने सालिम को अपना मुँह बोला बेटा बना लिया था। सालिम एक अंसार औरत के ग़ुलाम थे। हज़रते हुज़ैफा ने सालिम के साथ अपनी सगी भतीजी हिंद बिंते अल्वलीद बिन उत्बा का निकाह कर दिया। ये निकाह भी ग़ैरे कुफ़ू मे किया गया क्योंकि आज़ाद क़ुरैशी खातून का निकाह एक ग़ुलाम से किया गया। ये हदीस सुनने निसाई में और सुनने बैहक़ी में भी है।
(صحیح بخاری ج٢، ص٧٢٦)
࿐ इमाम अब्दुल रज़्ज़ाक़ रिवायत करते हैं : इब्ने सीरिन बयान करते हैं कि हज़रत उमर बिन खत्ताब फ़रमाते हैं कि ज़माना ए जाहिलियत की सिर्फ दो चीज़े मैने बाक़ी रखी हैं, एक ये कि मै किसी मुसलमान के साथ भी रिश्ता करूँ मुझे उसमे आर नहीं। दूसरी ये कि मै किसी मुसलमान औरत से निकाह कर लूँ मुझे इस में आर नही।
(حافظ عبدالرزاق بن ہمام متوفی، المصنف ج٢، ص١٥٢)
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࿐ सादात लड़कियों का ग़ैरे सादात से निकाह का जवाज़ अज़ रू -ए- अहादीस व आसार अल्लामा हैसमी रिवायत करते हैं : हज़रते इब्ने अब्बास रदिअल्लाहु त'आला अन्हु बयान करते हैं कि नबी ﷺ ने फरमाया : " अल्लाह त'आला ने मुझ पर ये वही की थी कि मै अपनी दोनों साहिबज़ादियों का निकाह उस्मान से कर दूँ।"
(حافظ نورالدین علی بن ابی بکر، مجمع الزوائد ج٩، ص٨٣)
࿐ अहनाफ के नज़दीक क़ुरैश के तमाम क़बाइल एक दूसरे के कुफ़ू हैं लेकिन इमाम शाफ़ई के नज़दीक हाश्मी और मुतलबी का कुफ़ू कोई दूसरा क़बीला नहीं है, और हज़रत उस्मान अमवी थे। और रसूलुल्लाह ﷺ की साहिबज़ादियों के कुफ़ू नहीं थे। इस के बावजूद आप ने अपनी साहिबज़ादियों का यके बाद दीगरे एक अमवी नौजवान से अक़्द किया, इमाम शाफई फ़रमाते हैं अपना हक़ साकित करके ग़ैरे कुफ़ू में निकाह करना जाइज़ है!
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࿐ जबकि वहाँ कोई मस्लिहत हो। ये सहीह है कि अहनाफ़ के नज़दीक क़ुरैश के तमाम क़बाइल एक दूसरे के कुफ़ू हैं लेकिन अहले ज़ौक़ और अहले फ़हम पर मख़फ़ी नहीं कि कुफ़ू के मानी हैं नसब में मुसावात और शर्फ़ में एक दूसरे का नज़ीर होना और हज़रत उस्मान रदिअल्लाहु त'आला अन्हु अपने तमाम तर फ़ज़ाइल के बावजूद शर्फे नसब में हज़रते रुक़ईया और हज़रत उम्मे कुलसुम के हरगिज़ कुफ़ू नही थे, लेकिन नबी ए करीम ﷺ ने इंसानियत के परचम को बुलंद करने के लिए हज़रत रुक़ईया और हज़रत उम्मे कुलसुम का यके बाद दीगरे हज़रत उस्मान से निकाह कर दिया।
࿐ अल्लामा हैसमी रिवायत करते हैं : हज़रत उमर के ग़ुलाम असलम बयान करते हैं कि हज़रत उमर बिन अल खत्ताब ने हज़रत अली बिन अबी तालिब से चुपके से कोई बात की फिर हज़रत अली चौ पाल पर आये और हज़रत अब्बास, हज़रत अक़ील और हज़रत हुसैन रदिअल्लाहो अन्हुम से हज़रत उम्मे क़ुल्सुम (बिन्ते अली मिन फातिमा) का हज़रत उमर के साथ निकाह के बारे में मशवरा किया, ये सुन कर अक़ील गज़बनाक हुये और कहा कि ए अली जूँ-जूँ दिन गुज़रते जाते हैं तुम्हारे अपने मुआमलात में बेवक़ूफी बढ़ती जाती है।
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࿐ अगर तुम ने ये निकाह कर दिया तो ऐसा होगा ऐसा होगा, ये कहते हुये अक़ील अपना कपड़ा घसीटते हुये चले गये, हज़रत अली ने हज़रत अब्बास से कहा कि अक़ील ने खैर ख्वाही की बात नहीं की, ये सिर्फ़ उमर के दुर्र से खौफ़ ज़दा हैं। ए अक़ील उमर ये निकाह किसी रग्बत की वजह से नहीं मांग रहे, मुझे उमर ने ये हदीस सुनायी कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो त'आला अलैही वसल्लम ने फरमाया क़यामत के दिन हर रिश्ता अज़्वाज और हर निसबत मुन्क़त'अ हो जायेगी सिवा उस रिश्ते के जो मुझसे क़ाइम हो, (यानी हज़रत उमर ने इस बशारत के हुसूल के लिये ये रिश्ता तलब फरमाया था, नफ्सानी ख्वाहिश की बिना पर नहीं) फिर हज़रत उमर हँसे और फ़रमाया अफसोस अक़ील, अहमक़ और जाहिल है। इस हदीस के तमाम रावी सहीह हदीस के रावी हैं।
(مضمع الزوائد ج۳، ص۲۷۲)
࿐ इस हदीस से ये भी मालूम हुआ कि ग़ैरे कुफू में रिश्ता करने के लिये तमाम औलिया और वुरसा का राजी होना ज़रूरी नहीं है। सिर्फ़ वली अक़रब की रज़ा मंदी ज़रूरी है। और ये कि लड़की और उस का वली अक़रब राजी हो तो सैय्यद ज़ादी का निकाह ग़ैरे कुफ़ू में हो सकता है।
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࿐ हज़रत उम्मे क़ुल्सुम के हज़रत उमर से निकाह का ज़िक्र सहीह बुखारी में भी है।
