Friday, 18 June 2021

आओं नमाज़ पढ़ें! [PAGE-2]

 



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                  *आओं  नमाज़  सीखें*
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❝ नहमदोहू-व-नुसल्ली अला रसुलेहिल करीम ❞ 
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▣ ➟   *शबीना तरावीह :*

▣ ➟   अनवारुल फ़तावा में नवाफिल की जमाअत और शबीना तरावीह के मुतल्लिक़ एक सवाल हुआ कि रमज़ानुल मुबारक के महीने में जो शबीना होती है तो ये शरअन जाइज़ है या नहीं?

▣ ➟   अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद इस्माईल हुसैन नूरानी लिखते हैं कि ऐसा शबीना जो किसी के लिये तकलीफ और परेशानी का बाइस ना हो उसके इनिक़ाद में शरअन कोई हर्ज नहीं यानी अगर लोग अपनी खुशी से इस में शरीक हों और किसी पर ज़बरदस्ती ना की जाये और बाहर के स्पीकर भी इस्तिमाल ना किये जायें तो इस के जाइज़ होने में कलाम नहीं है।

▣ ➟   रसूलुल्लाह  ﷺ का इरशाद है कि जब तुम में कोई शख्स लोगों की इमामत करे तो तख़फ़ीफ़ से काम ले। (सहीह बुखारी)

▣ ➟   इस हदीसे पाक की रौशनी में हमारे नज़दीक बेहतर ये है कि शबीना में हत्तल इम्कान ऐसे तऱीके इख्तियार किये जायें जिन में लोगों के लिये ज़्यादा आसानी हो और जमाअत में इज़ाफ़ा हो।

(انوار الفتاوی، ص232)

*👨‍💻मिजानिब :- अ़ब्दे मुस्तफ़ा ऑफ़िशियल.!*

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▣ ➟  शबीना तरावीह :

▣ ➟  इमामे अहले सुन्नत, आला हज़रत रहीमहुल्लाहु त'आला तहरीर फ़रमाते हैं कि शबीना फ़ी नफ़्सिही क़तअन जाइज़ व रवा है।

▣ ➟  अकाबिरे आइम्मा -ए- दीन का मामूल रहा है इसे हराम कहना शरीअत पर इफ्तिरा है, इमामुल आइम्मा सय्यिदुना इमामे आज़म रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने तीस बरस कामिल हर रात एक रकअत में क़ुरआने मजीद खत्म किया है।

▣ ➟  (मज़ीद लिखते हैं कि) उलमा -ए- किराम ने फ़रमाया है सलफ़े सालिहीन में बाज़ अकाबिर दिन रात में दो खत्म फ़रमाते बाज़ चार बाज़ आठ और मीज़ानुश्शरिया इमाम अब्दुल वह्हाब शारानी में है कि सय्यिदी अली मुरसूफ़ी ने एक रात दिन में तीन लाख साठ हज़ार खत्म फ़रमाये (ये करामत थी उनकी)
आसार में है कि अमीरुल मुअमिनीन मौला अली रदिअल्लाहु त'आला अन्हु बायाँ पाऊँ रिकाब में रख कर क़ुरआन मजीद शुरू फ़रमाते और दाहिना पाऊँ रिकाब तक ना पहुँचता कि कलाम शरीफ़ खत्म हो जाता।

▣ ➟  (फिर मजीद दलाइल पेश फ़रमाने के बाद लिखते हैं कि) शबीना मज़कूरा सवाल के इन अवारिज़ से खाली था (यानी मखारिज वग़ैरह की रियायत ना करना तो) इस के जवाज़ में कोई शुब्हा नहीं (यानी ये जाइज़ है) मगर इतना ज़रूर है कि जमाअते नफ़्ल में तदायी ना हो कि मकरूह है।

(فتاوی رضویہ، ج7، ص480) 

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▣ ➟  शबीना तरावीह :

▣ ➟  फ़तावा शरइय्या में भी शबीना तरावीह के मुतल्लिक़ सवाल किया गया कि ये जाइज़ है या नाजाइज़?

▣ ➟  अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद फ़ज़्ल करीम हामिदी लिखते हैं कि अगर शबीना में लोग मुन्हियात व मुन्किरात का इर्तिक़ाब ना करें तो बेशक वो जाइज़ और बाइसे अज्रो सवाब है कि कुरआने करीम के एक-एक हर्फ़ के पढ़ने पर 10 नेकियाँ लिखी जाती हैं।

▣ ➟  हदीस शरीफ में है जिस ने क़ुरआन के एक हर्फ़ को पढ़ा उसके लिए एक नेकी है और एक नेकी 10 नेकियों के बराबर है।

▣ ➟  रावी फरमाते हैं कि सरकारे दो आलम ﷺ ने इरशाद फरमाया कि मै नही कहता हूँ कि अलिफ लाम मीम एक हर्फ़ है बल्कि अलिफ एक हर्फ़ है, लाम एक हर्फ़ और मीम एक हर्फ़ है (गोया अलिफ, लाम, मीम पढ़ने में 30 नेकियाँ लिखी जाती हैं)

▣ ➟  शबीना पढ़ना अकाबिरीने मिल्लत से साबित है, इमामे आज़म अबू हनीफ़ा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु 30 साल तक हर रात एक खत्म क़ुरआने मजीद पढ़ते थे।

▣ ➟  जब इमाम मौसूफ़ के फेल से ये साबित है कि एक रकअत में क़ुरआन खत्म करते थे तो यक़ीनन ये शरअन जाइज़ है।

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▣ ➟  शबीना तरावीह : 

▣ ➟  मज़ीद लिखते हैं कि जिन लोगों ने शबीना तरावीह को मकरूह लिखा है इस का मतलब ये है कि क़ारी इतनी जल्दी किरअत करे कि सुनने वालों को कुछ समझ में ना आये और सहीह अल्फ़ाज़ अदा न कर सके।

▣ ➟  आज भी बहुत से हाफ़िज़ तरावीह इस तरह पढ़ते हैं कि सिवाये यालमुना तालमूना के कुछ समझ में नहीं आता और इस तरह क़ुरआन की तिलावत नमाज़ में हो या खारिजे नमाज़ बहरहाल मकरूह है मगर ये कराहत तंजीही है ना कि तहरीमी।

▣ ➟  अबु दाऊद, तिर्मिज़ी व इब्जे माजा में हज़रते अब्दुल्लाह इब्ने उमर रदिअल्लाहु त'आला अन्हुमा से मरवी है कि जिसने तीन रात से कम में क़ुरआने हकीम खत्म कर लिया उसने समझ कर न पढ़ा।

▣ ➟  यहॉं अफ़ज़लियत नफ़ी है ना कि जाइज़ और मकरूह बहरहाल अगर मुक्तदियो पर सुस्ती और बार न हो और वो तवज्जोह से सुन सकें और क़ारी क़ुरआने करीम को सहीह से अल्फ़ाज़ की रिआयत कर के पढ़े तो शबीना जाइज़ व दुरुस्त है।

(فتاوی شرعیہ، ج1، ص331)

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▣ ➟  मुनफ़रिद का फ़र्ज़ों की जमा'अत पाना 

▣ ➟  तन्हा फ़र्ज़ नमाज़ शुरू ही की थी यानी अभी पहली रकअत का सजदा नहीं किया था कि जमाअत क़ाइम हुई तो तोड़ कर जमाअत में शामिल हो जाये।

▣ ➟  फ़ज्र या मग़रिब की नमाज़ एक रकअत पढ़ चुका था कि जमाअत क़ाइम हुयी तो फ़ौरन नमाज़ तोड़ कर जमाअत में शामिल हो जाये अगर्चे दूसरी रकअत पढ़ रहा हो, अलबत्ता दूसरी रकअत का सजदा कर लिया तो अब इन दो नमाज़ों में तोड़ने की इजाज़त नहीं और नमाज़ पूरी करने के बाद बानिय्यते नफ़्ल भी इन में शरीक नहीं हो सकता कि फ़ज्र के बाद नफ़्ल जाइज़ नहीं और मग़रिब में इस वजह से कि तीन रकअतें नफ़्ल की नहीं और मग़रिब में अगर शामिल हो गया तो बुरा किया, इमाम के सलाम फेरने के बाद एक रकअत और मिला कर चार कर ले और अगर इमाम के साथ सलाम फ़ेर दिया तो नमाज़ फ़ासिद हो गई चार रकअत क़ज़ा करे।

▣ ➟  मग़रिब पढ़ने वाले के पीछे नफ़्ल की निय्यत से शामिल हो गया। इमाम ने चौथी रकअत को तीसरी गुमान किया और खड़ा हो गया इस मुक़तदी ने उस का इत्तिबा किया, इस की नमाज़ फ़ासिद हो गई, तीसरी पर इमाम ने क़ादा किया हो या नहीं।

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▣ ➟  मुन्फ़रिद का फ़र्ज़ों की जमाअत पाना!

▣ ➟  चार रकअत वाली नमाज़ शुरू कर के एक रकअत पढ़ ली यानी पहली रकअत का सजदा कर लिया तो वाजिब है कि एक और पढ़ कर तोड़ दे कि ये दो रकअतें नफ़्ल हो जायेंगी और दो पढ़ ली हैं तो अभी तोड़ दे यानी तशह्हुद पढ़ कर सलाम फेर दे और तीन पढ़ ली हैं तो वाजिब है कि ना तोड़े, तोड़ेगा तो गुनाहगार होगा बल्कि हुक्म ये है कि पूरी कर के नफ़्ल की निय्यत से जमाअत में शामिल हो जमाअत का सवाब पा लेगा, मगर अस्र में शामिल नहीं हो सकता कि अस्र के बाद नफ़्ल जाइज़ नहीं।

▣ ➟  जमाअत क़ाइम होने से मुअज़्ज़िन का तकबीर कहना मुराद नहीं बल्कि जमाअत शुरू हो जाना मुराद है, मुअज़्ज़िन के तकबीर कहने से क़त'अ ना करेगा अगर्चे पहली रकअत का हुनूज़ (अब तक) सजदा ना किया हो।

▣ ➟  जमाअत क़ाइम होने से नमाज़ क़त'अ करना उस वक़्त है कि जिस मक़ाम पर ये नमाज़ पढ़ता हो वहीं जमाअत क़ाइम हो, अगर घर में नमाज़ पढ़ता है और मस्जिद में जमाअत क़ाइम हुयी या एक मस्जिद में ये पढ़ता है और दूसरी मस्जिद में जमाअत क़ाइम हुयी तो तोड़ने का हुक्म नहीं अगर्चे पहली का सजदा ना किया हो।

▣ ➟  नफ़्ल शुरू किये थे और जमाअत क़ाइम हुयी तो क़त'अ ना करे बल्कि दो रकअत पूरी कर ले, अगर्चे पहली रकअत का सजदा भी ना किया हो और तीसरी पढ़ता हो तो चार पूरी कर ले।

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▣ ➟  मुनफ़रिद का फ़र्ज़ों का जमाअत पाना 

▣ ➟  जुम्आ और ज़ुहर की सुन्नतें पढ़ने में ख़ुतबा या जमाअत शुरू हुई तो चार पूरी कर ले।

▣ ➟  सुन्नत या क़ज़ा नमाज़ शुरू की और जमाअत क़ायम हुई तो पूरी करके शामिल हो, हाँ! जो क़ज़ा शुरू की अगर बि एनिही उसी क़ज़ा के लिए जमाअत क़ायम हुई तो तोड़ कर शामिल हो जाये।

▣ ➟  नमाज़ तोड़ना बग़ैर उज़्र हो तो हराम है और माल के तलफ़ का अंदेशा हो तो मुबाह और कामिल करने के लिये हो तो मुस्तहब और जान बचाने के लिये हो तो वाजिब।

▣ ➟  नमाज़ तोड़ने के लिये बैठने की हाजत नहीं खड़ा-खड़ा एक तरफ़ सलाम फेर कर तोड़ दे।

▣ ➟  जिस शख़्स ने नमाज़ ना पढ़ी हो उसे मस्जिद से अज़ान के बाद निकलना मकरूहे तहरीमी है। इब्ने माजा उस्मान रदिअल्लाहु त'आला अन्हा से रावी, कि हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया ’’अज़ान के बाद जो मस्जिद से चला गया और किसी हाजत के लिये नहीं गया और ना वापस होने का इरादा है वो मुनाफ़िक़ है।

▣ ➟  इमाम बुख़ारी के अलावा जमाअते मुहद्दिसीन ने रिवायत की कि अबुल शअसा कहते हैं : हम अबु हुरैरा रदिअल्लाहु तआला अन्हु के साथ मस्जिद में थे जब मुअज़्ज़िन ने अस्र की अज़ान कही, उस वक़्त एक शख़्स चला गया इस पर फ़रमाया कि ''इस ने अबुल क़ासिम ﷺ की नाफ़रमानी की।"

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▣ ➟  मुन्फ़रिद का फ़र्ज़ों का जमाअत पाना

▣ ➟  अज़ान से मुराद वक़्ते नमाज़ हो जाना है, ख्वाह अभी अज़ान हुई हो या नहीं।

▣ ➟  जो शख़्स किसी दूसरी मस्जिद की जमाअत का मुंतज़िम हो, मस्लन इमाम या मुअज़्ज़िन हो कि इस के होने से लोग होते हैं वरना मुतफ़र्रिक़ हो जाते हैं ऐसे शख़्स को इजाज़त है कि यहाँ से अपनी मस्जिद को चला जाये अगर्चे यहाँ इक़ामत भी शुरू हो गई हो मगर जिस मस्जिद का मुंतज़िम है अगर वहाँ जमाअत हो चुकी तो अब यहाँ से जाने की इजाज़त नहीं।

▣ ➟  सबक़ का वक़्त है तो यहाँ से अपने उस्ताद की मस्जिद को जा सकता है या कोई ज़रूरत हो और वापिस होने का इरादा हो तो भी जाने की इजाज़त है, जबकि ज़न ग़ालिब हो कि जमाअत से पहले वापिस आ जायेगा।

▣ ➟  जिसने ज़ुहर या इशा की नमाज़ तन्हा पढ़ ली हो ,उसे मस्जिद से चले जाने की मुमानिअत उस वक़्त है कि इक़ामत शुरू हो गई, इक़ामत से पहले जा सकता है और जब इक़ामत शुरू हो गई तो हुक्म है कि जमाअत में बा निय्यते नफ़ल शरीक हो जाये और मग़रिब, फ़ज्र व अस्र में उसे हुक्म है कि मस्जिद से बाहर चला जाये जब कि पढ़ ली हो।

▣ ➟  मुक़्तदी ने दो सजदे किये और इमाम अभी पहले ही में था तो दूसरा सजदा ना हुआ।

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▣ ➟  मुन्फ़रिद का फ़र्ज़ों की जमाअत पाना

▣ ➟  चार रकअत वाली नमाज़ जिसे एक रकअत इमाम के साथ मिली तो उस ने जमाअत ना पायी, हाँ! जमाअत का सवाब मिलेगा अगर्चे क़ादा -ए- आखिरा में शामिल हुआ हो बल्कि जिसे तीन रकअतें मिलें उस ने भी जमाअत ना पायी जमाअत का सवाब मिलेगा। मगर जिस की कोई रकअत जाती रही उसे उतना सवाब ना मिलेगा जितना अव्वल से शरीक होने वाले को है। इस मसअले का खुलासा ये है कि किसी ने क़सम खायी फुलाँ नमाज़ जमाअत से पढ़ेगा और कोई रकअत जाती रही तो क़सम टूट गयी कफ़्फ़ारा देना होगा, तीन और दो रकअत वाली नमाज़ में भी एक रकअत ना मिली तो जमाअत ना मिली और लाहिक़ का हुक्म पूरी जमाअत पाने वाले का है।

▣ ➟  इमाम रुकूअ में था किसी ने उस की इक़तिदा की और खड़ा रहा यहाँ तके कि इमाम ने सर उठा लिया तो वो रकअत नहीं मिली, लिहाज़ा इमाम के फ़ारिग़ होने के बाद इस रकअत को पढ़ ले और अगर इमाम को क़याम में पाया और उस के साथ रुकूअ में शरीक ना हुआ तो पहले रुकूअ कर ले फिर और अफ़आल इमाम के साथ करे और अगर पहले रुकूअ ना किया बल्कि इमाम के साथ हो लिया फिर इमाम के फ़ारिग़ होने के बाद भी रुकूअ किया तो भी हो जायेगी मगर बा-वजहे तर्के वाजिब गुनाहगार हुआ।

▣ ➟  इस के रुकूअ करने से पेश्तर इमाम ने सर उठा लिया कि उसे रकअत न मिली तो इस सूरत में नमाज़ तोड़ देना जाइज़ नहीं जैसा बाज़ जाहिल करते हैं बल्कि इस पर वाजिब है कि सजदे में इमाम की मुताबिअत करें अगर्चे ये सजदे रकअत में शुमार ना हों।

▣ ➟  यूँ ही अगर सजदे में मिला जब भी साथ दे फिर अगर सजदे ना किये तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी यहाँ तक कि इमाम के सलाम के बाद उस ने अपनी रकअत पढ़ ली तो नमाज़ हो गयी मगर तर्के वाजिब का गुनाह हुआ।

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▣ ➟  मुन्फ़रिद का फ़र्ज़ों की जमाअत पाना

▣ ➟  इमाम से पहले रुकूअ किया लेकिन उस के सर उठाने से पहले इमाम ने भी रुकूअ किया तो हो गया बा-शर्ते ये कि उस ने उस वक़्त रुकूअ किया हो कि इमाम बा-क़द्रे फ़र्ज़ किरअत पूरी कर चुका हो वरना रुकूअ ना हुआ और इस सूरत में इमाम के साथ या बाद अगर दोबारा रुकूअ कर लेगा हो जायेगी वरना नमाज़ जाती रहेगी और इमाम से पहले रुकूअ ख्वाह कोई रुक्न अदा करने में गुनाहगार बहरहाल होगा।

▣ ➟  इमाम रूकूअ में था और ये तकबीर कह कर झुका था कि इमाम खड़ा हो गया तो अगर हद्दे रुकूअ में आपसी शिरकत हो गयी अगर्चे क़लील तो रकअत मिल गयी।

▣ ➟  मुक़तदी ने तमाम रकअतों में रुकूअ व सुजूद इमाम से पहले किया तो सलाम के बाद ज़रूरी है कि एक रकअत बग़ैर किरअत पढ़े ना पढ़ी तो नमाज़ ना हुयी और अगर इमाम के बाद रुकूअ व सुजूद किया तो नमाज़ हो गयी और अगर रुकूअ पहले किया और सजदा साथ तो चारों रकअतें बग़ैर किरअत पढ़े और रुकूअ साथ किया सजदा पहले तो दो रकअत बाद में पढ़े।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान

▣ ➟  बिला उज़्रे शरई नमाज़ क़ज़ा कर देना बहुत सख्त गुनाह है उस पर फ़र्ज़ है कि उस की क़ज़ा पढ़े और सच्चे दिल से तौबा करे, तौबा या हज्जे मक़बूल से गुनाहे ताख़ीर माफ़ हो जायेगा।

▣ ➟  तौबा जब ही सहीह है कि क़ज़ा पढ़ ले। उस को अदा ना करे, तौबा किये जाये, ये तौबा नहीं कि वो नमाज़ जो इस के ज़िम्मे थी उस का ना पढ़ना तो अभी बाक़ी है और जब गुनाह से बाज़ न आया तो तौबा कहाँ हुयी।

▣ ➟  हदीस में फ़रमाया : गुनाह पर क़ाइम रह कर अस्तग़फ़ार करने वाला उस के मिस्ल है जो अपने रब (अज़्ज़वजल) से ठठ्ठा (मज़ाक़) करता है।

▣ ➟  दुश्मन का खौफ़ नमाज़ क़ज़ा कर देने के लिये उज़्र है, मस्लन मुसाफ़िर को चोर और डाकुओं का सही अंदेशा है तो उस की वजह से वक़्ती नमाज़ क़ज़ा कर सकता है बशर्ते ये कि किसी तरह नमाज़ पढ़ने पर क़ादिर ना हो और अगर सवार है और सवारी पर पढ़ सकता है अगर्चे चलने की ही हालत में या बैठ कर पढ़ सकता है तो उज़्र ना हुआ। यूँ ही अगर किब्ला को मुँह करता है तो दुश्मन का सामना होता है तो जिस रुख बन पड़े, पढ़ ले हो जायेगी वरना नमाज़ क़ज़ा करने का गुनाह हुआ।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  जनाई (बच्चा जनने वाली, दाई) नमाज़ पढ़ेगी तो बच्चे के मार जाने का अंदेशा है, नमाज़ क़ज़ा करने के लिये ये उज़्र है।

▣ ➟  बच्चे का सर बाहर आ गया और निफ़ास से पेश्तर वक़्त खत्म हो जायेगा तो इस हालत में भी उस की माँ पर नमाज़ पढ़ना फ़र्ज़ है ना पढ़ेगी तो गुनाहगार होगी, किसी बर्तन में बच्चे का सर रख कर जिस से उस को सदमा ना पहुँचे नमाज़ पढ़े मगर इस तरकीब से पढ़ने में भी बच्चे के मर जाने का अंदेशा हो तो ताखीर मुआफ़ है बादे निफ़ास इस नमाज़ की क़ज़ा पढ़े।

▣ ➟  जिस चीज़ का बंदों पर हुक्म है उसे वक़्त में बजा लाने को अदा कहते हैं और वक़्त के बाद अमल में लाना क़ज़ा है और उस हुक्म को बजा लाने में कोई ख़राबी पैदा हो जाये तो दोबारा वो ख़राबी दफ़ा करने के लिये करना इआदा है।

▣ ➟  वक़्त में अगर तहरीमा बांध लिया तो नमाज़ क़ज़ा ना हुई बल्कि अदा है यानी बांधते वक़्त, वक़्त था और फिर दूसरा वक़्त दाखिल हो गया तो भी ये नमाज़ हो जायेगी मगर नमाज़े फ़ज्र व जुम्आ व ईदैन (इन का मसअला अलग है) कि इन में सलाम से पहले भी अगर वक़्त निकल गया जाती रहेगी।

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                  *आओं  नमाज़  सीखें*
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❝ नहमदोहू-व-नुसल्ली अला रसुलेहिल करीम ❞ 
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▣ ➟  क़जा़ नमाज़ का बयान :

▣ ➟  सोते में या भूले से नमाज़ क़जा़ हो गई तो उस की क़जा़ पढ़नी फ़र्ज़ है, अलबत्ता क़जा़ का गुनाह उस पर नहीं मगर बेदार होने और याद आने पर अगर वक़्ते मकरूह ना हो तो उसी वक़्त पढ़ ले, ताखी़र मकरूह है, कि हदीस में इरशाद फ़रमाया : "जो नमाज़ से भूल जाये या सो जाये तो याद आने पर पढ़ ले कि वही उस का वक़्त है।"

▣ ➟  मगर वक़्त दाखिल होने के बाद सो गया फ़िर वक़्त निकल गया तो क़त्अन गुनाहगार हुआ जब कि जागने पर सहीह ऐतिमाद या जगाने वाला मौजूद ना हो बल्कि फज्र में दुखूले वक़्त से पहले भी सोने की इजाज़त नहीं हो सकती जब कि अक्सर हिस्सा रात का जागने में गुज़रा और ज़न है कि अब सो गया तो वक़्त में आँख ना खुलेगी। 

▣ ➟  कोई सो रहा है या नमाज़ पढ़ना भूल गया तो जिसे मालूम हो उस पर वाजिब है कि सोते को जगा दे और भूले हुये को याद दिला दे।

▣ ➟  जब ये अंदेशा हो कि सुबह की नमाज़ जाती रहेगी तो बिला ज़रूरते शरिय्यह उसे रात में देर तक जागना ममनू'अ है।

*👨‍💻मिजानिब :- अ़ब्दे मुस्तफ़ा ऑफ़िशियल.!*

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▣ ➟  कज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  फ़र्ज़ की क़ज़ा फ़र्ज़ है और वाजिब की क़ज़ा वाजिब और सुन्नत की क़ज़ा सुन्नत यानी वो सुन्नतें जिन की क़ज़ा है मस्लन फ़ज्र की सुन्नतें जब कि फ़र्ज़ भी फौत हो गया हो और ज़ुहर की पहली सुन्नतें जब कि ज़ुहर का वक़्त बाक़ी हो।

▣ ➟  क़ज़ा के लिये वक़्त मुअय्यन नहीं, उम्र में जब पढ़ेगा बरीउज़्ज़िमा हो जायेगा मगर तुलूअ व ग़ुरूब और ज़वाल के वक़्त कि इन वक़्तों में नमाज़ जाइज़ नहीं।

▣ ➟  मजनून की हालते जुनून जो नमाज़ें फौत हुयीं अच्छे होने के बाद उन की क़ज़ा वाजिब नहीं जब कि नमाज़ के छ: वक़्ते कामिल तक बराबर रहा हो।

▣ ➟  जो शख्स मआज़ अल्लाह मुर्तद हो गया फिर इस्लाम लाया तो ज़माना -ए- इरतिदाद की नमाज़ों की क़ज़ा नहीं और मुर्तद होने से पहले ज़माना -ए- इस्लाम में जो नमाज़ें जाती रहीं थी उन की क़ज़ा वाजिब है।

*👨‍💻मिजानिब :- अ़ब्दे मुस्तफ़ा ऑफ़िशियल.!*

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▣ ➟  दारुल हरब में कोई शख्स मुसलमान हुआ और अहकामे शरईय्या, नमाज़, रोज़ा, ज़कात वग़ैरह की इस को इत्तिला ना हुयी तो जब तक वहाँ रहा इन दोनों की क़ज़ा इस पर वाजिब नहीं और जब दारुल इस्लाम में आ गया तो अब जो नमाज़ क़ज़ा हो गयी उसे पढ़ना फर्ज़ है कि दारुल इस्लाम में अहकाम का ना जानना उज़्र नहीं और किसी एक शख्स ने भी इसे नमाज़ फर्ज़ होने की इत्तिला दे दी अगर्चे फ़ासिक़ या बच्चा या औरत या ग़ुलाम ने तो अब जितनी ना पढ़ेगा उन की क़ज़ा वाजिब है, दारुल इस्लाम में मुसलमान हुआ तो जो नमाज़ फौत हुयी उस की क़ज़ा वाजिब है अगर्चे कहे कि मुझे इसका इल्म ना था।

▣ ➟  ऐसा मरीज़ के इशारे से भी नमाज़ नहीं पढ़ सकता अगर ये हालत पूरे 6 वक़्त तक रही तो उस हालत में जो नमाज़ें फौत हुयीं उन की क़ज़ा वाजिब नहीं।

▣ ➟  जो नमाज़ जैसी फौत हुयी उस की क़ज़ा वैसी ही पढ़ी जायेगी, मस्लन सफ़र में नमाज़ क़ज़ा हुयी तो चार रकअत वाली दो ही पढ़ी जायेगी अगर्चे इक़ामत की हालत में पढ़ी और हालते इक़ामत में फौत हुयी तो चार रकअत वाली की क़ज़ा चार रकअत है अगर्चे सफ़र में पढ़े। अलबत्ता क़ज़ा पढ़ने के वक़्त कोई उज़्र है तो उस का ऐतबार किया जायेगा, मस्लन जिस वक़्त फौत हुई थी उस वक़्त खड़ा हो कर पढ़ सकता था और अब क़ियाम नहीं कर सकता तो बैठ कर पढ़े या उस वक़्त इशारे से ही पढ़ सकता है तो इशारे से पढ़े और सिहत के बाद उस का इआदा (दोहराना) नहीं।

*👨‍💻मिजानिब :- अ़ब्दे मुस्तफ़ा ऑफ़िशियल.!*

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  लड़की नमाज़े इशा पढ़ कर या बे पढ़े सोयी आँख खुली तो मालूम हुआ कि पहला हैज़ आया तो उस पर वो इशा फ़र्ज़ नहीं और अगर एहतिलाम से बालिग़ हुयी तो उस का हुक्म वो है जो लड़के का है, पौ फ़टने (सुब्हे सादिक़ का वक़्त) से पहले आँख खुली तो उस वक़्त की नमाज़ फ़र्ज़ है अगर्चे पढ़ कर सोयी और पौ फटने के बाद आँख खुली तो इशा का इआदा करे और उम्र से बालिग़ हुयी यानी उस की उम्र पूरे पंद्रह साल की हो गयी तो जिस वक़्त पूरे पंद्रह साल की हुयी उस वक़्त की नमाज़ उस पर फ़र्ज़ है अगर्चे पहले पढ़ चुकी हो।

▣ ➟  पाँचों फ़र्ज़ में बाहम और फ़र्ज़ व वित्र में तरतीब ज़रूरी है कि पहले फ़ज्र फिर ज़ुहर फिर अस्र फिर मग़रिब फिर इशा फिर वित्र पढ़े, ख्वाह ये सब क़ज़ा हों या बाज़ क़ज़ा बाज़ अदा, मस्लन ज़ुहर की क़ज़ा हो गयी तो फ़र्ज़ है कि उसे पढ़ कर अस्र पढ़े या वित्र क़ज़ा हो गया तो इसे पढ़ कर फ़ज्र पढ़े अगर याद होते हुये अस्र या वित्र की पढ़ ली तो नाजाइज़ है।

▣ ➟  अगर वक़्त में इतनी गुंजाइश नहीं कि वक़्ती और क़ज़ायें सब पढ़ ले तो वक़्ती और क़ज़ा नमाज़ों में जिस की गुंजाइश हो पढ़े बाक़ी में तरतीब साकित है, मस्लन नमाज़े इशा व वित्र क़ज़ा हो गये और फ़ज्र के वक़्त में पाँच रकअत की गुंजाइश है तो वित्र व फ़ज्र पढ़े और 6 रकअत की वुस'अत हो तो इशा व फ़ज्र पढ़े।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान : 

▣ ➟  तरतीब के लिये मुत्लक़ वक़्त का एतबार है, मुस्तहब वक़्त होने की ज़रूरत नहीं तो जिस की ज़ुहर की नमाज़ क़ज़ा हो गयी और आफ़ताब ज़र्द होने से पहले ज़ुहर से फ़ारिग़ नहीं हो सकता मगर आफ़ताब डूबने से पहले दोनों पढ़ सकता है तो पहले ज़ुहर पढ़े फिर अस्र।

▣ ➟  अगर वक़्त में इतनी गुंजाइश है कि मुख्तसर तौर पर पढ़े तो दोनों पढ़ सकता है और उम्दा तरीके से पढ़े तो दोनों नमाज़ों की गुंजाइश नहीं तो इस सूरत में भी तरतीब फ़र्ज़ है और बा-क़द्रे जवाज़ जहाँ तक इख़्तिसार कर सकता है करे।

▣ ➟  वक़्त की तंगी से तरतीब साकित होना उस वक़्त है कि शुरू करते वक़्त वक़्त तंग हो, अगर शुरू करते वक़्त गुंजाइश थी और ये याद था कि उस वक़्त से पेश्तर की नमाज़ क़ज़ा हो गयी है और नमाज़ में तूल दिया कि अब वक़्त तंग हो गया तो ये नमाज़ ना होगी। हाँ! अगर तोड़कर फ़िर से पढ़े तो हो जायेगी और क़ज़ा नमाज़ याद ना थी और वक़्ती नमाज़ में तूल दिया कि वक़्त तंग हो गया अब याद आयी तो हो गई क़त'अ ना करे।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान : 

▣ ➟  वक़्त तंग होने ना होने में उस के गुमान का ऐतबार नहीं बल्कि ये देखा जायेगा कि हक़ीक़तन वक़्त तंग था या नहीं मस्लन जिस की नमाज़े इशा क़ज़ा हो गयी और फ़ज्र का वक़्त तंग होना गुमान कर के फ़ज्र की पढ़ ली फिर ये मालूम हुआ कि वक़्त तंग ना था तो नमाज़े फ़ज्र ना हुयी अब अगर दोनों की गुंजाइश हो तो इशा पढ़कर फ़ज्र पढ़े वरना फ़ज्र पढ़ ले अगर दोबारा फिर ग़लती मालूम हुयी तो वही हुक्म है यानी दोनों पढ़ सकता है तो दोनों पढ़े वरना सिर्फ फ़ज्र पढ़े और अगर फ़ज्र का इआदा ना किया इशा पढ़ने लगा और बा-क़द्रे तशह्हुद बैठने ना पाया था कि आफ़ताब निकल आया तो फ़ज्र की नमाज़ जो पढ़ी थी हो गयी। यूँ ही अगर फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो गयी और ज़ुहर के वक़्त में दोनों नमाज़ों की गुंजाइश इस के गुमान में नहीं है और ज़ुहर पढ़ ली फिर मालूम हुआ कि गुंजाइश है तो ज़ुहर ना हुई, फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर पढ़े यहाँ तक कि अगर फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर की एक रकअत पढ़ सकता है तो फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर शुरू करे।

▣ ➟  जुम्आ के दिन फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो गयी अगर फ़ज्र पढ़ कर जुम्आ में शरीक हो सकता है तो फ़र्ज़ है कि पहले फ़ज्र पढ़े अगर्चे खुत्बा होता हो और अगर जुम्आ ना मिलेगा मगर ज़ुहर का वक़्त बाक़ी रहेगा जब भी फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर पढ़े और अगर ऐसा है कि फ़ज्र पढ़ने में जुम्आ भी जाता रहेगा और जुम्आ के साथ वक़्त भी खत्म हो जायेगा तो जुम्आ पढ़ ले फिर फ़ज्र पढ़े इस सूरत में तरतीब साकित है।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  अगर वक़्त की कमी के सबब तरतीब साकित हो गयी और वक़्ती नमाज़ पढ़ रहा था कि नमाज़ पढ़ते हुये में वक़्त खत्म हो गया तो तरतीब ऊद ना करेगी यानी वक़्ती नमाज़ हो गयी, मगर फ़ज्र व जुम्आ में कि वक़्त निकल जाने से ये खुद ही नहीं हुयीं।

▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ याद ना रही और वक़्तिया पढ़ ली पढ़ने के बाद याद आयी तो वक़्तिया हो गयी और पढ़ने में याद आयी तो गयी।

▣ ➟  अपने को बावुज़ू गुमान कर के ज़ुहर पढ़े फिर वुज़ू कर के अस्र पढ़े फिर मालूम हुआ कि ज़ुहर में वुज़ू ना था तो अस्र की हो गयी सिर्फ ज़ुहर का इआदा करे।

▣ ➟  फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो गयी और याद होते हुये ज़ुहर की पढ़ ली फिर फ़ज्र की पढ़ी तो ज़ुहर की ना हुयी, अस्र पढ़ते वक़्त ज़ुहर की याद थी मगर अपने गुमान में ज़ुहर को जाइज़ समझा था तो अस्र की हो गयी गर्ज़ ये कि फर्ज़िय्यते तरतीब से जो नावाकिफ़ है उस का हुक्म भूलने वाले कि मिस्ल है कि उस की नमाज़ हो जायेगी।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  6 नमाज़ें जिस की क़ज़ा हो गयी की छठी का वक़्त खत्म हो गया उस पर तरतीब फ़र्ज़ नहीं, अब अगर्चे बावजूद वक़्त की गूंजाइश और याद के वक़्ती पढ़ेगा हो जायेगी ख्वाह वो सब एक साथ क़ज़ा हुयीं मस्लन एक दम से 6 वक़्तों की ना पढ़ी या मुतफ़र्रिक़ तौर पर क़ज़ा हुयीं मस्लन 6 दिन फ़ज्र की नमाज़ ना पढ़ी और बाक़ी नमाज़ें पढ़ता रहा मगर उन के पढ़ते वक़्त वो क़ज़ायें भूला हुआ था ख्वाह वो सब पुरानी हों या बाज़ नयी बाज़ पुरानी मस्लन एक महीना की नमाज़ ना पढ़ी फिर पढ़नी शुरु की फिर एक वक़्त की क़ज़ा हो गयी तो उस के बाद की नमाज़ हो जायेगी अगर्चे उस का क़ज़ा होना याद हो।

▣ ➟  जब 6 नमाज़ें क़ज़ा होने के सबब तरतीब साक़ित हो गयी तो उन में से अगर बाज़ पढ़ ली कि 6 से कम रह गयी तो वो तरतीब ऊद ना करेगी यानी उन में से अगर 2 बाक़ी हों तो बावजूद याद के वक़्ती नमाज़ हो जायेगी अलबत्ता अगर सब क़ज़ायें पढ़ ली तो अब फिर साहिबे तरतीब हो गया कि अब अगर कोई नमाज़ क़ज़ा होगी तो बा-शराइत साबिक़ उसे पढ़ कर वक़्ती पढ़े वरना ना होगी।

▣ ➟  यूँ ही अगर भूलने या तंगी -ए- वक़्त के सबब तरतीब साक़ित हो गयी तो वो भी ऊद ना करेगी मस्लन भूल कर नमाज़ पढ़ ली अब याद आया तो नमाज़ का इआदा नहीं अगर्चे वक़्त में बहुत कुछ गुंजाइश हो।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  बावजूदे याद और गुंजाइशे वक़्त के वक़्ती नमाज़ की निस्बत जो कहा गया कि ना होगी इस से मुराद ये है कि वो नमाज़ मौक़ूफ़ है अगर वक़्ती पढ़ता गया और क़ज़ा रहने दी तो जब दोनों मिल कर 6 हो जायेंगी यानी छठी का वक़्त खत्म हो जायेगा तो सब सहीह हो गयीं और अगर इस दरमियान में क़ज़ा पढ़ ली तो सब गयीं यानी नफ़्ल हो गयीं, सब को फिर से पढ़े।

▣ ➟  बाज़ नमाज़ पढ़ते वक़्त क़ज़ा याद थी और बाज़ में याद ना रही तो जिन में क़ज़ा याद है उन में पाँचवी का वक़्त खत्म हो जाये (यानी क़ज़ा समेत छठी का वक़्त हो जाये) तो अब सब हो गयीं और जिन के अदा करते वक़्त क़ज़ा की याद ना थी उन का ऐतबार नहीं।

▣ ➟  औरत की एक नमाज़ क़ज़ा हुयी उस के बाद हैज़ आया तो हैज़ से पाक हो कर पहले क़ज़ा पढ़ ले फिर वक़्ती पढ़े, अगर क़ज़ा याद होते हुये वक़्ती पढ़ेगी तो ना होगी, जबकि वक़्त में गुंजाइश हो।

▣ ➟  जिस के ज़िम्मे क़ज़ा नमाज़ें हों अगर्चे उन का पढ़ना जल्द से जल्द वाजिब है मगर बाल बच्चों की खुर्द नोश और अपनी ज़रूरिय्यात की फ़राहमी के सबब ताखीर जाइज़ है, तो कारोबार भी करे और जो वक़्त फुरसत का मिले उस में क़ज़ा पढ़ते रहे यहाँ तक कि पूरी हो जायें।