࿐ इमाम बुखारी रिवायत करते हैं : शालबा बिन अबी मालिक बयान करते हैं कि हज़रत उमर बिन अल-खत्ताब ने मदीना की मस्तूरात में चादरें तक़्सीम की। एक क़ीमती चादर बच गयी बाज़ अहले मजलिस ने कहा! ए अमीरूल मुअमिनीन ये चादर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो त'आला अलैही वसल्लम की साहबज़ादी को दे दीजिये जो आप के निकाह में हैं उन की मुराद उम्मे क़ुल्सुम बिन्ते अली थी। हज़रत उमर ने फरमाया हज़रत उम्मे सलैत इस चादर की ज़्यादा मुस्तहिक़ हैं हज़रत उम्मे सलैत एक अंसारी खातून थीं जिन्होने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो त'आला अलैही वसल्लम से बैअत की थी। हज़रत उमर ने कहा जंगे उहुद में वो हमारे लिये अपनी पीठ पर मश्कीज़े लाद कर लाती थीं।
࿐ हज़रत उम्मे क़ुल्सुम के साथ हज़रत उमर के निकाह को शिआ मुहद्दिसीन ने भी बयान किया है।
(صحیح بخاری ج۱، ص٤٠٣)
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࿐ हज़रत इमाम हसन रदिअल्लाहु त'आला अन्हु की छह पोतियों का निकाह ग़ैरे सादात से हुआ जिस की तफ़सील ये है।
࿐ शैख़ इब्ने हजमी लिखते हैं : ये हसन बिन अली बिन अली तालिब की औलाद है।
࿐ हसन बिन हसन की मुतअद्दद बेटियाँ थी। एक ज़ैनब थी जो अब्दुल्लाह इब्राहीम और हसन की बहन थी। उन का निकाह वलीद बिन अब्दुल मलिक बिन मरवान से हुआ, दूसरी उम्मे कुलसूम थी। उनका निकाह उनके चचा ज़ाद भाई मुहम्मद बिन अली बिन हसन से हुआ, तीसरी फ़ातिमा थीं उनका निकाह मुआविआ बिन अब्दुल्लाह बिन जफर बिन अबी तालिब से हुआ। बाद में इस फ़ातिमा का निकाह अय्यूब बिन मुसलमा बिन अब्दुल्लाह बिन अल वलीद बिन मुगीरा से हुआ। चौथी मल्लिका थीं ये जफर और दाऊद की बहन थीं उनका निकाह जफर बिन मुसअब बिन ज़ुबैर से हुआ। पाँचवी उम्मे कुलसूम थीं ये मल्लिका की बहन थीं, इन का निकाह मरवान बिन अबान बिन उस्मान बिन अफ्फान से हुआ।
(جہمرۃالنساب العرب، ص٤٢)
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࿐ खुलासा ये है कि सादात लड़कियों के ग़ैरे सादात में निकाह की कई मिसालें मौजूद हैं। जिन में इमाम हुसैन की साहबज़ादी हज़रते फ़ातिमा का निकाह भी वाज़ेह मिसाल है। आप की दूसरी बेटी हज़रते सकीना का निकाह भी ग़ैरे सादात में हुआ।
࿐ जमहूर फ़ुक़हा -ए- किराम ने निकाह में कुफ़ू का ऐतबार किया है। इस के बावजूद कहते हैं कि ग़ैरे कुफ़ू में निकाह जाइज़ है। ताहम अंसब व औला यही है कि निकाह में कुफ़ू का ऐतबार किया जाये ताकि खानदान के इत्तिहाद और मख़सूस आदात, माहौल में मिज़ाज की यक्सानियत की वजह से ज़ौजैन में रफ़ाक़त रहे और वो खुश गवार ज़िंदगी गुज़ार सके। हसबे ज़ेल अहादीस व आसार में कुफ़ू का ऐतबार करने के दलाइल हैं।
࿐ अल्लामा हैसमी लिखते हैं : हज़रत जब्बार रदिअल्लाहु त'आला अन्हु बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया औरतों का निकाह सिर्फ़ उन के कुफ़ू में किया जाये और उन का निकाह सिर्फ उन के औलिया करें और उन का महर दस दिरहम से कम ना हो, इस हदीस को इमाम अबू याला ने रिवायत किया है। इस की असनाद में एक रावी मुबश्शिर बिन अतीक है और वो मतरूक है यानी ज़ईफ़।
(مجمع الزوائد ج٤، ص٢٧٥)
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࿐ साहिबे हिदाया और दीगर फुक़हा ने ऐतबारे कुफ़ू के सिलसिले में इसी हदीस को ज़िक्र किया है।
इमाम हाकिम निशापूरी रिवायत करते हैं : हज़रते आइशा सिद्दीक़ा रदिअल्लाहु त'आला अन्हा रिवायत करती हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया अपनी औलाद के लिये रिश्ते पसंद करो, खुद भी कुफ़ू में निकाह करो और कुफ़ू में रिश्ता दो, इकरमा बिन इब्राहीम ने भी इस हदीस को रिवायत किया है।
( المستدرک ج٢، ص١٦٣)
࿐ हर चंद कि हाकिम निशापूरी ने इस हदीस को सहीह क़रार दिया है लेकिन मुहद्दिसीन ने ज़ईफ़ क़रार दिया है।
࿐ ये वो ज़ईफ़ुल असनाद अहादीस मरफ़ू हैं जिन पर कुफ़ू के इस अज़ीमुश्शान मसअले की बुनियाद रखी गई है।
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࿐ *अहादीसे कुफ़ू की फन्नी हैसियत* साहिबे हिदाया ने ऐतबारे कुफ़ू के लिये जो हदीस बयान की है : "सिर्फ़ कुफू में निकाह करो" हाफ़िज़ ज़िलियी इस की सनद पर बहस करते हुये लिखते हैं!