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▣ ➟  कज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ें नवाफिल से अहम हैं यानी जिस वक़्त नफ़्ल पढ़ता है उन्हें छोड़ कर उन के बदले क़ज़ायें पढ़े कि बरीउज़्ज़िम्मा हो जाये अलबत्ता तरावीह और बारह रकअतें सुन्नते मुअक्किदा की ना छोड़े।

▣ ➟  मन्नत की नमाज़ में किसी खास वक़्त या दिन की क़ैद लगायी तो उसी वक़्त या दिन में पढ़नी वाजिब है वरना क़ज़ा हो जायेगी और अगर वक़्त या दिन मुअय्यन नहीं तो गुंजाइश है।

▣ ➟  किसी शख्स की एक नमाज़ क़ज़ा हो गयी और ये याद नहीं कि कौन सी नमाज़ थी तो एक दिन की नमाज़ें पढ़े। यूँ ही अगर दो नमाज़ें दो दिन में क़ज़ा हुयीं तो दोनों दिनों की सब नमाज़ें पढ़े। यूँ ही तीन दिन की तीन नमाज़ें और पाँच दिन की पाँच।

▣ ➟  एक दिन अस्र की और एक दिन ज़ुहर की क़ज़ा हो गयी और ये याद नहीं कि पहले दिन की कौन सी नमाज़ है तो जिधर तबियत जमे उसे पहले क़रार दे और किसी तरफ दिल नहीं जमता तो जो चाहे पहले पढ़े मगर दूसरी पढ़ने के बाद जो पहली पढ़ी है फेरे और बेहतर ये है कि पहले ज़ुहर पढ़े फिर अस्र फिर ज़ुहर का इआदा और अगर पहले अस्र पढ़े फिर ज़ुहर फिर अस्र का इआदा किया तो भी हर्ज नहीं।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  अस्र की नमाज़ पढ़ने में याद आया कि नमाज़ का एक सजदा रह गया मगर ये याद नहीं कि इसी नमाज़ का रह गया या ज़ुहर का तो जिधर दिल जमे उस पर अमल करे और किसी तरफ़ ना जमा तो अस्र पूरी कर के आखिर में एक सजदा कर ले फिर ज़ुहर का इआदा करे फिर अस्र का और इआदा ना किया तो भी हर्ज नहीं।

▣ ➟  जिस की नमाज़ें क़ज़ा हो गयी और इन्तिक़ाल हो गया अगर वसिय्यत कर गया और माल भी छोड़ा तो उसकी तिहाई से हर फर्ज़ व वित्र के बदले निस्फ सा'अ गेहूँ या एक सा'अ जौ सदक़ा करें और माल ना छोड़ा और वारिस फिदिया देना चाहें तो कुछ माल अपने पास से या क़र्ज़ ले कर मिस्कीन पर तसद्दुक़ करके उस के क़ब्ज़े में दें और मिस्कीन अपनी तरफ से उसे हिबा कर दे और ये क़ब्ज़ा भी कर ले फिर ये मिस्कीन को दे, यूँ ही लौट फेर करते रहे यहाँ तक कि सब का फिदिया अदा हो जाये। और अगर माल छोड़ा मगर वो नाकाफ़ी है जब भी यही करें और वसिय्यत ना की और वली अपनी तरफ से बतौरे अहसान फिदिया देना चाहे तो दे और अगर माल की तिहाई बा-क़द्रे काफी है और वसिय्यत ये की कि उस में से थोड़ा लेकर लौट फेर करके फिदिया पूरा कर लें और बाक़ी को वुरसा या और कोई ले ले तो गुनाहगार हुआ।

▣ ➟  मय्यत ने वली को अपने बदले नमाज़ पढ़ने की वसिय्यत की और वली ने पढ़ भी ली तो ये नाकाफ़ी है। यूँ ही अगर मर्ज़ की हालत में नमाज़ का फिदिया दिया तो अदा ना हुआ।

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▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ का बयान :

▣ ➟  बाज़ नावाकिफ़ यूँ फ़िदिया देते हैं कि नमाज़ों के फ़िदिया की क़ीमत लगाकर सब के बदले में क़ुरआन मजीद देते हैं इस तरह कुल फ़िदिया अदा नहीं होता ये महज़ बे-अस्ल बात है बल्कि सिर्फ उतना ही अदा होगा जिस क़ीमत का मुस्हफ़ शरीफ़ है।

▣ ➟  शाफ़ई मज़हब की नमाज़ क़ज़ा हुयी उस के बाद हनफ़ी हो गया तो हनफियों के तौर पर क़ज़ा पढ़े।

▣ ➟  जिस की नमाज़ों में नुक़्सान व कराहत हो वो तमाम उम्र की नमाज़ें फेरे तो अच्छी बात है और कोई ख़राबी ना हो तो ना चाहिये और करे तो फ़ज्र व अस्र के बाद ना पढ़े और तमाम रकअतें भरी पढ़े और वित्र में क़ुनूत पढ़ कर तीसरी के बाद क़ादा करे फिर एक और मिलाये कि चार हो जायें।

▣ ➟  क़ज़ा -ए- उम्री कि शबे क़द्र या आखिर जुम्आ रमज़ान में जमाअत से पढ़ते हैं और ये समझते हैं कि उम्र भर की क़ज़ायें उसी एक नमाज़ से अदा हो गयीं, ये बातिल महज़ है।

▣ ➟  अब हम सजदा -ए- सह्व के मुतल्लिक़ मसाइल नक़्ल करेंगे।

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▣ ➟  सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟  सह्व यानी भूलना और सजदा -ए- सह्व यानी भूल का सजदा जो आखिर में एक तरफ़ सलाम फेर कर दो सजदे किये जाते हैं।

▣ ➟  ये नमाज़ में हुई भूल की तलाफी के लिये होते हैं।

▣ ➟  ये कब कब किया जा सकता है, इस के मुतल्लिक़ जानना ज़रूरी है। ऐसा नहीं कि कोई भी गलती हो और सजदा -ए- सह्व से काम चल जाये बल्कि इस का मौक़ा है। अगर नमाज़ के दरमियान वुज़ू चला जाये तो सजदा -ए- सह्व करना काफी ना होगा क्योंकि इस का एक दायरा है और इसे जानना चाहिये।

▣ ➟  वाजिबाते नमाज़ में जब कोई वाजिब भूले से रह जाये तो उस की तलाफी के लिये सजदा -ए- सह्व वाजिब है उस का तरीक़ा ये है कि अत्तहिय्यात के बाद दाहिनी तरफ़ सलाम फेर कर दो सजदे करे फिर तशह्हुद वग़ैरह पढ़ कर सलाम फेरे।

▣ ➟  अगर बग़ैर सलाम फेरे सजदे कर लिये काफी हैं मगर ऐसा करना मक़रूहे तंज़ीही है।

▣ ➟  क़स्दन (जान बूझ कर) वाजिब तर्क किया तो सजदा -ए- सह्व से वो नुक़्सान दफ़अ ना होगा बल्कि इआदा वाजिब है। यूँ ही अगर सहवन वाजिब तर्क हुआ और सजदा -ए- सह्व ना किया जब भी इआदा वाजिब है।

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▣ ➟  सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟  कोई ऐसा वाजिब तर्क़ हुआ जो वाजिबाते नमाज़ से नहीं बल्कि उस का वजुब अम्रे खारिज से हो तो सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं मस्लन खिलाफे तरतीब क़ुरआन मजीद पढ़ना तर्के वाजिब है मगर मुवाफिके तरतीब पढ़ना वाजिबाते तिलावत से है मगर वाजिबाते नमाज़ से नहीं लिहाज़ा सजदा -ए- सह्व नहीं। 

▣ ➟  फ़र्ज़ तर्क हो जाने से नमाज़ जाती रहती है सजदा -ए- सह्व से उस की तलाफी नहीं हो सकती लिहाज़ा फिर पढ़े और सुनन व मुस्तहब्बात मस्लन तअव्वुज़, तस्मिया, सना, आमीन, तक्बीराते इन्तिक़ालात, तस्बीहात के तर्क से भी सजदा -ए- सह्व नहीं बल्कि नमाज़ हो गयी। मगर इआदा मुस्तहब है सहवन तर्क किया हो या क़स्दन। 

▣ ➟  सजदा -ए- सह्व उस वक़्त वाजिब है कि वक़्त में गुंजाइश हो और अगर ना हो मस्लन नमाज़े फ़ज्र में सह्व वाक़ेअ हुआ और पहला सलाम फेरा और सजदा अभी ना किया कि आफताब तुलूअ कर आया तो सजदा -ए- सह्व साकित हो गया। यूँ ही अगर क़ज़ा पढ़ता था और सजदा से पहले क़र्स आफताब ज़र्द हो गया सजदा साकित हो गया। जुम्आ या ईद का वक़्त जाता रहेगा जब भी यही हुक़्म है। 

▣ ➟  जो चीज़ मानेअ बना है, मस्लन कलाम वग़ैरह मनाफ़ी -ए- नमाज़, अगर सलाम के बाद पायी गयी तो अब सजदा -ए- सह्व नहीं हो सकता। 

▣ ➟  सजदा -ए- सह्व का साकित होना अगर उस के फे'ल से है तो इआदा वाजिब है वरना नहीं। 

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▣ ➟  सजदा -ए- सह्व का बयान : 

▣ ➟  फर्ज़ व नफ़्ल दोनों का एक हुक़्म है यानी नवाफ़िल में भी वाजिब तर्क़ होने से सजदा -ए- सह्व वाजिब है। 

▣ ➟  नफ़ल की दो रकअतें पढ़ी और उन में सह्व हुआ फिर उसी पर बिना कर के दो रकअतें और पढ़ी तो सजदा -ए- सह्व करे और फ़र्ज़ में सह्व हुआ था और उस पर क़स्दन नफ़्ल की बिना की तो सजदा -ए- सह्व नही बल्कि फ़र्ज़ का इआदा करे और अगर उस फ़र्ज़ के साथ सहवन नफ़्ल मिलाया हो मस्लन चार रकअत पर क़ा'दा कर के खड़ा हो गया और पाँचवी का सजदा कर लिया तो एक रकअत और मिलाये कि ये दो नफ़्ल हो जायेंगी और उन में सजदा -ए- सह्व करे। 

▣ ➟  सजदा -ए- सह्व के बाद भी अत्तहिय्यात पढ़ना वाजिब है। अत्तहिय्यात पढ़ कर सलाम फेरे और बेहतर ये है कि दोनों क़ा'दा में दुरूद शरीफ़ भी पढ़े। और ये भी इख्तियार है की पहले क़ा'दा में अत्तहिय्यात व दुरूद पढ़े और दूसरे में सिर्फ़ अत्तहिय्यात। 

▣ ➟  सजदा -ए- सह्व से वो पहला क़ा'दा बातिल ना हुआ मगर फिर क़ा'दा करना वाजिब है और अगर नमाज़ का कोई सजदा बाक़ी रह गया था क़ा'दा के बाद उस को किया या सजदा -ए- तिलावत किया तो वो क़ा'द जाता रहा। अब फिर क़ा'दा फ़र्ज़ है कि बगैर क़ा'दा नमाज़ खत्म कर दी तो ना हुई और पहली सुरत में हो जायेगी मगर वाजिबुल इआदा। 

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▣ ➟  एक नमाज़ में चंद वाजिब तर्क हुये तो वही दो सजदे सब के लिये काफ़ी हैं यानी एक ही नमाज़ में दो वाजिब भूल कर छोड़ दिये तो आखिर में वैसे ही सजदा -ए- सह्व करेंगे यानी एक तरफ़ सलाम फेर कर दो सजदे।

▣ ➟  वाजिबाते नमाज़ का मुफ़स्सल बयान पेश्तर हो चुका है (नमाज़ के वाजिबात के तहत) मगर तफ़सीले अहकाम के लिये इआदा बेहतर, वाजिब की ताख़ीर यानी अदा करने में देर करना, रुक्न की तक़्दीम या ताख़ीर या उस को मुकर्रर करना यानी तकरार या वाजिब में तग़य्युर ये सब भी तर्के वाजिब हैं यानी वाजिब का तर्क लाज़िम आयेगा।

▣ ➟  फ़र्ज़ की पहली दो रकअतों में और नफ़्ल व वित्र की किसी रकअत में सूरह अलहम्द की एक आयत भी रह गयी या सूरत या पेश्तर दो बार अलहम्द या सूरत मिलाना भूल गया या सूरत को फ़ातिहा पर मुक़द्दम किया या अलहम्द के बाद एक या दो छोटी आयतें पढ़ कर रुकूअ में चला गया फिर याद आया और लौटा और तीन आयतें पढ़ कर रुकूअ किया तो इन सब सूरतों में सजदा -ए- सह्व वाजिब है।

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▣ ➟  सजदा-ए-सह्व का बयान : 

▣ ➟  अल्हम्द के बाद सूरत पढ़ी उस के बाद फिर अल्हम्द पढ़ी तो सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं। 

▣ ➟  यूँ ही फ़र्ज़ की पिछ्ली रकअतों में फातिहा की तकरार ( यानी दोबारा पढ़ने) से मुत्लक़न सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं और अगर पहली रकअतों में अल्हम्द का ज़्यादा हिस्सा पढ़ लिया था। फिर इआदा किया तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है। 

▣ ➟  अल्हम्द पढ़ना भूल गया और सूरत शुरुअ कर दी और बाक़द्रे एक आयत के पढ़ ली अब याद आया तो अल्हम्द पढ़ कर सूरत पढ़े और सजदा -ए- सह्व वाजिब है। यूँ ही अगर सूरत के पढ़ने के बाद या रुकूअ में या रुकूअ से खड़े होने के बाद याद आया तो फिर अल्हम्द पढ़ कर सूरत पढ़े और रुकूअ का इआदा करे और सजदा -ए- सह्व करे। 

▣ ➟  फ़र्ज़ की पिछ्ली रकअतों में सूरत मिलायी तो सजदा -ए- सह्व नहीं और क़स्दन मिलायी फिर भी हर्ज नहीं मगर इमाम को ना चाहिये यूँ ही अगर पिछ्ली में अल्हम्द ना पढ़ी जब भी सजदा -ए- सह्व नहीं और रुकुअ व सुजूद व क़ादा में क़ुरआन पढ़ा तो सजदा वाजिब हैं। 

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▣ ➟  सजदा -ए- सह्व का बयान : 

▣ ➟  सजदा वाली आयत पढ़ी और सजदा करना भूल गया तो सजदा -ए- तिलावत अदा करे और सजदा -ए- सह्व करे। 

▣ ➟  जो फेल नमाज़ में मुकर्रर हैं उन में तरतीब वाजिब है लिहाज़ा खिलाफे तरतीब फेल वाक़ेअ हो तो सजदा -ए- सह्व करे मस्लन क़िरअत से पहले रुकूअ कर दिया और रुकूअ के बाद क़िरअत ना की तो नमाज़ फासिद हो गयी कि फर्ज़ तर्क हो गया और अगर रुकूअ के बाद क़िरअत तो की मगर फिर रुकूअ ना किया तो फ़ासिद हो गयी कि क़िरअत की वजह से रुकूअ जाता रहा और अगर बा-क़द्रे फ़र्ज़ क़िरअत कर के रुकूअ किया मगर वाजिबे क़िरअत अदा ना हुआ मस्लन अल्हम्द ना पढ़ी या सूरत ना मिलायी तो हुक़्म यही है कि बलौटे और अल्हम्द व सूरत पढ़ कर रुकूअ करे और सजदा -ए- सह्व करे और अगर दोबारा रुकूअ ना किया तो नमाज़ जाती रही कि पहला रुकूअ जाता रहा था। 

▣ ➟  किसी रकअत का कोई सजदा रह गया आखिर में याद आया तो सजदा कर ले फिर अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे और सजदे के बाद पहले जो अफआल नमाज़ अदा किये बातिल ना होंगे, हाँ अगर क़ादा के बाद वो नमाज़ वाला सजदा किया तो सिर्फ़ वो क़ादा जाता रहा। 

▣ ➟  तअदीले अरक़ान (हर रुक़्न आराम से ठहर कर आराम से अदा करना यानी रुकूअ, सुजूद, क़ौमा और जलसा में कम अज़ कम एक बार "सुब्हान अल्लाह" कहने की मिक़्दार ठहरना) भूल गया सजदा -ए- सह्व वाजिब है। 

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान : 

▣ ➟   फ़र्ज़ में क़ादा-ए- ऊला भूल गया तो जब तक सीधा खड़ा ना हुआ, लौट आये और सजदा -ए- सह्व नहीं और अगर सीधा खड़ा हो गया तो लौटे और आखिर में सजदा -ए- सह्व करे और अगर सीधा खड़ा हो कर लौटा तो सजदा -ए- सह्व करे और सहीह मज़हब में नमाज़ हो जायेगी मगर गुनाहगार हुआ लिहाज़ा हुक़्म है कि अगर लौटे तो फौरन खड़ा हो जाये। 

▣ ➟   अगर मुक़्तदी भूल कर खड़ा हो गया तो ज़रूरी है कि लौट के आये, ताकि इमाम की मुखालिफ़त ना हो। 

▣ ➟   क़ादा -ए- आखिरा भूल गया तो जब तक उस रकअत का सजदा ना किया हो लौट आये और सजदा -ए- सह्व करे और अगर क़ादा -ए- आखिरा में बैठा था, मगर बाक़द्रे तशह्हुद ना हुआ था कि खड़ा हो गया तो लौट आये और वो जो पहले कुछ देर तक बैठा था महसूब होगा यानी लौटने के बाद जितनी देर तक बैठा ये और पहले का क़ादा दोनों मिल कर अगर बाक़द्रे तशह्हुद हो गये फ़र्ज़ अदा हो गया मगर सजदा -ए- सह्व उस सूरत में भी वाजिब है और अगर उस रकअत का सजदा कर लिया तो सजदे से सर उठाते ही वो फ़र्ज़ नफ़्ल हो गया लिहाज़ा अगर चाहे तो इलावा मगरिब के और नमाज़ों में एक रकअत और मिला ले कि शफ़अ पूरा हो जायेगा और ताक़ रकअत ना रहे अगर्चे वो नमाज़े फ़ज्र या अस्र हो मगरिब में और ना मिलाये कि चार पूरी हो गयीं। 

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान : 

▣ ➟   नफ़्ल का हर क़ादा क़ादा -ए- आखिरा है यानी फ़र्ज़ है अगर क़ादा ना किया और भूल कर खड़ा हो गया तो जब तक उस रकअत का सजदा ना कर ले लौट आये और सजदा -ए- सह्व करे और वाजिब नमाज़ मस्लन वित्र फ़र्ज़ के हुक़्म में है, लिहाज़ा वित्र का क़ादा -ए- ऊला भूल जाये तो वही हुक़्म है जो फ़र्ज़ के क़ादा -ए- ऊला भूल जाने का है। 

▣ ➟   अगर बाक़द्रे तशह्हुद क़ादा -ए- आखिरा कर चुका है और खड़ा हो गया तो जब तक उस रकअत का सजदा ना किया हो लौट आये और सजदा -ए- सह्व कर के सलाम फेर दे और अगर क़ियाम ही की हालत में सलाम फेर दिया तो भी नमाज़ हो जायेगी मगर सुन्नत तर्क होगी और इस सूरत में अगर इमाम खड़ा हो गया तो मुक़्तदी उस का साथ ना दें बल्कि बैठे हुये इंतज़ार करें अगर लौट आया साथ हो लें और ना लौटा और सजदा कर लिया तो मुक़्तदी सलाम फेर दें और इमाम एक रकअत और मिलाये कि ये दो नफ़्ल हो जायें और सजदा -ए- सह्व कर के सलाम फेरें और ये दो रकअतें सुन्नते ज़ुहर या इशा के क़ाइम मक़ाम ना होगी और अगर इन दो रकअतों में किसी ने इमाम की इक़्तिदा की यानी अब शामिल हुआ तो ये मुक़्तदी भी 6 पढ़े और अगर उसने तोड़ दी तो दो रकअतों की क़ज़ा पढ़े और अगर इमाम चौथी पर ना बैठा था ये मुक़्तदी 6 रकअतों की क़ज़ा पढ़े। और अगर इमाम ने इन रकअतों को फ़ासिद कर दिया तो उस पर मुत्लक़न क़ज़ा नहीं। 

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान : 

▣ ➟   चौथी पर क़ा'दा कर के खड़ा हो गया और किसी फ़र्ज़ पढ़ने वाले ने उसकी इक़्तिदा की तो इक़्तिदा सहीह नहीं अगर्चे लौट आया और क़ा'दा ना किया था तो जब तक पाँचवीं का सजदा ना किया इक़्तिदा कर सकता है कि अभी तक फ़र्ज़ ही में है।

▣ ➟   दो रकअत की निय्यत थी और उन में सह्व हुआ और दूसरी के क़ा'दा में सजदा -ए- सह्व कर लिया तो उस पर नफ़्ल की बना मक़रूहे तहरीमी है। 

▣ ➟   मुसाफिर ने सजदा -ए- सह्व के बाद इक़ामत की निय्यत की तो चार पढ़ना फ़र्ज़ है और आखिर में सजदा -ए- सह्व का इआदा करे। 

▣ ➟   क़ादा -ए- ऊला में तश्हूद के बाद इतना पढ़ा اَللّٰھُمَّ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍ तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है उस वजह से नहीं कि दुरूद शरीफ़ पढ़ा बल्कि उस वजह से कि तीसरी के क़ियाम में ताखीर हुयी तो अगर इतनी देर तक सुक़ूत किया जब भी सजदा -ए- सह्व वाजिब है जैसे क़ा'दा व रुकूअ व सुजूद में क़ुरआन पढ़ने से सजदा-ए- सह्व वाजिब है, हालाँकि वो कलामे इलाही है। इमामे आज़म रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने नबी ﷺ को ख्वाब में देखा, हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया : "दुरूद पढ़ने वाले पर तुमने क्यूँ  सजदा वाजिब बताया?" अर्ज़ की, इस लिये की उस ने भूल कर पढ़ा, हुज़ूर ﷺ ने तहसीन फरमायी। 

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   किसी क़ा'दा में अगर तशह्हुद में से कुछ रह गया, सजदा -ए- सह्व वाजिब है, नमाज़े नफ़्ल हो या फ़र्ज़।

▣ ➟   पहली दो रकअतों के क़ियाम में अल्हम्द के बाद तशह्हुद पढ़ा सजदा -ए- सह्व वाजिब है और अल्हम्द से पहले पढ़ा तो नहीं।

▣ ➟   पिछ्ली रकअतों के क़ियाम में तशह्हुद पढ़ा तो सजदा वाजिब ना हुआ और अगर क़ा'दा -ए- ऊला में चंद बार तशह्हुद पढ़ा सजदा वाजिब हो गया।

▣ ➟   तशह्हुद पढ़ना भूल गया और सलाम फेर दिया फिर याद आया तो लौट आये तशह्हुद पढ़े और सजदा -ए- सह्व करे। यूँ ही अगर तशह्हुद की जगह अल्हम्द पढ़ी सजदा वाजिब हो गया।

▣ ➟   रुकूअ की जगह सजदा किया या सजदा की जगह रुकूअ या किसी ऐसे रुक्न को दोबारा किया जो नमाज़ में मुकर्रर मसरू'अ ना था या किसी रुक़्न को मुक़द्दम या मुअख्खर किया तो इन सब सूरतों में सजदा -ए- सह्व वाजिब है।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   क़ुनूत या तक्बीरे क़ुनूत यानी किरअत के बाद क़ुनूत के लिये जो तक्बीर कही जाती है भूल गया सजदा -ए- सह्व करे।
 
▣ ➟   ईदैन की सब तक्बीरें या बा'ज़ भूल गया या ज़ाइद कहीं या गैर महल में कहीं (यानी जहाँ नहीं कहना था वहाँ पर कहीं) इन सब सूरतों में सजदा-ए- सह्व वाजिब है।

▣ ➟   इमाम तक्बीराते ईदैन भूल गया और रुकूअ में चला गया तो लौट आये और मस्बूक़ रुकुअ में शामिल हुआ तो रुकूअ ही में तक्बीरें कह ले।

▣ ➟   ईदैन में दूसरी रकअत की तक्बीरे रुकूअ भूल गया तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है और पहली रकअत की तक्बीरे रुकूअ भूला तो नहीं।

▣ ➟   जुम्आ व ईदैन में सह्व वाक़ेअ हुआ और जमाअत कसीर हो तो बेहतर ये है कि सजदा -ए- सह्व ना करे यानी इमाम से कोई वाजिब तर्क हो गया और जमाअत में बहुत ज्यादा लोग हैं तो यहाँ सजदा -ए- सह्व को तर्क कर दे।

▣ ➟   इमाम ने जहरी नमाज़ में बा क़द्रे जवाज़े नमाज़ यानी एक आयत आहिस्ता पढ़ी या सिर्री में ज़ोर से तो सजदा-ए- सह्व वाजिब है और एक कलिमा आहिस्ता या ज़ोर से पढ़ा तो मुआफ़ है।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   मुन्फरिद ने सिर्री नमाज़ में जहर से पढ़ा तो सजदा वाजिब है और जहरी में आहिस्ता तो वाजिब नहीं।

▣ ➟   सना व दुआ व तशह्हुद बुलंद आवाज़ से पढ़ा तो खिलाफ़े सुन्नत हुआ मगर सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं।

▣ ➟   किरअत वग़ैरह करते हुये किसी मौके पर सोचने लगा कि बाक़द्रे एक रुक्न यानी तीन बार सुब्हान अल्लाह कहने का वक़्फा हुआ सजदा -ए- सह्व वाजिब है। यानी किसी जगह रुक कर या सोचने लगा कि अब क्या करना है तो अगर तीन बार तस्बीह पढ़ने में जितनी देर लगती है उतनी देर रुका रहा तो अब सजदा -ए- सह्व वाजिब हो गया।

▣ ➟   इमाम से सह्व हुआ और सजदा -ए- सह्व किया तो मुक़्तदी पर भी सजदा वाजिब है अगर्चे मुक़्तदी सह्व वाक़ेअ होने के बाद जमाअत में शामिल हुआ और अगर इमाम से सजदा साकित हो गया तो मुक़्तदी से भी साकित फिर अगर इमाम से साकित होना उस के किसी फेल के सबब हो तो मुक़्तदी पर भी नमाज़ का ईआदा वाजिब वरना मुआफ़।

▣ ➟   अगर मुक़्तदी से इक़्तिदा की हालत में सह्व वाक़ेअ हुआ तो सजदा -ए- सह्व वाजिब नहीं।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   मस्बूक़ इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व करे अगर्चे उसके शरीक होने से पहले सह्व हुआ हो और अगर इमाम के साथ सजदा ना किया और जो बाक़ी हैं उन्हें पढ़ने खड़ा हो गया तो आखिर में सजदा -ए- सह्व करे और अगर उस मस्बूक़ से अपनी नमाज़ में भी सह्व हुआ तो आखिर के यही सजदे उस सह्व इमाम के लिये भी काफी हैं।

▣ ➟   मस्बूक़ ने अपनी नमाज़ बचाने के लिये इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व ना किया यानी जानता है कि अगर सजदा करेगा तो नमाज़ जाती रहेगी मस्लन नमाज़े फज़्र में आफताब तुलूअ हो जायेगा या जुम्आ में वक़्ते अस्र आ जायेगा या मा'ज़ूर है और वक़्त खत्म हो जायेगा या मोज़ा पर मसह की मुद्दत गुज़र जायेगी तो इन सूरतों में इमाम के साथ सजदा ना करने में कराहत नहीं। बल्कि बाक़द्रे तश्ह्हुद बैठने के बाद खड़ा हो जाये।

▣ ➟   मस्बूक़ ने इमाम के सह्व में इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व किया फिर जब अपनी पढ़ने खड़ा हुआ और और उस में भी सह्व हुआ तो उस में भी सजदा -ए- सह्व करे।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   मस्बूक़ को इमाम के साथ सलाम फेरना जाइज़ नहीं अगर क़स्दन फेरेगा नमाज़ जाती रहेगी और अगर सहवन फेरा और सलाम इमाम के साथ में बिना वक़्फा था तो उस पर सजदा -ए-  सह्व नहीं और अगर सलाम इमाम के कुछ भी बाद फेरा (यानी इमाम के सलाम फेरने के बाद थोड़ी देर बाद फेरा) तो खड़ा हो जाये अपनी नमाज़ पूरी करके सजदा -ए- सह्व करे।

▣ ➟   इमाम के एक सजदा करने के बाद शरीक हुआ तो दूसरा सजदा इमाम के साथ करे और पहले की क़ज़ा नहीं और अगर दोनों सजदों के बाद शरीक हुआ तो इमाम के सह्व का इस के ज़िम्मे कोई सजदा नहीं।

▣ ➟   इमाम ने सलाम फेर दिया और मस्बूक़ अपनी पूरी करने खड़ा हुआ अब इमाम ने सजदा -ए- सह्व किया तो जब तक मस्बूक़ ने उस रकअत का सजदा ना किया हो लौट आये और इमाम के साथ सजदा करे जब इमाम सलाम फेरे तो अब अपनी पढ़े और पहले जो क़ियाम व किरअत व रुकूअ कर चुका है उसका शुमार ना होगा बल्कि अब फिर से वो अफआल करे और अगर ना लौटा और अपनी पढ़ ली तो आखिर में सजदा -ए- सह्व करे और अगर उस रकअत का सजदा कर चुका है तो ना लौटे, लौटेगा तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   इमाम के सह्व से लाहिक़ (यानी जिस ने इमाम के साथ पहली रकअत में इक़्तिदा की पर उस के बाद पूरी या कुछ रकअतें फौत हो गयीं, छुट गयीं, ऐसे शख्स) पर भी सजदा -ए- सह्व वाजिब है मगर लाहिक़ अपनी आखिर नमाज़ में सजदा -ए- सह्व करेगा और इमाम के साथ अगर सजदा किया तो आखिर में इआदा करे।

▣ ➟   अगर तीन रकअत में मस्बूक़ हुआ और एक रकअत में लाहिक़ तो एक रकअत बिला कराअत पढ़ कर बैठे और तशह्हूद पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे फिर एक रकअत भारी पढ़ कर बैठे कि ये उस की दूसरी रकअत है फिर एक भारी और एक खाली पढ़ कर सलाम फेर दे और अगर एक में मस्बूक़ है और तीन में लाहिक़ तो तीन पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे फिर एक भारी पढ़ कर सजदा -ए- सह्व करे फिर एक भारी पढ़ कर सलाम फेर दे।

▣ ➟   मुक़ीम ने मुसाफिर की इक़्तिदा की और इमाम से सह्व हुआ तो इमाम के साथ सजदा -ए- सह्व करे फिर अपनी दो पढ़े और उन में भी सह्व हुआ तो आखिर में भी सजदा -ए- सह्व करे।

▣ ➟   इमाम से सलातुल खौफ़ में (जिस का बयान और तरीक़ा इन्शा अल्लाह त'आला मज़कूर होगा) सह्व हुआ तो इमाम के साथ दूसरा गिरोह सजदा -ए- सह्व करे और पहला गिरोह उस वक़्त करे जब अपनी नमाज़ खत्म कर चुके।

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▣ ➟   इमाम को हदस हुआ और पेश्तर सह्व भी वाक़ेअ हो चुका है और उस ने खलीफा बनाया तो खलीफा सजदा -ए- सह्व करे और अगर खलीफा को भी हालते खिलाफ़त में सह्व हुआ तो वही सजदे काफी हैं और अगर इमाम से तो सह्व ना हुआ मगर खलीफा से उस हालत में सह्व हुआ तो इमाम पर भी सजदा -ए- सह्व वाजिब है और अगर खलीफा का सह्व खिलाफ़त से पहले हुआ तो सजदा वाजिब नहीं ना उस पर ना इमाम पर।

▣ ➟   जिस पर सजदा -ए- सह्व वाजिब है अगर सह्व होना याद ना था और ब-निय्यते क़तअ सलाम फेर दिया तो अभी नमाज़ से बाहर ना हुआ बशर्ते ये कि सजदा -ए- सह्व कर ले, लिहाज़ा कलाम या हदस या आमद, या मस्जिद से खुरूज या और कोई फेल मनाफी -ए- नमाज़ ना किया हो उसे हुक़्म है कि सजदा कर ले और अगर सलाम के बाद सजदा -ए- सह्व ना किया तो सलाम फेरने के वक़्त से नमाज़ से बाहर हो गया, लिहाज़ा सलाम फेरने के बाद अगर किसी ने इक़्तिदा की और इमाम ने सजदा -ए- सह्व कर लिया तो इक़्तिदा सहीह है और सजदा ना किया तो सहीह नहीं और अगर याद था कि सह्व हुआ है और ब-निय्यते क़तअ सलाम फेर दिया तो सलाम फेरते ही नमाज़ से बाहर हो गया और सजदा -ए- सह्व नहीं कर सकता, इआदा करे और अगर उस ने गलती से सजदा किया और उस में कोई शरीक हुआ तो इक़्तिदा सहीह नहीं।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत बाक़ी था या क़ा'दा -ए- आखिरा में तशह्हुद ना पढ़ा था मगर बा-क़द्रे तशह्हुद पढ़ चुका था और ये याद है कि सजदा -ए- तिलावत या तशह्हुद बाक़ी है मगर क़स्दन सलाम फेर दिया तो सजदा साकित हो गया और नमाज़ से बाहर हो गया, नमाज़ फासिद ना हुयी कि तमाम अराकान अदा कर चुका है मगर बा-वजहे तर्के वाजिब मकरूहे तहरीमी हुयी।

▣ ➟   यूँही अगर उस के ज़िम्मे सजदा -ए- सह्व व सजदा -ए- तिलावत है और दोनों याद हैं या सिर्फ़ सजदा -ए- तिलावत याद है और क़स्दन सलाम फेर दिया तो दोनों साकित हो गये अगर सजदा -ए- नमाज़ व सजदा -ए- सह्व दोनों बाक़ी थे या सिर्फ़ सजदा -ए- नमाज़ रह गया था और सजदा -ए- नमाज़ याद होते हुये सलाम फेर दिया तो नमाज़ फासिद हो गयी और अगर सजदा -ए- नमाज़ व सजदा -ए- तिलावत बाक़ी थे और सलाम फेरते वक़्त दोनों याद था या एक जब भी नमाज़ फासिद हो गयी।

▣ ➟   सजदा -ए- नमाज़ या सजदा -ए- तिलावत बाक़ी था या सजदा -ए- सह्व करना था और भूल कर सलाम फेरा तो जब तक मस्जिद से बाहर ना हुआ करले  और मैदान में हो तो जब तक सफों से मुतजव्वज़ ना हुआ या आगे को सजदा की जगह से ना गुज़रा कर ले।

▣ ➟   रुकुअ में याद आया कि नमाज़ का कोई सजदा रह गया है और वहीं से सजदा को चला गया या सजदा में याद आया और सर उठा कर वो सजदा कर लिया तो बेहतर ये है कि उस रुकुअ व सुजूद का इआदा करे और सजदा -ए- सह्व करे और अगर उस वक़्त ना किया बल्कि आखिर में नमाज़ में किया तो उस रुकुअ व सुजूद का इआदा नहीं सजदा -ए- सह्व करना होगा।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   कोई ज़ुहर की नमाज़ पढ़ रहा था और ये ख्याल कर के कि चार पूरी हो गयीं दो रकअत पर सलाम फेर दिया तो चार पूरी कर ले और सजदा -ए- सह्व करे और अगर ये गुमान किया कि मुझ पर दो ही रकअतें हैं, मस्लन अपने को मुसाफिर तसव्वुर किया या ये गुमान हुआ कि नमाज़े जुम्आ है या नया मुसलमान है समझा कि ज़ुहर के फर्ज़ दो ही हैं या नमाज़े इशा को तरावीह तसव्वुर किया तो नमाज़ जाती रही। यूँ ही अगर कोई रुक्न फौत  हो गया और याद होते हुये सलाम फेर दिया, तो नमाज़ गयी।

▣ ➟   जिस को शुमारे रकअत में शक हो (कि कितनी रकअत पढ़ी हैं), मस्लन तीन हुयीं या चार और बुलूग के बाद ये पहला वाकिया है तो सलाम फेर कर या  कोई अमल मनाफ़ी -ए- नमाज़ (ऐसा अमल जिस से नमाज़ फासिद हो जाती है) कर के तोड़ दे या गालिब गुमान कि बमोजिब पढ़े महज़ तोड़ने की निय्यत काफी नहीं और अगर ये शक पहली बार नहीं बल्कि पेश्तर भी हो चुका है तो अगर गालिब गुमान किसी तरफ़ हो तो उस पर अमल करे वरना कम की जानिब को इख्तियार करे यानी तीन और चार में शक हो तो तीन क़रार दे, दो और तीन में शक हो तो दो, व अला हाज़ल अल कियास और  तीसरी-चौथी दोनों में क़ा'दा करे कि तीसरी रकअत का चौथी होना मुहतमिल है और चौथी में क़ादा के बाद सजदा -ए- सह्व कर के सलाम फेरे और गुमान गालिब की सूरत में सजदा -ए- सह्व नहीं मगर जबकि सोचने में बा-क़द्रे एक रुक्न के वक़्फा किया हो तो सजदा -ए- सह्व वाजिब हो गया।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   नमाज़ पूरी करने के बाद शक हो तो उस का कुछ ऐतबार नहीं और अगर नमाज़ के बाद यक़ीन है कि कोई फ़र्ज़ रह गया मगर उस में शक है कि वो क्या है तो फिर से पढ़ना फ़र्ज़ है।

▣ ➟   ज़ुहर पढ़ने के बाद एक आदिल शख्स ने ख़बर दी कि तुम ने तीन रकअतें पढ़ी तो इआदा करे अगर्चे उस के ख्याल में ये खबर ग़लत हो और अगर कहने वाला आदिल ना हो तो उस की खबर का ऐतबार नहीं और अगर मुसल्ला को शक हो और दो आदिल ने खबर दी तो उन की खबर पर अमल करना ज़रूरी है।

▣ ➟   अगर तादादे रकअत में शक ना हो मगर खुद उस नमाज़ की निस्बत शक है मस्लन ज़ुहर की दूसरी रकअत में शक है कि ये अस्र की नमाज़ पढ़ता हूँ और तीसरी में नफ़्ल का शुब्हा हुआ और चौथी में ज़ुहर का तो ज़ुहर ही है।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   तश्ह्हुद के बाद ये शक हुआ कि तीन हुयीं या चार और एक रुक़्न की क़द्र खामोश रहा और सोचता रहा, फिर यक़ीन हुआ कि चार हो गयीं तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है और अगर एक तरफ सलाम फेरने के बाद ऐसा हुआ तो कुछ नहीं और अगर उसे हदस हुआ और वुज़ू करने गया था कि शक वाक़ेअ हुआ और सोचने में वुज़ू से कुछ देर तक रुका रहा तो सजदा -ए- सह्व वाजिब है।

▣ ➟   ये शक वाक़ेअ हुआ कि उस वक़्त की नमाज़ पढ़ी या नहीं, अगर वक़्त बाक़ी है इआदा करे वरना नहीं।

▣ ➟   शक की सब सूरतों में सजदा -ए- सह्व वाजिब है और गलबा -ए- जन में नहीं मगर जब कि सोचने में एक रुक़्न का वक़्फ़ा हो गया तो वाजिब हो गया।

▣ ➟   बे-वुज़ू होने या मसह ना करने का यक़ीन हुआ और ऐसी हालत में एक रुक़्न अदा कर लिया तो सिरे से नमाज़ पढ़े अगर्चे फिर यक़ीन हुआ कि वुज़ू था और मसह किया था।

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▣ ➟   सजदा -ए- सह्व का बयान :

▣ ➟   नमाज़ में शक हुआ कि मुक़ीम है या मुसाफ़िर तो चार पढ़े और दूसरी के बाद क़ा'दा ज़रूरी है। 

▣ ➟   वित्र में शक हुआ कि दूसरी है या तीसरी तो उस में क़ुनूत पढ़ कर क़ा'दा के बाद एक रकअत और पढ़े और उस में भी क़ुनूत पढ़े और सजदा -ए- सह्व करे। 

▣ ➟   इमाम नमाज़ पढ़ रहा है दूसरी में शक हुआ कि पहली है या दूसरी या चौथी और तीसरी में शक हुआ और मुक़्तदियों की तरफ़ नज़र की कि वो खड़े हों तो खड़ा हो जाऊं बैठें तो बैठ जाऊं तो उस में हर्ज नहीं और सजदा -ए- सह्व वाजिब ना हुआ। 

▣ ➟   ये सजदा -ए- सह्व के बारे में मसाइल बयान किये गये, अब मरीज़ की नमाज़ के मुताल्लिक़ मसाइल बयान किये जायेंगे।

▣ ➟   सजदा -ए- सह्व के जो मसाइल यहाँ समझ में नहीं आये या जो बयान ना हो सके तो मुतफर्रिक़ात के बयान में मज़ीद तफ़सील के साथ नक़्ल किये जायेंगे। 

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   जो शख्स बीमारी की वजह से खड़े हो कर नमाज़ नहीं पढ़ सकता यानी ऐसा है कि खड़े हो कर बैठने से ज़रर लाहिक़ होगा (नुक़्सान होगा) या बीमारी बढ़ जायेगी या देर में अच्छा होगा या चक्कर आता है या खड़े हो कर बैठने से क़तरा (पैशाब का) आयेगा या बहुत शदीद दर्द नाक़ाबिले बर्दाश्त पैदा हो जाये तो इन सब सूरतों में बैठ कर रुकूअ व सुजूद के साथ नमाज़ पढ़े। नमाज़ के फराइज़ के बयान में भी कई ज़रूरी मसाइल बयान किये जा चुके हैं।

▣ ➟   अगर अपने आप बैठ भी नहीं सकता मगर लड़का या गुलाम या खादिम या कोई अजनबी शख्स वहाँ है कि बिठा देगा तो बैठ कर पढ़ना ज़रूरी है और अगर बैठा नहीं रह सकता तो तकिया या दीवार या किसी शख्स पर टेक लगा कर पढ़े ये भी ना हो सके तो लेट कर पढ़े और बैठ कर पढ़ना मुम्किन हो तो लेट कर नमाज़ ना होगी।

▣ ➟   बैठ कर पढ़ने में किसी खास तौर पर बैठना ज़रूरी नहीं बल्कि मरीज़ पर जिस तरह आसानी हो उस तरह बैठे। हाँ दो ज़ानू बैठना आसान हो या दूसरी तरह बैठने के बराबर हो तो दो ज़ानू बेहतर है वरना जो आसान हो इख्तियार करे।

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   नफ़्ल नमाज़ में अगर थक जाए तो दीवार या असा (डंडे) से टेक (सपोर्ट) लगाने में हर्ज नहीं वरना मकरूह हैं औऱ बैठ कर पढ़ने में कोई हर्ज नहीं!