࿐ इस हदीस की सनद में एक रावी मुबश्शिर बिन उबैद है, दारक़्तनी कहते हैं कि ये मतरूकुल हदीस है, इस की हदीस का कोई मुतालबा नहीं है, इमाम अहमद बिन हंबल ने कहा के मुबश्शिर बिन उबैद की रिवायत मौज़ूअ होती हैं, इब्ने हब्बान ने कहा ये सक़ात से मौज़ूआत रिवायत करता है सिवाये इज़्हारे ताज्जुब के इस की अहादीस को किताब में लिखना जाइज़ नहीं है। अक़ीली ने भी इमाम अहमद से नक़्ल किया है कि इस की अहादीस मौज़ूअ हैं।
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࿐ बैहक़ी ने कहा कुफ़ू के बारे में जो अहादीस वारिद हैं उन में से अक्सर हुज्जत नहीं हैं इन रिवायत में से हज़रते अली की ये रिवायत है : "तीन चीज़ों में ताख़ीर ना करना और उस में ये भी है कि ग़ैरे शादी शुदा औरत का कुफ़ू मिल जाये तो उस के निकाह में ताख़ीर मत करो।"
࿐ इस हदीस को तिर्मिज़ी ने रिवायत करके कहा : "मेरे ख्याल में ये हदीस मुन्क़तअ है।" हाकिम ने इस को रिवायत कर के कहा कि इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम ने इस को रिवायत नहीं किया लेकीन ये हदीस सहीह है। साहिबे हिदाया ने इस हदीस से कुफ़ू पर इस्तिद्लाल किया है। इब्ने जौज़ी ने कफाअत के ऐतबार से इस हदीस से इस्तिदलाल किया है: "अपनी औलाद के लिये रिश्तों को पसंद करो और कुफ़ू में इन का निकाह करो" ये हदीस जितनी असानीद से मरवी हैं वो सब ज़ईफ़ हैं।
(نصب الرایہ ج٣ ص١٩٧)
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࿐ कुफ़ू में आइम्मा -ए- अरबा की आरा हनाबिला के नज़दीक निकाह में कुफ़ू शर्त है या नहीं तो इस बारे में दोनों क़ौल मिलते हैं लेकिन ज़्यादा सहीह यही है कि ये शर्त नहीं लेकिन लड़की के औलिया की रज़ामंदी ज़रूरी है और अगर किसी एक वली को इख़्तिलाफ़ हुआ तो वो निकाह फ़सख करवा सकता है।
࿐ मालिकिया के नज़दीक ग़ैरे कुफ़ू में निकाह जाइज़ है और जब लड़की और उस का वली या सुल्तान या क़ाज़ी ग़ैरे कुफ़ू में निकाह पर राज़ी हो तो उनका निकाह जाइज़ व दुरुस्त है। अल्लामा ग़ुलाम रसूल सईदी लिखते हैं कि इमाम मालिक मुसलमानों के दरमियान कुफ़ू की तहक़ीक़ के क़ाइल ही नहीं है।
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࿐ इमाम शाफ़ई के मज़हब में भी ग़ैरे कुफ़ू में निकाह जाइज़ है और जब वली अक़रब लड़की की इजाज़त से उस का निकाह ग़ैरे कुफ़ू में कर दें तो दूसरे वली को फसख का इख़्तियार नहीं है। इमाम शाफ़ई कहते हैं कि ग़ैरे कुफ़ू में निकाह हराम नहीं होता कि उस से मुत्लक़न मुस्तरद किया जाये।
࿐ *मसअला -ए- कुफ़ू और फिक़्हे हनफ़ी* फिक़्हे हनफ़ी में इस मसअले पर काफ़ी बहस की गई है। मुतद्दद अक़वाल फ़िर उन के दलाइल पर एक लम्बी बहस है जिसे जमा करने पर पूरी किताब तैयार हो सकती है। हम यहाँ कुछ ज़रूरी बातों को बयान करेंगे।
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࿐ एहनाफ़ के नज़दीक निकाह में कुफ़ू का ऐतबार है और इस की चंद सूरते हैं जैसा कि बहारे शरीअत में है कि बाप, दादा के सिवा किसी और वली ने नाबालिग लड़की का निकाह ग़ैरे कुफ़ू से कर दिया तो निकाह सही नहीं और बालिग़ अपना खुद निकाह करना चाहे तो ग़ैरे कुफ़ू औरत से कर सकता है कि औरत की जानिब से इस सूरत में कफ़ाअत मुअतबर नहीं नाबालिग़ में दोनों तरफ़ से कफ़ाअत का ऐतबार है।
࿐ इस पर मज़ीद तफसील आइंदा नक़ल होने वाले हवाला ज़ात में आयेगी। फिलहाल हम अल्लामा ग़ुलाम रसूल सईदी की तहकीक को बयान कर रहे हैं जो आप ने सहीह मुस्लिम की शरह में बयान की है। फुक़हा -ए- अहनाफ़ के अक़वाल को तफ़्सीलन नक़्ल करने के बाद बल्कि साथ ही साथ आइम्मा -ए- अरबा की आरा को सामने रख कर आखिर में लिखते हैं कि निकाह में अस्लन कुफ़ू का ऐतबार नहीं है और इस मसअले पर जो दौरे हाज़िर में गुलू से काम लिया जा रहा है वो बिल्कुल ग़लत है।
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࿐ मज़कूरा तफ़्सील से ये मालूम होता है कि आइम्मा -ए- अरबा के नज़दीक इस मसअले में इख्तिलाफ़ है और निकाह के सहीह होने या ना होने को फसख इख्तियार होने में कई सुरतें है जिन की तफ़्सील कुतुबे फ़िक़्ह में मौजूद है एक तरफ अल्लामा ग़ुलाम रसूल सईदी की तहक़ीक़ ये है कि निकाह में अस्लन कुफ़ू का ऐतबार नहीं है यानी निकाह के लिए शय माने नहीं है और उस पर जो दलाइल आप ने पेश फ़रमाये हैं वो क़ाबिले ग़ौर है। फ़िर जम्हूर फुक़हा -ए- अहनाफ़ की जो तहक़ीक़ है वो भी नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती। हमारा मक़्सद फिलहाल ये है कि इस मसअले को लेकर जो मुसलमानों में गुलू आम हो रहा है और बिना इल्मी गहराई को जाने जो हद से तजावुज़ किया जा रहा है तो उस की रोक थाम ज़रूरी है क्योंकि ये एक फ़ितने से कम नहीं।
࿐ हम ने ये बहस यहाँ नक़्ल की है और मज़ीद तफसील आगे आ रही है जिस से वाज़ेह हो जायेगा कि उस पर किस तरह लोग इफ़रात व तफ़रीत का शिकार हैं। हम उम्मीद करते हैं कि इसे पढ़ने के बाद ये बेजा की "मैं खान तू अंसारी" वाली जंग एक हद तक रुक जायेगी और खुद की लगाई इस आग से हिफाज़त की सूरत निकल सकेगी।
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࿐ आवाम में मौजूद गुलू की मिसालें और उनकी इस्लाह के हवाले से चंद मज़ीद हवाला जात : क्या अंसारी के पीछे नमाज़ होगी?फ़तावा फक़ीहे मिल्लत में एक सवाल है कि अगर कोई शख्स अंसारी, मंसूरी या कोई दूसरी बिरादरी का हुआ तो नमाज़े पंजगाना होगी या नहीं जब कि वो सलाहियते इमामत रखता हो? (इस तरह के और कई सवालात का उलमा -ए- अहले सुन्नत के पास आना बिल्कुल वाज़ेह करता है कि अवाम में इस मसाइल को लेकर किस क़द्र ला इल्मी मौजूद है। आगे भी आप ऐसी मिसालें मुलाहिज़ा फरमायेंगे)
࿐ जवाब में लिखते हैं कि नमाज़ इमामत किसी क़ौम के साथ मख़सूस नहीं कि इसी क़ौम का आदमी नमाज़ पढ़ाये बल्कि इस के लिये मसाइले नमाज़, तहारत का इल्म, सुन्नी सहीहुल अक़ीदा, सहीहुल तहारत और सहीहुल क़िराअत गैर फ़ासिके मुअल्लीन होना ज़रूरी है।
(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص123)
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࿐ मालूम हुआ कि इमामत किसी बिरादरी के साथ खास नहीं है कि फ़ुलाँ बिरादरी अफ्ज़ल है तो वही इमामत के हक़्दार हैं बल्कि जो भी मुसलमान है, उसे वो तमाम हुक़ूक़ हासिल हैं जो इस्लाम ने उसे दिये हैं।
࿐ हक़ारत के लिये जुलाहा कहना
सदरुश्शरिया, अल्लामा अमजद अली आज़मी एक सवाल के जवाब में लिखते हैं (जो "जुलाहा" कहने के मुतल्लिक़ किया गया) : अगर सिर्फ़ क़ौम का बताना मक़सूद हो तान मद्दे नज़र ना हो तो हर्ज नहीं फिर भी ऐसे लफ्ज़ से ताबीर करें कि उन को बुरा ना लगे और अगर तान व तहक़ीर व तज़लील मक़सूद ना हो तो हराम है। हदीस में फ़रमाया :
لیس المومن بالطعان
࿐ यानी मोमिन की शान ये नहीं कि तान करने वाला हो और सहीह मुस्लिम में है कि नसब पर तान करना उमूरे जाहिलिय्यत में से है।
(فتاوی امجدیہ، ج4، ص6، ملخصا)
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࿐ इस से मालूम होता है कि किसी क़ौम के नीचा दिखाने के लिये ऐसे अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल भी जाइज़ नहीं जो उन्हें नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती।
࿐ हमारा मक़्सद फिलहाल ये है कि इस मसअले को लेकर जो मुसलमानों में गुलू आम हो रहा है और बिना इल्मी गहराई को जाने जो हद से तजावुज़ किया जा रहा है तो उस की रोक थाम ज़रूरी है क्योंकि ये एक फ़ितने से कम नहीं।
࿐ हम ने ये बहस यहाँ नक़्ल की है और मज़ीद तफसील आगे आ रही है जिस से वाज़ेह हो जायेगा कि उस पर किस तरह लोग इफ़रात व तफ़रीत का शिकार हैं। हम उम्मीद करते हैं कि इसे पढ़ने के बाद ये बेजा की "मैं खान तू अंसारी" वाली जंग एक हद तक रुक जायेगी और खुद की लगाई इस आग से हिफाज़त की सूरत निकल सकेगी।
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࿐ आवाम में मौजूद गुलू की मिसालें और उनकी इस्लाह के हवाले से चंद मज़ीद हवाला जात : क्या अंसारी के पीछे नमाज़ होगी?