▣ ➟   अग़र चार रकाअत वाली नमाज़ बैठ कर पढ़ी और चौथी रकाअत पर बैठ कर अत्तहिय्यात पढ़ने से पहले किराअत शुरू कर दी और रूकू भी किया तो इसका वही हुक्म हैं के खड़ा होकर पढ़ने वाला चौथी के बाद जब खड़ा हो जाता हैं तो जब तक पांचवीं रकाअत का सज्दा न किया हो तो अत्ताहिय्यात पढ़ें और सजदा -ए- सह्व करें और अग़र पांचवीं का सज्दा कर लिया तो नमाज़ जाती रहीं!

▣ ➟   बैठ कर नमाज़ पढ़ने वाला दूसरी रकाअत के सजदे से उठा औऱ किराअत की निय्यत की पर पढ़ने से पहले याद आ गया के मुझे अत्ताहिय्यात पढ़नी थी तो अब अत्ताहिय्यात पढ़ें और नमाज़ हो गई सजदा -ए- सह्व भी नहीं करना हैं!

(देखिए बहार ए शरीअत)

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ का बयान :

▣ ➟  मरीज़ बैठ कर नमाज़ पढ़ रहा था, चौथी रकअत पढ़ी और चौथी के सजदे से उठा तो उसे लगा कि तीसरी रकअत है और किरअत करना शुरू कर दी फिर इशारे से रुकूअ और सजदा किया तो नमाज़ जाती रही।

▣ ➟  अगर दूसरी रकअत के सजदे के बाद ये लगा कि वो दूसरी है और किरअत शूरू की फिर याद आता तो अत्तहिय्यात की तरफ न लौटे बल्कि पूरी करे और आखिर में सजदा -ए- सह्व करे।

▣ ➟  मरीज़ अगर खड़ा हो सकता है और रुकूअ और सजदा नहीं कर सकता तो भी बैठ कर इशारे से पढ़ सकता है बल्कि यही बेहतर है और इस सूरत में ये भी कर सकता है कि खड़े हो कर पढ़े और रुकूअ के लिये इशारा करे या रुकूअ कर सकता है तो रुकूअ करे और सजदे के लिये बैठ कर इशारा करे।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   इशारे से नमाज़ पढ़ते हुये सजदा का इशारा रुकूअ से ज़्यादा पस्त होना चाहिये, ऐसा ना हो कि रुकूअ में जितने से इशारे करे, सजदे में भी उतना ही करे।

▣ ➟   ये ज़रूरी नहीं कि सर को ज़मीन से बिल्कुल लगा दे।

▣ ➟   सजदे के लिये तकिया वग़ैरह कोई चीज़ पेशानी के क़रीब उठा कर, उस पर सजदा करना मकरूहे तहरीमी है अब चाहे उसी ने वो चीज़ उठायी हो या किसी दूसरे ने।

▣ ➟   अगर कोई चीज़ उठा कर उस पर सजदा किया और सजदे में रुकूअ से ज़्यादा सर झुकाया जब भी सजदा हो गया मगर गुनाहगार हुआ और अगर रुकूअ से कम सर झुकाया तो सजदा हुआ ही नहीं।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   अगर कोई ऊँची चीज़ ज़मीन पर रखी हुयी है उस पर सजदा किया और रुकुअ के लिये सिर्फ़ इशारा ना हो बल्कि पीठ झुकायी हो तो सहीह है बशर्ते कि सजदा के शराइत पाये जायें मस्लन वो चीज़ सख्त (Hard) हो, नर्म (Soft) ना हो ताकि पेशानी उस पर दबे और जम जाये और उस चीज़ की ऊँचाई 12 उंगल से ज़्यादा ना हो, इन शराइत के पाये जाने के बाद हक़ीक़तन रुकूअ व सुजूद पाये गये यानी इसे इशारे से पढ़ने वाला नहीं कहा जायेगा बल्कि हक़ीक़त में रुकूअ व सजदा हुआ और कोई खड़े हो कर पढ़ने वाला इसकी इक़्तिदा कर सकता है और ये शख्स जब इस तरह रुकूअ और सजदा कर सकता है और खड़े हो कर पढ़ने पर भी क़ादिर है तो इसका खड़ा होना फ़र्ज़ है।

▣ ➟   अगर नमाज़ के दरमियान ये खड़े होने पर क़ादिर हो गया तो बाक़ी नमाज़ खड़े हो कर पढ़ना फ़र्ज़ है लिहाज़ा जो शख्स ज़मीन पर सजदा नहीं कर सकता मगर इन शराइत के साथ ज़मीन पर कोई चीज़ रख कर सजदा कर सकता है तो उस पर फ़र्ज़ है कि इसी तरह सजदा करे, उसके लिये इशारा जाइज़ नहीं और अगर वो चीज़ ऐसी नहीं जैसी बयान की गयी तो फिर वो हक़ीक़तन सजदा ना होगा बल्कि इशारा ही होगा और जब इशारा हो गया तो अब खड़े हो कर पढ़ने वाला इसकी इक़्तिदा नहीं कर सकता और अगर ये शख्स नमाज़ के दरमियान खड़े होने पर क़ादिर हुआ तो सिरे से नमाज़ पढ़े।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   अगर पेशानी में ज़ख्म है जिसकी वजह से सजदे में माथा नहीं लगा सकता तो नाक पर सजदा करे और माथे को ना लगाये और अगर ऐसा ना किया बल्कि इशारे से नमाज़ पढ़ी तो नमाज़ ना हुई।

▣ ➟   अगर मरीज़ बैठ भी नहीं सकता तो लेट कर इशारे से नमाज़ पढ़े, अब चाहे दाहिनी या बाई करवट पर लेट कर क़िब्ला की तरफ़ मुंह कर के, चाहे लेट कर क़िब्ला को पाऊँ करे मगर पाऊँ को ना फैलाये क्योंकि क़िब्ला की तरफ़ पाऊँ फैलाना मकरूह है लिहाज़ा घुटने को खड़े रखे और सर के नीचे तकिया वग़ैरह दे कर ऊँचा कर ले ताकि मुँह क़िब्ला को हो जाये और अफ़ज़ल यही सूरत है कि चित लेट कर पढ़े।

▣ ➟   अगर ऐसी हालत है कि इशारा भी नहीं कर सकता तो नमाज़ साक़ित है यानी अब ना पढ़े।

▣ ➟   इसकी ज़रूरत नहीं कि आंख, भवो या दिल के इशारे से पढ़े और अगर 6 वक़्त इसी हालत में गुज़र गये तो इनकी कज़ा भी साकित हो गई, फिदिया की भी हाजत नहीं है वरना सिहत के बाद इन नमाजो़ की क़जा़ लाज़िम है, अगर्चे इतनी ही सिहत हो कि सर से इशारा कर के पढ़ सके।

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   मरीज़ अगर किब्ला की तरफ़ ना अपने आप मुँह कर सकता है ना दूसरे के ज़रिये तो वैसे ही पढ़ ले और तंदरुस्त होने के बाद उस नमाज़ को दोहराना ज़रूरी नहीं और अगर कोई शख्स मौजूद है जो उसे किब्ला की तरफ़ कर देगा मगर उस ने उस से ना कहा तो नमाज़ ना हुई।

▣ ➟   इशारे से जो नमाजें पढ़ी है उन को सेहत के बाद दोहराना ज़रूरी नहीं।

▣ ➟   अगर ज़ुबान बंद हो गई और गूंगे की तरह नमाज़ पढ़ी फ़िर ज़ुबान खुल गई तो इन नामाजो़ का इआदा (दोहराना) नहीं।

▣ ➟   मरीज़ इस हालत में पहुँच गया है कि रुकुअ और सुजूद की तादाद याद नहीं रख सकता तो उस पर अदा ज़रूरी नहीं।

▣ ➟   तंदरुस्त शख़्स नमाज़ पढ़ रहा था और नमाज़ के दरमियान ऐसा मर्ज़ पैदा हो गया कि अरकान (Steps) अदा नहीं कर सकता तो जिस तरफ बैठ कर या लेट कर मुमकिन हो नमाज़ पूरी कर ले, सिरे से पढ़ने की हाजत नहीं है।

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ : 

▣ ➟   बैठ कर रुकूअ व सुजूद के साथ नमाज़ पढ़ रहा था और नमाज़ के दरमियान खड़े होने पर क़ादिर हो गया तो जो बाक़ी है उसे खड़ा हो कर पढ़े और अगर इशारे से पढ़ रहा था और नमाज़ के दरमियान रुकूअ और सजदा करने पर क़ादिर हो गया तो शुरू से नमाज़ पढ़े।

▣ ➟   रुकूअ और सजदा नहीं कर सकता था और खड़े हो कर या बैठ कर नमाज़ शुरू की और रुकूअ और सजदा के लिये इशारा करने की नौबत आने से पहले अच्छा हो गया तो इसी नमाज़ को रुकूअ और सजदे के साथ पढ़े, सिरे से शुरू करने की हाजत नहीं और अगर लेट कर नमाज़ शुरू की थी और रुकूअ व सुजूद के इशारे से पहले खड़े होने, बैठने या रुकूअ व सुजूद करने पर क़ादिर हो गया तो सिरे से नमाज़ पढ़े।

▣ ➟   चलती हुयी कश्ती या जहाज़ में बिला उज़्र बैठ कर नमाज़ सहीह नहीं बशर्ते उतर कर खुश्की में पढ़ सके और ज़मीन पर बैठ गयी हो तो उतरने की हाजत नहीं और किनारे पर बंधी हो और उतर कर खुश्की पर पढ़ सकता हो तो उतर कर पढ़े वरना कश्ती में ही खड़े हो कर और बीच दरिया में लंगर डाले हुये है तो बैठ कर पढ़ सकते हैं।

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़  :

▣ ➟   कश्ती या जहाज़ में अगर हवा के तेज़ झोंके लगते हों कि खड़े हो कर पढ़ेगा तो गुमान है कि चक्कर आ जायेगा तो बैठ कर पढ़ सकते हैं।

▣ ➟   अगर हवा के झोंके से ज़्यादा हरकत ना हो तो बैठ कर नहीं पढ़ सकता और कश्ती पर नमाज़ पढ़ने में क़िब्ला की तरफ मुँह करना लाज़िम है और जब कश्ती घूम जाये तो नमाज़ी भी घूम कर  क़िब्ला मुँह कर ले और अगर इतनी तेज़ गर्दिश हो कि किब्ला मुँह करने से आजिज़ है तो उस वक़्त ना करे यानी नमाज़ को बाद में पढ़े और अगर वक़्त जा रहा हो तो पढ़ ले।

▣ ➟   जुनून या बेहोशी पूरे 6 वक़्त तक हो तो इन नमाज़ों की क़जा़ भी नहीं, अगर्चे बेहोशी आदमी या दरिंदे के खौफ से हो और इससे कम हो तो क़जा़ वाजिब है यानी 6 वक़्त से कम।

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   शराब या बंग पीने की वजह से अगर अक़्ल जाती रही तो क़ज़ा वाजिब है उन नमाज़ों की जो इस दरमियान में होंगी अगर्चे ये शराब या बंग दवा की गरज़ से इस्तिमाल की हो।

▣ ➟   अगर किसी ने मजबूर कर के शराब पिला दी तो भी क़ज़ा वाजिब है।

▣ ➟   सोता रहा तो भी क़ज़ा वाजिब होगी अगर्चे नींद पूरे 6 वक़्त को घेर ले।

▣ ➟   अगर ये हालत है कि रोज़ा रखने पर खड़े हो कर नमाज़ नहीं पढ़ सकता और अगर रोज़ा ना रखे तो खड़े हो कर पढ़ सकता है तो रोज़ा रखे और नमाज़ बैठ कर पढ़े।

▣ ➟   अगर मरीज़ ने वक़्त से पहले नमाज़ पढ़ ली इस ख्याल से कि वक़्त में ना पढ़ सकेगा तो नमाज़ ना हुयी और बगैर क़िरअत भी नहीं होगी और अगर क़िरअत से आजिज़ हो तो जायेगी।

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▣ ➟  मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟  औरत बीमार हो तो शौहर पर फ़र्ज़ नहीं कि उसे वुज़ू करा दे और ग़ुलाम बीमार हो तो वुज़ू करा देना मौला के ज़िम्मे है।

▣ ➟  अगर छोटे से खेमे में है कि खड़ा नहीं हो सकता और बाहर निकलता है तो बारिश और कीचड़ है तो बैठ कर नमाज़ पढ़े यूँ ही खड़े होने में दुश्मन का खौफ है तो बैठ कर पढ़ सकता है।

▣ ➟  बीमार की नमाजें क़ज़ा हो गई और अब अच्छा हो कर इन्हें पढ़ना चाहता है तो वैसे पढ़े जैसे तंदरुस्त पढ़ते है, इस तरह नहीं पढ़ सकता जैसे बीमार पढ़ता है मसलन बैठ कर या इशारे से अगर इसी तरह पढ़ें तो ना होंगी और सिहत की हालत में क़ज़ा हुई और बीमारी की हालत में उन्हें पढ़ना चाहता है तो जिस तरह पढ़ सकता है पढ़े हो जायेगी, सिहत से पढ़ना इस वक़्त वाजिब नहीं।

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟  पानी में डूब रहा है और अगर उस वक़्त भी अमले कसीर के बिना इशारे से पढ़ सकता है मस्लन तैरने वाला है या लकड़ी वग़ैरह का सहारा पा जाये तो पढ़ना फर्ज़ है वरना माज़ूर है, बच जाये तो क़ज़ा पढ़े।

▣ ➟  आँखो का इलाज करवाया और तबीबे हाज़िक़ मुसलमान ने लेटे रहने का हुक्म दिया है तो लेट कर इशारे से नमाज़ पढ़े।

▣ ➟  मरीज़ के नीचे नजिस बिछौना बिछा हुआ है और हालत ये है कि अगर बदला जाये तो भी फिर वो इतना नजिस हो जायेगा कि जिससे नमाज़ नहीं होती तो उसी पर नमाज़ पढ़े।

▣ ➟  अगर उस बिछौने को बदला जाये तो फिर दूसरा बिछौना नजिस नहीं होगा पर इसे बदलने में शदीद तकलीफ़ होगी तो उसी पर पढ़ ले।

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▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ :

▣ ➟   मरीज़ की नमाज़ के बारे में जो मसाइल बयान किये गये उन पर गौर करें तो बखूबी मालूम हो जायेगा कि शरीअत ने किसी हालत में भी सिवाये बाज़ के नमाज़ माफ़ नहीं की बल्कि ये हुक्म दिया कि जिस तरह मुम्किन हो पढ़े (बैठ कर, लेट कर, इशारे से)

▣ ➟   आज कल जो बड़े नमाज़ी कहलाते हैं उन की ये हालत देखी जा रही है कि बुखार आया या ज़रा सी शिद्दत का दर्द हुआ तो नमाज़ छोड़ दी, कोई फुड़िया निकल आयी तो नमाज़ छोड़ दी और यहाँ तक नौबत पहुँच गयी है कि सर दर्द और ज़ुकाम में नमाज़ छोड़ देते हैं।

▣ ➟   हालाँकि अगर सिर्फ इशारे से पढ़ सकता हो और ना पढ़े तो जो अज़ाब नमाज़ छोड़ने वालों का है वो भी इस का मुस्तहिक़ होगा।

अल्लाह त'आला रहम करे।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   सहीह मुस्लिम शरीफ़ में हज़रते अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से मरवी है कि नबी -ए- करीम ﷺ इरशाद फ़रमाते हैं कि जब इब्ने आदम आयते सजदा पढ़ कर सजदा करता है, शैतान हट जाता है और रो कर कहता है हाय हाय बरबादी मेरी! इब्ने आदम को सजदे का हुक्म हुआ उस ने सजदा किया, उस के लिये जन्नत है और मुझे हुक्म हुआ मैने इंकार किया, मेरे लिये दोज़ख़ है।

▣ ➟   सजदा की 14 आयतें हैं क़ुरआने करीम में :

(1) پارہ 9، الاعراف:206
(2) پارہ 13، الرعد:15
(3) پارہ 14، النحل:49
(4) پارہ 15، بنی اسرائیل:108، 109
(5) پارہ 16، مریم:58
(6) پارہ 17، الحج:18
(7) پارہ 19، الفرقان:60
(8) پارہ 19، النمل:25، 26
(9) پارہ 21، السجدۃ:15
(10) پارہ 23، ص24، 25
(11) پارہ 24، حم السجدۃ:37، 38
(12) پارہ 27، النجم:62
(13) پارہ 30، الانشقاق:20، 21
(14) پارہ 30، العلق:19

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान : 

▣ ➟   आयते सजदा सुनने या पढ़ने से सजदा वाजिब हो जाता है।

▣ ➟   पढ़ने का मतलब ये कि इतनी आवाज़ होनी चाहिये कि अगर कोई उज़्र ना हो तो खुद सुन सके।

▣ ➟   सुनने वाले के लिये ये ज़रूरी नहीं कि जान बूझ कर ही सुनी हो बल्कि बिला क़स्द सुनने से भी सजदा वाजिब हो जाता है।

▣ ➟   सजदा वाजिब होने के लिये पूरी आयत पढ़ना ज़रूरी नहीं बल्कि वो लफ्ज़ जिस में सजदा का मद्दा पाया जाता है और इस के पहले या बाद का कोई लफ्ज़ मिला कर पढ़ना काफ़ी है।

▣ ➟   अगर इतनी आवाज़ से आयत पढ़ी कि सुन सकता था पर शोरो गुल या बहरे होने की वजह से ना सुनी तो भी सजदा वाजिब हो गया और अगर महज़ होंट हिले पर आवाज़ पैदा ना हुयी तो वाजिब नहीं।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   क़ारी ने आयत पढ़ी मगर दूसरे ने ना सुनी तो अगर्चे उसी मजलिस में हो, उस पर सजदा वाजिब ना हुआ अलबत्ता नमाज़ में इमाम ने आयत पढ़ी तो मुक़्तदियों पर वाजिब हो गया, अगर्चे मुक़्तदी ने ना सुनी हो बल्कि अगर आयत पढ़ते वक़्त मौजूद भी ना था और बाद पढ़ने के सजदे से पहले शामिल हुआ और अगर इमाम से आयत सुनी मगर इमाम के सजदा करने के बाद उसी रकअत में शामिल हुआ तो इमाम का सजदा उसके लिये भी है और दूसरी रकअत में शामिल हुआ तो नमाज़ के बाद सजदा करे।

▣ ➟   यूँ ही अगर जमाअत में शामिल ही ना हुआ जब भी सजदा करे।

▣ ➟   इमाम ने आयत पढ़ी और सजदा ना किया तो मुक़्तदी भी उसकी मुताबिअत में सजदा ना करेगा, अगर्चे आयत सुनी हो।

▣ ➟   मुक़्तदी ने अगर आयत पढ़ी ना इमाम पर सजदा वाजिब है ना खुद पर।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   अगर मुक़्तदी ने आयते सजदा पढ़ी तो नमाज़ के बाद भी सजदा वाजिब नहीं अलबत्ता अगर किसी ऐसे शख्स ने सुन ली जो उस के साथ नमाज़ में शरीक ना था ख्वाह वो अकेला हो या दूसरे इमाम का मुक़्तदी या दूसरा इमाम तो उन पर सजदा बादे  नमाज़ वाजिब है।

▣ ➟   यूँ ही उस पर वाजिब है जो नमाज़ में ना हो और आयत सुने।

▣ ➟   जो शख्स नमाज़ में नहीं उसने आयते सजदा पढ़ी और नमाज़ी ने सुनी तो नमाज़ के बाद सजदा करे, नमाज़ में ना करे और नमाज़ ही में कर लिया तो काफी ना होगा, नमाज़ के बाद फिर करना होगा मगर नमाज़ इससे फ़ासिद नहीं होगी और अगर तिलावत करने वाले के साथ सजदा किया और इत्तिबा का क़स्द भी किया तो फ़ासिद हो जायेगी।

▣ ➟   जो नमाज़ में नहीं था, आयते सजदा पढ़ कर नमाज़ में शामिल हो गया तो सजदा साक़ित हो गया।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   रुकूअ या सुजूद में आयते सजदा पढ़ी तो सजदा वाजिब हो गया और उसी रुकूअ या सुजूद से अदा भी हो गया और तशह्हूद में पढ़ी तो सजदा वाजिब हो गया, सजदा करे।

▣ ➟   आयते सजदा पढ़ने वाले पर उस वक़्त सजदा वाजिब होता है कि वो जब नमाज़ का अहल हो यानी अदा या क़ज़ा का उसे हुक्म हो लिहाज़ा अगर काफ़िर या मज्नून या नाबालिग या हैज़ो निफास वाली औरत ने आयत पढ़ी तो उन पर सजदा वाजिब नहीं और मुसलमान आक़िल बालिग अहले नमाज़ ने उनसे सुनी तो उस पर वाजिब हो गया और जुनून अगर एक दिन रात से ज़्यादा ना हो तो मज्नून पर सुनने या पढ़ने से वाजिब है।

▣ ➟   बे-वुज़ू या नापाक ने आयत पढ़ी या सुनी तो सजदा वाजिब है, नशा वाले ने आयत सुनी या पढ़ी तो सजदा वाजिब है।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   अगर सोते हुये सजदा वाली आयत पढ़ी और उठने पर किसी ने खबर दी तो सजदा करे।

▣ ➟   नशे वाले या सोने वाले शख्स से आयत सुनी तो सजदा वाजिब नहीं।

▣ ➟   औरत ने नमाज़ में आयते सजदा पढ़ी और सजदा न किया कि यहाँ तक हैज़ आ गया तो सजदा साकित हो गया।

▣ ➟   नफ़्ल पढ़ने वाले ने आयत पढ़ी और सजदा भी कर लिया फिर नमाज़ फ़ासिद हो गयी तो उसकी क़ज़ा पढ़ते वक़्त सजदा को दोहराना ज़रूरी नहीं और नमाज़ में ना किया था तो नमाज़ के बाहर कर ले।

▣ ➟   फारसी या किसी और ज़ुबान में सजदे वाली आयत का तर्जुमा सुना या पढ़ा तो सजदा वाजिब हो गया।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   आयते सजदा का तर्जुमा सुनने वाले ने समझा हो या ना नहीं कि आयते सजदा का तर्जुमा है तो भी सजदा वाजिब है अलबत्ता ये ज़रूर है कि उसे मालूम ना हो तो बता दिया गया हो कि आयते सजदा का तर्जुमा था और आयत पढ़ी गयी हो तो इसकी जरूरत नहीं कि सुनने वाले को बताया गया हो।

▣ ➟   अगर कुछ लोगों ने एक एक हर्फ़ पढ़ा और वो सब मिला कर आयते सजदा हो गया तो किसी पर भी सजदा वाजिब नहीं यूँ ही आयत के हिज्जे करने से या उसे सुनने से सजदा वाजिब ना होगा।

▣ ➟   यूँ ही अगर परिंदे से आयते सजदा सुनी या पहाड़ वग़ैरह में किसी की आवाज़ की गूँज सुनी तो सजदा वाजिब नहीं।

▣ ➟   आयते सजदा पढ़ने के बाद म'आज़ अल्लाह मुर्तद हो गया और फिर मुसलमान हुआ तो वो सजदा वाजिब ना रहा।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  आयते सजदा लिखने या उसकी तरफ देखने से सजदा वाजिब नहीं होता।

▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत के लिये तहरीमा के सिवा तमाम वो शराइत हैं जो नमाज़ के लिये हैं मस्लन तहारत, किब्ला की तरफ़ मुँह, निय्यत, वक़्त यानी सजदा वाजिब होने के बाद और सित्रे औरत लिहाज़ा अगर पानी पर क़ादिर है तो तयम्मुम कर के सजदा करना जाइज़ नहीं।

▣ ➟  इस में निय्यत शर्त नहीं कि फुलां आयत का सजदा है बल्कि मुत्लक़न निय्यत काफी है कि आयत का सजदा है।

▣ ➟  जो चीज़ें नमाज़ को फ़ासिद करती हैं उनसे सजदा भी फ़ासिद हो जायेगा मस्लन नापाकी, कलाम करना और हँसना क़हक़हा लगा कर।

▣ ➟  सजदे का मस्नून तरीक़ा ये है कि खड़ा हो कर अल्लाहु अकबर कहता हुआ सजदा में जाये और कम से कम तीन बार सुब्हान रब्बीयल आला कहे फ़िर अल्लाहु अकबर कहता हुआ खड़े हो जाये, पहले पिछले दोनों बार अल्लाहु अकबर कहना सुन्नत है और खड़े हो कर सजदे में जाना और सजदे के बाद खड़ा होना ये दोनों कियाम मुस्तहब हैं।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  मुस्तहब ये है कि तिलावत करने वाला आगे और सजदा करने वाले उस के पीछे सफ़ बांध कर सजदा करें और ये भी मुस्तहब है कि सुनने वाले इस से पहले सर ना उठायें और अगर इसके ख़िलाफ़ किया मस्लन अपनी जगह पर सजदा किया अगर्चे तिलावत करने वाले के आगे या उस से पहले सजदा किया या सर उठा लिया या तिलावत करने वाले ने उस वक़्त सजदा ना किया और सुनने वालों ने कर लिया तो हर्ज नहीं और तिलावत करने वाले का सजदा फ़ासिद हो जाये तो उन के सजदों पर उस का कोई असर नहीं क्योंकि ये हक़ीक़तन इक़्तिदा नहीं है।

▣ ➟  औरत ने अगर तिलावत की तो मर्दों की इमाम यानी सजदा में आगे हो सकती है और औरत मर्द के बराबर हो जाये तो फ़ासिद ना होगा।

▣ ➟  अगर सजदे से पहले या बाद में खड़ा ना हुआ या अल्लाहु अकबर ना कहा या "सुब्हान" ना पढ़ा तो हो जायेगा मगर तकबीर छोड़ना ना चाहिये कि ये सलफ़ के ख़िलाफ़ है।

(बहारे शरीअत)

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   अगर तन्हा सजदा करे तो सुन्नत ये है कि तकबीर इतनी आवाज़ से कहे कि खुद सुन ले और दूसरे लोग भी उसके साथ हों तो मुस्तहब ये है कि इतनी आवाज़ से कहे कि दूसरे भी सुनें।

▣ ➟   ये जो कहा गया कि सजदा -ए- तिलावत में "सुब्हान रब्बीयल आला' पढ़े, ये फ़र्ज़ नमाज़ में है और नफ़्ल नमाज़ में सजदा किया तो चाहिये कि ये पढ़े या और दुआयें जो अहादीस में आयी हैं वो पढ़े मस्लन :

سَجَدَ وَجْھِیَ لِلَّذِیْ خَلَقَہٗ وَصَوَّرَہٗ وَشَقَّ سَمْعَہٗ وَبَصَرَہٗ بِحَوْلِہٖ وَقُوَّتِہٖ فَتَبَارَکَ اللہ اَحْسَنُ الْخَالِقِیْنَ 

फिर ये पढ़ें :

اَللّٰھُمَّ اکْتُبْ لِیْ عِنْدَکَ بِھَا اَجْرًا وَّ ضَعْ عنَیِّ بِھَا وِزْرًا وَّاجْعَلْھَا لِیْ عِنْدَکَ زُخْرًا وَّ تَقَبَّلْھَا مِنِّیْ کَمَا تَقَبَّلْتَھَا مِنْ عَبْدِکَ دَاوٗدَ

फिर ये पढ़े :

سُبْحٰنَ رَبِّنَا اِنْ کَانَ وَعْدُ رَبِّنَا لَمَفْعُوْلًا   

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   नमाज़ के बाहर सजदा करे तो चाहे ये पढ़े या सहाबा व ताबईन से जो आसार मरवी हैं वो पढ़े मस्लन इब्ने उमर रदिअल्लाहु त'आला अन्हुमा से मरवी है, वो कहते थे :

اَللّٰھُمَّ لَکَ سَجَدَ سَوَادِیْ رَبِّکَ اٰمَنَ فُؤَادِیْ اَللّٰھُمَّ ارْزُقْنِیْ عِلْمًا یَّنْفَعُنِیْ وَعَمَلًا یَّرْفَعُنِیْ

▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत के लिये अल्लाहु अकबर कहते वक़्त ना हाथ उठाना है और ना इस में तशह्हुद है ना सलाम।

▣ ➟   आयते सजदा नमाज़ के बाहर पढ़ी तो फौरन सजदा कर लेना वाजिब नहीं, हाँ बेहतर है कि फौरन कर ले और वुज़ू हो तो ताखीर करना मकरूहे तंज़ीही।

▣ ➟   उस वक़्त अगर किसी वजह से सजदा ना कर सके तो तिलावत करने वाले और सुनने वाले को ये कह लेना मुस्तहब है।

سَمِعْنَا وَ اَطَعْنَا غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَ اِلَیْكَ الْمَصِیْرُ  

▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत नमाज़ में फौरन करना वाजिब है, ताखीर करेगा गुनाहगार होगा।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   नमाज़ में सजदा -ए- तिलावत करना भूल गया तो जब तक कोई ऐसा काम ना किया हो जिस से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है तो कर ले, अगर्चे सलाम फेर चुका हो फिर सजदा -ए- सह्व कर ले।

▣ ➟   ताखीर से मुराद तीन आयत दे ज़्यादा पढ़ लेना है, कम में ताखीर नहीं मगर आखिर सूरत में अगर सजदा वाकेअ है तो सूरत पूरी कर के सजदा करेगा जब भी हर्ज नहीं।

▣ ➟   नमाज़ में आयते सजदा पढ़ी तो नमाज़ में ही सजदा वाजिब है, नमाज़ के बाहर नहीं हो सकता और जान बूझ कर नहीं किया तो गुनाहगार होगा तौबा करे बाशर्ते आयते सजदा के बाद फौरन रुकूअ व सजदा ना किया हो, नमाज़ में आयते सजदा पढ़ी और सजदा ना किया फिर वो नमाज़ फ़ासिद हो गयी या जान बूझ कर फ़ासिद की तो नमाज़ के बाहर सजदा कर ले और सजदा नमाज़ में कर लिया था तो अब हाजत नहीं।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   अगर आयत पढ़ने के बाद फ़ौरन नमाज़ का सजदा कर लिया यानी आयते सजदा के बाद तीन आयत से ज़्यादा ना पढ़ा और रुकूअ कर के सजदा किया तो अगर्चे सजदा -ए- तिलावत की निय्यत ना हो पर सजदा अदा हो जायेगा।

▣ ➟   नमाज़ का सजदा -ए- तिलावत, सजदे से भी अदा हो जाता है और रुकूअ से भी मगर रुकूअ से जब अदा होगा कि फौरन करे फौरन ना किया तो सजदा करना ज़रूरी है और जिस रुकूअ से सजदा -ए- तिलावत अदा किया ख़्वाह वो रुकूअ नमाज़ का रुकूअ हो या इस के अलावा, अगर नमाज़ का रुकूअ है तो सजदे की निय्यत कर ले और अगर खास सजदे के लिये ही ये रुकूअ किया तो इस रुकूअ से उठने के बाद मुस्तहब ये है कि दो तीन आयतें या ज़्यादा पढ़ कर नमाज़ का रुकूअ करे, फौरन ना करे और अगर आयते सजदा पर सूरत खत्म है और सजदे के लिये रुकूअ किया तो दूसरी सूरत की आयतें पढ़ कर रुकूअ करे।

▣ ➟   आयते सजदा बीच सूरत में है तो अफ़ज़ल ये है कि उसे पढ़ कर सजदा करे फिर कुछ और आयतें पढ़ कर रुकूअ करे और अगर सजदा ना किया और रुकूअ कर लिया और उस रुकूअ में अदा -ए- सजदा की भी निय्यत कर ली तो काफी है और अगर ना सजदा किया ना रुकूअ बल्कि सूरत खत्म कर के रुकूअ किया तो अगर्चे निय्यत करे, ना काफी है और जब तक नमाज़ में है सजदा की क़ज़ा कर सकता है।

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▣ ➟   सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟   सजदा पर सूरत खत्म है और आयते सजदा पढ़ कर सजदा किया तो सजदा से उठने के बाद दूसरी सूरत की कुछ आयतें पढ़ कर रुकूअ करे और बग़ैर पढ़े रुकूअ कर दिया तो भी जाइज़ है।

▣ ➟   अगर आयते सजदा के बाद सूरत खत्म होने में दो तीन आयतें बाक़ी हैं तो चाहे फौरन रुकूअ कर दे या सूरत खत्म होने के बाद फौरन सजदा कर ले फिर बाक़ी आयतें पढ़ कर रुकूअ में जाये या सूरत खत्म कर के सजदे में जाये, जो चाहे कर सकता है मगर जब दूसरी सूरत (यानी सजदा करने) में सजदे से उठ कर कुछ आयतें दूसरी सूरत की पढ़ कर रुकूअ करें।

▣ ➟   रुकूअ जाते वक़्त सजदा की निय्यत नहीं की बल्कि रुकूअ में या उठने के बाद की तो ये निय्यत काफी नहीं।

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▣ ➟   तिलावत के बाद इमाम रुकूअ में गया और आयते सजदा के सजदे की निय्यत कर ली और मुक़्तदियों ने ना की तो उनका सजदा अदा ना हुआ लिहाज़ा इमाम जब सलाम फेरे तो मुक़्तदी सजदा कर के क़ादा करें और सलाम फेरें और इस क़ादा में तशह्हुद वाजिब है और क़ादा ना किया तो नमाज़ फ़ासिद हो गयी कि क़ादा जाता रहा, ये हुक्म जहरी नमाज़ का है, सिर्री नमाज़ में चूँकि मुक़्तदी को इल्म नहीं लिहाज़ा माज़ूर है और अगर इमाम ने रुकूअ से सजदा -ए- तिलावत की निय्यत ना की तो उसी सजदा -ए- नमाज़ से मुक़्तदियों का भी सजदा -ए- तिलावत अदा हो गया अगर्चे निय्यत ना हो लिहाज़ा इमाम को चाहिये कि रुकूअ में सजदा की निय्यत ना करे कि मुक़्तदियों ने अगर निय्यत ना की तो उन का सजदा अदा ना होगा और रुकूअ के बाद जब इमाम सजदा करेगा तो उस से सजदा -ए- तिलावत बहर हाल अदा हो जायेगा, निय्यत करे या ना करे फिर निय्यत की क्या हाजत।

▣ ➟   जहरी नमाज़ (जिन में बुलंद आवाज़ से किरअत वाजिब है) में इमाम ने आयते सजदा पढ़ी तो सजदा करना औला है और दूसरी में रुकूअ करना कि मुक़्तदियों को धोका ना लगे।

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  नमाज़ पढ़ने वाला सजदा -ए- तिलावत भूल गया तो रुकूअ या सजदा या क़ा'दा में याद आया तो उसी वक़्त कर ले फिर जिस रुक्न में था उस की तरफ लौट आये यानी रुकूअ में था तो सजदा कर के रुकूअ में वापस हो और अगर उस रुक्न को ना दोहराया जब भी नमाज़ हो गयी मगर आखिरी क़ा'दे को दोहराना फ़र्ज़ है कि सजदा से क़ा'दा बातिल हो जाता है।

▣ ➟  एक मजलिस में सजदे की एक आयत को बार बार पढ़ा या सुना तो एक सजदा ही वाजिब होगा, अगर्चे चंद शख़्सों से सुना हो।

▣ ➟  यूँ ही अगर आयत पढ़ी और वही आयत दूसरे से सुनी भी जब भी एक ही सजदा वाजिब होगा।

▣ ➟  पढ़ने वाले ने कई मजलिसों में एक आयत बार-बार पढ़ी और सुनने वाले की मजलिस ना बदली तो पढ़ने वाला जितनी मजलिसों में पढ़ेगा उस पर उतने ही सजदे वाजिब होंगे और सुनने वाले पर एक और अगर इसका अक्स है यानी पढ़ने वाला एक मजलिस में बार बार पढ़ता रहा और सुनने वाले की मजलिस बदलती रही तो पढ़ने वाले पर एक सजदा वाजिब होगा और सुनने वाले पर उतने कि जितनी मजलिसों में सुना।

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  मजलिस में आयत पढ़ी या सुनी और सजदा कर लिया फिर उसी मजलिस में वही आयत पढ़ी या सुनी तो वही पहला सजदा काफी है।

▣ ➟  एक मजलिस में चंद बार आयत पढ़ी या सुनी और आखिर में इतनी ही बार सजदा करना चाहे तो ये भी ख़िलाफ़े मुस्तहब है बल्कि एक ही बार करे, बखिलाफ़ दुरूद शरीफ़ के, कि नामे अक़दस लिया या सुना तो एक बार दुरूद शरीफ़ वाजिब और हर बार मुस्तहब।

▣ ➟  दो एक लुक़्मा खाने, दो एक घूँट पीने, खड़े हो जाने, दो एक कदम चलने, सलाम का जवाब देने, दो एक बात करने, मकान के एक गोशे से दूसरी तरफ चले जाने से मजलिस ना बदलेगी, हाँ अगर मकान बड़ा है जैसे शाही महल तो ऐसे मकान में एक गोशे से दूसरे में जाने से मजलिस बदल जायेगी।

▣ ➟  कश्ती में है और कश्ती चल रही है, मजलिस ना बदलेगी।

▣ ➟  ट्रैन का भी यही हुक्म होना चाहिये जानवर पर सवार है और वो चल रहा है तो मजलिस बदल रही है हाँ अगर सवारी पर नमाज़ पढ़ रहा है तो ना बदलेगी।

▣ ➟  तीन लुक़्मे खाने, तीन घूँट पीने, तीन कलिमे बोलने, तीन क़दम मैदान में चलने, निकाह या खरीदो फ़रोख़्त करने, लेट कर सो जाने से मजलिस बदल जायेगी।

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  किसी मस्जिद में देर तक बैठना, किराअत करना तस्बीहों तहलील, दर्स व वाज़ में मश्गूल होना मजलिस को नहीं बढ़ेगा औऱ अगर दोनों बार पढ़ने के दरमियान कोई दुनिया का काम किया मसलन कपड़ा सीना वग़ैरह तो मजलिस बदल गई।

▣ ➟  आयत ए सज्दा नमाज़ के बाहर तिलावत की औऱ सज्दा कर के फ़िर नमाज़ शुरू की औऱ नमाज़ में फ़िर वही आयत पढ़ी तो इसके लिए दोबारा सज्दा करें औऱ अग़र पहले न किया था तो यही उसके भी कायम मक़ाम हो गया बशर्ते आयत फै'ल फासला न बना हो औऱ अग़र न पहले सज्दा किया न नमाज़ में तो दोनों साकित हो गए औऱ गुनाहगार हुआ तौबा करें!