࿐ फ़तावा फक़ीहे मिल्लत में एक सवाल है कि अगर कोई शख्स अंसारी, मंसूरी या कोई दूसरी बिरादरी का हुआ तो नमाज़े पंजगाना होगी या नहीं जब कि वो सलाहियते इमामत रखता हो? (इस तरह के और कई सवालात का उलमा -ए- अहले सुन्नत के पास आना बिल्कुल वाज़ेह करता है कि अवाम में इस मसाइल को लेकर किस क़द्र ला इल्मी मौजूद है। आगे भी आप ऐसी मिसालें मुलाहिज़ा फरमायेंगे) जवाब में लिखते हैं कि नमाज़ इमामत किसी क़ौम के साथ मख़सूस नहीं कि इसी क़ौम का आदमी नमाज़ (مشکوٰۃ، ص394)
࿐ लिहाज़ा महज़ इस बिना पर उनके साथ ऐसा करना अपने दीन से नावाकिफ़ होने की दलील है और उन का हुक़्क़ा पानी बंद करना अपनी जिहालत का सबूत पेश करना है।
(فتاوی اجملیہ، ج4، ص94)
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࿐ धोबी के यहाँ खाना पीना अल्लामा मुफ़्ती अजमल रज़ा क़ादरी एक सवाल के जवाब में लिखते हैं (जो धोबी के यहाँ खाने पीने के मुतल्लिक़ था)
࿐ जो धोबी मुस्लमान हैं यक़ीनन वो तमाम इस्लामी हुक़ूक़ के हक़दार हैं और उन के साथ खाना पीना भी इन्हीं हुक़ूक़ में दाखिल है। जो लोग उन के साथ खाते पीते हैं उन का ये फ़ेल शरअन दुरुस्त व सहीह है। और जो लोग मुसलमानों को इस से रोकते हैं उनका ये रोकना ग़लत व ख़िलाफ़े शरअ है।
(فتاوی اجملیہ، ج4، ص28)
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࿐ इसी तरह मलफूज़ाते आला हज़रत में है कि क्या धोबी के यहाँ ग्यारहवी का खाना जाइज़ है?
࿐ अल जवाब : धोबी के यहाँ खाने में कोई हर्ज नहीं है। ये जो जाहिलों में मशहूर है कि धोबियों के यहाँ का खाना नापाक है महज़ बातिल है।
࿐ अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद अजमल क़ादरी से जुज़ामी के बुरा लगता हो। जो लोग ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करते हैं, खुद की बिरादरी को अफ़ज़ल क़रार देते हुये दूसरे मुसलमानों की दिल आज़ारी करते हैं उन्हें ज़रा ग़ौर करना चाहिये कि वो क्या करते हैं?
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࿐ जुज़ामी के साथ "भेद भाव" चूँकि हमारा मक़्सद आवाम में मौजूद "भेद भाव" के नज़रिये की इस्लाह और मसावात और एतिदाल को बयान करना है लिहाज़ा इस बात को भी हम ज़िमनन यहाँ नक़्ल कर रहे हैं।
࿐ अल्लामा मुफ़्ती अजमल रज़ा क़ादरी से सवाल किया गया है कि एक शख्स को जुज़ाम (यानी बर्स का मरज़) है तो लोगों ने उस का हुक़्क़ा पानी बंद कर दिया है, क्या ऐसे शख्स को बस्ती से निकाल दिया जाये?
࿐ आप लिखते हैं कि जुज़ाम दूसरी बीमारियों की तरह एक बीमारी है और आवाम उस से जितना परहेज़ करती है, ये कोई शरई हुक्म नहीं है और ना शरीअत ऐसे बस्ती से निकाल देने का हुक्म देती है। (फिर आगे लिखते हैं कि) हुज़ूर नबी -ए- करीम सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम से वारिद है कि आप ने अपने साथ जुज़ामी को खिलाया है।
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࿐ इब्ने माजा में हज़रते जाबिर रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से मरवी है कि आप सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम ने जुज़ामी का हाथ पकड़ कर अपने साथ खाने के प्याले में रख दिया और हुक्म दिया कि तू खा ले, मै तो अपने खुदा पर एतिमाद और तवक्कल रखता हूँ।
࿐ ताल्लुक़ से और भी सवालात किये गये कि जुज़ामी की नमाज़े जनाज़ा है या नहीं?
࿐ जवाब में लिखते हैं : जुज़ामी जब मुसलमान है तो उस की नमाज़े जनाज़ा अहले इस्लाम पर ज़रूरी है कि हदीस शरीफ़ में है
"صلو اعلی کل برو فاجر":
࿐ यानी नमाज़े जनाज़ा हर एक नेक व बद पर पढ़ो। जुज़ामी और मिन्जुमला और बीमारियों की तरह एक बीमारी है तो जिस तरह और बीमारों की नमाज़े जनाज़ा फ़र्ज़े किफ़ाया इसी तरह जुज़ामी की नमाज़े जनाज़ा है!
(فتاوی اجملیہ، ج2، ص508)
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࿐ मज़ीद सवाल किया गया कि जुज़ामी को कफ़न दफ़न किया जाये या नहीं?
࿐ लिखते हैं इसी तरह जुज़ामी को कफ़न देना और दफ़न करना भी ज़रूरी है कि ये बाहैसियते मुस्लिम हुक़ूके मुस्लिमीन का हक़दार है।
(فتاوی اجملیہ، ج2، ص509)
࿐ एक सवाल ये कि जुज़ामी को सलाम व कलाम और इस से हम कलाम होना सहीह है या नहीं?
࿐ जवाब में लिखते हैं कि जुज़ामी से सलाम व कलाम में परहेज़ करने की किसी को इजाज़त नहीं कि वो बाहैसियते मुस्लिम तमाम हुक़ूके मुस्लिम का हक़दार है।
(فتاوی اجملیہ، ج2، ص510)
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࿐ एक मज़ीद सवाल कि जुज़ामी को शरीअत व हदीस जुदा करती है या नहीं?
࿐ जवाब में लिखते हैं कि हदीस में मौजूद है कि जुज़ामी से ज़ईफ़ुल एतिक़ाद वाले अशखास परहेज़ कर सकते हैं और अहले सिद्क़ व यक़ीन तवक्कल करने वाले परहेज़ नहीं करते हैं बल्कि हदीस में है कि हुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम ने जुज़ामी के हाथ को अपने हाथ से पकड़ कर अपने साथ खाने के प्याले में रख दिया और हुक्म दिया खा मै तो अपने खुदा पर एतिक़ाद व तवक्कल करता हूँ।
࿐ इस हदीस शरीफ़ से ज़ाहिर हो गया कि जुज़ामी से जब साथ खाने में भी परहेज़ नहीं किया गया तो फिर और किस चीज़ में परहेज़ किया जायेगा।
(فتاوی اجملیہ، ج2، ص509)
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࿐ आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह से धोबी के मुतल्लिक़ एक जगह सवाल किया गया कि मुसलमान धोबी के घर खाना जाइज़ है या नहीं?
फ़रमाते हैं : मुसलमान धोबी के घर खाना जाइज़ है।
(فتاوی رضویہ، ج21 ص669)
࿐ तहक़ीक़ी फ़तावा तलबा जामिआ समदिया में एक सवाल इस तरह है कि किसी शैख़ या पठान का किसी सय्यिद लड़की से निक़ाह सहीह है या नहीं?
࿐ जवाब में लिखते हैं अगर सय्यिद लड़की के औलिया की इजाज़त से ग़ैरे कुफ़ू में निकाह करे तो बिला इत्तिफ़ाक़ जाइज़ है हाँ अगर ग़ैरे कुफ़ू में औलिया की इजाज़त के बग़ैर निकाह करे तो इस दौर के मुअतमिद मुफ़्तियाने किराम ने ज़ाहिरूर रवाया की तरफ़ रुजू करते हुये दफ़आ लिल फ़साद इस के जवाज़ का फ़तवा दे दिया है।
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࿐ हिदाया अव्वलीन में है :
و ینعقد نکاح الحرۃ العاقلۃ البالغۃ برضائھا و ان لم یعقد علیھا ولی بکرا کانت او ثیبا عند ابی حنیفۃ و ابی یوسف فی ظاہر الروایۃ
(کتاب النکاح، باب فی الاولیا و الکفاء)
࿐ शरह वक़ाया सानी में है :
نفذ نکاح حرۃ المکلفۃ ولو من غیر کفوء بلا ولی
(کتاب النکاح، باب الولی والکفوء)
࿐ फ़तावा आलमगीर में है :
ثم المراۃ اذا زوجت نفسھا من غیر کفء صح النکاح فی ظاہر الروایۃ (الباب الخامس فی الاکفاء)
(تحقیقی فتاوی طلبا جامعہ صمدیہ، ص120، 121)
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࿐ सैय्यिदा का निकाह ग़ैरे सैय्यिद से अल्लामा ग़ुलाम रसूल सईदी रहमतुल्लाह त'आला बुखारी शरीफ़ की शरह में लिखते हैं कि बाज़ कम सवाद और कम फ़हम मुतअसब लोग ये कहते हैं कि फ़ातिमी मुसलमानों ने हज़रते उमर को मुबारक बाद दी और हज़रते उमर का उम्मे कुलसूम से एक बेटा ज़ैद और एक बेटी रुकैय्या पैदा हुई।
(اسد الغابہ، ج7، ص378)
࿐ ये किस्सा दर्ज ज़ेल कुतुब में भी बाज़ में इख़्तिसार के साथ और बाज़ में तफ़सील के साथ मज़कूर है।
(سنن ترمذی، الاصابہ، الستیعاب، الطبقات الکبری، تہذیب الاسماء واللغات، الکامل فی التاريخ)
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࿐ आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान कुद्दस सिर्रहू से सवाल किया गया है कि पठान के लड़के और सैय्यिद की लड़की से निकाह जाइज़ है या नहीं?