▣ ➟  एक रकाअत में बार बार वही आयत पढ़ी तो एक ही सज्दा काफी हैं ख्वाह चंद बार पढ़ कर सज्दा किया या एक बार पढ़कर सज्दा किया फ़िर दोबारा या उससे ज़्यादा बार आयत पढ़ी।

▣ ➟  यूं ही एक नमाज़ में सब रकअतों में या दो तीन में वही आयत पढ़ी तो सब के लिए एक सज्दा काफी हैं!

(देखिए बहार-ए-तहरीर)

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  नमाज़ में सजदे वाली आयत पढ़ी और सजदा कर लिया फिर सलाम फेरने के बाद उसी मजलिस में वो आयत दोबारा पढ़ी तो अगर कलाम ना किया था तो वही नमाज़ वाला सजदा काफी है और कलाम कर लिया था तो दोबारा सजदा करे और अगर नमाज़ में सजदा ना किया था फिर सलाम फेरने के बाद वही आयत पढ़ी तो एक सजदा करे, नमाज़ वाला साकित हो गया।

▣ ➟  नमाज़ में सजदे वाली आयत पढ़ी और सजदा किया और सलाम फेरने के बाद बे वुज़ू हुआ और वुज़ू कर के बिना की (जोड़ दिया) फिर वही आयत पढ़ी तो दूसरा सजदा वाजिब ना हुआ और अगर बिना के बाद दूसरे से वही आयत सुनी तो दूसरा सजदा वाजिब है और ये दूसरा सजदा नमाज़ के बाद करे।

▣ ➟  एक मजलिस में सजदे वाली चंद आयतें पढ़ी तो उतने ही सजदे करे, एक काफी नहीं।

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  पूरी सूरत पढ़ना और सजदे वाली आयत छोड़ देना मकरूहे तहरीमी है और सिर्फ़ सजदे वाली आयत पढ़ने में कराहत नहीं मगर बेहतर ये है कि दो एक आयत पहले या बाद की मिला ले।

▣ ➟  सजदे की आयत पढ़ी गयी मगर काम में मशगूल होने के सबब ना सुनी तो सहीह ये है कि सजदा वाजिब नहीं, मगर बहुत से उलमा कहते हैं कि अगर्चे ना सुनी पर सजदा वाजिब हो गया।

▣ ➟  फाइदा : जिस मक़्सद के लिये एक मजलिस में सजदा की सब आयतें पढ़ कर सजदे करे अल्लाह अज़्ज़वजल उस का मक़्सद पूरा फ़रमा देगा ख़्वाह एक एक आयत पढ़ कर उस का सजदा करता जाये या सब को पढ़ कर आखिर में 14 सजदा कर ले।

▣ ➟  ज़मीन पर आयते सजदा पढ़ी तो सवारी पर ये सजदा नहीं कर सकता मगर खौफ़ की हालत हो तो हो सकता है और सवारी पर आयत पढ़ी तो सफ़र की हालत में सवारी पर सजदा कर सकता है।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  सजदा -ए- तिलावत का बयान :

▣ ➟  मर्ज़ की हालत में इशारे से भी सजदा अदा हो जायेगा। यूँ ही सफ़र में सवारी पर इशारे से हो जायेगा।

▣ ➟  जुम्आ, ईदैन और सिर्री नमाज़ों में और जिस नमाज़ में बड़ी जमाअत हो वहाँ इमाम को आयते सजदा पढ़ना मकरूह है।

▣ ➟  हाँ अगर आयत के बाद फ़ौरन रुकूअ व सुजूद कर दे और रुकूअ में सजदा -ए- तिलावत की निय्यत ना करे तो हर्ज नहीं।

▣ ➟  मिम्बर पर आयते सजदा पढ़ी तो खुद उस पर और सुनने वालों पर सजदा वाजिब है और जिन्होंने ना सुनी उन पर नहीं।

▣ ➟  सजदा -ए- शुक्र मस्लन औलाद पैदा हुयी या माल पाया या गुमी हुयी चीज़ मिल गयी या मरीज़ ने शिफ़ा पायी या मुसाफ़िर वापस आया ग़र्ज़ किसी नैमत पर सजदा करना मुस्तहब है और इस का तरीक़ा वही है जो सजदा -ए- तिलावत का है।

▣ ➟  सजदा -ए- बे सबब जैसा अक्सर आवाम करते हैं ना सवाब है ना मकरूह।

▣ ➟  अब मुसाफ़िर की नमाज़ का बयान होगा।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ :

▣ ➟  शरीअत में मुसाफ़िर वो शख्स है जो तीन दिन की राह तक जाने के इरादे से बस्ती से बाहर हुआ और किलोमीटर के हिसाब से ये तक़रीबन 92 किलोमीटर की दूरी होगी।

▣ ➟  किसी जगह जाने के लिये दो रास्ते हैं, एक से जायेगा तो लंबा रास्ता है और दूसरे से कम तो जिस से जायेगा उस का ऐतबार होगा यानी कहीं जाना है और एक रास्ता 95 किलोमीटर का है और दूसरा 70 का तो 95 वाले से जाने पर मुसाफ़िर कहलायेगा वरना नहीं।

▣ ➟  तीन दिन की राह को तेज़ी से दो दिन में तय कर लिया जाये तो भी मुसाफ़िर ही होगा, ऐसा नहीं है कि 92 किलोमीटर का सफर 1 घंटे में तय करे तो मुसाफ़िर नहीं और अगर 92 से कम यानी 80-90 किलोमीटर का सफ़र तीन दोनों में किया तो मुसाफ़िर नहीं।

▣ ➟  सिर्फ़ निय्यत करने से मुसाफ़िर नहीं होगा बल्कि ज़रूरी है कि बस्ती से बाहर हो जाये, शहर है तो शहर से, गाँव है तो गाँव से और शहर वाले के लिये ज़रूरी है कि शहर से आस पास जो आबादी जुड़ी हुयी है, उस से भी बाहर हो जाये।

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ :

▣ ➟  शहर से कोई गाँव मुत्तसिल है तो उससे बाहर आ जाना शहर वाले के लिये ज़रूरी नहीं।

▣ ➟  शहर से बाहर जो जगह शहर के कामों के लिये हो मस्लन क़ब्रिसतान, घुड़ दौड़ का मैदान, कूड़ा फेंकने की जगह, अगर ये शहर से मुत्तसिल हों तो इससे बाहर हो जाना ज़रूरी है और अगर फासिला हो तो ज़रूरी नहीं।

▣ ➟  कोई मुहल्ला पहले शहर से मिला हुआ था अब जुदा हो गया तो इससे बाहर होना भी ज़रूरी है और जो पहले मुत्तसिल था और अब वीरान हो गया तो उससे बाहर आना शर्त नहीं।

▣ ➟  स्टेशन जहाँ आबादी से बाहर हो तो स्टेशन पर पहुँचने से मुसाफिर हो जायेगा जबकि मुसाफत सफ़र तक जाने का इरादा हो यानी 92 किलोमीटर।

▣ ➟  मुसाफिर होने के लिये ज़रूरी है कि जहाँ से चला हो वहाँ से तीन दिन के सफ़र के इरादे से निकला हो वरना अगर ऐसा किया कि दो दिन के सफ़र की निय्यत की, फिर वहाँ पहुँच कर वहाँ से एक दिन के सफ़र की तो मुसाफिर ना होगा चाहे इस तरह पूरी दुनिया घूम आये।

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▣ ➟  मुसाफ़िर पर वाजिब है कि नमाज़ में क़स्र करे यानी 4 रकअत वाले फ़र्ज़ को दो पढ़े, इस के हक़ में दो ही रकअतें पूरी नमाज़ हैं और जान बूझ कर चार पढ़ी और दो पर क़ा'दा किया तो फ़र्ज़ अदा हो गये और पिछली रकअतें नफ़्ल हुयी मगर गुनाहगार व मुस्तहिके नार हुआ कि वाजिब तर्क किया लिहाज़ा तौबा करे और अगर दो रकअत पर क़ा'दा ना किया तो फ़र्ज़ अदा ना हुये और वो नमाज़ नफ़्ल हो गयी हाँ अगर तीसरी रकअत का सजदा करने से पहले इक़ामत की निय्यत कर ली तो फ़र्ज़ बातिल ना होंगे मगर कियाम व रुकूअ का इआदा करना होगा और अगर तीसर के सजदे में निय्यत की तक अब फ़र्ज़ जाते रहे, यूँ ही अगर पहली दोनों या एक में किरअत ना की नमाज़ फ़ासिद हो गयी।

▣ ➟  ये रुख़्सत मुसाफ़िर के लिये मुत्लक़ है यानी अब उस का सफ़र जाइज़ काम के लिये हो या नाजाइज़ काम के लिये, उस पर मुसाफ़िर के अहकाम जारी होंगे।

▣ ➟  सुन्नतों में क़स्र नहीं है बल्कि पूरी पढ़ी जायेंगी अलबत्ता खौफ़ और घबराहट की हालत में माफ़ हैं और अमन की हालत में पढ़ी जायें।

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ :

▣ ➟  मुसाफ़िर उस वक़्त तक मुसाफ़िर है जब तक अपनी बस्ती में पहुँच ना जाये या आबादी में पूरे पंद्रह दिन ठहरने की निय्यत ना कर ले, ये उस वक़्त है जब तीन दिन की राह चल चुका हो और अगर तीन मंज़िल पहुँचने के पेश्तर वापसी का इरादा कर लिया तो मुसाफ़िर ना रहा अगर्चे जंगल में हो।

▣ ➟  इक़ामत की निय्यत सहीह होने के लिये 6 शर्तें हैं :

(1) चलना तर्क करे, अगर चलने की हालत में इक़ामत की निय्यत की तो मुक़ीम नहीं (मुसाफ़िर है)

(2) वो जगह इक़ामत की सलाहिय्यत रखती हो, जंगल या दरिया या ग़ैर आबाद टापू में मुक़ीम होने की निय्यत की तो ना हुयी (मुसाफ़िर ही है)

(3) 15 दिन ठहरने की निय्यत की हो, इस से कम की निय्यत की तो मुक़ीम नहीं मुसाफ़िर है।

(4) ये निय्यत एक ही जगह ठहरने की हो, अगर दो जगहों में 15 दिन ठहरने का इरादा हो, मस्लन एक में दस दिन दूसरे में 5 दिन का तो मुक़ीम ना होगा।

(5) अपना इरादा मुस्तकिल (अलग) रखता हो, किसी का ताबे (Under) ना हो।

(6) उसकी हालत उसके इरादे के मनफ़ी ना हो।

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ :

▣ ➟  मुसाफ़िर रास्ते में है और शहर या गाँव में पहुँचा नहीं और इक़ामत की निय्यत कर ली तो मुक़ीम नहीं होगा, जब पहुँच जाये और निय्यत करे तो होगा अगर्चे घर या किसी जगह की तलाश में घूम रहा हो।

▣ ➟  दो जगह 15 दिन ठहरने की निय्यत की और दोनों मुस्तकिल हो जैसे मक्का व मिना तो मुक़ीम ना हुआ और एक दूसरे की ताबे हो जैसे शहर और उस की फिना (बाहरी हिस्सा) तो मुक़ीम हो गया।

▣ ➟  ये निय्यत की कि दो बस्तियों में 15 दिन रुकेगा, एक जगह दिन में रहेगा और दूसरी जगह रात में तो अगर पहले वहाँ गया जहाँ दिन में रुकने का इरादा है मुक़ीम ना हुआ और अगर पहले वहाँ गया जहाँ रात में रहने के क़स्द है तो मुक़ीम हो गया, फिर यहाँ से दूसरी बस्ती में गया तो भी मुक़ीम हो गया।

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▣ ➟  मुसाफ़िर अगर अपने इरादे में मुस्तकिल ना हो यानी किसी के ताबे में हो तो 15 दिन की निय्यत से मुक़ीम नहीं होगा मिसाल के तौर पर ऐसी औरत जिस का मेहर मुअज्जल शौहर के ज़िम्मे बाक़ी नहीं है तो वो शौहर की ताबे है, उसकी अपनी निय्यत बेकार है और ऐसा शागिर्द जिस को उस्ताद के यहाँ से खाना मिलता है तो ये अपने उस्ताद के ताबे है और नेक बेटा अपने बाप के ताबे है, इन सब की अपनी निय्यत बेकार है बल्कि जिनके ताबे हैं उनकी निय्यतों का ऐतबार है, अगर उनकी निय्यत इक़ामत की है तो ये भी मुक़ीम हैं और उनकी निय्यत इक़ामत की नहीं तो ये ताबे भी मुसाफ़िर हैं।

▣ ➟  औरत का महरे मुअज्जल बाक़ी हो तो उसे इख्तियार है कि अपने नफ़्स को रोक ले लिहाज़ा उस वक़्त ताबे नहीं।

▣ ➟  ताबे को चाहिये कि जिस का ताबे है उस से सवाल कर के अमल करे यानी वो मुक़ीम है या मुसाफ़िर और उसी के हिसाब से खुद को भी मुक़ीम या मुसाफ़िर समझे।

▣ ➟  अगर अंधे के साथ कोई उसे पकड़ कर ले जाने वाला है तो अगर ये उस का नौकर है तो नाबीना की अपनी निय्यत का ऐतबार है और अगर अगर महज़ एहसान के तौर पर साथ है तो इस कि निय्यत का ऐतबार है।

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▣ ➟  किसी ने 15 दिन की इक़ामत की निय्यत की पर उसकी हालत बताती है कि 15 दिन नहीं रुकेगा तो निय्यत सहीह नहीं।

▣ ➟  जो शख्स कहीं गया और वहाँ 15 दिन रुकने का इरादा नहीं पर जिस क़ाफ़िले के साथ है और ये मालूम है कि क़ाफ़िला 15 दिन के बाद जायेगा तो वो मुक़ीम है अगर्चे इक़ामत की निय्यत ना हो।

▣ ➟  मुसाफ़िर अगर किसी काम के लिये या साथियों के इंतिज़ार में दो चार रोज़ या तेरह चौदह दिन की निय्यत से ठहरा या ये इरादा है कि काम हो जायेगा तो चला जायेगा पर दोनों सूरतों में अगर आज कल आज कल करते बरसों गुज़र जायें जब भी मुसाफ़िर ही है, नमाज़ क़स्र पढ़े।

▣ ➟  मुसाफ़िर ने नमाज़ के अंदर इक़ामत की निय्यत की तो ये नमाज़ भी पूरी पढ़े और अगर ये सूरत हुयी थी कि एक रकअत पढ़ी और वक़्त खत्म हो गया और दूसरी में इक़ामत की निय्यत की तो ये नमाज़ दो ही रकअत पढ़े, इस के बाद की चार पढ़े।

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ : 

▣ ➟  अदा व क़ज़ा दोनों में मुक़ीम मुसाफ़िर की इक़्तिदा कर सकता है और इमाम के सलाम फेरने के बाद अपनी बाक़ी 2 रकअतें पढ़ ले और इन दो में किरअत बिल्कुल ना करे बल्कि बा-क़द्रे फ़ातिहा चुप खड़ा रहे।

▣ ➟  इमाम अगर मुसाफ़िर हो तो उसे चाहिये कि शुरू करते वक़्त अपना मुसाफ़िर होना ज़ाहिर कर दे और शुरू में ना कहा तो नमाज़ के बाद कह दे कि अपनी नमाज़ें पूरी कर लो मै मुसाफ़िर हूँ और शुरू में कह दिया है जब भी बाद में कह दे कि लोग उस वक़्त मौजूद ना थे उन्हें भी मालूम हो जाये।

▣ ➟  वक़्त खत्म होने के बाद मुसाफ़िर मुक़ीम की इक़्तिदा नहीं कर सकता, वक़्त में कर सकता है और इस सूरत में मुसाफ़िर के फ़र्ज़ भी चार हो गये ये हुक्म 4 रकअत वाली नमाज़ का है और वो नमाज़ें जिन में क़स्र नहीं कर सकता उन में वक़्त और बादे वक़्त दोनों सूरतों में इक़्तिदा कर सकता है।

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ : 

▣ ➟  मुसाफ़िर ने मुक़ीम के पीछे शुरू कर के नमाज़ फ़ासिद कर दी तो अब दो ही पढ़ेगा यानी जबकि तन्हा पढ़े या किसी मुसाफ़िर की इक़्तिदा करे और अगर फिर मुक़ीम की इक़्तिदा की तो चार पढ़े।

▣ ➟  मुसाफ़िर ने मुक़ीम की इक़्तिदा की तो मुक़्तदी पर भी क़ा'दा -ए- ऊला वाजिब हो गया, फ़र्ज़ ना रहा (तन्हा पढ़ता तो ये फ़र्ज़ होता क्योंकि ये क़ा'दा -ए- आखिरा होता) तो अगर इमाम ने क़ा'दा ना किया तो नमाज़ फ़ासिद ना हुयी और मुक़ीम ने मुसाफ़िर की इक़्तिदा की तो मुक़्तदी पर भी क़ा'दा -ए- ऊला फ़र्ज़ हो गया (तन्हा पढ़ता वो वाजिब होता)

▣ ➟  वतन की किस्में : - वतन की दो किस्में हैं (1) वतने अस्ली, (2) वतने इक़ामत

▣ ➟  *वतने अस्ली :* वो जगह है जहाँ उस की पैदाइश है या उस के घर के लोग वहाँ रहते हैं या वहाँ सुकूनत कर ली और ये इरादा है कि यहाँ से ना जायेगा।

▣ ➟  *वतने इक़ामत :* वो जगह है कि जहाँ मुसाफ़िर ने 15 दिन या उस से ज़्यादा ठहरने का इरादा किया हो।

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ :

▣ ➟  मुसाफ़िर ने कहीं शादी कर ली तो अगर्चे वहाँ 15 दिन रुकने का इरादा ना हो, मुक़ीम हो गया और दो शहरों में उसकी दो औरतें रहती हों तो दोनों जगह पहुँचते ही मुक़ीम हो जायेगा।

▣ ➟  एक जगज किसी का वतने अस्ली है अब उस ने दूसरी जगह वतने अस्ली बनाया, अगर पहली जगह बाल बच्चे मौजूद हों तो दोनों अस्ली हैं वरना पहला अस्ली ना रहा ख़्वाह उन दोनों जगहों के दरमियान सफ़र का (शरई) फ़ासिला हो या ना हो।

▣ ➟  वतने इक़ामत दूसरे वतने अस्ली इक़ामत को बतिल कर देता है यानी एक जगज 15 दिन के इरादे से ठहरा फिर दूसरी जगह इतने ही दिन के इरादे से ठहरा तो पहली जगह अब वतन ना रही दोनों के दरमियान मुसाफ़ते सफ़र हो या ना हो यूँ ही वतने इक़ामत वतने अस्ली और सफ़र से बातिल हो जाता है।

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▣ ➟  मुसाफ़िर की नमाज़ :

▣ ➟  अगर अपने घर के लोगों को लेकर दूसरी जगह चला गया और पहली जगह मकान व अस्बाब वग़ैरह बाक़ी हैं तो वो भी वतने अस्ली है।

▣ ➟  वतने इक़ामत के लिये ये ज़रूरी नहीं कि तीन दिन के सफर के बाद वहाँ इक़ामत की हो बल्कि अगर मुद्दते सफर तय करने से पेश्तर इक़ामत कर ली तो वो वतने इक़ामत हो गया।

▣ ➟  बालिग़ के वालिदैन किसी शहर में रहते हैं और वो शहर इस की जा -ए- विलादत नहीं, ना इस के अहल वहाँ तो वो जगह इसके लिये वतन नहीं।

▣ ➟  मुसाफ़िर जब वतने अस्ली पहुँच गया सफ़र खत्म हो गया अगर्चे इक़ामत की निय्यत ना की हो।

▣ ➟  औरत शादी कर के ससुराल गयी और यहीं रहने सहने लगे तो माइका उस के लिये वतने अस्ली ना रहा यानी अगर ससुराल तीन मंज़िल (92 Km) पर है वहाँ से माइके आयी और 15 दिन से कम रुकना है तो क़स्र पढ़े और अगर माइके में रहना नहीं छोड़ा बल्कि सुसराल आरज़ी (Temporarily) तौर पर गयी तो माइके आते ही सफ़र ख़त्म हो गया नमाज़ पूरी पढ़े।

▣ ➟  औरत को बग़ैर महरम के तीन दिन या ज़्यादा की राह जाना नाजाइज़ है। हमराही में बालिग़ मेहरम या शौहर का होना ज़रूरी है।

▣ ➟  मेहरम के लिये जरूरी है कि सख्त फ़ासिक़, बे बाक ग़ैर मामून ना हो।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  अल्लाह त'आला फरमाता है : ऐ ईमान वालों! जब नमाज़ के लिये जुम्आ के दिन आवाज़ दी जाये तो ज़िक्रे खुदा की तरफ़ दौड़ो और खरीदो फ़रोख़्त छोड़ दो, ये तुम्हारे लिये बेहतर है अगर तुम जानते हो।

(अल जुम्आ)

▣ ➟  जुम्आ फ़र्ज़े ऐन है यानी किसी और के अदा करने से कोई और ज़िम्में से बरी नहीं होता और इस की फर्ज़िय्यत ज़ुहर से ज़्यादा मुअक्कद है (यानी ताकीद इस में ज़्यादा है) और इस का इंकार करने वाला काफ़िर है।

▣ ➟  जुम्आ के लिये 6 शर्तें हैं, इन में से एक भी मफक़ूद हो तो जुम्आ नहीं होगा।

▣ ➟  (1) मिस्र या फ़ना -ए- मिस्र होना। (देहात में जुम्आ नहीं)

▣ ➟  (2) सुल्ताने इस्लाम या उसके नाइब जिसे जुम्आ क़ाइम करने का हुक्म दिया।

▣ ➟  (3) ज़ुहर का वक़्त।

▣ ➟  (4) खुत्बा।

▣ ➟  ख़ुत्बे के शराइत में से है कि वक़्त में हो और नमाज़ से पहले हो और जमाअत में कम से कम खतीब के सिवा तीन मर्द हों।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  खुत्बा इतनी आवाज़ से हो कि पास वाले सुन सकें।

▣ ➟  खुत्बा ज़िक्रे इलाही का नाम है अगर्चे सिर्फ एक बार الحمد للہ، سبحان اللہ या لا الہ الا اللہ  कहा, इसी से फ़र्ज़ अदा हो गया मगर इतने पर ही इक्तिफा करना मकरूह है।

▣ ➟  खुत्बा और नमाज़ में अगर ज़्यादा फ़ासिला हो जाये तो वो खुत्बा नमाज़ के लिये काफ़ी नहीं।

▣ ➟  सुन्नत ये है कि दो ख़ुत्बे पढ़े जायें और बड़े बड़े ना हों और अगर दोनों मिल कर तवाले मुफ़स्सल से बढ़ जायें तो मकरूह है ख़ुसूसन जाड़े के मौसम में।

▣ ➟  ख़ुत्बे में ये चीज़ें सुन्नत हैं :

(1) ख़तीब का पाक होना।
(2) खड़ा होना।
(3) ख़ुत्बा से पहले ख़तीब का बैठना।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

(13) हुज़ूर ﷺ पर दुरूद भेजना।

(14) कम से कम एक आयत की तिलावत करना।

(15) पहले ख़ुत्बा में वाज़ो नसीहत होना।

(16) दूसरे में हम्दो सना व शहादत व दुरूद का इरादा करना।

(17) दूसरे में मुसलमानों के लिये दुआ करना।

(18) दोनों ख़ुत्बे हल्के होना।

(19) दोनों के दरमियान तीन आयत पढ़ने की मिक़दार बैठना।
मुस्तहब ये है कि दूसरे ख़ुत्बे में पहले ख़ुत्बे की निस्बत आवाज़ पस्त हो।

(20) मर्द अगर इमाम के सामने हो तो इमाम की तरफ मुँह करे दाहिने बायें हो तो इमाम की तरफ़ ममुड़ जाये।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

(13) हुज़ूर ﷺ पर दुरूद भेजना।

(14) कम से कम एक आयत की तिलावत करना।

(15) पहले ख़ुत्बा में वाज़ो नसीहत होना।

(16) दूसरे में हम्दो सना व शहादत व दुरूद का इरादा करना।

(17) दूसरे में मुसलमानों के लिये दुआ करना।

(18) दोनों ख़ुत्बे हल्के होना।

(19) दोनों के दरमियान तीन आयत पढ़ने की मिक़दार बैठना।
मुस्तहब ये है कि दूसरे ख़ुत्बे में पहले ख़ुत्बे की निस्बत आवाज़ पस्त हो।

(20) मर्द अगर इमाम के सामने हो तो इमाम की तरफ मुँह करे दाहिने बायें हो तो इमाम की तरफ़ ममुड़ जाये।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

(21) इमाम से क़रीब होना अफ़ज़ल है लेकिन इसके लिये ये जाइज़ नहीं कि लोगों की गर्दनें फलांगे अलबत्ता इमाम भी ख़ुत्बे के लिये नहीं गया है और खुत्बा शुरू होने के बाद मस्जिद आया तो किनारे पर ही बैठ जाये।

▣ ➟  खुत्बा सुनने की हालत में दो ज़ानू बैठे जैसे नमाज़ में बैठा जाता है।

▣ ➟  ख़ुत्बे में आयत ना पढ़ना, ख़ुत्बे के दरमियान ना बैठना या ख़ुत्बे के दरमियान बात करना मकरूह है अलबत्ता ख़तीब ने नेक बात का हुक्म दिया और बुरी बात से मना किया तो ये मना नहीं।

▣ ➟  ग़ैरे अरबी में खुत्बा पढ़ना या अरबी के साथ दूसरी ज़ुबान में खुत्बा पढ़ना ख़िलाफ़े सुन्नते मुतवारिसा है।
यूँ ही खुत्बा में अश'आर भी नहीं पढ़ना चाहिये अगर्चे अरबी के ही हो, हाँ दो एक शेर नसीहत वग़ैरह के लिये कभी पढ़ ले तो हर्ज नहीं।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

(5) जमाअत : यानी इमाम के अलावा कम से कम तीन मर्द का होना।

(6) इज़्ने आम : यानी मस्जिद का दरवाज़ा खोल दिया जाये कि जिस मुसलमान का जी चाहे आये, कोई रोक टोक ना हो।

▣ ➟  अगर जामा मस्जिद में जब लोग जमा हो गये, दरवाज़ा बंद करके जुम्आ पढ़ा तो नहीं होगा।

▣ ➟  जुम्आ वाजिब होने के लिये 11 शर्तें हैं, इन में से एक भी मदूम हो तो फ़र्ज़ नहीं फिर भी अगर पढ़ेगा तो हो जायेगा बल्कि मर्द आकिल बालिग़ के लिये पढ़ना अफ़ज़ल है और औरत के लिये ज़ुहर अफ़ज़ल।

(1) शहर में मुक़ीम होना।
(2) सिहत होना यानी मरीज़ पर जुम्आ फ़र्ज़ नहीं।

▣ ➟  मरीज़ से मुराद ये है कि ऐसा शख्स जो मस्जिद तक ना जा सकता हो या चला तो जायेगा पर मर्ज़ बढ़ जायेगा या देर से ठीक होगा।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  जो शख्स मरीज़ का तीमारदार (देख भाल पर) हो और जानता है है कि जुम्आ के लिए जायेगा मरीज़ दिक्कतों में पड़ जायेगा और इस का कोई पुरसाने हाल ना होगा तो इस तीमारदार पर जुम्आ फ़र्ज़ नहीं।

(3) आज़ाद होना : ग़ुलाम पर जुम्आ फ़र्ज़ नहीं और इस का आक़ा मना कर सकता है।

(4) मर्द होना।

(5) बालिग़ होना।

(6) आकिल होना (ये दोनों शर्तें की आकिल और बालिग़ होना, ये सिर्फ जुम्आ के लिये नहीं बल्कि हर इबादत के वाजिब होने में शर्त है।)

(7) अखियारा होना।

▣ ➟  एक आँख वाले या जिस की नज़रें कमज़ोर हो उस पर जुम्आ फ़र्ज़ है यूँ ही जो अंधा अज़ान के वक़्त बा वुज़ू हो उस पर जुम्आ फ़र्ज़ नहीं।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  बाज़ नाबीना बिला तकल्लुफ़ बग़ैर किसी की मदद के बाजारों रास्तों कम चलते फिरते हैं और जिस मस्जिद में चाहें बिला पूछे जा सकते हैं, उन पर जुम्आ फ़र्ज़ है।

(8) चलने पर क़ादिर होना।

▣ ➟  अपाहिज पर जुम्आ फ़र्ज़ नहीं, अगर्चे कोई ऐसा हो कि उसे उठा कर मस्जिद में रख आयेगा।

▣ ➟  जिस का एक पाऊँ कट गया हो या फालिज से बेकार हो गया हो, अगर मस्जिद तक जा सकता हो तो उस पर जुम्आ फ़र्ज़ है वरना नहीं।

(9) क़ैद में ना होना और अगर दैन की वजह से क़ैद किया गया है और मालदार है यानी अदा करने पर क़ादिर है तो उस पर फ़र्ज़ है।

(10) बादशाह या चोर वग़ैरह किसी ज़ालिम का ख़ौफ़ ना होना।

▣ ➟  मुफ़लिस क़र्ज़दार को अगर क़ैद का अंदेशा हो तो उस पर फ़र्ज़ नहीं।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

(11) बारिश या आँधी या ओले या सर्दी का ना होना यानी इस क़द्र हो कि इन से सहीह नुक़्सान का खौफ़ हो।

▣ ➟  जुम्आ की इमामत हर वो मर्द कर सकता है जो और नमाज़ों की इमामत कर सकता है अगर्चे उस पर जुम्आ फ़र्ज़ ना हो जैसे मरीज़, मुसाफ़िर और ग़ुलाम।

▣ ➟  जिस पर जुम्आ फ़र्ज़ है उसे शहर में जुम्आ होने से पहले ज़ुहर पढ़ना मकरूहे तहरीमी है बल्कि इमाम इब्ने हुम्माम ने फ़रमाया कि हराम है और पढ़ लिया जब भी जुम्आ के लिये जाना फ़र्ज़ है और जुम्आ हो जाने के बाद ज़ुहर पढ़ने में कराहत नहीं बल्कि अब तो ज़ुहर ही पढ़ना फ़र्ज़ है।

▣ ➟  अगर जुम्आ दूसरी जगह ना मिल सके मगर जुम्आ तर्क करने का गुनाह इस के सर रहा।

▣ ➟  ये शख्स जो कि जुम्आ होने से पहले ज़ुहर पढ़ चुका था फिर नादिम हो कर घर से जुम्आ की निय्यत से निकला अगर उस वक़्त इमाम नमाज़ में हो तो नमाज़े ज़ुहर जाती रही, जुम्आ मिल जाये तो पढ़ ले वरना ज़ुहर की नमाज़ फिर पढ़े अगर्चे मस्जिद दूर होने के सबब से जुम्आ ना मिला हो।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  जिन सूरतों में कहा गया है कि जुम्आ बातिल हो जायेगा तो मतलब ये कि फ़र्ज़ जाता रहा वो नमाज़ नफ़्ल हो गयी।

▣ ➟  मरीज़ या मुसाफ़िर या कैदी या कोई और जिस पर जुम्आ फ़र्ज़ नहीं, उन लोगों को भी जुम्आ के दिन शहर में जमाअत के साथ ज़ुहर पढ़ना मकरूहे तहरीमी है ख्वाह जुम्आ से पहले जमाअत करें या बाद में।

▣ ➟  उलमा फ़रमाते हैं कि जिन मस्जिदों में जुम्आ नहीं होता, उन्हें जुम्आ के दिन ज़ुहर के वक़्त बंद रखें।

▣ ➟  गाँव में जुम्आ के दिन भी ज़ुहर की नमाज़ अज़ान व इक़ामत के साथ बा-जमाअत पढ़ें।

▣ ➟  माज़ूर अगर जुम्आ के दिन ज़ुहर पढ़े तो मुस्तहब ये है कि जुम्आ हो जाने के बाद पढ़े और ताखीर ना की तो मकरूह है।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  जिस ने जुम्आ का क़ादा पा लिया या सजदा -ए- सह्व के बाद शरीक हुआ उसे जुम्आ मिल गया लिहाज़ा अपनी दो ही रकअतें पूरी करे।

▣ ➟  नमाज़े जुम्आ के लिये पहले से जाना और मिस्वाक करना और अच्छे और सफ़ेद कपड़े पहनना और तेल खुश्बू लगाना और पहली सफ़ में बैठना मुस्तहब है और ग़ुस्ल सुन्नत।

▣ ➟  जब इमाम ख़ुत्बे के लिये खड़ा हो उस वक़्त से खत्मे नमाज़ तक नमाज़ व अज़्कार और हर किस्म का कलाम मना है अलबत्ता साहिबे तरतीब अपनी क़ज़ा नमाज़ पढ़ ले यूँ ही जो शख्स सुन्नत या नफ़्ल पढ़ रहा है तो जल्द पूरी कर ले।

▣ ➟  जो चीज़ें नमाज़ में हराम हैं मस्लन खाना पीना सलाम व जवाब तो ये सब ख़ुत्बे की हालत में भी हराम हैं यहाँ तक कि अम्र बिल मारूफ़ (अच्छी बात का हुक्म देना)

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  ख़ुत्बे के दरमियान ख़तीब नेक बात का हुक्म दे सकता है।

▣ ➟  ख़तीब जब खुत्बा पढ़े तो तमाम सामईन पर ख़ामोश रहना और सुनना फ़र्ज़ है, जो लोग इमाम से दूर हों कि ख़ुत्बे की आवाज़ उन तक ना पहुँचती हो तो उन पर भी चुप रहना वाजिब है।

▣ ➟  अगर किसी को कोई बुरी बात करते देखे तो हाथ या सर के इशारे से मना कर सकते हैं, ज़ुबान से जाइज़ नहीं।

▣ ➟  अगर कोई बिच्छू वग़ैरह ही कि काट देगा किसी को तो ज़ुबान से कह सकते हैं और अगर इशारे से काम हो जाये तो कहने की इजाज़त नहीं।

▣ ➟  अगर ख़तीब ने मुसलमानों के लिये दुआ की तो सामईन को हाथ उठाना और आमीन कहना जाइज़ नहीं, करेंगे तो गुनाहगार होंगे।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  हुज़ूर ﷺ का नाम अगर ख़तीब ने लिया तो दुरूद दिल में पढ़ें ज़ुबान से पढ़ने की उस वक़्त इजाज़त नहीं।

▣ ➟  खुत्बा -ए- जुम्आ के इलावा और खुत्बों का सुनना भी वाजिब है मस्लन ख़ुत्बा -ए- ईदैन और ख़ुत्बा -ए- निकाह वग़ैरहुमा।

▣ ➟  पहली अज़ान होते ही ख़रीदो फ़रोख़्त तर्क कर दिया जाये यहाँ तक कि अगर रास्ते में चलते हुये ख़रीदो फ़रोख़्त की तो ये भी नाजाइज़ और मस्जिद में ख़रीदो फ़रोख़्त तो सख्त गुनाह है।

▣ ➟  खाना खा रहा था और अज़ाने जुम्आ की आवाज़ आयी अगर ये अंदेशा हो कि खायेगा तो जुम्आ फौत हो जायेगा तो खाना छोड़ दे और जुम्आ को जाये, जुम्आ के लिये इत्मिनानो वक़ार से जाये। 

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  ख़तीब जब मिम्बर पर बैठे तो उसके सामने दोबारा अज़ान दी जाये।

▣ ➟  अक्सर जगह देखा गया है कि दूसरी अज़ान पस्त आवाज़ से कहते हैं, ये ना चाहिये बल्कि इसे भी बुलंद आवाज़ से कहें कि इस से भी ऐलान मक़सूद है और जिसने पहली ना सुनी उसे सुन का हाज़िर हो।

▣ ➟  खुत्बा खत्म हो जाये तो फ़ौरन इक़ामत कही जाये।

▣ ➟  ख़ुत्बा व इक़ामत के दरमियान दुनिया की बात करना मकरूह है।

▣ ➟  जिसने खुत्बा पढ़ा वही नमाज़ पढ़ाये, दूसरा ना पढ़ाये और अगर दूसरे ने पढ़ा दी तो भी हो जायेगी जबकि उसे इजाज़त दी गयी हो।

▣ ➟  नमाज़े जुम्आ में बेहतर ये है कि पहली रकअत में सूरहे जुम्आ और दूसरी में सूरहे मुनाफ़िक़ून या पहली में : 

سبح اسم 
और दूसरी में :
ھل اتک
पढ़े।

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  जुम्आ के दिन सफर किया और ज़वाल से पहले आबादी से बाहर हो गया तो हर्ज नहीं वरना मम्नूअ है।

▣ ➟  हजामत बनवाना और नाखून तरशवाना जुम्आ के बाद अफ़ज़ल है।

▣ ➟  सवाल करने वाला अगर नमाज़ियों के आगे से गुज़रता हो या गर्दनें फलाँगता हो तो ये बिला ज़रूरत मांगता हो तो सवाल भी नाजाइज़ है और ऐसे साइल को देना भी नाजाइज़।

▣ ➟  जुम्आ के दिन या रात में सूरहे कहफ़ की तिलावत अफज़ल है और ज़्यादा बुज़ुर्गी रात में पढ़ने की है।

▣ ➟  नसई और बैहक़ी बा सनदे सहीह हज़रते अबू सईद खुदरी से रावी कि फ़रमाते हैं : जो शख़्स सूरहे कहफ़ जुम्आ के दिन पढ़े उस के लिये दोनों जुम्ओं के दरमियान नूर रौशन होगा 

(देखिये बहारे शरीअत)

जारी है........