आला हज़रत इस सवाल के जवाब में लिखते हैं : साइल मज़हर की लड़की जवान है और उस का बाप ज़िन्दा है। दोनों इस अक़्द पर राज़ी हैं, जब सूरत ये है तो इस निकाह के जवाज़ में अस्लन कोई शुब्हा नहीं।
(فتاوی رضویہ ج٥،ص ٢٨٧)
࿐ आला हज़रत से सवाल किया गया कि आया अजमी आलिम सैय्यिदा का कुफ़ू है या नहीं? आला हज़रत जवाब में लिखते हैं : हां! दीनदार आलिम सैय्यिदा का कुफ़ू है क्योंकि इल्म की फ़ज़ीलत नसब की फ़ज़ीलत से ज़्यादा है।
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࿐ नसबी सैय्यिदा का ग़ैरे नसबी सय्यिद से निकाह किया तो उस को लोग काफ़िर कहते हैं तो शख़्स ग़ैरे सैय्यिद काफ़िर हुआ या नहीं?
࿐ अलजवाब : सैय्यिदा के ग़ैरे सैय्यिद से निकाह को कुफ्र समझने वाले बिला वजह मुसलमान को काफ़िर कहने वालों को तजदीदे इस्लाम करना चाहिये।
࿐ अमीरुल मुअमिनीन मौला अली करमल्ल्लाहु त'आला वजहहुल करीम ने अपनी साहिबज़ादी हज़रते उम्मे कुलसूम को कि बतने पाक हज़रते बतूल ज़हरा रदिअल्लाहु त'आला अन्हा से थीं, अमीरुल मुअमिनीन हज़रत उमर रदिअल्लाहु अन्हु के निकाह में दी और उन से हज़रत ज़ैद बिन उमर पैदा हुये और अमीरुल मुअमिनीन हज़रत उमर सादात से नहीं।
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࿐ औरत बालिगा जो नस्बन सैय्यिदा है किसी शख़्स जो नसबी सैय्यिद नहीं है निकाह करे तो जाइज़ होगा या नहीं?
࿐ जवाब : सैय्यिदा आकिला, बालिगा, अगर वली रखती है तो जिस कुफ़ू से निकाह करेगी हो जायेगा अगर्चे सैय्यिद ना हो अगर ग़ैरे कुफ़ू से बे इजाज़ते सरीहा वली निकाह करेगी तो ना होगा जैसा कि शैख़ अंसारी वग़ैरह मगर मुअज़्ज़ज़ आलिमे दीन हो (तो निकाह हो जायेगा) मर्द ग़ैरे सैय्यिद ने सैय्यिदा औरत से निकाह किया और अगर वो निकाह जाइज़ हो तो जो औलाद इस से पैदा होगी वो नस्बन सैय्यिद कहलायेगी या नहीं?
࿐ जवाब : जब बाप सैय्यिद ना हो तो औलाद सैय्यिद नहीं हो सकती माँ अगर्चे सैय्यिदानी हो।
وللہ تعالی اعلم
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࿐ सादात लड़कियों का निकाह ग़ैरे फ़ातिमी मर्दों से करना नाजाइज़ व हराम है! और उस के मुरतकिब काफ़िर हैं और उस से होने वाली औलाद ज़िना की औलाद हैं।
العیاذ باللہ
࿐ हम इस क़ौल से अल्लाह की पनाह तलब करते हैं और दर्ज ज़ेल सतूर में मुस्तनद हवालों के साथ ये तसरीहात पेश कर रहे हैं कि फ़ातिमी लड़कियों का निकाह ग़ैरे फ़ातिमी मर्दों के साथ अहदे सहाबा और अहदे ताबईन में होता रहा है और इस के जवाज़ और इस के इस्तिहसान पर तमाम अहले इस्लाम का इज्मा है। इमाम मुहम्मद बिन इस्माईल बुखारी ने अपनी सनद के साथ ये रिवायत किया है कि जिस में हज़रत उमर रदिअल्लाहु त'आला अन्हु चादरें तक़सीम कर रहे थे, एक चादर बच गयी तो किसी ने कहा कि ये चादर आप रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम की उस साहिबज़ादी को दे दें जो आप के निकाह में हैं (उन की मुराद हज़रते उम्मे कुलसूम बिंते अली रदिअल्लाहु त'आला अन्हा थीं।
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࿐ इस निकाह के मुतल्लिक़ अल्लामा अइनी लिखते हैं कि हज़रते उम्मे कुलसूम बिंते फ़ातिमा रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम की ज़िन्दगी में पैदा हुई थी। हज़रते उमर ने हज़रते अली को उन से निकाह का पैगाम दिया और फिर ये निकाह हुआ।
(عمدۃ القاری)
࿐ इमाम इब्ने हजर अस्क़लानी लिखते हैं कि (हज़रते उमर का निकाह जब हज़रते उम्मे कुलसूम से हुआ तो)
( فتاویٰ رضویہ ج٥،ص٢٩٩، سنی دار الاشاعت فیصل آباد)
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࿐ हज़रत उमर और हज़रते उम्मे कुलसूम के निकाह के मुतल्लिक़ दीगर अकाबिरे इस्लाम की तसरीहात : हज़रत पीर सय्यद महरे अ़ली शाह गोलड़वी फरमाते हैं : उम्मे कुलसूम को हज़रत उमर रदिअल्लाहु तआला अन्हु के निकाह में लाये, इन से एक साहिबज़ादे ज़ैद नाम का मुतवालिद हुआ।
(تحقیق الحق فی کلمۃ الحق،152)
࿐ आला हज़रत, इमाम अहमद रजा़ ने भी इस निकाह को बयान किया है।