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▣ ➟  जुम्आ का बयान :

▣ ➟  दारमी में रिवायत है कि जो शख्स शबे जुम्आ में सूरहे कहफ़ पढ़े तो उस के लिये वहाँ से काबा तक नूर रौशन होगा।

▣ ➟  हज़रते इब्ने उमर से रिवायत है कि फ़रमाते हैं : जो जुम्आ के दिन सूरहे कहफ़ पढ़े उसके क़दम से आसमान तक नूर बुलंद होगा जो कियामत को उसके लिये रौशन होगा और दो जुम्ओं के दरमियान जो गुनाह हुये हैं बख्स दिये जायेंगे।

▣ ➟  तबरानी में अबू इमामा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जो शख़्स जुम्आ के दिन या रात में

حم الدخان 

▣ ➟  पढ़े, उस के लिये अल्लाह त'आला जन्नत में एक घर बनायेगा।

▣ ➟  अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से मरवी है कि उसकी मग़फ़िरत हो जायेगी और एक रिवायत में है कि जो किसी रात में पढ़े तो सत्तर हज़ार फ़िरिश्ते उसके लिये अस्तग़फ़र करेंगे।

▣ ➟  जुम्आ के दिन या रात में सूरहे यासीन पढ़े, उसकी मग़फ़िरत हो जाये।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  अल्लाह त'आला फ़रमाता है : रोज़ों की गिनती पूरी करो और अल्लाह की बढ़ाई बोलो कि उस ने तुम्हें हिदायत फ़रमायी। (बक़रा:185)

▣ ➟  और फ़रमाता है कि : अपने रब के लिये नमाज़ पढ़ और क़ुरबानी कर। (अल कौसर:2)

▣ ➟  ईदैन की नमाज़ वाजिब है मगर सब पर नहीं बल्कि उन्हीं पर जिन पर जुम्आ वाजिब है और इस की अदा की वही शर्तें हैं जो जुम्आ की हैं फ़र्क़ इतना है कि जुम्आ में ख़ुत्बा शर्त है और ईदैन में सुन्नत।

▣ ➟  अगर जुम्आ में खुत्बा ना पढ़ा तो जुम्आ ना हुआ पर इस में ना पढ़ा तो नमाज़ हो गयी पर बुरा किया।

▣ ➟  दूसरा फ़र्क़ ये है कि जुम्आ का ख़ुत्बा नमाज़ के पहले है और ईदैन में नमाज़ के बाद अगर पहले पढ़ लिया तो बुरा किया मगर नमाज़ हो गयी लौटाई नहीं जायेगी और ख़ुत्बा भी नहीं दोहराना है।

▣ ➟  ईदैन में ना अज़ान है ना इक़ामत सिर्फ दो बार इतना कहने की इजाज़त है :

الصلوۃ جامعۃ

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  गाँव में ईदैन की नमाज़ पढ़ना मकरूहे तहरीमी है।

▣ ➟  ईद के दिन ये काम मुस्तहब हैं :

(1) हजामत बनवाना।

(2) नाखून तरशवाना

(3) ग़ुस्ल करना।

(4) मिस्वाक करना।

(5) अच्छे कपड़े पहनना, नया हो तो नया वरना धुला हुआ।

(6) अँगूठी पहनना।

(7) खुश्बू लगाना।

(8) सुबह की नमाज़ मुहल्ले की मस्जिद में पढ़ना।

(9) ईदगाह जल्द चले जाना।

(10) नमाज़ से पहले सदक़ा -ए- फित्र अदा करना।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

(11) ईदगाह को पैदल जाना।

(12) दूसरे रास्ते से वापस आना।

(13) नमाज़ को जाने से पहले चंद खजूरें खा लेना।

तीन, सात, पाँच या कम बेश पर ताक़ (Odd) हों।

▣ ➟  खजूरें ना हों तो कोई मीठी चीज़ खा ले।

▣ ➟  नमाज़ से पहले कुछ ना खाया तो  गुनाहगार ना हुआ मगर इशा तक ना खाया तो इताब किया जायेगा यानी सरज़निश।

▣ ➟  सवारी पर भी जाने में हर्ज नहीं मगर जो पैदल चलने पर क़ादिर हो तो ईदगाह तक पैदल जाना अफ़ज़ल है और वापसी पर सवारी में आने पर हर्ज नहीं।

▣ ➟  ईदगाह में नमाज़ के लिये जाना सुन्नत है अगर्चे मस्जिद में गुंजाइश हो और ईदगाह में मिम्बर बनाने या मिम्बर ले जाने में हर्ज नहीं।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

(14) खुशी ज़ाहिर करना।

(15) कसरत से सदका़ देना।

(16) ईदगाह को इत्मिनान वा वक़ार और नीची निगाह किये जाना।

(17) आपस में मुबारकबाद देना मुस्तहब है और रास्ते में बुलंद आवाज़ से तकबीर ना कहे।

▣ ➟  नमाज़े ईद से क़ब्ल नफ़्ल नमाज़ मुत्लक़न मकरूह है, ईदगाह में हो या घर में, इस पर ईद की नमाज़ वाजिब हो या ना हो यहाँ तक कि औरत अगर चाश्त की नमाज़ घर में पढ़ना चाहे तो ईद की नमाज़ हो जाने के बाद पढ़े और नमाज़े ईद के बाद ईदगाह में नफ़्ल पढ़ना मकरूह है, घर में पढ़ सकता है बल्कि मुस्तहब है कि चार रकअतें पढ़े।

▣ ➟  ये अहकाम खवास के हैं, आवाम अगर नफ़्ल पढ़ें अगर्चे नमाज़े  ईद से पहले अगर्चे ईदगाह में उन्हें मना ना किया जाये।

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▣ ➟  ईदैन का बयान : 

▣ ➟  ईदुल फ़ित्र में देर करना और ईदे अज़्हा में जल्द पढ़ लेना मुस्तहब है और सलाम फेरने के पहले ज़वाल का वक़्त आ गया तो नमाज़ जाती रही।

▣ ➟  नमाज़े ईद का तरीक़ा :

▣ ➟  नमाज़े ईद का तरीक़ा ये है कि दो रकअत वाजिब ईदुल फ़ित्र या ईदुल अज़्हा की निय्यत कर के कानों तक हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कह कर हाथ बाँध ले फ़िर सना पढ़े फ़िर कानों तक हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कहता हुआ हाथ छोड़ दे फिर हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कह कर हाथ छोड़ दे फिर हाथ उठाये और अल्लाहु अकबर कह कर हाथ बाँध ले यानी पहले तकबीर में हाथ बाँधे, इसके बाद दो तकबीरो में हाथ लटकाये फिर चौथी में बाँध ले।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  ईद की नमाज़ का तरीक़ा :

▣ ➟  इस को यूँ याद रखें कि जहाँ तकबीर के बाद कुछ पढ़ना है वहाँ हाथ बाँध लिये जायें और जहाँ पढ़ना नहीं वहाँ हाथ छोड़ दिये जायें।

▣ ➟  फ़िर इमाम اعوذ باللہ और بسم اللہ पढ़ कर الحمد للہ और सूरत बुलंद आवाज़ से पढ़े फिर रुकूअ व सुजूद करे, दूसरी रकअत में पहले الحمد और सूरत पढ़े फिर तीन बार कान तक हाथ ले जा कर अल्लाहु अकबर कहे और हाथ ना बाँधे और चौथी बार बगैर हाथ उठाये अल्लाहु अकबर कहता हुआ रुकूअ में जाये।

▣ ➟  इस से मालूम हो गया कि ईदैन में ज़ाइद तकबीरें 6 हुयीं, तीन पहली में किरअत से पहले और तकबीरे तहरीमा के बाद और तीन दूसरी में किरअत के बाद और रुकूअ से पहले और इन 6 तकबीरों में हाथ उठाये जायेंगे और हर दो तकबीरों के दरमियान तीन तस्बीह की क़द्र सकता करे यानी रुके और ईदैन में मुस्तहब ये है कि पहली रकअत में सूरहे जुम्आ और दूसरी में मुनाफ़िक़ून पढ़े या पहली में :

سَبِّحِ اسْمَ

और दूसरी में : 

ھَلْ اَتٰکَ

▣ ➟  इमाम ने 6 तकबीरों से ज़्यादा कही तो मुक़तदी भी इमाम की पैरवी कर मगर 13 से ज़्यादा में इमाम की पैरवी ना करे।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  पहली रकअत में इमाम के तक्बीर कहने के बाद मुक़्तदी शामिल हुआ तो उसी वक़्त तीन तक्बीरे कह ले अगर्चे इमाम ने क़िरअत शुरु कर दी हो और तीन ही कहे अगर्चे इमाम ने तीन से ज़्यादा कही हो और अगर उसने तक्बीरें ना कही कि इमाम रुकूअ में चला गया तो खड़े-खड़े ना कहे बल्कि इमाम के साथ रुकूअ में चला जाये और रुकूअ में कह ले।

▣ ➟  अगर इमाम को रुकूअ में पाया और गालिब गुमान है कि तक्बीरें कह कर इमाम को रुकूअ में पा लेगा तो खड़े खड़े तक्बीरें कहे फिर रुकूअ में जाये वरना अल्लाहु अकबर कह कर रुकूअ में जाये और रुकूअ में तक्बीरे कहे फिर अगर उसने रुकूअ में तक्बीरें पूरी ना की थी कि इमाम ने सर उठा लिया तो बाक़ी साक़ित हो गयी।

▣ ➟  अगर इमाम के रुकूअ से उठने के बाद शामिल हुआ तो अब तक्बीरें ना कहे बल्कि जब अपनी पढ़े उस वक़्त कहे और रुकूअ में जहाँ तक्बीर कहना बताया गया है, इस में हाथ ना उठाये और अगर दूसरी रकअत में शामिल हुआ तो पहली रकअत की तक्बीरें अब ना कहे बल्कि जब अपनी बची हुयी पढ़ने के लिये खड़ा हो तो उस वक़्त कहे और अगर दूसरी रकअत की तक्बीरें इमाम के साथ पा जाये तो अच्छा है वरना इस में भी वही तफ्सील है जो पहली रकअत के बारे में मज़्कूर हुआ।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  जो शख्स इमाम के साथ शामिल हुआ फिर सो गया या उस का वुज़ू जाता रहा, अब जो पढ़े तो तक्बीरें इतनी कहे जितनी इमाम ने कही, अगर्चे इसके मज़हब में इतनी ना थी।

▣ ➟  इमाम तक्बीर कहना भूल गया और रुकूअ में चला गया तो क़ियाम की तरफ़ ना लौटे ना रुकूअ में तक्बीर कहे।

▣ ➟  पहली रकअत में इमाम तक्बीरें भूल गया और क़िरअत शुरु कर दी तो क़िरअत के बाद कह ले या रुकूअ में और क़िरअत का इयादा ना करे।

▣ ➟  इमाम ने ज़ाइद तक्बीरो में हाथ ना उठाये तो मुक़्तदी उसकी पैरवी ना करे बल्कि हाथ उठाये।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟   नमाज़ के बाद इमाम दो खुत्बे पढ़े और खुत्बा -ए- जुम्आ में जो चीज़ें सुन्नत हैं ईदैन में भी सुन्नत हैं और जो वहाँ पर मकरूह वो यहाँ भी मकरूह सिर्फ दो बातो में फर्क़ है, एक ये कि जुम्आ के पहले खुत्बे से पेश्तर खतीब का बैठना सुन्नत था और इस में ना बैठना सुन्नत है दुसरी ये कि इस में पहले खुत्बा से पेश्तर 9 बार और दूसरे के पहले 7 बार और मिम्बर से उतरने के पहले 14 बार अल्लाहु अकबर कहना सुन्नत है और जुम्आ में नहीं।

▣ ➟  ईदुल फित्र के खुत्बे में सदक़ा -ए- फित्र के अहकाम की तालीम करे, वो पांच बातें हैं :

▣ ➟  (1) किस पर वाजिब है?

▣ ➟  (2) और किस के लिये?

▣ ➟ (3) और कब

▣ ➟  (4) और कितना

▣ ➟  (5) और किस चीज़ से?

▣ ➟  बल्कि मुनासिब ये है कि ईद से पहले जो जुम्आ पढ़े, उस में भी ये अहकाम बता दिये जायें कि पेश्तर से लोग वाक़िफ़ हो जायें और ईदुल अज़्हा के खुत्बे में क़ुरबानी के अहकाम और तक्बीराते तशरीक़ की तालीम दी जाये।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  इमाम ने नमाज़ पढ़ ली और कोई शख्स बाक़ी रह गया ख़्वाह वो शामिल ही ना हुआ था या शामिल तो हुआ मगर उसकी नमाज़ फ़ासिद हो गयी तो अगर कहीं दूसरी जगह नमाज़ मिल जाये तो पढ़ ले वरना नहीं पढ़ सकता, हाँ बेहतर ये है कि ये शख्स चार रकअत चाश्त की नमाज़ पढ़े।

▣ ➟  किसी उज़्र के सबब ईद के दिन नमाज़ ना हो सकी (मस्लन सख्त बारिश हुयी या अब्र के सबब चाँद नहीं देखा गया और गवाही ऐसे वक़्त गुज़री कि नमाज़ ना हो सकी या अब्र था और नमाज़ ऐसे वक़्त खत्म हुयी कि ज़वाल हो चुका था) तो दूसरे दिन पढ़ी जाये और दूसरे दिन भी ना हुयी तो ईदुल फ़ित्र की नमाज़ तीसरे दिन नहीं हो सकती और दूसरे दिन भी नमाज़ का वही वक़्त है जो पहले दिन था और बिला उज़्र ईद की नमाज़ पहले दिन ना पढ़ी तो दूसरे दिन नहीं हो सकती।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  ईदुल अज़्हा तमाम अहकाम में ईदुल फ़ित्र की तरह है, सिर्फ बाज़ बातों में फ़र्क़ है, इस में मुस्तहब ये है कि नमाज़ से पहले कुछ ना खाये अगर्चे क़ुरबानी ना करे और खा लिया तो कराहत नहीं और रास्ते में बुलंद आवाज़ से तकबीर कहता जाये और ईदुल अज़्हा की नमाज़ उज़्र की वजह से 12वीं तारीख़ तक बिला कराहत मुअक्खर कर सकते हैं, 12वीं के बाद फिर नहीं हो सकती और बिल उज़्र 10वीं के बाद मकरूह है।

▣ ➟  क़ुरबानी करनी हो तो मुस्तहब ये है कि पहली से दसवीं ज़िल्हिज्जा तक ना हजामत बनवाये, ना नाखून तरशवाये।

▣ ➟  अरफ़ा के दिन यानी नवीं ज़िलहिज्जा को लोगों का किसी जगह जमा होकर हाजियों की तरफ वुक़ूफ़ करना और ज़िक्रो दुआ में मश्गूल रहना इस में मुज़ाइक़ा नहीं जबकि इसे लाज़िम व वाजिब ना जाने और अगर किसी दूसरी ग़र्ज़ से जमा हुये मस्लन नमाज़े इस्तिस्क़ा पढ़नी है जब तो बिला इख़्तिलाफ़ जाइज़ है।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  बाद नमाज़े ईद मुसाफ़ा और मुआनिका करना जैसा उमूमन मुसलमानों में राइज है बेहतर है कि इस में इज़हारे मसर्रत है।

▣ ➟  नवीं ज़िल्हिज्जा की फ़ज्र से 13वीं की अस्र तक हर नमाज़े फ़र्ज़ पंजगाना के बाद जो जमाअते मुस्तहब्बा के साथ अदा की गयी एक बार तकबीर बुलंद आवाज़ से कहना वाजिब है और तीन बार अफ़ज़ल, इसे तकबीरे तशरीक़ कहते हैं वो ये है 

اللہ اَکْبَرْ اللہ اَکْبَرْ لَآ اِلٰـہَ اِلَّا اللہ وَاللہ اَکْبَرْ اللہ اَکْبَرْ وَللہ الْحَمْدُ

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  तकबीरे तशरीक़ सलाम फेरने के फौरन बाद वाजिब है यानी जब तक कोई ऐसा फेल ना किया हो कि अब उस नमाज़ में बिना (यानी नमाज़ में और रकअतों को जोड़ सके) ना कर सके, अगर मस्जिद से बाहर हो गया या क़स्दन वुज़ू तोड़ दिया या कलाम किया अगर्चे सहवन तो तकबीर साकित हो गयी और बिला क़स्द वुज़ू टूट गया तो कह ले।

▣ ➟  तकबीरे तशरीक़ उस पर वाजिब है जो शहर में मुक़ीम हो या जिस ने उसकी इक़्तिदा की अगर्चे औरत या मुसाफ़िर या गाँव का रहने वाला और अगर इस की इक़्तिदा ना करें तो इन पर वाजिब नहीं।

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▣ ➟  नफ़्ल पढ़ने वाले ने फ़र्ज़ पढ़ने वाले की इक़्तिदा की तो इमाम की पैरवी में उस मुक़तदी पर भी तकबीरे तशरीक़ वाजिब है अगर्चे इमाम के साथ उस ने फ़र्ज़ ना पढ़े और मुक़ीम ने मुसाफ़िर की इक़्तिदा की तो मुक़ीम पर वाजिब है अगर्चे इमाम पर वाजिब नहीं।

▣ ➟  ग़ुलाम पर तकबीरे तशरीक़ वाजिब है और औरतों पर वाजिब नहीं अगर्चे जमाअत से नमाज़ पढ़ी अगर औरत ने मर्द के पीछे नमाज़ पढ़ी और इमाम ने उस औरत के इमाम होने की निय्यत की तो औरत पर भी वाजिब है पर आहिस्ता कहे।

▣ ➟  नफ़्ल व सुन्नत व वित्र के बाद तकबीर नहीं और जुम्आ के बाद वाजिब है और नमाज़े ईद के बाद भी कह ले।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  मस्बूक़ और लाहिक़ पर तकबीर वाजिब है मगर जब खुद सलाम फेरें उस वक़्त कहें और इमाम के साथ क़ह ली तो नमाज़ फ़ासिद ना हुई और नमाज़ खत्म करने के बाद तकबीर का इआदा भी नहीं है।

▣ ➟  और दिनों में नमाज़ क़ज़ा हो गयी थी और अय्यामे तशरीक़ में उस की क़ज़ा पढ़ी तो तकबीर वाजिब नहीं, यूँ ही इन दिनों की नमाज़ें और दिनों में पढ़ें जब भी वाजिब नहीं। यूँ ही गुज़िश्ता साल के अय्यामे तशरीक़ की नमाज़ें इस साल के अय्यामे तशरीक़ में पढ़े जब भी वाजिब नहीं हाँ अगर इस साल के अय्यामे तशरीक़ की क़ज़ा नमाज़ें इसी साल के इन्हीं दिनों में जमाअत से पढ़े तो वाजिब है।

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▣ ➟  ईदैन का बयान :

▣ ➟  मुन्फरिद यानी अकेले नमाज़ पढ़ने वाले पर तकबीरे तशरीक़ वाजिब नहीं मगर मुन्फरिद भी कह ले क्योंकि साहिबैन के नज़दीक उस पर भी वाजिब है।

▣ ➟  इमाम ने तकबीर ना कही जब भी मुक़तदी पर कहना वाजिब है अगर्चे मुक़तदी मुसाफ़िर, या देहाती या औरत हो।

▣ ➟  इन तारीखों में अगर आम लोग बाज़ारों में बा ऐलान तकबीरें कहें तो उन्हें मना ना किया जाये।

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▣ ➟  गहन की नमाज़ :

▣ ➟ सूरज गहन की नमाज़ सुन्नते मुअक्किदा है और चांद गहन की मुस्तहब यानी पढ़ना बेहतर है सूरज गहन की नमाज़ जमाअत से पढ़ना मुस्तहब है और तन्हा तन्हा भी हो सकती है और जमाअत से पढ़ी जाये तो ख़ुत्बे के सिवा तमाम शराइते जुम्आ उस के लिये शर्त हैं, वही शख्स उसकी जमाअत क़ाइम कर सकता है जो जुम्आ की कर सकता है, वो ना हो तो तन्हा तन्हा पढ़ें, घर में या मस्जिद में।

▣ ➟  गहन की नमाज़ उसी वक़्त पढ़ें जब आफ़ताब गहन हो, गहन छूटने के बाद नहीं और गहन छूटना शुरू हो गया मगर अभी बाकी है उस वक़्त भी शुरू कर सकते हैं और गहन की हालत में उस पर अब्र आ जाये जब भी नमाज़ पढ़ें!

(देखिये बहारे शरीअत)

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❝ नहमदोहू-व-नुसल्ली अला रसुलेहिल करीम ❞ 
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▣ ➟  गहन की नमाज़ :

▣ ➟ ऐसे वक़्त गहन लगा कि उस वक़्त नमाज़ मम्नूअ है तो नमाज़ ना पढ़ें बल्कि दुआ में मशगूल रहें और इसी हालत में डूब जाये तो दुआ ख़त्म कर दें और मग़रिब की नमाज़ पढ़ें।

▣ ➟  ये नमाज़ और नवाफिल की तरह दो रकअत पढ़ें यानी हर रकअत में एक रुकूअ और दो सजदे करें ना इस में अज़ान है ना इक़ामत, ना बुलंद आवाज़ से किरअत और नमाज़ के बाद दुआ करें यहाँ तक कि आफ़ताब खुल जाये और दो रकअत से ज़्यादा भी पढ़ सकते हैं, ख्वाह दो दो रकअत पर सलाम फेरें या चार पर।

▣ ➟  अगर लोग जमा ना हुये तो इन लफ़्ज़ों से पुकारें 
اَلصَّلٰوۃُ جَامِعَۃ

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  गहन की नमाज़ :

▣ ➟  अफ़ज़ल ये है कि ईदगाह या जामा मस्जिद में इस की जमाअत क़ाइम की जाये और अगर दूसरी जगह क़ाइम करें जब भी हर्ज नहीं।

▣ ➟   अगर याद हो तो सूरहे बक़रा और आले इमरान की मिस्ल बड़ी बड़ी सूरतें पढ़ें और रुकूअ व सुजूद में भी तूल दें और बाद नमाज़ दुआ में मशगूल रहें यहाँ तक कि पूरा आफ़ताब खुल जाये और ये भी जाइज़ है कि नमाज़ में तख़फ़ीफ करें और दुआ में तूल, ख़्वाह इमाम किब्ला रू दुआ करे या मुक़्तदियों की तरफ मुँह करके खड़ा हो और ये बेहतर है और सब मुक़्तदी आमीन कहें, अगर दुआ के वक़्त असा या कमान पर टेक लगा कर खड़ा हो तो ये भी अच्छा है, दुआ के लिये मिम्बर पर ना जाये।

▣ ➟   सूरज गहन और जनाज़ा का इज्तिमा हो तो पहले जनाज़ा पढ़ें।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  गहन की नमाज़ :

▣ ➟  चाँद गहन की नमाज़ में जमाअत नहीं, इमाम मौजूद हो या ना हो बहर हाल तन्हा तन्हा पढ़ें इमाम के अलावा दो तीन आदमी जमाअत कर सकते हैं।

▣ ➟  तेज़ आँधी आये या दिन में सख़्त तारीकी छा जाये, या रात में खौफ़नाक रौशनी हो या लगातार कसरत से मीन्ह (बारिश) बरसे या बा कसरत ओले पढ़ें या आसमान सुर्ख हो जाये या बिजलियाँ गिरें या बा कसरत तारे टूटे या ताऊन वग़ैरह वबा फैले या ज़लज़ले आयें या दुश्मन का खौफ़ हो या और कोई दहशत नाक अम्र पाया जाये, इन सब के लिये दो रकअत नमाज़ मुस्तहब है।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े इस्तिस्क़ा का बयान :

▣ ➟  अल्लाह त'आला फ़रमाता है :

وَ مَاۤ اَصَابَكُمْ مِّنْ مُّصِیْبَةٍ فَبِمَا كَسَبَتْ اَیْدِیْكُمْ وَ یَعْفُوْا عَنْ كَثِیْرٍ
(پ۲۵،الشورٰی:۳۰)   

▣ ➟  तुम्हें जो मुसीबत पहुँची है वो तुम्हारे हाथों के करतूत से है और बहुत सी मुआफ़ फ़रमा देता है।

▣ ➟  ये क़हत भी हमारे ही गुनाहों के सबब है, लिहाज़ा ऐसी हालत में कसरते अस्तग़फ़ार की बहुत जरूरत है और ये भी उसका फ़ज़्ल है कि बहुत से माफ़ फ़रमा देता है वरना अगर सब बातों पर मवाख़िज़ा करे तो कहाँ ठिकाना।

▣ ➟  फ़रमाता है :

لَوْ یُؤَاخِذُ اللّٰهُ النَّاسَ بِمَا كَسَبُوْا مَا تَرَكَ عَلٰى ظَهْرِهَا مِنْ دَآبَّةٍ
(پ۲۲،فاطر:۴۵) 

अगर लोगों को उन के कामों पर पकड़ता तो ज़मीन पर कोई चलने वाला ना छोड़ता।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े इस्तिस्क़ा का बयान :

▣ ➟  इस्तिस्क़ा दुआ व अस्तग़फ़ार का नाम है।

▣ ➟  इस्तिस्क़ा की नमाज़ जमाअत से जाइज़ है मगर जमाअत इसके लिये सुन्नत नहीं चाहें जमाअत से पढ़ें या तन्हा तन्हा दोनों तरह इख़्तियार है।

▣ ➟  इस्तिस्क़ा के लिये पुराने या पेवन्द लगे कपड़े पहन कर ख़ुसू व खुज़ू व तवज्जो के साथ बरहना सर पैदल जायें और पाऊँ बरहना हो तो बेहतर और जाने से पेश्तर खैरात करें।

▣ ➟  कुफ़्फ़ार को अपने साथ ना ले जायें कि जाते हैं रहमत के लिये और काफ़िर पर लानत उतरती है।

▣ ➟  तीन दिन पहले से रोज़े रखें और तौबा व अस्तग़फ़ार करें फिर मैदान में जायें और वहाँ तौबा करें और ज़ुबानी तौबा काफ़ी नहीं बल्कि दिल से करें और जिन के हुक़ूक़ इस के ज़िम्मे हैं सब अदा करे या माफ़ कराये।

▣ ➟  कमज़ोरों, बूढ़ों, बुढ़ियों, बच्चों के तवस्सुल से दुआ करें और सब आमीन कहें।

▣ ➟  सहीह बुखारी में है कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि तुम्हें रोज़ी और मदद कमज़ोरों के ज़रिये से मिलती है।

▣ ➟  उस वक़्त बच्चे अपनी माँओं से जुदा रखे जायें और मवेशी भी साथ ले जायें ग़र्ज़ ये कि रहमत की तवज्जो के लिये हर सामान मुहैय्या करें और तीन दिन लगातार जंगल को जायें और दुआ करें।

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▣ ➟  नमाज़े इस्तिस्क़ा का बयान :

▣ ➟  और ये भी हो सकता है कि इमाम दो रकअत जहर (बुलंद आवाज़ से किरअत) के साथ नमाज़ पढ़ाये और नमाज़ के बाद ज़मीन पर खड़ा हो कर खुत्बा पढ़े और दोनों खुत्बों के दरमियान जलसा करे और ये भी हो सकता है कि एक ही खुत्बा पढ़े और ख़ुत्बे में दुआ व तस्बीह व अस्तग़फ़ार करे और आस्ना -ए- खुत्बा में चादर लौट दे यानी ऊपर का किनारा नीचे नीचे का ऊपर कर दे कि हाल बदलने की फाल हो, ख़ुत्बे से फ़ारिग़ हो कर लोगों की तरफ पीठ और किब्ला की तरफ रुख कर के दुआ करें।

▣ ➟  बेहतर वो दुआयें हैं जो अहादीस में वारिद हैं और दुआ में हाथों को खूब बुलंद करे और पुश्त दस्त जानिबे आसमान रखे।

▣ ➟  अगर जाने से पेश्तर बारिश हो गयी, जब भी जायें और शुक्रे इलाही बजा लायें और बारिश के वक़्त हदीस में जो दुआ इरशाद हुयी पढ़े और बादल गरजे तो उसकी दुआ पढ़े और बारिश में कुछ देर ठहरे कि बदन पर पानी पहुँचे।

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▣ ➟  नमाज़े इस्तिस्क़ा का बयान :

▣ ➟  कसरत से बारिश हो कि नुक़्सान करने वाली मालूम हो तो इस के रोकने की दुआ कर सकते हैं और इसकी दुआ हदीस में ये है :

اَللّٰھُمَّ حَوَالَیْنَا وَلَا عَلَیْنَا اَللّٰھُمَّ عَلَی الْاٰکَامِ وَالظِّرَابِ وَبُطُوْنِ الْاَوْدِیَۃِ وَمَنَابِتِ الشَّجَرِ

▣ ➟  इस हदीस को बुखारी व मुस्लिम ने अनस रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से रिवायत किया।

▣ ➟  नमाज़े खौफ़ का बयान :

अल्लाह त'आला फ़रमाता है :

فَاِنْ خِفْتُمْ فَرِجَالًا اَوْ رُكْبَانًاۚ-فَاِذَاۤ اَمِنْتُمْ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَمَا عَلَّمَكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ

▣ ➟  अगर तुम्हें खौफ़ हो तो पैदल या सवारी पर नमाज़ पढ़ो फिर जब खौफ़ जाता रहे तो अल्लाह त'आला को उस तरह याद करो जैसा उस ने सिखाया वो कि तुम नहीं जानते थे।

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▣ ➟  नमाज़े खौफ़ का बयान :

▣ ➟  नमाज़े खौफ़ जाइज़ है , जबकि दुश्मन का क़रीब में होना यक़ीन के साथ मालूम हो और अगर ये गुमान था कि दुश्मन क़रीब में हैं और नमाज़े खौफ़ बाद में गुमान की ग़लती ज़ाहिर हुयी तो मुक़तदी नमाज़ का इआदा करें यूँ ही अगर दुश्मन दूर हो तो ये नमाज़ जाइज़ नहीं यानी मुक़तदी की ना होगी और इमाम की हो जायेगी।

▣ ➟  नमाज़े खौफ़ का तरीका ये है कि जब दुश्मन सामने हो और ये अंदेशा हो कि सब एक साथ नमाज़ पढ़ेंगे तो हमला कर देंगे, ऐसे वक़्त इमाम जमाअत के दो हिस्से करे। अगर कोई इस पर राज़ी हो कि हम बाद में पढ़ लेंगे तो उसे दुश्मन के मुक़ाबिल करे और दूसरे गिरोह के साथ पूरी नमाज़ पढ़ ले फिर जिस गिरोह ने नमाज़ नहीं पढ़ी इस में कोई इमाम हो जाये और ये लोग उस के साथ बा जमाअत पढ़ ले।

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▣ ➟  नमाज़े खौफ़ का बयान :

▣ ➟  और अगर दोनों में से बाद में पढ़ने पर कोई राज़ी ना हो तो इमाम एक गिरोह को दुश्मन के मुक़ाबिल करे और दूसरा इमाम के पीछे नमाज़ पढ़े, जब इमाम इस गिरोह के साथ एक रकअत पढ़ चुके यानी पहली रकअत के दूसरे सजदे से सर उठाये तो ये लोग दुश्मन के मुक़ाबिल चले जायें और जो लोग वहाँ थे वो चले आयें अब इनके साथ इमाम एक रकअत पढ़े और सलाम फेर दे मगर मुक़तदी सलाम ना फेरें बल्कि ये लोग दुश्मन के मुक़ाबिल चले जायें या यहीं अपनी नमाज़ पूरी कर के जायें और वो लोग आयें और एक रकअत बिना किरअत के पढ़ कर तशह्हुद के बाद सलाम फेरें और ये भी हो सकता है कि ये गिरोह यहाँ ना आये बल्कि वहीं अपनी नमाज़ पूरी कर ले और दूसरा गिरोह अगर नमाज़ पूरी कर चुका है तो अच्छा है वरना अब पूरी करे ख़्वाह वहीं या यहाँ आ कर और ये लोग किरअत के साथ अपनी एक रकअत पढ़ें और तशह्हुद के बाद सलाम फेरें, ये तरीक़ा दो रकअत वाली नमाज़ का है ख्वाह नमाज़ ही दो रकअत की हो जैसे फ़ज्र व ईद व जुम्आ या सफर की वजह से 4 की 2 हो गयी और 4 रकअत वाली नमाज़ हो तो इमाम हर गिरोह के साथ 2-2 रकअत पढ़े और मग़रिब में पहले गिरोह के साथ दो और दूसरे के साथ एक पढ़े, अगर पहले के साथ एक पढ़ी और दूसरे के साथ दो तो नमाज़ जाती रही।

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▣ ➟  नमाज़े खौफ़ का बयान :

▣ ➟  ये सब अहकाम इस सूरत में हैं जब इमाम व मुक़तदी सब मुक़ीम हों या सब मुसाफ़िर या इमाम मुक़ीम है और मुक़तदी मुसाफ़िर और अगर इमाम मुसाफ़िर हो और मुक़तदी मुक़ीम तो इमाम एक गिरोह के साथ एक रकअत पढ़े और दूसरे के साथ एक पढ़ के सलाम फेरे फिर पहला गिरोह आये और तीन रकअत बिना किरअत के पढ़े फिर दूसरा गिरोह आये और तीन पढ़े, पहली में फ़ातिहा व सूरत पढ़े और अगर इमाम मुसाफ़िर है और मुक़तदी बाज़ मुक़ीम हैं और बाज़ मुसाफ़िर तो मुक़ीम, मुक़ीम के तरीके पर अमल करें और मुसाफ़िर मुसाफ़िर के।

▣ ➟  एक रकअत के बाद दुश्मन के मुक़ाबिले जाने से मुराद पैदल जाना है सवारी पर जायेंगे तो नमाज़ जाती रहेगी।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा फ़र्ज़े किफ़ाया है कि एक ने भी पढ़ ली तो सब ज़िम्मे से बरी हो गये वरना जिस जिस को खबर पहुँची थी और ना पढ़ी गुनाहगार हुआ।
इसकी फ़र्ज़िय्यत का जो इंकार करे काफ़िर है।

▣ ➟  इसके लिये जमाअत शर्त नहीं, एक शख्स भी पढ़ ले फ़र्ज़ अदा हो गया।

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा वाजिब होने के लिये वही शराइत हैं जो और नमाज़ों के लिये हैं यानी :

(1) क़ादिर होना।
(2) बालिग़ होना।
(3) आकिल होना।
(4) मुसलमान होना, एक बात इस में ज़्यादा है यानी उस की मौत की खबर होना।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा में दो तरह की शर्तें हैं, एक पढ़ने वाले के मुतल्लिक़ दूसरी मय्यित के मुतल्लिक़ पढ़ने वाले के लिये तो वही शर्तें हैं जो नमाज़ के लिये हैं यानी :

(1) पढ़ने वाले का नजासत से पाक होना और उस के कपड़े और जगह का पाक होना।
(2) सित्रे औरत।
(3) किब्ला को मुँह होना।
(4) निय्यत, इस में वक़्त शर्त नहीं और तकबीरे तहरीमा रुक्न है शर्त नहीं जैसा पहले ज़िक्र हुआ।

बाज़ लोग जूता पहने और बहुत लोग जूते पर खड़े हो कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ते हैं।
अगर जूता पहने पढ़ी तो जूता और उसके नीचे की ज़मीन दोनों का पाक होना ज़रूरी है, बा क़द्रे माने नजासत होगी तो उसकी नमाज़ ना होगी और जूते पर खड़े हो कर पढ़ी तो जूते का पाक होना ज़रूरी है।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  जनाज़ा तैयार है जानता है कि वुज़ू या ग़ुस्ल करेगा तो नमाज़ हो जायेगी तो तयम्मुम कर के पढ़े, इसकी तफ़सील तयम्मुम के बाब में मज़कूर है।