(فتاویٰ رضویہ،ج5،ص299)
࿐ हदीस, तारीख़ और अकाबिर उल्मा -ए- कराम की इन तसरीहात के बाद भी अगर कोई मुन्किर और हट धर्म इस निकाह का इंकार करता है तो उस की बात को कौन सुनता है।
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࿐ सैय्यिद के ग़ैरे सैय्यिद से निकाह की चंद मिसाले हम पहले भी बयान कर चुके हैं जिन में से एक बात बिल्कुल वाज़ेह है कि दौरे सहाबा व ताबईन में ऐसे कई निकाह हुये है।
࿐ सैय्यिदा का ग़ैरे सैय्यिद से निकाह पर चंद मज़ीद हवाले फ़तावा हज़रत हाफ़िज़ अल्हदीस (फ़तावा भिक्की शरीफ़) में है कि सैय्यिदा का निकाह ग़ैरे सैय्यिद से मुत्लक़न तो जाइज़ नहीं लेकिन ग़ैरे सैय्यिद अगर आलिम, मुफ्ती और परहेज़गार हो तो जवाज़ का फ़तवा दिया जायेगा यानी इस शर्त के साथ वरना सैय्यिदा की तौहीन और बे अदबी होगी कि सरासर नाजाइज़ है, बाज़ उलमा ने मुत्लक़ हराम होने का फ़तवा भी दिया है लिहाज़ा एहतियात इसी में है कि ऐसा निकाह हरगिज़ ना किया जाये।
(فتاویٰ بھکی شریف،ج1،ص64)
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࿐ सैय्यिदा का ग़ैरे सैय्यिद से निकाह पर चंद मज़ीद हवाले फ़तावा यूरोप व बर्तानीया में है कि अगर सैय्यिदा का निकाह ग़ैरे सैय्यिद से वली की इजाज़त के साथ होता है तो ये निकाह बिल्कुल दुरुस्त है अगर्चे ग़ैरे सैय्यिद लड़का सैय्यिदा का कुफ़ू नहीं मगर कफ़ाअत वली का हक़ है लिहाज़ा वली जब खुद ग़ैरे कुफ़ू खानदान में अपनी लड़की का निकाह करने पर राज़ी है तो ऐसे निकाह में शर'अन कोइ हर्ज नहीं।
जैसा कि दुर्रे मुख्तार में है :
والکفاءۃ حی حق الولی لا حقہا (ج3، ص93)
࿐ अगर वली की इजाज़त के बग़ैर सैय्यिदा ने अपना निकाह किसी ग़ैरे सैय्यिद शख्स से किया मगर वो सुन्नी सहीहुल अक़ीदा आलिमे बा अमल है तो ये निकाह भी दुरुस्त और शर'अन जाइज़ व मुनअकिद है क्योंकि आलिम लड़का सैय्यिदा लड़की का कुफ़ू है कि इल्म की फज़ीलत नसब की फज़ीलत से बढ़कर है। जैसा कि आला हज़रत एक सवाल के जवाब में लिखते हैं कि जब अजमी आलिम दीनदार आमिल हो (तो वो सैय्यिदा का कुफ़ू है) क्योंकि इल्म की फज़ीलत नसब की फज़ीलत से फाइक़ है।
(فتاوی یوروپ و برطانیہ، ص293)
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࿐ हम ने इस किताब में उलमा -ए- अहले सुन्नत की किताबों से जो नक़्ल करने का शरफ़ हासिल किया है इस से कई बातें वाज़ेह होती हैं। मज़कूरा तफ़सील में ज़िम्नन कई ऐसी बातें भी ज़ेरे बहस आई हैं जो बहुत अहमिय्यत की हामिल हैं।
࿐ कोशिश की गई है कि जो भी बातें हैं उन्हें सामने रखा जाये, ऐसा नहीं कि हम सिर्फ किसी एक नज़रिये पर ज़ोर दें और दूसरी तमाम बातों को नज़र अंदाज़ कर दिया जाये।
࿐ इस पूरी तफ़सील को पढ़ने के बाद हम उम्मीद करते हैं कि जो इस मसअले में गुलू करते हैं या फिर हद से बढ़ते हुये हर चीज़ का ही इंकार कर देते हैं तो ऐसे लोग जानें कि इस मसअले की शरई हैसिय्यत क्या है और फिर ये मसअला कितनी इल्मी गहराईयों पर मुश्तमिल है। इनको जान लेने के बाद ज़रूर वो बातें हमारे दरमियान से दूर होंगी कि जिन की वजह से बहुत से मसाइल बल्कि फ़ितने पैदा हो रहे हैं।
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࿐ एक मिसाल हम शादियों की पेश कर सकते हैं कि ज़ात पात का सहीह तसव्वुर मालूम ना होने की वजह से लोग इस पर अड़ जाते हैं और ना जाने कितनी शादियों में ताख़ीर होती है। इस से मुआशरे में काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है। अपनी बिरादरी के अलावा रिश्ता करने से लोग ऐसे परहेज़ करते हैं कि जैसे वो मोमिन ही नहीं और ये रवैया इख़्तिलाफ़ और इंतिशार का सबब बनता है और फिर इस से कई फ़ितने पैदा होते हैं, कई बुराईयाँ जन्म लेती हैं जिन्हें अहले फ़हम अच्छी तरह देख और समझ सकते हैं।
࿐ अल्लाह त'आला हमारी ख़ताओं को मुआफ़ फ़रमाये और इस कोशिश को अपनी बारगाह में क़ुबूल फ़रमाये।
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