▣ ➟  इमाम ताहिर ना था तो नमाज़ फिर पढ़ें अगर्चे मुक़तदी ताहिर हों कि जब इमाम की ना हुयी किसी की ना हुयी और अगर इमाम ताहिर था और मुक़तदी बिला तहारत तो दोहरायी ना जाये कि अगर्चे मुक्तदियों की ना हुयी पर इमाम की तो हो गयी।

▣ ➟  यूँ ही अगर औरत ने नमाज़ पढ़ाई और मर्दों ने उस की इक़्तिदा की तो लौटायी ना जाये कि अगर्चे मर्दों की इक़्तिदा सहीह ना हुई मगर औरत की नमाज़ तो हो गयी, वही काफी है और नमाज़े जनाज़ा की तकरार जाइज़ नहीं।

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा सवारी पर पढ़ी तो ना हुई, इमाम का बालिग़ होना शर्त है ख़्वाह इमाम मर्द हो या औरत, नाबालिग ने नमाज़ पढ़ाई तो ना हुयी।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा में मय्यित से ताल्लुक़ रखने वाली चंद शर्तें :

▣ ➟  (1) मय्यित का मुसलमान होना : मय्यित से मुराद वो है जो ज़िन्दा पैदा हुआ फिर मर गया, तो अगर मुर्दा पैदा हुआ बल्कि अगर आधे से कम बाहर निकला उस वक़्त ज़िन्दा था और अक्सर बाहर निकलने से पेश्तर मर गया तो उसकी भी नमाज़े जनाज़ा ना पढ़ी जाये और तफ़सील बयान की जायेगी।

▣ ➟  छोटे बच्चे के माँ बाप दोनों मुसलमान हों या कोई एक तो वो बच्चा मुसलमान है उसकी नमाज़ पढ़ी जाये और दोनों काफ़िर हैं तो नहीं।
मुसलमान की नमाज़ पढ़ी जाये अगर्चे वो कैसा ही गुनाहगार व कबाइर का मुरतकिब हो मगर चंद किस्म के लोग हैं उनकी नमाज़ नहीं।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  वो लोग जिनकी नमाज़े जनाज़ा नहीं पढ़ी जायेगी :

▣ ➟  (1) बागी जो इमामे बरहक़ पर नाहक़ खुरूज करे और उसी बगावत में मारा जाये।

▣ ➟  (2) डाकू कि डाके में मारा गया, ना उस को ग़ुस्ल दिया जाये और ना नमाज़ पढ़ी जाये मगर जबकि बादशाहे इस्लाम ने उन पर क़ाबू पाया और फिर क़त्ल किया तो ग़ुस्ल व नमाज़ है और अगर वो ना पकड़े गये या ऐसे ही मर गये तो भी नमाज़ व ग़ुस्ल है।

▣ ➟  (3) जो लोग नाहक़ पास्दारी से लड़ें बल्कि जो उनका तमाशा देख रहे थे और पत्थर आ कर लगा और मर गया तो उनकी भी नमाज़ नहीं, हॉं उनके अलग-अलग हो जाने के बाद मरे तो नमाज़ पढ़ी जायेगी।

▣ ➟  (4) जिस ने कई शख्स गला घोंट कर मार डाले।

▣ ➟  (5) शहर में रात को हथियार ले कर लूट मार करें वो भी डाकू हैं, इस हालत में मारे जायें तो उनकी भी नमाज़ ना पढ़ें।

▣ ➟  (6) जिसने अपने माँ बाप को मार डाला, उस की भी नमाज़ नहीं।

▣ ➟  (7) जो किसी का माल छीन रहा था और इस हालत में मारा गया, उसकी भी नमाज़ नहीं।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  जिसने खुद खुशी की हालाँकि ये बहुत बड़ा गुनाह है मगर उस के जनाज़े की नमाज़ पढ़ी जायेगी अगर्चे जान बूझ कर खुदखुशी की हो।

▣ ➟  जो शख्स रजम किया गया या किसास में मारा गया उसे भी ग़ुस्ल देंगे और नमाज़ पढ़ेंगे।

▣ ➟  शर्त (2) : 
मय्यित के बदन व कफन का पाक होना।

▣ ➟  बदन पाक होने का ये मतलब है कि उसे ग़ुस्ल दिया गया हो या ग़ुस्ल ना मुम्किन होने की सूरत में उसे तयम्मुम करवाया गया हो और कफन पहनाने से पेश्तर उसके जिस्म से नजासत निकली तो धो डाली जाये और बाद में खारिज हुई तो धोने की हाजत नहीं और कफन पाक होने का या मतलब है कि पाक कफ़न पहनाया जाये और बाद में अगर नजासत खारिज हुयी और कफ़न आलूदा हुआ तो हर्ज नहीं।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  बगैर गुस्ल नमाज़ पढ़ी गयी ना हुयी, उसे गुस्ल दे कर फिर पढ़ें और अगर क़ब्र में रख चुके मगर मिट्टी अभी नही डाली गयी तो क़ब्र से निकालें और गुस्ल दे कर नमाज़ पढ़ें और मिट्टी दे चुके तो अब नहीं निकाल सकते लिहाज़ा अब उसकी क़ब्र पे नमाज़ पढ़ें क्यूँकी पहले जो नमाज़ पढ़ी थी वो ना हुयी थी की बगैर गुस्ल के हुयी थी और अब चूँकि गुस्ल नामुमकिन है लिहाज़ा अब हो जायेगी।

▣ ➟  शर्त (3) :
जनाज़ा का वाहन मौजूद होना यानी कुल (पूरा जिस्म) या अक्सर या निस्फ़ मा सर (आधा जिस्म सर के साथ) मौजूद होना लिहाज़ा गायिब की नमाज़ नहीं हो सकती।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟ शर्त (4) : जनाज़ा ज़मीन पर रखा होना चाहिये या हाथ पर हो मगर क़रीब हो, अगर जानवर वगैरा पर लदा हुआ हो तो नमाज़ ना होगी।

▣ ➟ शर्त (5) : जनाज़ा नमाज़ी के आगे क़िब्ला को होना चाहिये, अगर पीछे होगा तो नमाज़ ना होगी।

▣ ➟  अगर जनाज़ा उल्टा रखा यानी इमाम के दाहिने मय्यित का क़दम हो तो नमाज़ हो जायेगी मगर जान बूझ कर ऐसा किया तो गुनाहगार हुआ।

▣ ➟  अगर क़िब्ला के जानने में गलती हुयी यानी मय्यित को अपने ख्याल से क़िब्ला ही को रखा था मगर हक़ीक़तन क़िब्ला को नहीं तो मौज़ा -ए- तहर्री में अगर तहर्री (क़िब्ला का अंदाज़ा लगना) की तो नमाज़ हो गयी वरना नहीं।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟   शर्त (6) : मय्यित का वो हिस्सा जिस का छुपाना फर्ज़ है छुपा होना

▣ ➟   शर्त (7) : मय्यित ईमान के महाज़ी हो यानी अगर एक मय्यित है तो उस का कोइ हिस्सा बदने इमाम के महाज़ी हो और एक से ज़्यादा मय्यित हो तो किसी एक का हिस्सा बदने इमाम के महाज़ी होना काफी है।

▣ ➟   नमाज़े जनाज़ा में 2 रुक्न हैं :

(1) चार बार अल्लाहु अकबर कहना
(2) क़ियाम (खड़ा होना)

▣ ➟   यानी बगैर उज्र बैठ कर या सवारी पर नमाज़े जनाज़ा पढ़ी, ना हुयी और अगर वली या इमाम बीमार था उसने बैठ कर पढ़ाई और मुक़्तदियों ने खड़े हो कर पढ़ी हो गयी।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :
नमाज़े जनाज़ा में तीन चीजें सुन्नते मुअक्किदा हैं :

(1) अल्लाह त'आला की हम्दो सना।
(2) नबी सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम पर दुरूद।
(3) मय्यित के लिये दुआ।

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का तरीका ये है कि कान तक हाथ उठाकर अल्लाहु अकबर कहता हुआ हाथ नीचे लाये और नाफ़ के नीचे हस्बे दस्तूर बाँध ले और सना पढ़े यानी 

سُبْحٰنَکَ اللّٰھُمَّ وَبِحَمْدِکَ وَتَبَارَکَ اسْمُکَ وَتَعَالٰی جَدُّکَ وَجَلَّ ثَنَاؤُکَ وَلَا اِلٰـہَ غَیْرُکَ

▣ ➟  फिर बग़ैर हाथ उठाये अल्लाहु अकबर कहे और दुरूद शरीफ़ पढ़े, बेहतर वो दुरूद है जो नमाज़ में पढ़ा जाता है और कोई दूसरा पढ़ा जब भी हर्ज नहीं फिर अल्लाहु अकबर कहकर अपने और मय्यित और तमाम मुमिनीन व मूमिनात के लिये दुआ करे और बेहतर ये कि वो दुआ पढ़े जो अहादीस में वारिद हैं और मशहूर दुआयें अगर अच्छी तरह ना पढ़ सके तो जो दुआ चाहे पढ़े, मगर वो दुआ ऐसी हो कि उमूरे आख़िरत से मुताल्लिक़ हो।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

बाज़ मशहूर दुआयें ये हैं :

ब्रेकेट में (ھا) मुअन्नस के लिये

(1) اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلِحَیِّنَا وَمَیِّتِنَا وَشَاھِدِنَا وَغَائِبِنَا وَصَغِیْرِنَا وَکَبِیْرِنَا وَذَکَرِنَا وَاُنْثَانَا اَللّٰھُمَّ مَنْ اَحْیَیْتَہٗ مِنَّا فَاَحْیِہٖ عَلَی الْاِسْلَامِ وَمَنْ تَوَفَّیْتَہٗ مِنَّا فَتَوَفَّہٗ عَلَی الْاِیْمَانِ اَللّٰھُمَّ لَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ (ھا) وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ (ھا)

(2) اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلَہٗ (لَھَا) وَارْحَمْہٗ (ھَا) وَعَافِہٖ (ھا) وَاعْفُ عَنْہُ  (ھَا) وَاَکْرِمْ نُزُلَہٗ (ھَا) وَوَسِّعْ مُدْخَلَہٗ (ھَا) وَاغْسِلْہُ (ھَا) بِالْمَاءِ وَالثَّلْجِ وَالْبَرَدِوَنَقِّہٖ (ھَا) مِنَ الْخَطَایَا کَمَا نَقَّیْتَ الثَّوْبَ الْاَبْیَضَ مِنَ الدَّنَسِ وَاَبْدِلْہُ (ھَا) دَارًا خَیْرًا مِّنْ دَارِہٖ (ھَا) وَاَھْلاً خَیْرًا مِّنْ اَھْلِہٖ (ھَا)  وَزَوْجًا خَیْرًا مِّنْ زَوْجِہٖ وَاَدْخِلْہُ (ھَا) اَلْجَنَّۃَ وَاَعِذْہٗ (ھَا) مِنْ عَذَابِ الْقَبْرِ وَمِنْ فِتْنَۃِ الْقَبْرِ وَعَذَابِ النَّارِ ۔

(3) اَللّٰھُمَّ عَبْدُکَ (اَمَتَکَ) وَابْنُ (بِنْتُ) اَمَتِکَ یَشْھَدُ (تَشْھَدُ) اَنْ لَّا اِلٰہَ اِلَّا اَنتَ َ وَحْدَکَ لَا شَرِیْکَ لَکَ وَ یَشْھَدُ (تَشْھَدُ) اَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُکَ وَرَسُوْلُکَ اَصْبَحَ فَقِیْرًا (اَصْبَحَتْ فَقِیْرَۃً ) اِلٰی رَحْمَتِکَ وَاَصْبَحْتَ غَنِیًّا عَنْ عَذَابِہٖ (ھَا) تَخَلّٰی (تَخَلَّتْ) مِنَ الدُّنْیَا وَاَھْلِھَا اِنْ کَانَ (کَانَتْ) زَاکِیًا (زَکِیَۃً) فَزِکِّہٖ (ھَا) وَاِنْ کَانَ (کَانَتْ) مُخْطِئًا  (مُخْطِئَۃً) فَاغْفِرْلَـہٗ (ھَا) اَللّٰھُمَّ لَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ (ھَا) وَلَا تُضِلَّنَا بَعْدَہٗ (ھَا)

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान : 

बाज़ मशहूर दुआएँ ये हैं : 

ब्रेकेट में (ھا) मोअन्नस के लिये : 

(4)  اَللّٰھُمَّ ھَذَا  ( ھٰذِہٖ )  عَبْدُکَ ابْنُ  ( اَمَتُکَ بِنْتُ )  عَبْدِکَ ابْنُ  ( بِنْتُ )  اَمَتِکَ مَاضٍ فِیْہِ  ( ھَا )  حُکْمُکَ خَلَقْتَہٗ  ( ھَا )  وَلَمْ یَکُ  ( تَکُ ھِیَ )  شَیْئًا مَذْکُوْرًا     ط   نَزَلَ  ( نَزَلَتْ )  بِکَ وَاَنْتَ خَیْرُ مَنْزُولٍ بَہٖ اَللّٰہُمَّ لَقِّنْہُ  ( ھَا )  حُجَّتَہٗ  ( ھَا )  وَاَلْحِقْہُ  ( ھا )  بِنَبِیِّہٖ  ( ھَا ) مُحَمَّدٍ صَلَّی اللہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَط وَثَبِّتْہُ  ( ھَا )  بِالْقَوْلِ الثَّابِتِ فاِنَّہٗ  ( ھَا )  اِفْتَقَرَ  ( اِفْتَقَرَتْ )  اِلَیْکَ وَاسْتَغْنَیْتَ عَنْہُ  ( ھَا )  کَانَ  ( کَانَتْ )  یَشْھَدُ  ( تَشْھَدُ )  اَنْ لَّا اِلٰـہَ اِلَّا اللہ فَاغْفِرْلَہٗ  ( لَھَا )  وَارْحَمْہُ  ( ھَا )  وَلَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ  ( ھَا )  وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ  ( ھَا )  ط   اَللّٰھُمَّ اِنْ کَانَ  ( کَانَتْ )  زَاکِیَّا  ( زَاکِیَّۃً )  فَزَکِّہٖ  ( ھَا )  وَاِنْ کَانَ  ( کَانَتْ )  خَاطِئًا  ( خَاطِئَۃً )  فَاغْفِرْ لَـہٗ  ( ھَا )   

(5) اَللّٰھُمَّ عَبْدُکَ  ( اَمَتُکَ )  وَابْنُ  ( بِنْتُ )  اَمَتِکَ اِحْتَاجَ  ( جَتْ )  اِلٰی رَحْمَتِکَ وَاَنْتَ غَنِیٌّ عَنْ عَذَابِہٖ  ( ھَا )  اِنْ کَانَ  ( کانَتْ )  مُحْسِنًا  ( مُحْسِنَۃً )  فَزِدْ فِیْ اِحْسَانِہٖ  ( ھَا )  وَاِنْ کَانَ  ( کَانَتْ )  مُسِیْئًا  ( مُسِیْئَۃً )  فَتَجَاوَزْ عَنْہُ  ( ھَا )   ۔   (2) 

(6)  اَللّٰھُمَّ عَبْدُکَ  ( اَمَتُکَ )  وَابْنُ  ( بِنْتُ )  عَبْدِکَ کَانَ  ( کَانَتْ )  یَشْھَدُ  ( تَشْھَدُ )  اَنْ لَّا اِلٰـہَ اِلَّا اللہ وَاَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُکَ وَرَسُوْلُکَ صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَ   ط   وَاَنْتَ اَعْلَمُ بہٖ  ( ھَا )  مِنَّا اِنْ کَانَ  ( کَانَتْ )  مُحْسِنًا  ( مُحْسِنَۃً )  فَزِدْ فِیْ اِحْسَانِہٖ  ( ھَا )  وَاِنْ کَانَ  ( کَانَتْ )  مُسِیْئًا  ( مُسِیْئَۃً )  فَاغْفِرْ لَـہٗ  ( ھَا )  وَلَا تَحْرِمْنَآ اَجْرَہٗ  ( ھَا )  وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ  ( ھَا )۔(3) 

(देखीये बहार -ए- शरीअत) 

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान : 

बाज़ मशहूर दुआएँ ये हैं : 

ब्रेकेट में (ھا) मोअन्नस के लिये : 

(7)  اَصْبَحَ  ( اَصْبَحَتْ )  عَبْدُکَ  ( اَمَتُکَ )  ھَذٰا  ( ہٰذِہٖ )  قَدْ تَخَلّٰی  ( تَخَلَّتْ )  عَنِ الدُّنْیَا وَتَرَکَھَا  ( تَرَکَتْھَا )  لِاَھْلِھَا وَافْتَقَرَ  ( افْتَقَرَتْ )  اِلَیْکَ وَاسْتَغْنَیْتَ عَنْہُ  ( ھَا )  وَقَد کَانَ  ( کَانَتْ )  یَشْھَدُ  ( تَشْھَدُ )  اَنْ لَّا اِلٰـہَ اِلَّا اللہ وَاَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُکَ وَرَسُوْلُکَ صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَ   ط   اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلَہٗ  ( ھَا )  وَتَجَاوَزْ عَنْہُ  ( ھَا )  وَاَلْحِقْہُ  ( ھَا )  بِنَبِیِّہٖ  ( ھَا )  صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمْ  ۔   (1) 

(8)  اَللّٰھُمَّ اَنْتَ رَبُّھَا وَاَنْتَ خَلَقْتَھَا وَاَنْتَ ھَدَیْتَھَا لِلْاِسْلَامِ   ط   وَاَنْتَ قَبَضْتَ رُوْحَھَا وَاَنْتَ اَعْلَمُ بِسِرِّھَا وَعَلَا نِیَّتِھَا جِئْنَا شُفَعَاءَ فَاغْفِرْلَھَا  ۔   (2) 

(9)  اَللّٰھُمَّ اغْفِرْ لِاِخْوَانِنَا وَاَخَوَاتِنَا وَاَصْلِحْ ذَاتَ بَیْنِنَا وَاَلِّفْ بَیْنَ قُلُوْبِنَا اَللّٰھُمَّ ھٰذَا  ( ھٰذِہٖ )  عَبْدُکَ  ( اَمَتُکَ )  فُـلَانُ بْنُ فُـلَانٍ وَلَا نَعْلَمُ اِلَّا خَیْرًا وَّاَنْتَ اَعْلَمُ بِہٖ  ( بِھَا )  مِنَّا فَاغْفِرْلَنَا وَلَہٗ  ( لَھَا )   ۔   (3) 

(10)   اَللّٰھُمَّ اِنَّ فُـلَانَ بْنَ فُـلَانٍ  ( فُـلَانَہُ بِنْتَ فُـلَانٍ )  فِیْ ذِمَّتِکَ وَحَبْلِ جَوَارِکَ فَقِہٖ  ( ھَا )  مِنْ  فِتْنَۃِ الْقَبْرِ وَعَذَابِ النَّارِ وَاَنْتَ اَھلُ الْوَفَاءِ وَالْحَمْدِ  ط     اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلَہٗ  ( ھَا )  وَارْحَمْہٗ  ( ھَا )  اِنَّکَ اَنْتَ   الْغَفُوْرُ الرَّحِیْمُ  ط    ۔ 

(देखीये बहार -ए- शरीअत) 

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान : 

बाज़ मशहूर दुआएँ ये हैं : 

ब्रेकेट में (ھا) मोअन्नस के लिये : 

(11) اَللّٰھُمَّ اَجِرْھَا مِنَ الشَّیْطَانِ وَعَذَابِ الْقَبْرِ  ط   اَللّٰھُمَّ جَافِ الْاَرْضَ عَنْ جَنْبَیْھَا وَصَعِّدْ رُوْحَھَا وَلَقِّھَا مِنْکَ رِضْوَانًا   ط    ۔   

(12) اَللّٰھُمَّ اِنَّکَ خَلَقْتَنَا وَنَحْنُ عِبَادُکَ   ط   اَنْتَ رَبُّنَا وَ اِلَیْکَ مَعَادُنَا  ۔   (3) 

(13) اَللّٰھُمَّ اغْفِرْ لِاَوَّلِنَا واٰخِرِنَا وَحَیِّنَا وَمَیِّتِنَا وَذَکَرِنَا وَاُنْثَانَا وَصَغِیْرِنَا وَکَبِیْرِنَا وَشَاھِدِنَا وَغَائِبِنَا اَللّٰھُمَّ لَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ  ( ھَا )  وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ  ( ھَا )   ۔   (4) 

(14) اَللّٰھُمَّ یَا اَرْحَمَ الرَّاحِمِیْنَ یَا اَرْحَمَ الرَّاحِمِیْنَ یَا اَرْحَمَ الرَّاحِمِیْنَ یَا حَیُّ یَا قَیُّوْمُ یَا بَدِیْعَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ یَا ذَاالْجَلَالِ وَالْاِکْرَامِ اِنِّیْ اَسْئَالُکَ بِاَنِّیْ اَشْھَدُ اَنَّکَ اَنْتَ اللہ الْاَحَدُ الصَّمَدُ الَّذِی لَمْ یَلِدْ وَلَمْ یُوْلَدْ وَلَمْ یَکُنْ لَّہٗ کُفُوًا اَحَدٌ  o  اَللّٰھُمَّ اِنِّیْ اَسْئَلُکَ وَاَتَوَجَّہُ اِلَیْکَ بِنَبِیِّکَ مُحَمَّدٍ نَّبِیِّ الرَّحْمَۃِ  ط   صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَ  ط   اَللّٰھُمَّ اِنَّ الْکَرِیْمَ اِذَا اَمَرَ بِالْسُّئَوالِ لَمْ یَرُدَّہٗ اَبَدًا وَّقَدْ اَمَرْتَنَا فَدَعَوْنَا وَاَذِنْتَ لَنَا فَشَفَعْنَا وَاَنْتَ اَکْرَمُ الْاَکْرَمِیْنَط فَشَفِّعْنَا فِیْہِ  ( ھَا )  وَارْحَمْہُ  ( ھَا )  فِیْ وَحْدَتِہٖ  ( ھَا )  وَارْحَمْہُ  ( ھَا )  فِیْ وَحْشَتِہٖ  ( ھَا )  وَارْحَمْہُ  ( ھَا )  فِیْ غُرْبَتِہٖ  ( ھَا )  وَارْحَمْہُ  ( ھَا )  فِیْ کُرْبَتِہٖ  ( ھَا )  وَاعْظِمْ لَـہٗ  ( لَھَا )  اَجْرَہٗ  ( ھَا )  وَنَوِّرْ لَـہٗ  ( ھَا )  قَبْرَہٗ  ( ھاَ )  وَبَیِّضْ لَـہٗ  ( لَھَا )  وَجْھَہٗ  ( ھَا )  وَبَرِّدْلَـہٗ  ( ھَا )  مَضْجَعَہٗ  ( ھَا )  وَعَطِّرْلَـہٗ  ( ھَا )  مَنْزِلَـہٗ  ( ھَا )  وَاَکْرِمْ لَـہٗ  ( ھَا )  نُزُلَہُ  ( ھَا )  یَا خَیْرَ الْمُنْزِلِیْنَ  ج   وَ یَاخَیْرَ الْغَافِرِیْنَ وَ یَا خَیْرَ الرَّاحِمِیْنَج اٰمِیْنَ اٰمِیْنَ اٰمِیْنَ صَلِّ وَسَلِّمْ وَبَارِکْ عَلٰی سَیِّدِ الشَّافِعِیْنَ مُحَمَّدٍ وَّاٰلِـہٖ وَصَحْبِہٖ اَجْمَعِیْنَ ط وَالْحَمْدُ للہ رَبِّ الْعَالَمِیْنَ  o (1) 

(देखीये बहार -ए- शरीअत) 

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❝ नहमदोहू-व-नुसल्ली अला रसुलेहिल करीम ❞ 
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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान : 

▣ ➟  फाइदा : नवी और दसवी दुआओ में अगर मय्यित के बाप का नाम मालूम ना हो तो उसकी जगह आदम अलैहिस्सलाम कहे कि वो सब आदमियो के बाप हैं और अगर खुद मय्यित का नाम भी मालूम ना हो तो नवी दुआ में
ھٰذَا عَبْدُکَ یا ھٰذِہٖ اَمَتُکَ
पर क़नाअत करें, फुलां बिन फुलां या बिन्त को छोड़ दे और दसवी में उसकी जगह
عَبْدُکَ ھٰذَا 
या औरत हो तो
اَمَتُکَ ھٰذِہٖ 

फाइदा : मय्यित का फिस्क़ो फुज़ूर मालूम हो तो नवी दुआ में
لَا نَعْلَمُ اِلَّا خَیْرًا
की जगह
قَدْ عَلِمْنَا مِنْہُ خَیْرًا 
कहे कि इस्लाम हर खैर से बहतर खैर है।

▣ ➟  फाइदा : इन दुआओ में बाज़ मज़ामीन मुक़र्रर हैं और दुआ में तकरार मुस्तहसन, अगर सब दुआएँ याद हो और वक़्त में गुंजाईश हो तो सब का पढ़ना ऊला वरना जो चाहे पढ़े और इमाम जितनी देर में ये दुआएँ पढ़े अगर मुक़्तदी को याद ना हो तो पहली दुआ के बाद आमीन आमीन कहता रहे। 

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान : 

▣ ➟  मय्यित मज्नून या नाबालिग हो तो तीसरी तक्बीर के बाद ये दुआ पढ़े : 

اَللّٰھُمَّ اجْعَلْہُ لَنَا فَرَطًا وَّاجْعَلْہُ لَنَا ذُخْرًا وَّاجْعَلْہُ لَنَا شَافِعًا وَّمُشَفَّعًا 

और लड़की हो तो ये कहे : 

اجْعَلْھَا  اور  شَافِعَۃً وَّمُشَفَّعَۃً 

▣ ➟  मज्नून से मुराद मज्नून है की बालिग होने से पहले मज्नून हुआ की वो कभी मुकल्लफ़ ही ना हुआ और अगर जुनून आरज़ी है तो उसकी मग्फिरत की दुआ की जाये, जैसे औरो के लिये की जाती है की जुनून से पहले तो वो मुकल्लफ़ था और जुनून के पेश्तर के गुनाह जुनून से नही जायेंगे। 

(देखीये बहार -ए- शरीअत) 

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान : 

▣ ➟  चौथी तक्बीर के बाद बगैर कोई दुआ पढ़े हाथ खोल कर सलाम फेर दे।
सलाम में मय्यित और फिरिश्तो और हाज़िरीने नमाज़ की निय्यत करे उसी तरह जैसे और नमाज़ो के सलाम में निय्यत की जाती है यहाँ इतनी बात ज़्यादा है कि मय्यित की भी निय्यत करे। 

▣ ➟  तक्बीर व सलाम को इमाम जहर (बुलंद आवाज़) के साथ कहे बाक़ी तमाम दुआएँ आहिश्ता पढ़ी जायें सिर्फ़ पहली मरतबा अल्लाहु अकबर कहने के वक़्त हाथ उठाये जायेंं फिर हाथ उठाना नहीं। 

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा में क़ुरआन बा निय्यते क़ुरआन या तशह्हूद पढ़ना मना है और बा निय्यते दुआ व सना अल्हम्द वग़ैरह आयाते दुआइया व सनाइया पढ़ना जाइज़ है। 

(देखिये बहारे शरीअत) 

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  बेहतर ये है कि नमाज़े जनाज़ा में तीन सफें करें कि हदीस में है : जिस की नमाज़ तीन सफ़ो ने पढ़ी उसकी मग्फिरत हो जायेगी।

▣ ➟  और अगर कुल सात ही लोग हो तो एक इमाम हो और तीन पहली सफ़ में और दो दूसरी सफ़ में और एक तीसरी सफ़ में।

▣ ➟  जनाज़ा में पिछ्ली सफ़ को तमाम सफ़ो पर फज़ीलत है।

नमाज़े जनाज़ा कौन पढ़ाये :

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा में इमामत का हक़ बादशाहे इस्लाम को है फिर क़ाज़ी, फिर इमामे जुमुअह, फिर इमामे मुहल्ला, फिर वली को, इमामे मुहल्ला का वली पर तक़द्दुम इस्तिहबाब है और ये भी उस वक़्त के वली से अफ्ज़ल हो वरना वली बेहतर है।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा कौन पढ़ाये :

▣ ➟  वली से मुराद मय्यित के असाबा हैं (यानी बाप की तरफ़ से रिश्तेदार जिनका विरासत पे हक़ होता है) और नमाज़ पढ़ाने में औलिया की वही तरतीब है जो निकाह में है सिर्फ़ फर्क़ इतना है कि नमाज़े जनाज़ा में मय्यित के बाप को बेटे पर तक़द्दुम है और निकाह में बेटे को बाप पर अलबत्ता बाप आलिम नहीं और बेटा आलिम है तो नमाज़े जनाज़ा में बेटा मुक़द्दम है, अगर असाबा ना हो तो ज़वील इरहाम गैरो पर मुक़द्दम हैं।

▣ ➟  मय्यित का वली -ए- अक़राब (सबसे ज़्यादा नज़दीक का रिश्तेदार गायिब है और दूर का रिश्तेदार (वली) हाज़िर है तो यही दूर वाला नमाज़ पढ़ाये, गायिब होने से मुराद ये है कि इतनी दूर है कि उसके आने के इंतज़ार में हर्ज हो।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा कौन पढ़ाये :

▣ ➟  औरत का कोई वली ना हो तो शौहर नमाज़ पढ़ाये, वो भी ना हो तो पड़ोसी यूँ ही मर्द का वली ना हो तो पड़ोसी औरों पर मुक़द्दम है।

▣ ➟  औरतो और बच्चो को नमाज़े जनाज़ा की विलायत नहीं।

▣ ➟  वली और बादशाहे इस्लाम को इख्तेयार है कि किसी और को नमाज़े जनाज़ा पढ़ाने की इजाज़त दे दे।

▣ ➟  मय्यित ने वसिय्यत की थी कि मेरी नमाज़ फुलां पढ़ाये या मुझे फुलां शख्स गुस्ल दे तो ये वसिय्यत बातिल है यानी इस वसिय्यत से वली का हक़ जाता ना रहेगा, हाँ वली को इख्तेयार है कि खुद ना पढ़ाये, उसे पढ़वा दे।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा कौन पढ़ाये :

▣ ➟  औरत मर गयी, शौहर और जवान बेटा छोड़ा तो विलायत बेटे को है शौहर को नहीं, अलबत्ता ये लड़का अगर उसी शौहर से है तो बाप पर पेश क़दमी मकरूह है, उसे चाहिये कि बाप से पढ़वाये और अगर दूसरे शौहर से है तो सौतेले बाप पर तक़द्दुम कर सकता है कोई हर्ज नहीं और बेटा बालिग़ ना हो तो औरत के जो और वली हों उनका हक़ है शौहर का नहीं।

▣ ➟  दो या चंद शख्स एक दर्जे के वली हों तो ज़्यादा हक़ उस का है जो उम्र में बड़ा है मगर किसी को ये इख़्तियार नहीं कि दूसरे वली के सिवा किसी और से बग़ैर उसकी इजाज़त के पढ़वा दे और अगर ऐसा किया यानी खुद ना पढ़ाई और और किसी को इजाज़त दे दी तो दूसरे वली को मना का इख़्तियार है, अगर्चे ये दूसरा वली उम्र में छोटा हो और अगर एक वली ने एक शख्स को इजाज़त दी, दूसरे ने दूसरे को तो जिसको बड़े ने इजाज़त दी वो औला है।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा कौन पढ़ाये :

▣ ➟  मय्यित ने वसिय्यत की थी कि मेरी नमाज़ फुलां पढ़ाये या मुझे फुलां शख्स ग़ुस्ल दे तो ये वसिय्यत बातिल है यानी इस वसिय्यत से वली का हक़ नहीं जायेगा, हाँ वली को इख़्तियार है कि खुद ना पढ़ाये उस से पढ़वा दे।

▣ ➟  वली के सिवा किसी ऐसे ने नमाज़ पढ़ायी जो वली से मुक़द्दम ना हो और वली ने उसे इजाज़त भी ना दी थी तो अगर वली नमाज़ में शरीक ना हुआ तो नमाज़ को दोहराया जा सकता है और अगर मुर्दा दफ्न हो गया है तो क़ब्र पे नमाज़ पढ़ सकता है और अगर वो वली पर मुक़द्दम है जैसे बादशाह व क़ाज़ी व इमामे मुहल्ला कि वली से अफ़ज़ल हो तो अब नमाज़ का इआदा नहीं कर सकता और अगर एक वली ने नमाज़ पढ़ा दी तो दूसरे औलिया इआदा नहीं कर सकते और हर सूरते इआदा में जो शख्स पहली नमाज़ में शामिल ना था वो वली के साथ पढ़ सकता है और जो शख्स शरीक था वो वली के साथ नहीं पढ़ सकता है कि जनाज़ा की दो मर्तबा नमाज़ नाजाइज़ है सिवा इस सूरत के कि ग़ैर वली ने बग़ैर वली की इजाज़त के पढ़ा दी।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  जिन चीज़ों से तमाम नमाज़ें फ़ासिद होती हैं नमाज़े जनाज़ा भी उनसे फ़ासिद हो जाती है सिवाये एक बात के, कि औरत मर्द के महाज़ी हो जाये तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी।

▣ ➟   मुस्तहब ये है कि मय्यित के सीने के सामने इमाम खड़ा हो और मय्यित से दूर ना हो, मय्यित ख्वाह मर्द हो या औरत, बालिग़ हो या नाबालिग़ और ये उस वक़्त है कि एक ही मय्यित की नमाज़ पढ़ाई हो और अगर चंद हों तो एक के सीने से मुक़ाबिल और क़रीब खड़ा हो।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  इमाम ने पाँच तकबीरें कही तो पाँचवी तकबीर में मुक़तदी इमाम की इत्तिबा ना करे बल्कि चुप खड़ा रहे जब इमाम सलाम फेरे तो उसके साथ सलाम फेर दे।

▣ ➟  बाज़ तकबीरें छूट गयी यानी उस वक़्त आया कि बाज़ तकबीरें हो चुकी हैं तो फौरन शामिल ना हो बल्कि उस वक़्त हो जब इमाम तकबीर कहे और अगर फौरन शामिल हो गया, इमाम के तकबीर कहने का इंतिज़ार ना किया तो इमाम के तकबीर से पहले जो कुछ अदा किया उसका ऐतबार नहीं।

▣ ➟  अगर वही मौजूद था मगर तकबीरे तहरीमा के वक़्त इमाम के साथ अल्लाहु अकबर ना कहा ख़्वाह ग़फ़लत की वजह से देर हुई या अब तक निय्यत ही करता रह गया तो ये शख्स इस का इंतिज़ार ना करे कि इमाम दूसरी तकबीर कहे तो उसके साथ शामिल हो बल्कि फौरन ही शामिल हो जाये।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  मस्बूक़ यानी जिस की बाज़ तक्बीरें फौत हो गयी वो अपनी बाक़ी तक्बीरें इमाम के सलाम फेरने के बाद कहे और अगर ये अंदेशा हो कि दुआएँ पढ़ेगा तो पूरी करने से पहले लोग मय्यित को काँधे तक उठा लेंगे तो सिर्फ़ तक्बीरें कह ले, दुआएँ छोड़ दे।

▣ ➟  लाहिक़ यानी जो शुरु में जमा'अत में शामिल हुआ मगर किसी वजह से बीच में की बाज़ तक्बीरें रह गयी मस्लन पहली तक्बीर इमाम के साथ कही मगर दूसरी और तीसरी छूट गयी तो इमाम की चौथी तक्बीर से पेश्तर ये तक्बीरें कह ले।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  चौथी तक्बीर के बाद जो शख्स आया तो जब तक इमाम ने सलाम ना फेरा शामिल हो जाये और इमाम के सलाम के बाद तीन बार अल्लाहु अकबर कह ले।

▣ ➟  कई जनाज़े जमा हो तो एक साथ सब की नमाज़ पढ़ सकता है यानी एक ही नमाज़ में सब की निय्यत कर ले और अफ्ज़ल ये है कि सब अलाहिदा अलाहिदा पढ़े और इस सूरत में यानी जब अलाहिदा अलाहिदा पढ़े तो उन में जो अफ्ज़ल है उसकी पहले पढ़े फिर उसके बाद जो उसके बाद सब से अफ्ज़ल हो फिर इसी तरह आगे।

▣ ➟  अगर चंद जनाज़ो को एक के बाद एक सब इमाम के सामने रखें तो भी जो अफ्ज़ल हो उसको पहले रखा जाये और इख्तियार है कि एक के पाऊँ के बाद एक को फिर दूसरे को रखें यानी सब इमाम के सामने ना हो बल्कि एक हो और बाक़ी उसके सिरहाने और पाऊँ की तरफ़ बराबर बराबर।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  एक जनाज़े की नमाज़ शुरू की थी कि दूसरा आ गया तो पहले की पूरी कर ले और अगर दूसरी तकबीर में दोनों की निय्यत कर ली, जब भी पहले की ही होगी और अगर सिर्फ दूसरे की निय्यत की तो दूसरे की होगी, उस से फ़ारिग़ हो कर पहली की फिर पढ़े।

▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा में इमाम बे वुज़ू हो गया और किसी को अपना ख़लीफ़ा किया तो जाइज़ है।

▣ ➟  मैयित को बिना नमाज़ पढ़े दफ्न कर दिया और मिट्टी भी दे दी गयी तो अब उसकी क़ब्र पर नमाज़ पढ़ें जब तक जिस्म फटने के गुमान ना हो और मिट्टी ना दी गयी तो निकालें और नमाज़ पढ़ कर दफ्न करें और क़ब्र पर नमाज़ पढ़ने में दिनों की कोई तादाद मुक़र्रर नहीं है कि कितने दिनों तक पढ़ी जाये कि ये मय्यित के जिस्म, मौसम और ज़मीन के हिसाब से मुख्तलफ़ है।

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  कुएँ में गिरकर मर गया या उसके ऊपर मकान गिर पड़ा और मुर्दे को निकाला ना जा सका तो उसी जगह उसकी नमाज़ पढ़ें और दरिया में डूब गया और निकाला ना जा सका तो उसकी नमाज़ नहीं हो सकती कि मय्यित का मुसल्ला के आगे होना मालूम नहीं।

▣ ➟  मस्जिद में नमाज़े जनाज़ा मुत्लक़न मकरूहे तहरीमी है ख्वाह मय्यित मस्जिद के अंदर हो या बाहर, सब नमाज़ी मस्जिद में हों या बाज़।
हदीस में नमाज़े जनाज़ा मस्जिद में पढ़ने की मुमानियत आयी है।

▣ ➟  दूसरे की ज़मीन पर नमाज़े जनाज़ा पढ़ना मना है कि ज़मीन का मालिक मना करता हो।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  जुम्आ के दिन किसी का इन्तिक़ाल हुआ तो अगर जुम्आ से पहले तजहीज़ो तकफीन हो सके तो पहले ही कर लें, इस ख्याल से रोक रखना कि जुम्आ के बाद मजमा ज़्यादा होगा मकरूह है।

▣ ➟   नमाज़े मग़रिब के वक़्त जनाज़ा आया तो फ़र्ज़ और सुन्नतें पढ़ कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ें।

▣ ➟  यूँ ही किसी और फ़र्ज़ नमाज़ के वक़्त जनाज़ा आया और जमाअत तैय्यार हो तो फ़र्ज़ व सुन्नत पढ़ कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ें, बशर्ते कि नमाज़े जनाज़ा की ताखीर में जिस्म खराब होने का अंदेशा ना हो।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  मुसलमान मर्द व औरत का बच्चा ज़िन्दा पैदा हुआ यानी अक्सर हिस्सा बाहर होने के वक़्त वो बच्चा ज़िन्दा था फिर मर गया तो उसको ग़ुस्ल व कफ़न देंगे और उसकी नमाज़ पढ़ेंगे वरना उसे वैसे ही नहला कर एक कपड़े में लपेट कर दफ़न कर देंगे।

▣ ➟  उसके लिये ग़ुस्ल व कफ़न बातरीके मस्नून नहीं और नमाज़ भी उसकी नहीं होगी यहाँ तक कि जब उसका सर बाहर हुआ था उस वक़्त चीख़ता था मगर अक्सर हिस्सा निकलने से पेश्तर मर गया तो नमाज़ ना पढ़ी जाये।

▣ ➟  अक्सर की मिक़दार ये है कि सर की जानिब से हो तो सीना तक अक्सर है और पाऊँ की जानिब से हो तो कमर तक।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा का बयान :

▣ ➟  बच्चे की माँ या जनाई ने ज़िन्दा पैदा होने की शहादत दी तो उसकी नमाज़ पढ़ी जाये मगर विरासत के बारे में उनकी गवाही ना मुअतबर है यानी बच्चा अपने बाप फौत शुदा का वारिस नहीं क़रार दिया जायेगा ना बच्चे की वारिश उसकी माँ होगी।

▣ ➟  ये उस वक़्त है कि खुद बाहर निकला और किसी ने हामिला के शिकम पर ज़र्ब लगाई कि बच्चा मरा हुआ बाहर निकला तो वारिस होगा और वारिस बनायेगा।

▣ ➟  बच्चा ज़िन्दा पैदा हुआ या मुर्दा उसकी ख़िलक़त तमाम हो या ना हो बहर हाल उसका नाम रखा जाये और कियामत के दिन उसका हश्र होगा।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  जिस का वुज़ू ना हो या नहाने की ज़रूरत हो और पानी पर कुदरत ना हो तो वुज़ू और ग़ुस्ल की जगह तयम्मुम करे।

▣ ➟  पानी पर कुदरत की चंद सूरतें हैं :

▣ ➟  (1) ऐसी बीमारी हो कि वुज़ू या ग़ुस्ल से उसके ज्यादा होने या देर में अच्छा होने का सहीह अंदेशा हो ख्वाह यूँ कि उस ने खुद आज़माया हो कि जब वुज़ू या ग़ुस्ल करता है तो बीमारी बढ़ती है या यूँ कि किसी मुसलमान अच्छे लायक़ हकीम ने जो जाहिरन फ़ासिक़ ना हो कह दिया हो कि पानी नुक़्सान करेगा।

▣ ➟  महज़ ख्याल ही ख्याल बीमारी बढ़ने का हो तो तयम्मुम जाइज़ नहीं।
यूँ ही काफ़िर या फ़ासिक़ या मामूली तबीब के कहने का ऐतबार नहीं।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  और अगर पानी बीमारी को नुक़्सान नहीं करता मगर वुज़ू या गुस्ल के लिये हरकत नुक़्सान देती तो या खुद वुज़ू नहीं कर सकता और कोई ऐसा भी नहीं जो वुज़ू करा दे तो भी तयम्मूम करे।

▣ ➟  यूँ ही किसी के हाथ फट गये कि खुद वुज़ू नहीं कर सकता और कोई ऐसा भी नहीं जो वुज़ू करा दे तो तयम्मूम करे।

▣ ➟  बे वुज़ू के अक्सर आज़ा -ए- वुज़ू (यानी वो हिस्सा जो वुज़ू में धोया जाता है) या जुनुब (जिस पे गुस्ल फर्ज़ हो उसके) अक्सर बदन में ज़ख्म हो या चेचक निकली हो तो तयम्मूम करे वरना जो हिस्सा उज़्व या बदन का अच्छा हो उसको धोये और ज़ख्म की जगह ब वक़्ते ज़रर इसके आस-पास भी मसह करे और मसह से भी ज़रर हो तो उस पर कपड़ा डाल कर मसह करे।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  बीमारी में अगर ठंडा पानी नुक़्सान करता है और गर्म पानी नुक़्सान ना करे तो गर्म पानी से वुज़ू और गुस्ल ज़रूरी है, तयम्मुम ऐसे में जाइज़ नहीं।

▣ ➟   हाँ अगर ऐसी जगह हो कि गर्म पानी ना मिल सके तो तयम्मुम करे यूँ ही अगर ठंडे वक़्त में वुज़ू अगर या गुस्ल नुक़्सान करता है और गर्म वक़्त में नहीं तो ठंडे वक़्त में तयम्मुम करे और जब गर्म वक़्त आये तो आइन्दा नमाज़ के लिये वुज़ू कर लेना चाहिये और जो नमाज़ इस तयम्मुम से पढ़ ली उसे दोबारा पढ़ने की हाजत नहीं।

▣ ➟   अगर सर पर पानी डालना नुक़्सान करता है तो गले से नहाये और पूरे सर का मसह करे।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  (2) वहाँ चारों तरफ एक एक मील तक पानी का पता नहीं (तो ऐसे में तयम्मुम कर सकते हैं)
इस की तफ़सील बयान की जाती है :

▣ ➟  अगर ये गुमान हो कि एक मील के अंदर पानी होगा तो तलाश कर लेना जरूरी है, ऐसे में बिना तलाश किये तयम्मुम जाइज़ नहीं फिर अगर बिना तलाश किये तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ली और उसके बाद तलाश करने पर पानी मिल गया तो वुज़ू कर के नमाज़ को दोबारा पढ़ना लाज़िम है और अगर ना मिला तो वो जो नमाज़ तयम्मुम से पढ़ी थी वो हो गयी 

▣ ➟  अगर क़रीब में पानी होने और ना होने किसी का गुमान नहीं तो तलाश कर लेना मुस्तहब है यानी बेहतर है पर लाज़िम नहीं और बिना तलाश किये तयम्मुम से पढ़ ली तो नमाज़ हो गयी।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  अगर ग़ालिब गुमान ये है कि मील के अंदर पानी नहीं है तो तलाश करना ज़रूरी नहीं फिर अगर तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ली और ना तलाश किया और ना कोई ऐसा है जिस से पूछे और बाद में मालूम हुआ कि पानी यहाँ से क़रीब है तो नमाज़ को दोहराना ज़रूरी नहीं और ये तयम्मुम अब जाता रहा और अगर वहाँ कोई था जिससे पूछ सकता था पर बिना पूछे नमाज़ पढ़ ली और बाद को मालूम हुआ कि पानी क़रीब है तो नमाज़ को दोहरा लेना चाहिये।

▣ ➟   अगर साथ में ज़म ज़म शरीफ़ है जो लोगों के लिये तबर्रुकन लिये जा रहा है या बीमार को पिलाने के लिये और इतना है कि वुज़ू हो जायेगा तो तयम्मुम जाइज़ नहीं।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  अगर चाहता है कि ज़म-ज़म शरीफ़ से वुज़ू ना करे और तयम्मुम करना जाइज़ हो जाये तो इस का तरीक़ा ये है कि किसी ऐसे शख्स को जिस पे भरोसा हो कि फिर दे देगा वो पानी हिबा कर दे और उस का कुछ बदला ठहरा ले तो अब तयम्मुम जाइज़ हो जायेगा।

▣ ➟  जो ना आबादी में हो ना आबादी के क़रीब और उसके हमराह पानी मौजूद है और उसे याद ना रहा और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ली तो हो गयी और अगर आबादी के करीब में है तो नमाज़ को दोहराये।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  अगर अपने साथी के पास पानी है और ये गुमान है कि माँगने से दे देगा तो माँगने से पहले तयम्मुम जाइज़ नहीं फिर अगर नहीं माँगा और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ली और बाद नमाज़ माँगा और उसने दे दिया या बिना माँगे उसने खुद दे दिया तो वुज़ू कर के नमाज़ को दोहराना लाज़िम है।

▣ ➟  और अगर माँगा और ना दिया तो नमाज़ हो गयी और अगर बाद को भी ना माँगा जिससे देने ना देने का हाल खुलता और ना उसने खुद दिया तो नमाज़ हो गयी और अगर देने का गालिब गुमान नहीं और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ली जब भी यही सूरतें हैं कि बाद को पानी दे दिया तो वुज़ू कर के नमाज़ का ईआदा करे वरना हो गयी।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  नमाज़ पढ़ते में किसी के पास पानी देखा और गुमान ग़ालिब है कि दे देगा तो चाहिये कि नमाज़ तोड़ दे और उस से पानी माँगे और अगर नहीं माँगा और पूरी कर ली और फिर उसने खुद पानी दिया या माँगने पर दिया तो नमाज़ दोहराना लाज़िम है और ना दे तो हो गयी और अगर देने का गुमान ना था और नमाज़ के बाद उसने खुद दे दिया या माँगने से दिया जब भी दोहरा ले।

▣ ➟  और अगर उस ने खुद दिया ना इस ने माँगा कि हाल मालूम होता तो नमाज़ हो गयी और अगर नमाज़ पढ़ते में उस ने खुद कहा कि पानी लो, वुज़ू कर लो और वो कहने वाला मुसलमान है तो नमाज़ जाती रही, तोड़ देना फर्ज़ है और कहने वाला काफ़िर है तो ना तोड़े फिर नमाज़ के बाद अगर उस ने पानी दे दिया तो वुज़ू कर के नमाज़ दोहरा ले।

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟   (3) इतनी सर्दी हो कि नहाने से मर जाये या बीमार होने का क़वी अंदेशा हो और लिहाफ़ वग़ैरा कोई ऐसी चीज़ उसके पास नहीं जिसे नहाने के बाद ओढ़े और सर्दी के ज़रर से बचे, ना आग है जिसे ताप सके तो तयम्मुम जाइज़ है।

▣ ➟   (4) दुश्मन का खौफ़ कि अगर उस ने देख लिया तो मार डालेगा, या माल छीन लेगा या इस ग़रीब नादार का क़र्ज़ ख्वाह है कि इसे क़ैद करा देगा या उस तरफ साँप है कि काट लेगा या शेर है कि फाड़ डालेगा या कोई बदकार शख्स है और ये औरत या अमरद है जिसको अपनी बे आबरूई का गुमाने सहीह है तो तयम्मुम जाइज़ है।

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  कैदी को क़ैद खाना वाले वुज़ू ना करने दें तो तयम्मुम कर के पढ़ ले और इआदा करे और अगर वो दुश्मन या क़ैद खाना वाले नमाज़ भी ना पढ़ने दें तो इशारे से पढ़े फिर दोहरा ले।

▣ ➟  (5) जंगल में डोल रस्सी नहीं कि पानी भरे तो तयम्मुम जाइज़ है।

▣ ➟  अगर हमराही के पास डोल रस्सी है वो कहता है कि ठहर जा मै तुझे पानी भरने से फ़ारिग़ हो कर दूँगा तो मुस्तहब है कि इंतिज़ार करे और अगर इंतिज़ार ना किया और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ली तो हो गई।

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟   (6) प्यास का खौफ यानी उसके पास पानी है मगर वुज़ू या ग़ुस्ल के सर्फ़ में लाये तो खुद या दूसरा मुसलमान या अपना या उस का जानवर अगर्चे वो कुत्ता हो जिसका पालना जाइज़ है प्यासा रह जायेगा और अपनी या उन में किसी की प्यास ख्वाह फिलहाल मौजूद हो या आइंदा इस का सहीह अंदेशा हो कि वो राह ऐसी है कि दूर तक पानी का पता नहीं तो तयम्मुम जाइज़ है।

▣ ➟   पानी मौजूद है मगर आटा गूँधने की ज़रूरत है जब भी तयम्मुम जाइज़ है और शोरबे की ज़रूरत के लिये जाइज़ नहीं।

▣ ➟   पानी मोल मिलता है और उसके पास हाजते ज़रूरिया से ज़्यादा दाम नहीं तो तयम्मुम जाइज़ है।

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  बदन या कपड़ा इस क़द्र नापाक है जिस पे नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं और पानी सिर्फ इतना है कि चाहे वुज़ू करे या उस नापाकी को पाक कर ले, दोनों काम नहीं हो सकते तो पानी से उसको पाक कर ले फिर तयम्मुम करे।

▣ ➟  और अगर पहले तयम्मुम कर लिया उसके बाद पाक किया तो अब फिर तयम्मुम करे कि पहला तयम्मुम ना हुआ।

▣ ➟  मुसाफिर को राह में कहीं रखा हुआ पानी मिला तो अगर कोई वहाँ है तो उस से दरयाफ्त कर ले अगर वो कहे कि सिर्फ पीने के लिये है तो तयम्मुम करे वुज़ू जाइज़ नहीं चाहे कितना ही पानी हो और अगर उसने कहा कि पीने के लिये भी है और वुज़ू के लिये भी तो तयम्मुम जाइज़ नहीं और अगर कोई ऐसा नहीं जो बता सके और पानी थोड़ा हो तो तयम्मुम करे और ज़्यादा हो तो वुज़ू करे।

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  वुज़ू कर के ईदैन की नमाज़ पढ़ रहा था नमाज़ के दरमियान नमाज़ मे बे वुज़ू हो गया और वुज़ू करेगा तो वक़्त जाता रहेगा जमा'अत हो चुकेगी तो तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ले।

▣ ➟  गहन की नमाज़ के लिये भी तयम्मुम जाइज़ है जबकि वुज़ू करने में गहन खुल जाने या जमा'अत हो जाने का अंदेशा हो।

▣ ➟  वुज़ू मे मशगूल हो गया तो ज़ुहर या मगरिब या इशा या चाश्त या जुम्आ की पिछ्ली सुन्नतो का वक़्त जाता रहेगा तो तयम्मुम कर के पढ़े।

▣ ➟  एक जनाज़े के लिये तयम्मुम किया और नमाज़ पढ़ी फिर दूसरा जनाज़ा अगर दरमियान मे इतना वक़्त मिला वुज़ू करे तो नमाज़ हो चुकेगी तो इस के लिये अब दोबारा तयम्मुम करे और अगर इतना वक़्फा ना हो कि वुज़ू कर ले तो वही पहला काफी है।

▣ ➟  सलाम का जवाब देने या दुरूद शरीफ़ वगैरा वो वज़ाइफ पढ़ने या सोने या वुज़ू या कोई मस्जिद मे जाने या ज़ुबानी क़ुरआन पढ़ने के लिये तयम्मुम जाइज़ है अगर्चे पानी पर कुदरत हो।

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  अगर कोई ऐसी जगह है कि ना पानी मिलता है ना पाक मिट्टी कि तयम्मुम करे तो इसे चाहिये कि वक़्ते नमाज़ मे नमाज़ की सी सूरत बनाये यानी तमाम हरकात बिला निय्यत नमाज़ बजा लाये।

▣ ➟  मस'अला : कोई ऐसा है कि वुज़ू करता तो पेशाब के क़तरे टपकते हैं और तयम्मुम करे तो नही तो इसे लाज़िम है की तयम्मुम करे।

▣ ➟  मस'अला: इतना पानी मिला जिस से वुज़ू हो सकता है और इसे नहाने की ज़रूरत है तो इस पानी से वुज़ू कर लेना चाहिये और गुस्ल के लिये तयम्मुम करे।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  वक़्त इतना तंग हो गया कि वुज़ू या ग़ुस्ल करेगा तो नमाज़ क़ज़ा हो जायेगी तो चाहिये कि तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ले फिर वुज़ू या ग़ुस्ल कर के इआदा करना लाज़िम है।

▣ ➟  मसअला : औरत हैज़ व निफ़ास से पाक हो गयी और पानी पर क़ादिर नहीं तो तयम्मुम करे।

▣ ➟  मसअला : मुर्दे को अगर ग़ुस्ल ना दे सके ख्वाह इस वजह से पानी नहीं या इस वजह से कि उस के बदन को हाथ लगाना जाइज़ नहीं जैसे अजनबी औरत या अपनी औरत के मरने के बाद उसे छू नहीं सकता तो उसे तयम्मुम कराया जाये, ग़ैर मेहरम को अगर्चे शौहर हो औरत को तयम्मुम कराने में कपड़ा हाइल होना चाहिये।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  जुनूब और हाइज़ और मय्यित और बे वुज़ू ये सब एक जगह हैं और किसी ने इतना पानी जो ग़ुस्ल के लिये काफ़ी है लाकर कहा कि जो चाहे खर्च करे तो बेहतर ये है कि जुनुब इस से नहाये और मुर्दे को तयम्मुम कराया जाये और दूसरे भी तयम्मुम करें और अगर कहा कि इस में से तुम सब का हिस्सा है और हर एक को इस में इतना हिस्सा मिला जो इस के काम के लिये पूरा नहीं तो चाहिये कि मुर्दे के ग़ुस्ल के लिये अपना अपना हिस्सा दें और सब तयम्मुम करें।

▣ ➟  मसअला : दो शख्स बाप बेटे हैं और किसी ने इतना पानी दिया कि एक का वुज़ू हो सकता है तो वो पानी बाप के सर्फ़ में आना चाहिये।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟ जिस पर नहाना फ़र्ज़ है इसे बग़ैर ज़रूरत मस्जिद में जाने के लिये तयम्मुम जाइज़ नहीं हाँ अगर मजबूरी हो जैसे डोल रस्सी मस्जिद में हो और कोई ऐसा नहीं जो ला दे तो तयम्मुम कर के जाये और मस्जिद से जल्दी ले कर निकल आये।

▣ ➟  मस्जिद में सोया था और नहाने की ज़रूरत हो गयी तो आँख खुलते ही जहाँ सोया था वहीं फौरन तयम्मुम कर के निकल आये ताख़ीर हराम है।

▣ ➟ मसअला : क़ुरआने मजीद छूने के लिये या सजदा -ए- तिलावत या सजदा -ए- शुक्र के लिये तयम्मुम जाइज़ नहीं जब कि पानी पर कुदरत हो।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  तयम्मुम का तरीक़ा ये है कि दोनों हाथ की उंगलिया कुशादा कर के किसी ऐसी चीज़ पर जो ज़मीन की क़िस्म से हो मार कर लौट लें और ज़्यादा गर्द लग जाये तो झाड लें और इस से सारे मुँह का मसा करे फिर दूसरी मरतबा यूँ ही करे और दोनो हाथो का नाखून से कोहनियो समेत मसह करे।

▣ ➟  मस'अला :
वुज़ू और गुस्ल दोनो का तयम्मुम एक ही तरह है।

▣ ➟  तयम्मुम मे तीन फ़र्ज़ हैं :

निय्यत : अगर किसी ने हाथ मिट्टी पर मार मूँह और हाथो पर फेर लिया और निय्यत ना की तो तयम्मुम ना होगा।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  नमाज़ इस तयम्मुम से जाइज़ हो गई जो पाक होने की निय्यत या किसी ऐसी इबादत मक़्सूदा के लिये किया गया हो जो बिला तहारत जाइज़ ना हो तो अगर मस्जिद में जाने या निकलने या क़ुरआने मजीद छूने या अज़ान व इक़ामत (ये सब इबादत मक़्सूदा नहीं) या सलाम करना या सलाम का जवाब देने या ज़ियारते कुबूर या दफ़्न मय्यित या बे वुज़ू के क़ुरआने मजीद पढ़ने (इन सब के लिये तहारत शर्त नहीं) के लिये तयम्मुम किया हो तो इस से नमाज़ जाइज़ नहीं बल्कि जिस के लिये किया गया हो तो इस की नमाज़ जाइज़ नहीं।

▣ ➟   मसअला :
जुनुब ने क़ुरआने मजीद पढ़ने के लिये तयम्मुम किया हो तो इस से नमाज़ पढ़ सकता है। सजदा -ए- शुक्र की निय्यत से जो तयम्मुम किया हो इस से नमाज़ ना होगी।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  मसअला : दूसरे को तयम्मुम का तरीक़ा बताने के लिये जो तयम्मुम किया इस से भी नमाज़ जाइज़ नहीं।

▣ ➟  मसअला : नमाज़े जनाज़ा या ईदैन या सुन्नतों के लिये इस ग़र्ज़ से तयम्मुम किया हो कि वुज़ू में मशगूल होगा तो ये नमाज़ें फौत हो जायेंगी तो इस तयम्मुम से इस खास नमाज़ के सिवा कोई दूसरी नमाज़ जाइज़ नहीं।

▣ ➟  मसअला : नमाज़े जनाज़ा या ईदैन के लिये तयम्मुम इस वजह से किया कि बीमार था या पानी मौजूद ना था तो इस से फ़र्ज़ नमाज़ और दीग़र इबादतें सब जाइज़ हैं।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  मसअला : सजदा -ए- तिलावत के तयम्मुम से भी नमाज़ जाइज़ नहीं।

▣ ➟  मसअला : जिस पर नहाना फ़र्ज़ है उसे ये ज़रूरी नहीं कि ग़ुस्ल और वुज़ू दोनों के लिये दो तयम्मुम करे बल्कि एक ही में दोनों की निय्यत कर ले दोनों हो जायेंगे और अगर सिर्फ ग़ुस्ल या वुज़ू की निय्यत की जब भी काफी है।

▣ ➟  मसअला : बीमार या बे दस्त (वो शख्स जो हाथ से माज़ूर हो) या अपने आप तयम्मुम नहीं कर सकता तो इसे कोई दूसरा शख्स तयम्मुम करा दे और इस वक़्त तयम्मुम कराने वाले की निय्यत का ऐतबार नहीं बल्कि इस की निय्यत चाहिये जिसे कराया जा रहा है।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟ तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  (3) सारे मुँह पर हाथ फेरना :
इस तरह कि कोई हिस्सा बाक़ी रह ना जाये अगर बाल बराबर कोई जगह रह गयी तो तयम्मुम ना हुआ।

▣ ➟  मसअला : दाढ़ी और मूँछों और भवों के बालों पर हाथ फेर जाना ज़रूरी है। मुँह कहाँ से कहाँ तक है इस को हम ने वुज़ू में बयान कर दिया।

▣ ➟  भवों के नीचे और आँखों के ऊपर जो जगह है और नाक के हिस्सा -ए- ज़िरी का ख्याल रखें कि अगर ख्याल ना रखेगा तो इन पर हाथ ना फेरेगा और तयम्मुम ना होगा।

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▣ ➟ तयम्मुम का बयान : औरत नाक में फूल पहने हो तो निकाल लें फूल की जगह बाक़ी रह जायेगी और नथ पहने हो तब भी ख्याल रखें कि नथ की वजह से कोई जगह बाक़ी तो नहीं रहे।

▣ ➟ मसअला : नथनों के अंदर मसह करना कुछ दरकार नहीं।

▣ ➟ मसअला : होंठ का वो हिस्सा जो आदतन मुँह बंद होने की हालत में दिखाई देता है इस पर भी मसह हो जाना ज़रूरी है तो अगर किसी ने हाथ फेरते वक़्त होंठ को ज़ोर से दबा लिया कि कुछ हिस्सा बाक़ी रह गया तयम्मुम ना हुआ। यूँ ही अगर ज़ोर से आँखें बंद कर ली जब भी तयम्मुम ना होगा।

▣ ➟  मसअला : मूँछ के बाल इतने बढ़ गये कि होंठ छुप गया तो इन बालों को उठा कर होंठो पर हाथ फेरे, बालों पर हाथ फेरना काफी नहीं।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  (4) दोनों हाथों को कोहनियों समेत मसह करना।

▣ ➟  इस में भी ये ख्याल रहे कि ज़र्रा बराबर बाक़ी ना रहे वरना तयम्मुम ना होगा।

▣ ➟   मसअला : अँगूठी छल्ले पहने हो तो इन्हें उतार कर इन के नीचे हाथ फेरना फ़र्ज़ है।

▣ ➟  औरतों को इस में बहुत एहतियात की ज़रूरत है। कंगन चूड़ियाँ जितने ज़ेवर हाथ में पहने हो सब को हटा कर या उतार कर जिल्द के हर हिस्से पर हाथ पहुँचाये इस की एहतियातें वुज़ू से बढ़ कर हैं।

▣ ➟  मसअला : तयम्मुम में सर और पाँव का मसह नहीं।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  एक ही मर्तबा हाथ मार कर मूँह और हाथों पर मसाह कर लिया तयम्मुम न हुआ हाँ अगर एक हाथ से सारे मूँह का मसाह किया और दूसरे से एक हाथ का और एक हाथ जो बच रहा उस के लिए फिर हाथ मारा और इस पर मसह कर लिया तो हो गया मगर खिलाफ -ए- सुनत है।

▣ ➟ मसला: जिस के दोनों हाथ या एक पहुंचे से कटा हो तो कोहनियो तक जितना बाक़ी रह गया उस पर मसह करे और अगर कुहनियो से ऊपर तक कट गया तो बाक़िया हाथ पर मसह करने की ज़रुरत नहीं फिर भी अगर इस जघा पर जहाँ से कट गया है मसाह कर ले तो बहतर है।

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▣ ➟  तयम्मुम की सुन्नतें :

▣ ➟ (1) बिस्मिल्लाह पढ़ना।

▣ ➟  (2) दोनों हाथों को ज़मीन पर मारना।

▣ ➟ (3) उंगलियाँ खुली रखना।

▣ ➟  (4) हाथों को झाड़ लेना यानी एक हाथ के अँगूठे की जद को दूसरे हाथ के अँगूठे की जद पर मारना ना इस तरह की ताली की आवाज़ निकले।

▣ ➟  (5) ज़मीन पर हाथ मार कर लौटा देना।

▣ ➟ (6) पहले मुँह फिर हाथों का मसह करना।

▣ ➟ (7) दोनों का मसह पै दर पै (एक के बाद एक) करना।

▣ ➟ (8) पहले दाहिने हाथ फिर बायें का मसह करना।

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▣ ➟  तयम्मुम की सुन्नतें :

▣ ➟  (9) दाढ़ी का ख़िलाल करना।

▣ ➟  (10) उंगलियों का ख़िलाल जब कि गुबार पहुँच गया हो और अगर गुबार ना पहुँचा मस्लन पत्थर वग़ैरह किसी ऐसी चीज़ पर जिस पर गुबार ना हो तो ख़िलाल फ़र्ज़ है। हाथों के मसह में बेहतर तरीक़ा ये है कि बायें हाथ के अँगूठे के इलावा चारों उंगलियों का पेट दाहिने हाथ की पुश्त पर रखे और उंगलियों के सिरों से कोहनी तक ले जाये और फिर वहाँ से बायें हाथ की हथेली से दाहिने के पेट को मस करता हुआ घटे तक लाये और अँगूठे की पेट से दाहिने अँगूठे की पुश्त का मसह करे यूँ ही दाहिने हाथ से बायें हाथ का मसह करे, और एक दम से पूरी हथेली और उंगलियों से मसह कर लिया तयम्मुम हो गया ख्वाह काहनी से उंगलियों की तरफ लाया या उंगलियों से काहनी की तरफ़ ले गया मगर पहली सूरत में ख़िलाफ़े सुन्नत हुआ।

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▣ ➟  तयम्मुम की सुन्नतें :

▣ ➟   मसअला : अगर मसह करने में सिर्फ तीन उंगलियाँ काम में लाया जब भी हो गया और अगर एक या दो से मसह किया तयम्मुम ना हुआ अगर्चे तमाम उज़्व पर इन को फेर लिया हो।

▣ ➟  तयम्मुम होते हुये दोबारा तयम्मुम ना करे।

▣ ➟  ख़िलाल के लिये हाथ मारना ज़रूरी नहीं।

▣ ➟  किस चीज़ से तयम्मुम जाइज़ है और किस से नहीं :

▣ ➟  मसअला : ज़मीन से हो और जो चीज़ ज़मीन की जिंस से नहीं इस से तयम्मुम जाइज़ नही।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟ मसअला : जिस मिट्टी से तयम्मुम किया जाये इस का पाक होना ज़रूरी है यानी ना इस पर किसी नजासत का असर हो ना ये जो कि महज़ खुश्क होने से असरे नजासत जाता रहा हो।

▣ ➟  मसअला : जिस चीज़ पर नजासत गिरी और सूख गयी इस से तयम्मुम नहीं कर सकते अगर्चे नजासत का असर बाक़ी ना हो अलबत्ता नमाज़ इस पर पढ़ सकते हैं।

▣ ➟  मसअला : ये वहम कि कभी नजिस हुई होगी फ़िज़ूल है कि इस का ऐतबार नहीं।

▣ ➟  मसअला : जो चीज़ आग से जल कर ना राख होती है ना पिघलती है ना नर्म होती है वो ज़मीन की जिंस से है इस से तयम्मुम जाइज़ है। रेता, चूना, सुरमा, हरताल, गंधक, मुर्दा सींग, गेरू, फतर, ज़बर जद, फिरोज़ा, अक़ीक़, ज़मर्द वग़ैरह जवाहिर से तयम्मुम जाइज़ है अगर्चे इन पर गुबार ना हो।

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▣ ➟  पक्की ईंट चीनी या मिट्टी के बर्तन से जिस पर किसी ऐसी चीज़ की रंगत हो जो जिन्से ज़मीन से है जैसे गेरू, खरया, मिट्टी या वो चीज़ जिस की रंगत ज़मीन से तो नहीं मगर बर्तन पर इस का जर्म ना हो तो इन दोनों सूरतों में इस से तयम्मुम जाइज़ है और अगर जिन्से ज़मीन से ना हो और इसका जर्म बर्तन पर हो तो जाइज़ है।

▣ ➟  मसअला : गल्ला, गेहूँ, जौ वग़ैरह और लकड़ी या घास और शीशा पर गुबार हो तो इस गुबार से तयम्मुम जाइज़ है जब कि इतना हो कि हाथ में लग जाता हो वरना नहीं।

▣ ➟  मसअला : मुश्क व अंबर, काफुर, लोबान से तयम्मुम जाइज़ नहीं।

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▣ ➟   मसअला : राख और सोने चांदी फौलाद वग़ैरह के कश्तों से भी जाइज़ नहीं।

▣ ➟  मसअला : ज़मीन या पत्थर जल कर सियाह हो जाये इस से तयम्मुम जाइज़ है यूँ ही अगर पत्थर जल कर राख हो जाये इस से भी जाइज़ है।

▣ ➟  मसअला : अगर खाक में राख मिल जाये और खाक ज़्यादा हो तो तयम्मुम जाइज़ है वरना नहीं।

▣ ➟  मसअला : ज़र्द, सुर्ख, सब्ज़, सियाह रंग की मिट्टी से तयम्मुम जाइज़ है, मगर जब रंगत छूट कर मुँह को रंगीन कर दे तो बग़ैर ज़रूरते शदीदा इस से तयम्मुम करना जाइज़ नहीं और कर लिया तो हो गया।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  भीगी मिट्टी से तयम्मुम जाइज़ है जब कि मिट्टी गालिब हो।

▣ ➟  मसअला : मुसाफ़िर का ऐसी जगह गुज़र हुआ कि सब तरफ कीचड़ ही कीचड़ और पानी नहीं पता कि वुज़ू या ग़ुस्ल करे और कपड़े में भी गुबार नहीं तो इसे चाहिये कि कपड़ा कीचड़ में सान के सुखा ले और इस से तयम्मुम करे और वक़्त जाता हो तो मजबूरी को कीचड़ ही से तयम्मुम कर ले जब कि मिट्टी गालिब हो।

▣ ➟  मसअला : गद्दे और दरी वग़ैरह में गुबार है तो इस से तयम्मुम कर सकता है अगर्चे वहाँ मिट्टी मौजूद हो जबकि गुबार इतना हो कि हाथ फेरने से उंगलियों का निशान बन जाये।

(देखिये बहारे शरीअत)

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▣ ➟   तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  नजिस कपड़े में गुबार हो इस से तयम्मुम जाइज़ नहीं हाँ अगर इस से सुखाने के बाद गुबार पड़ा तो जाइज़ है।

▣ ➟  मकान बनाने या गिराने में या किसी और सूरत में मुँह और हाथों पर गर्द पड़ी और तयम्मुम की निय्यत से मुँह और हाथों पर मसह कर लिया तयम्मुम हो गया।

▣ ➟  जिस जगह से एक ने तयम्मुम किया दूसरा भी कर सकता है ये जो मशहूर है कि मस्जिद की दीवार या ज़मीन से तयम्मुम ना जाइज़ या मकरूह है गलत है।

तयम्मुम के लिये हाथ ज़मीन पर मारा और मसह से पहले ही तयम्मुम टूटने का कोई सबब पाया गया तो इस से तयम्मुम नहीं कर सकता।

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▣ ➟  तयम्मुम किन चीज़ों से टूटता है :

▣ ➟  जिन चीज़ों से वुज़ू टूटता है या ग़ुस्ल वाजिब होता है इन में तयम्मुम भी जाता रहेगा और इलावा इन के पानी पर क़ादिर होने से भी तयम्मुम टूट जायेगा।

▣ ➟  मरीज़ ने ग़ुस्ल का तयम्मुम किया था और अब इतना तंदरुस्त हो गया कि ग़ुस्ल से ज़रर ना पहुँचेगा तयम्मुम जाता रहा।

▣ ➟  किसी ने ग़ुस्ल और वुज़ू दोनों के लिये एक ही तयम्मुम किया था फिर वुज़ू तोड़ने वाली कोई चीज़ पायी गयी या इतना पानी पाया कि जिस से सिर्फ वुज़ू कर सकता है या बीमार और अब इतना तंदरुस्त हो गया कि वुज़ू नुक़्सान ना करेगा और ग़ुस्ल से ज़रर होगा तो सिर्फ वुज़ू के हक़ में तयम्मुम जाता रहा ग़ुस्ल के हक़ में बाक़ी है।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  जिस हालत में तयम्मुम नाजाइज़ था अगर वो बाद तयम्मुम पायी गयी तयम्मुम टूट गया जैसे तयम्मुम वाले का ऐसी जगह गुज़र हुआ कि वहाँ से एक मील के अंदर पानी है तो तयम्मुम जाता रहा। ये ज़रूरी नहीं कि पानी के पास ही पहुँच जाये।

▣ ➟  मसअला : इतना पानी मिला कि वुज़ू के लिये काफी नहीं है यानी एक मर्तबा मुँह और एक एक मर्तबा दोनों हाथ पाऊँ नहीं धो सकता तो वुज़ू का तयम्मुम नहीं टूटा और अगर एक मर्तबा धो सकता है तो जाता रहा, यूँ ही ग़ुस्ल के तयम्मुम करने वाले को इतना पानी मिला जिस से ग़ुस्ल नहीं हो सकता तो तयम्मुम नहीं गया।

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▣ ➟  तयम्मुम का बयान :

▣ ➟  ऐसी जगह गुज़रा कि वहाँ से पानी क़रीब है मगर पानी के पास शेर या साँप या दुश्मन है जिस से जान या माल या आबरू का सही अंदेशा है, क़ाफ़िला इंतिज़ार ना करेगा और नज़रों से गायब हो जायेगा या सवारी से उतर नहीं सकता जैसे रेल या घोड़ा कि इस के रोके नहीं रोकता या घोड़ा ऐसा है कि उतरने तो देगा मगर फिर चढ़ने ना देगा या ये इतना कमजोर है कि फिर चढ़ ना सकेगा।
या कोने में पानी है और इस के पास डोल रस्सी नहीं तो इन सब सूरतों में तयम्मुम नहीं टूटा।

▣ ➟  मसअला : पानी के पास से सोता हुआ गुज़रा तयम्मुम नहीं टूटा, हाँ अगर तयम्मुम वुज़ू का था और नींद इस हद की है जिस से वुज़ू जाता रहे तो बेशक तयम्मुम जाता रहा मगर ना इस वजह से कि पानी पर गुज़रा बल्कि सो जाने से और अगर ऊँघता हुआ पानी पर गुज़रा और पानी की इत्तिला हो गयी तो टूट गया वरना नहीं।

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▣ ➟  नमाज़ के फ़राइज़, वाजिबात, सुनन व मुस्तहब्बात और तहारत के मसाइल, तयम्मुम का बयान फिर नमाज़े जनाज़ा, नमाज़े तरावीह वग़ैरह सुनन नवाफिल का बयान गुज़रा जिन में कई मसाइल शामिल किये गये। अब यहाँ से सवाल जवाब का सिलसिला शुरू किया जायेगा जिस में जदीद मसाइल और उमूमन पेश आने वाले मसाइल को शामिल किया जायेगा।

▣ ➟  हो सकता है कि इस में से कुछ ऐसे मसाइल भी दोबारा शामिल हो जायें जिन का बयान गुज़र चुका लेकिन इस का फायदा ये होगा कि सवाल जवाब के अंदाज़ में वहाँ समझ नहीं आया वो बा आसानी यहाँ समझ सकेंगे।

▣ ➟  देखा गया है कि सवाल जवाब का तरीका लोगों को समझाने के लिये काफ़ी मुफीद है।

▣ ➟  इस सिलसिले में नमाज़, तहारत और नमाज़ से मुतल्लिक़ मसाइल को शामिल किया जायेगा।
इंशा अल्लाह इस से लोगों को फायदा पहुँचेगा।

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▣ ➟  क्या तम्बाकू खाने से वुज़ू टूट जाता है?

▣ ➟  सवाल: वुज़ू करने के बाद अगर तम्बाकू वाला पान खा लिया जाये तो वुज़ू टूट जाता है या नहीं? एक साहब का कहना है के तम्बाकू में नशा होता है इस लिए इस से वुज़ू टूट जाएगा? आप मस'आला की वज़ाहत फरमाये?

▣ ➟  जवाब : तमाम फ़िक़्ह की क़िताबों में ये मस'आला मौजूद है के इतना नशा जिस से चलने में पाओ लड़खड़ाये इस से वुज़ू टूट जाता है। जैसा के बहार-ए-शरीअत हिस्सा दुवं में है के बेहोशी जूनून और इतना नशा जिस से चल्ने में लड़खड़ाहट आ जाए, ये सब वुज़ू को तूड़ देता है!

▣ ➟  अलबहरूर रायिक में है के ऐसा नशा जो किसी चीज़ के इस्त्माल पर अक़ल पर ग़ालिब आ जाये और आदमी इस नशा के दौरान कुछ काम न कर सके तो नशा वुज़ू को तोड़ देता है। 

▣ ➟  माजकूरा तमाम इबारत से मालूम हुआ के महेज़ किसी नशा आवर चीज़ का खा लेना वुज़ू को नहीं तोड़ता बल्कि जब इस से ऐसा नशा हो जो चलने फ़िरने और दीगर कामो में ख़लल अन्दाज़ हो तब इस से वुज़ू टूट'टा है। लेहाज़ा तम्बाकू अगर नशा आवर चीज़ है और इस से ऐसा नशा हो जाये जो आदमी की अक़ल और अमल को मुतासिर कर दे और चलने में पाओ लड़खड़ाये तो वुज़ू टूट जाएग। वरना महेज़ तम्बाको वाला पान खा लेने से वुज़ू नहीं टूटता।

(انوار الفتاوی، ج1، ص195)

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▣ ➟  शीशे के सामने नमाज़ पढ़ना :

▣ ➟   सवाल : मसाजिद में दरवाज़ों के साथ शीशे लगे होते हैं। जिन में नमाज़ के दौरान नमाज़ी को अपना अक्स नज़र आता है। आया इस तरह नमाज़ दुरुस्त हो जाती है या नहीं?

▣ ➟   जवाब : सुन्नते मस'ऊला का जवाब ये है कि शीशे में नज़र आने वाला अक्स ना तो तस्वीर है ना तस्वीर के हुक्म में है लिहाज़ा इस के बिल मुक़ाबिल नमाज़ अदा करना बिला तकल्लुफ़ जाइज़ और दुरुस्त है चुनांचे अश्शाह इमाम अहमद रज़ा खान अलैहिर्रहमा जद्दुल मुमतार में लिखते हैं कि मुझ से ऐसे शख्स के बारे में पूछा गया जो नमाज़ पढ़ रहा हो और इस के सामने शीशा हो तो मैने जवाब दिया कि ऐसे शख्स की नमाज़ जाइज़ है।

▣ ➟   इसी तरह सदरुश्शरिया अल्लामा अमजद अली आज़मी अलैहिर्रहमा लिखते हैं : आईना सामने हो तो नमाज़ में कराहत नहीं, कि सबाबे कराहत तस्वीर है वो यहाँ मौजूद नहीं और अगर इसे तस्वीर का हुक्म दें तो आईने को रखना भी मिस्ले तस्वीर नाजाइज़ हो जाये हालाँकि बिल इज्मा जाइज़ है।

(فتاوی امجدیہ، باب مفسدات الصلوات ج1، ص184) 

▣ ➟   शीशे को सामने नमाज़ पढ़ने की ये तफ़सील इस लिहाज़ से थी कि इस के जवाज़ में उलमा को कलाम नहीं है लेकिन जहाँ तक तक़वा का ताल्लुक़ है तो इस से हतल वसी इज्तिनाब ही बेहतर है ताकि आदमी कामिल खुशू व खुज़ू के साथ नमाज़ अदा कर सके।

انوار الفتاوی، ص212، 213)

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▣ ➟  जिसने फ़ज्र नहीं पढ़ी उसके लिये जुम्आ व ईदैन पढ़ना।

▣ ➟   सवाल : अगर कोई शख्स नमाज़े फ़ज्र अदा नहीं कर पाया हो तो क्या वो नमाज़े जुम्आ और नमाज़े ईदैन अदा कर सकता है या नहीं?
क्या इस के किये फ़ज्र की क़ज़ा पढ़ना ज़रूरी है? हालाँकि इस ने फ़ज्र की नमाज़ बिला उज़्र तर्क की है।

▣ ➟   जवाब : कोई शख्स फ़ज्र की नमाज़ अदा ना कर पाये तो ईदैन और जुम्आ की नमाज़ अदा कर सकता है या नहीं कर सकता है, ये मसअला हर शख्स के लिये नहीं है बल्कि सिर्फ साहिबे तरतीब के लिये है यानी वो शख्स जिस की ज़िंदगी में 5 या इस से कम नमाज़ें क़ज़ा हुई हो, ऐसे शख्स के लिये फुक़हा -ए- किराम ने जुम्आ के हवाले से ये मसअला बयान फ़रमाया है कि अगर इस दिन इस से फ़ज्र की नमाज़ रह जाये तो वो इसे अदा किये बग़ैर जुम्आ नहीं पढ़ सकता। (क्योंकि उस पर तरतीब लाज़िम है) मसअले की मुकम्मल तफ़सील बहारे शरीअत में यूँ है : जुम्आ के दिन फ़ज्र क़ज़ा हो गयी, अगर फ़ज्र पढ़ कर जुम्आ में शरीक हो सकता है तो फ़र्ज़ है कि पहले फ़ज्र पढ़े अगर्चे खुत्बा होता हो और अगर ना मिलेगा मगर जुम्आ के साथ वक़्त भी खत्म हो जायेगा तो जुम्आ भी पढ़ ले फिर फ़ज्र पढ़े इस सूरत में तरतीब साकित है।

انوار الفتاوی، ص221)


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▣ ➟  ससुराल में नमाज़े क़स्र अदा करना :

▣ ➟  सवाल : एक शख्स जो गाँव का रहने वाला है और गाँव में ही पैदा हुआ है। वालिदैन वग़ैरह गाँव में जी हैं वो शख्स काम के सिलसिले मेम आरज़ी तौर पर अपने बीवी बच्चों समेत किराये के मकान में मुक़ीम है। ससुराल इस का एक दूसरे गाँव में है, सवाल ये है कि जब शख्से मज़कूर अपने गाँव और ससुराल जाये तो पूरी नमाज़ पढ़ेगा या क़स्र के साथ?

▣ ➟  जवाब : सूरते मसऊला में शख्से मज़कूर जिस गाँव का रहने वाला है वो गाँव इसका वतने असली है जब भी वहाँ जायेगा ख़्वाह एक दिन के लिये इस उस से ज्यादा के लिये बहर हाल पूरी नमाज़ अदा करेगा।

▣ ➟  दुर्रे मुख्तार और रद्दुल मुहतार में है कि वतने असली उसको कहते हैं जिस में आदमी की पैदाइश हो या शादी कर के बीवी बच्चों के साथ घर बसा लिया वो जगह जहाँ इस तरह कियाम पज़ीर हो जाये कि उस को छोड़ने का इरादा ना हो।

▣ ➟  जहाँ तक मज़कूरा शख्स के ससुराल का ताल्लुक़ है तो वहाँ चुनाँचे वो अपने बीवी बच्चों के साथ कियाम पज़ीर नहीं है इसलिये जब यहाँ से वहाँ जायेगा और पंद्रह दिन से कम ठहरने का इरादा होगा तो शरअन मुसाफ़िर होगा और नमाज़े क़स्र अदा करेगा और अपने गाँव से ससुराल जायेगा तो देखना होगा कि अपने गाँव और ससुराल के दरमियान कितना फासला है अगर इन दो मक़ामात के दरमियान का फासला कम अज़ कम 98.734 किलोमीटर का फासला हो तो और पंद्रह दिन से कम ठहरने के इरादे से जब अपने ससुराल जायेगा तो शरअन मुसाफ़िर होगा और नमाज़ क़स्र के साथ अदा करेगा अगर दोनों गावँ के दरमियान इस से कम फासला हो तो अपने गाँव से जब ससुराल जायेगा तो ख्वाह 15 दिन ठहरने की निय्यत करे या उस से ज़्यादा बहर हाल नमाज़ पूरी पढ़ेगा।


انوار الفتاوی، ص 246,246)

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❝ नहमदोहू-व-नुसल्ली अला रसुलेहिल करीम ❞ 
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▣ ➟  नमाज़े जनाज़ा में इमाम कहाँ खड़ा हो?
एक से ज़्यादा जनाज़े किस तरह रखे जायें?

▣ ➟ नमाज़े जनाज़ा में इमाम का मय्यित के सीने के सामने खड़ा होना मुस्तहब है इस के अलावा मय्यित के किसी और जुज़ के सामने खड़ा होना भी जाइज़ है चुनाँचे अल्लामा शामी लिखते हैं :

▣ ➟ इमाम का मर्द और औरत के सीने के सामने खड़ा होना मुस्तहब है वरना मय्यित के किसी भी एक जुज़ (हिस्से) के सामने खड़ा होना ज़रूरी है।

▣ ➟   अगर कई जनाज़े इकठ्ठे हो जायें तो इमाम को उनके रखने में इख़्तियार है चाहे तो लंबाई में एक ही लाइन में रखे और चाहे तो किब्ला की सिम्त में एक के बाद एक को रखे चुनाँचे फ़तावा आलमगीरी में है :

▣ ➟  इमाम को जनाज़ा रखने में इख़्तियार है चाहे तो लंबाई में एक लाइन में रखे और इन में से अफ़ज़ल के पास खड़ा हो और चाहे तो किब्ला की सिम्त में एक के बाद एक को रखे।

(انوار الفتاوی، ص251، 252)

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▣ ➟  नहाते वक़्त जिस्म से पानी बर्तन में गिरे तो?

▣ ➟  जवाब : क़तरे जिस्म से पानी में जायें तो टब या बाल्टी का पानी पाक रहता है इस से ग़ुस्ल करना दुरुस्त है गो कि वक़्ते ग़ुस्ल मुस्तमिल पानी के क़तरात टब या बाल्टी में पड़ते हों इसलिये कि मुस्तमिल पानी अगर अच्छे पानी में मिल जाये मस्लन वुज़ू या ग़ुस्ल करते वक़्त क़तरे लोटे या टब में टपकें तो हुकम ये है कि अच्छा पानी अगर ज़्यादा हो तो ये वुज़ू और ग़ुस्ल के काबिल है वरना सब बेकार हो गया ऐसा ही बहारे शरीअत जिल्द 2 सफहा 49 पर है :

▣ ➟  ज़ाहिर है कि ग़ुस्ल करते वक़्त टब या बाल्टी का पानी मुस्तमिल पानी से उमूमन ज़ाइद ही होता है इसीलिये इस से वुज़ू और ग़ुस्ल जाइज़ है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص77)

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▣ ➟  बारिश का पानी नापाक जगहों से होता हुआ कहीं इकट्ठा हो तो इस से वुज़ू वग़ैरह करना कैसा है?

▣ ➟   बारिश का पानी नापाक जगहों से बहकर एक जगह इकट्ठा हुआ तो इस पानी के बारे में शरीअत का क्या हुक्म है?

▣ ➟   जवाब : बारिश का पानी सिर्फ नजासतों से गुज़र जाना नजासत का मोजिब नहीं (यानी इस से पानी नापाक नहीं होगा)

(فتاوی رضویہ، ج1، ص235)

▣ ➟  अलबत्ता बारिश का पानी अगर नापाक जगहों से बहकर एक जगह इकट्ठा हुआ तो देखा जायेगा कि इसका रंग, बू, मज़ा बदल गया है या नहीं।

▣ ➟   पहली सूरत में पानी ना पाक है इस से वुज़ू वग़ैरा जाइज़ नहीं और दूसरी सूरत में पाक है इस से वुज़ू वग़ैरा करना जाइज़ है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص79)

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▣ ➟  मस्नूई (Duplicate) दाँतों के होने के बाद वुज़ू सही है या नहीं?

▣ ➟   मसअला : क्या फरमाते हैं उलमा -ए- दीनो मिल्लत इस मसअले में : ज़ैद मस्नूई दाँत लगा कर रखा है तो क्या ज़ैद को वुज़ू और ग़ुस्ल में इन मस्नूई दाँतों को निकाल कर इन की तह पानी पहुँचाना ज़रूरी होगा? और दाँत फिक्स हो तो क्या हुक्म है?

▣ ➟   जवाब : ग़ुस्ल करते वक़्त मस्नूई दाँतों को निकलने में अगर कोई हर्ज व दुश्वारी ना हो बल्कि बा आसानी निकल सकते हैं तो इन्हें निकाल कर तह तक पानी पहुंचाना ज़रूरी है और वुज़ू में फ़र्ज़ नहीं कि इस में कुल्ली करना सुन्नत है और अगर निकालना बाइसे हर्ज हो तो इन तक पानी पहुँचाना ग़ुस्ल में भी लाज़िम नहीं है। यही हुक्म फिक्स दाँतों का भी है कि इन्हें निकलने में ज़रर है।

▣ ➟  फ़तावा रज़विय्या में है "हिलता दाँत अगर तार से जुड़ा है माफी होनी चाहिये अगर्चे पानी तार के नीचे ना बहे कि बार बार खोलने में ज़रर देगा ना इस से हर वक़्त बंदिश हो सकेगी। यूँ ही अगर खड़ा हुआ दाँत किसी मसाले मस्लन बुरादा -ए- आहिन व मिक़्नतिस वग़ैरह से जमाया गया है जमे हुये चीन की मिसाल इस की भी माफ़ी होनी चाहिये।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص85) 


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▣ ➟  नाखून पॉलिश या मेहंदी लगी हो तो वुज़ू और ग़ुस्ल होगा या नहीं?

▣ ➟  क्या फरमाते हैं उलमा -ए- दीन व मिल्लत इस मसअले में : अगर औरतों के नाखून पर नाखून पॉलिश या मेहन्दी लगी हो तो वुज़ू या ग़ुस्ल होगा या नहीं?

▣ ➟  जवाब : औरतों के नाखून पर लगी नाखून पॉलिश इतनी गाड़ी है कि इस कि एक तह नाखून पर जम जाती है जिस की वजह से पानी नाखून तक सरय्यत नहीं कर पाता इसीलिये वुज़ू व ग़ुस्ल करते वक़्त अगर नाखून पर लगी रह गयी और इस को छुड़ाया ना गया तो वुज़ू होगा और ना ही ग़ुस्ल।

▣ ➟  रही मेहन्दी तो नाखून पर इस की तह नहीं जमती बल्कि इस का रंग चढ़ता है ये माने'अ वुज़ू व ग़ुस्ल (यानी हो जायेगा) अगर हाथ या पाऊँ पर इस का जर्म लगा रह गया और खबर ना हुई तो वुज़ू और ग़ुस्ल हो जायेगा मगर मालूम हो जाये तो इसे छुड़ा कर वहाँ पानी बहा दें।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص87) 


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▣ ➟   पाइप से आने वाले पानी का रंग बू या मज़ा (टेस्ट) बदल जाये तो वुज़ू और ग़ुस्ल करना।

▣ ➟   ऐसे पानी से वुज़ू करना जाइज़ है इसीलिये कि पाइप लाइन के ज़रिये जो पानी आता है वो मा-ए-जारी (बहते पानी) के हुक्म में है और मा-ए-जारी का रंग या बू या मज़ा अगर नजासत की वजह से बदल जाये तो ज़रूर नापाक हो जायेगा, लेकिन अगर ये तहक़ीक़ ना हो कि ये तब्दीली किस वजह से है तो हुक्म जवाज़ का ही होगा और महज़ शक की बुनियाद पर इस पानी के नापाक होने फिर इस से वुज़ू के नाजाइज़ होने का हुक्म ना होगा।

▣ ➟   असल हुक्म जो बेहतर है वो ये है कि जब कभी पानी में ऐसी कैफ़िय्यत पैदा हो जाये और तहक़ीक़ ना हो सके तो टोटी खोल दें ताकि पानी बहता रहे यहाँ एक कि बे बू (Smell) ज़ाइल हो जाये।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص81) 

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▣ ➟  धूप में गर्म पानी से वुज़ू और ग़ुस्ल कब मना है?

▣ ➟  धूप से गर्म होने वाले पानी को वुज़ू, ग़ुस्ल या किसी और काम में इस्तिमाल करने से इस वक़्त अंदेशा -ए- बर्स (यानी सफ़ेद दाग़ की बीमारी का अंदेशा) है जब कि वो पानी गर्म मुल्क में गर्म मौसम में चाँदी के अलावा किसी और धात की टंकी या बर्तन में धूप से गर्म हुआ हो जब तक ठंडा ना हो जाये इस वक़्त तक किसी तरह बदन पर पहुँचने से बर्स की बीमारी होने का अंदेशा है। अलबत्ता जो टंकिया, धात के अलावा प्लास्टिक, फाइबर, ईंट, पत्थर वग़ैरा से बनाई जाती हैं इन में धूप से गर्म होने वाले पानी का इस्तिमाल करने में कोई हर्ज नहीं और अगर कहीं मस्जिदों में या घर में लोहे या इस जैसी धात से बनी हुयी टंकिया पाई जाती हों तो इन में धूप से गर्म होने वाला पानी जब तक ठंडा ना हो जाये इस्तिमाल ना किया जाये और अगर मुमकिन हो तो इन्हें फाइबर की टंकी से बदल दें।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص82) 

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▣ ➟   साबुन और वाशिंग पाऊडर का इस्तिमाल कैसा?

▣ ➟   अशया (चीज़ों) में असल तहारत व इबादत है (यानी अपनी असल के ऐतबार से हर शय मुबाह है) लिहाज़ा जहाँ तक साबुन में ना पाक चीज़ की मिलावट का यक़ीन ना हासिल हो इसे पाक ही जाना जायेगा।

▣ ➟   अगर साबुन के ताल्लुक़ से यक़ीन हो जाये कि इस में मुरदार या नापाक जानवर की चर्बी का इस्तिमाल किया गया है तो ज़रूर वो नापाक क़रार दिया जायेगा और इस का इस्तिमाल नाजाइज़ होगा।

▣ ➟   बहारे शरीअत में जो है कि इस्लामी कारखाना हो तो वो मुस्तहब है यानी बेहतर यही है कि ग़ुस्ले मय्यित के लिये मुसलमानों के हाथों से बनाया साबुन इस्तिमाल किया जाये लिहाज़ा आज कल जो साबुन बाज़ार में नहाने और धोने के लिये दस्तयाब हैं जब तक इन में किसी नजिस चीज़ के वजूद का यक़ीन ना हो वो पाक है इसका इस्तिमाल जाइज़ और इन से धोये हुए कपड़े पहन के नमाज़ पढ़ना भी जाइज़।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص83) 

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▣ ➟  कपड़े धोने का तरीक़ा

▣ ➟   कपड़े धोने से मक़सूद इसे साफ करना है और उमूमन पाक पानी से साबुन से कपड़े का मैल दूर होकर कपड़ा साफ हो जाता है लिहाज़ा कपड़ा पाक पानी से इस तरह धोये कि वो साफ हो जाये फटे ना कमज़ोर हो, पानी का इस्तिमाल भी ज़रूरत से ज्यादा ना हो बाज़ कपड़ों की धुलाई के लिये पेट्रोल की ज़रूरत होती है ये भी जाइज़ है।

▣ ➟   नजिस कपड़े को पाक करने का तरीका ये है कि नजासते मुरैया (गाढ़ी नजासत जो पानी की तरह ना हो) लगी है इस से ज़ाइल कर दे अगर एक मर्तबा में ज़ाइल हो जाये तो एक ही मर्तबा धोये वरना तीन बार या उस से भी ज्यादा की ज़रूरत हो तो तीन बार या ज़्यादा धोये।

▣ ➟   अगर नजासत ग़ैर मुरैया है (यानी गढ़ी नहीं) और कपड़े पर लग जाये और वो निचोड़ने के क़ाबिल है तो तीन बार धोये और हर बार निचोड़े और निचोड़ने की हद ये है कि अगर फिर निचोड़े तो कतरा ना टपके और इस में खुद की क़ुव्वत का ऐतबार है अगर दूसरा जो ज़्यादा क़वी है कि इस के निचोडने से कतरा टपकेगा तो क़वी के लिये कपड़ा पाक ना होगा और कमज़ोर के लिये पाक होगा।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص91) 

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▣ ➟  ग़ुस्ल खाने में कोई दुआ नहीं पढ़नी चाहिये।

▣ ➟  ग़ुस्ल खाने में कोई दुआ नहीं पढ़नी चाहिये, ख्वाह लेट्रिन हो या ना हो। मुफ़्ती -ए- आज़मे हिन्द अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं : "ग़ुस्ल खाने में कोई दुआ नहीं पढ़ना चाहिये।
(फ़तावा मुस्तफ़विय्या)

▣ ➟  रही ये बाय कि दुआ ना पढ़ी तो भूल जाने का खतरा है तो इस का हल ये है कि ग़ुस्ल खाने में वुज़ू ही ना करें ऐसी जगह वुज़ू का एहतिमाम करे जहाँ इसे वुज़ू की दुआ पढ़ने की इजाज़त हो। ग़ुस्ल खाने वुज़ू के लिये नहीं है तो इसे वुज़ू कर लिये इस्तिमाल ना करे ताकि दुआ ना पढ़ने पर भूलने का खतरा ही पैदा ना हो।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص92) 

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▣ ➟  लैंस लगाकर वुज़ू, ग़ुस्ल और नमाज़ का क्या हुक्म है?

▣ ➟   लैंस लगा कर नमाज़ पढ़ना जाइज़ है यूँ ही इसे लगाकर वुज़ू व ग़ुस्ल भी सही है अगर्चे उतारने में दुश्वारी ना हो, क्यों कि लैंस आँखों के अंदर चस्पा होता है, जहाँ वुज़ू और ग़ुस्ल में पानी पहुँचाने का हुक्म नहीं।

▣ ➟  इसके मुताल्लिक़ अल्लामा मुफ़्ती शरीफुल हक़ अमजदी अलैहिर्रहमा लिखते हैं कि खास ऐनक के निकालने में अगर दुश्वारी ना भी होती हो तो भी इसके होते हुये वुज़ू व ग़ुस्ले जनाबत सही होगा, इसीलिये कि वुज़ू ग़ुस्ल में आँख के अंदर का हिस्सा धोना ज़रूरी या वाजिब नहीं।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص 92,93) 

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▣ ➟  वुज़ू का पानी काम में ला सकते हैं।

▣ ➟   वुज़ू का पानी यानी वुज़ू करते वक़्त जो पानी गिरता है, वो ताहिर ग़ैर मुतहर है यानी खुद ताहिर है पर अब उसे तहारत के काम में नहीं ला सकते इस के सिवा सिंचाई और दूसरे ऐसे कामों में इस्तिमाल कर सकते हैं जिन में पानी नजासत से आलूदा ना हो, यूँ ही खाद अगर पाक चीजों से तैयार की जाये तो इस में भी वुज़ू का पानी बहा सकते हैं।

▣ ➟   इस सिलसिले में अब ये बात ज़हन में रहे कि इसे नापाक चीज़ में ना बहाया जाये, ना मिलाया जाये, पाक चीजों और जगहों में इस्तिमाल करना जाइज़ है वजह ये है कि पानी ग़ैर मुताहर होने के बावजूद भी मुहतरहम है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص95) 

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▣ ➟  क्या दस्ताने लगा कर बे वुज़ू क़ुरआन छूना जाइज़ है?

▣ ➟  दस्ताने लगाकर बे वुज़ू क़ुरआने मजीद छूना हराम है जिस तरह कुर्ते की आस्तीन से छूना हराम और इसी तरह जिस रुमाल का एक सिरा इस के मूँढे पर हो दूसरे सिरे से छूना कि ये सब इस के ताबे है और तफ़्सीर की किताबों का बे वुज़ू छूना मकरूह है मगर वाज़ेह आयत पर इस में भी हाथ रखना हराम है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص96) 

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▣ ➟ क्या लटके हुये बालों पर मसह जाइज़ है?

▣ ➟  सर के लटके बालों पर मसह करने से मसह नहीं होता कि मसह में सर के चौथाई हिस्से का तर करना फ़र्ज़ है लिहाज़ा वुज़ू में सिर्फ सर के पीछे हिस्से में नीचे बंधी हुई गोल चोटी पर मसह करने से मसह नहीं होगा।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص97) 

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▣ ➟  क्या बच्चे को दूध पिलाने से वुज़ू टूट जाता है?

▣ ➟  बच्चे को दूध पिलाने से वुज़ू नहीं टूटता कि पाक रुतूबातें जो बदन से निकलती हैं वो नाकिसे वुज़ू नहीं है।

▣ ➟  जो चीज़ आदतन खारिज होती हो और नाकिस ना हो तो ख़्वाह कितनी मिक़दार में क्यों ना हो नाकिसे वुज़ू ना होगी और वो ख्वाह बीमारी ही क्यों ना समझी जाये जैसे पसीना वुज़ू को नहीं तोड़ता है। अब अगर ये बहुत ज़्यादा हो जाये जैसे बुखार की सूरत में या दूसरे अमराज़ में तो भी नाकिसे वुज़ू ना होगा यही हाल आँसू, थूक और दूध का भी है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص97) 

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▣ ➟  बरहना हो कर ग़ुस्ल किया तो क्या बादे ग़ुस्ल फिर वुज़ू ज़रूरी है?

▣ ➟    ग़ुस्ल खाने में जाने से पहले बिस्मिल्लाह शरीफ़ पढ़ें, ग़ुस्ल खाने में जा कर कोई दुआ नहीं पढ़नी चाहिये।

▣ ➟   ग़ुस्ल के बाद नमाज़ के लिये दोबारा वुज़ू करने की ज़रूरत नहीं जब कि बादे ग़ुस्ल कोई हदस लाहिक़ ना हुआ हो जैसा कि हदीस शरीफ़ में उम्मुल मुमिनीन हज़रते आइशा सिद्दीका रदिअल्लाहु त'एआला अन्हा से रिवायत है फरमाती हैं कि रसूलुल्लाह ग़ुस्ल के बाद वुज़ू नहीं फरमाते।

(مطلب سنن الفسل، ص156، ج1)

▣ ➟   और दूसरी हदीस में है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जो शख्स ग़ुस्ल के बाद वुज़ू करे तो वो मेरे तरीके पर नहीं।

(کنز العمل حدیث نمبر 26249، ج9)

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▣ ➟   चूड़ी दार पजामा पहन कर नमाज़ पढ़ना कैसा है?

▣ ➟   चूड़ी दार पजामा मर्द व औरत दोनों के लिये मम्नूअ है।

▣ ➟   जैसा कि फतावा रज़विय्या शरीफ़ में है: चूड़ी दार पजामा पहनना मम्नूअ है कि वज़'अ फासिक़ों की है।

▣ ➟   शैख़ मुहक़्किक़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस दहेल्वी रहमतुल्लाह अलैह आदाबुल लिबास में फरमाते हैं: सलवार जो अज़मी इलाक़ों में मशहूर व मारूफ़ है, अगर टखनो से नीचे हो या दो तीन इंच (सिकन) नीचे हो तो बिदत व गुनाह है।

(نصف اول، ج9، ص107)

अब अगर कपड़ा मोटा है जिस से बदन छुप जाता है, झलकता नहीं है मगर वो बदन से इस क़दर चिमटा हुआ है कि बदन की बनावट ज़ाहिर होती है तो ऐसे कपड़े में जो कि नमाज़ हो जायेगी, मगर ऐसा कपड़ा लोगों के सामने पहनना औरतों को नाजाइज़ व गुनाह है और मर्दों को भी ना चाहिये।

(فتوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص133)

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▣ ➟  नमाज़ का फिदिया क्या है?

▣ ➟   एक नमाज़ का फिदिया एक सा जौ या आधा सा गेहूँ है। एक सा का वज़न 4 किलो 97 ग्राम है और आधा सा का वज़न 2 किलो 47 ग्राम है और अगर उस की क़ीमत का फिदिया अदा करना चाहें तो बाज़ार में मुतवस्त गेहूँ या जौ की जो क़ीमत हो वो अदा की जाये।

▣ ➟  फ़तावा अमजदिय्या में है : एआला हज़रत किब्ला क़ुद्स सिर्रहुल अज़ीज़ की तहक़ीक़ ये है कि आधा सा की मिक़दार 1 सौ 75 रुपैया अठनी भर ऊपर है। लिहाज़ा अगर गेहूँ दें तो आधा सा जिसकी मिक़दार ज़िक्र की गई और अगर जौ देना चाहें तो पूरा एक सा जिस की मिक़दार 3 सौ 51 भर रुपैया भर है और अगर किसी दूसरे गल्ले से सदक़ा देना चाहें तो आधा सा गेहूँ या एक सा जौ की क़ीमत का वो गल्ला दें या क़ीमत ही को सदक़ा -ए- फित्र में दे दें।

(ج1، ص383)

▣ ➟   मुहक़्किके अस्र हज़रत मुफ़्ती निज़ामुद्दीन साहब बरकाती एक सवाल के जवाब में तहरीर फरमाते हैं, गेहूँ से सदक़ा -ए- फित्र की मिक़दार 2 किलो 46 ग्राम है इसी पर उलमा -ए- अहले सुन्नत मुदर्रिसे अहले सुन्नत व आवामे अहले सुन्नत का ताम्मुल है और अंदल तहक़ीक़ यही हक़ व सहीह है। लिहाज़ा मुसलमान इसी पर अमल करें और किसी शक व शुब्हा में ना बढ़ें।

(ماہنامہ اشرفیہ اگست 2004 ص7) 

(فتوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص135) 

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▣ ➟    फॉम, क़ालीन, कंबल वग़ैरह पर सजदा करना।

▣ ➟     नर्म फ़र्श मस्लन क़ालीन कम्बल वग़ैरह पर सजदा करना उस वक़्त जाइज़ है जब उस पर नाक और पेशानी खूब अच्छे तरीके से जम जायें यानी इतना दब जाये कि अब दबाने से ना दबे वरना नहीं और जब सजदा नहीं होगा तो नमाज़ भी नहीं होगी क्योंकि सजदा फ़राइज़े नमाज़ से है।

▣ ➟    ऐसा ही फ़तावा हिंदिया, जिल्द 1, सफहा 70 और बहारे शरीअत हिस्सा सोम में है।

(فتوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص139)

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▣ ➟  तस्बीहे फ़ातिमा हर नमाज़ के बाद पढ़ी जाये या सिर्फ फ़ज्र व अस्र के बाद?

▣ ➟   जिन नमाज़ों के बाद सुन्नतें हैं उन में सलाम के बाद मुख्तसर दुआओं पर इक्तिफा करना चाहिये ताकि सुन्नतों में ज़्यादा ताखीर ना हो कि ज़्यादा ताखीर को फुक़हा -ए- किराम ने मकरूह फ़रमाया है।

(در مختار میں ہے، ج1 ص530)

▣ ➟   रही तस्बीहे फ़ातिमा तो उस की फ़ज़ीलत अहादीसे करीमा में सौ मर्तबा पढ़ने के साथ खास है लिहाज़ा इस का शुमार अज़्कारे तवीला में होगा। इसीलिए सुन्नतों के बाद पढ़ना अफज़ल है और फ़ज्र व अस्र में चूँकि फ़र्ज़ नमाज़ के बाद सुन्नत नहीं है इसीलिये क़ब्ले दुआ पढ़ना बेहतर है और सलातो सलाम अगर लोग इज्तिमाई तौर से पढ़ रहे हो तो सलातो सलाम पढ़ना अफ़ज़ल है कि जमाअत में बरकत है बशर्ते कि लोग उस वक़्त नमाज़ में मशगूल ना हों वरना उन की नमाज़ में खलल होगा और दुआ -ए- मजमा -ए- मुस्लिमीन अक़रब बकौल उलमा फरमाते हैं, जहाँ चालीस मुस्लमान जमा होते हैं, उन में एक वली अल्लाह ज़रूर होता है।

(ایسا ہی فتاویٰ رضویہ ج9، ص175، میں ہے) 

(فتاویٰ مرکز تربیت افتا ،ج1 ص148)

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▣ ➟  गुमराह के पीछे नमाज़

▣ ➟  वो गुमराह इमाम जिस की गुमराही हद्दे कुफ्र को पहुँच गयी हो जैसे राफ़ज़ी, देवबंदी, वहाबी, नज्दी वग़ैरह कि ये लोग अल्लाह और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तौहीन करते हैं या तौहीन करने वालों को अपना पेशवा या कम अज़ कम मुसलमान ही जानते हैं, इन के पीछे नमाज़ पढ़ने से सवाब मिलना तो दरकिनार नमाज़ ही नहीं होती।

▣ ➟  और अगर गुमराही हद्दे कुफ्र को पहुँची हो तो ऐसे इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ना गुनाह व मकरूहे तहरीमी वाजिबुल इआदा है ख्वाह हालते इख़्तियार में पढ़ना या इस्तिराब में।

▣ ➟  लिहाज़ा ऐसे इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले तो तौबा व इस्तिग़फ़ार करें और जितनी नमाजें पढ़ चुके हैं उन का इआदा करें ।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص149)

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▣ ➟  इमामत कैसे करें? इमाम की निय्यत

▣ ➟   इमाम मुन्फरिद की तरह करेगा क्योंकि वो बज़ाते खुद मुन्फरिद की मंज़िल में है और इमाम को इमामत की निय्यत करना ज़रूरी नहीं है, बग़ैर इस के भी मुक़्तदियों की नमाज़ सही है मगर फ़ज़ीलते जमाअत के हुसूल के लिये वो हाज़िरीन की भी निय्यत करे मस्लन फ़ज्र की निय्यत यूँ करे, निय्यत की मैने आज की दो रकअत नमाज़े फ़ज्र की और हाज़िरीन की इमामत की।

▣ ➟   बहारे शरीअत में है, इमाम को निय्यते इमामत मुक़्तदी की नमाज़ सही होने के लिये जरूरी नहीं है, यहाँ तक कि अगर इमाम ने ये क़स्द कर लिया कि फलाँ का इमाम नहीं हूँ और इस ने इस की इक़्तिदा की नमाज़ हो गयी। मगर इमाम ने इमामत की निय्यत ना की तो सवाबे जमाअत ना पायेगा।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص149)

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▣ ➟  अंधे की इमामत

▣ ➟  सवाल : ज़ैद एक मस्जिद का इमाम है और बकर का ये इल्ज़ाम है कि ज़ैद की नज़र चली गयी इसीलिये ज़ैद के पीछे नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है, जब कि ज़ैद अपनी ज़रूरिय्यात को खुद पूरी करता है, ज़ैद और बकर के लिये क्या हुक्म है?

▣ ➟  जवाब : बकर का ये कहना सहीह नहीं कि "ज़ैद की नज़र चली गयी है इसीलिये ज़ैद के पीछे नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं" अगर वो सुन्नी सहीहुल अक़ीदा, सहीहुल किरअत है तब तो उसकी इक़्तिदा में नमाज़ बिला शुब्हा जाइज़ व दुरुस्त है और कोई अदना सी कराहत भी नहीं, हाँ अगर वो नाबीना हो गया होता और जमाअत में कोई दूसरा इस से बेहतर होता तो इस सूरत में उस की इमामत ख़िलाफ़े अवला होती मगर नाजाइज़ अब भी ना होती कि ख़िलाफ़े अवला जाइज़ होता है गो कि इस से बचना बेहतर हो।

▣ ➟  बकर गलत मसअला बताने की वजह से सख्त गुनाहगार हुआ उस पर लाज़िम है कि तौबा करे और आइंदा बगैर इल्म के मसअला ना बताने का पुख्ता अहद करे। हदीस शरीफ में है कि : जो बगैर जानकारी के मसअला बताये उस पर आसमान व ज़मीन के फिरिश्ते लानत करते हैं।

(کنز العمال، ص193 ج10) ایسا ہی فتاوی رضویہ ص275، ج9۔ نصف آخر میں ہے۔

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص152)

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▣ ➟  लाउड स्पीकर की अज़ान

▣ ➟  उलमा -ए- मुहक़्किक़ीन के नज़दीक ये इख़्तिलाफ़ है कि लाउड स्पीकर की आवाज़ बिऐनिही मुतकल्लिम की आवाज़ है या नहीं?
बाज़ उलमा -ए- बय्यिना मुतकल्लिम की आवाज़ मानते हैं और बाज़ नहीं मानते तो अगर लाउड स्पीकर से अज़ान हो और लाउड स्पीकर की आवाज़ मुतकल्लिम की आवाज़ ना मानें तो खामोश रहने और जवाब देने के बारे में वो हुक्म ना होगा जो अज़ान की असल आवाज़ पर है और अगर मुतकल्लिम ही की आवाज़ मानें तो फिर वही हुक्म होगा जो अज़ान की असल आवाज़ पर है कि जब अज़ान हो तो इतनी देर के लिये सलाम, कलाम और जवाबे सलाम तमाम काम काज छोड़ दिये जायें और अज़ान को गौर से सुना जाये और अज़ान का जवाब दिया जाये कि जो अज़ान के वक़्त बातों में मशगूल रहता है उस पर माज़ अल्लाह ख़ातिमा बुरा होने का अंदेशा है कि अज़ान के वक़्त खामोश रहें, ख्वाह लाउड स्पीकर से अज़ान हो या बगैर लाउड स्पीकर के।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص159)

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▣ ➟   अज़ान के आगे या पीछे कुछ अल्फ़ाज़ का इज़ाफा करना कैसा है?

▣ ➟    अगर इस से तस्वीब मुराद है यानी अज़ान के बाद नमाज़ के लिये दोबारा ऐलान करना जैसे "الصلوۃ والصلاۃ یا قامت قامت یا الصلاۃ والسلام علیک یا رسول اللہ" अपने अपने उर्फ के मुताबिक़ तो ये मुस्तहसन है सिवाये मग़रिब के।

▣ ➟   ये अज़ान से पहले दुरूद शरीफ़ पढ़ना ये भी दुरुस्त है अज़ान के कलिमात में इज़ाफ़ा नहीं, दुरूद शरीफ़ पढ़ने से रोकने के लिये वहाबिया ने तरह तरह के शुब्हात लोगों में फैला रखे हैं लेकिन सुन्नियों को इन के बहकावे में ना आना चाहिये।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1)

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▣ ➟  फासिक़ की अज़ान का हुक्म

▣ ➟   सवाल: ज़ैद एक मस्जिद में अज़ान देता है पेंट शर्ट और इंग्लिश स्टाइल के बाल तरश्वाता, खशखशी दाड़ी रखता है लिहाज़ा ऐसे शख्स की अज़ान और इसके बारे में क्या हुक्म है?

▣ ➟   जवाब : अगर ज़ैद में ये सारी खराबियाँ हैं तो ज़ैद फासिके मुअल्लिन है, उसे मुअज़्जिन बनाना जाइज़ नहीं, बल्कि माज़ूल करना लाज़िम है। हदीस शरीफ़ में है इमाम ज़ामिन और मुअज़्ज़िन अमानतदार।

(سنن ابو داؤد شریف ص77)

▣ ➟   और ज़ाहिर है कि फ़ासिक़ अमीन नहीं हो सकता लिहाज़ा मक़सूदे अज़ान के आलामे बावक़्ते नमाज़ सहरी व इफ़्तार है जो फ़ासिक़ की अज़ान से हासिल नहीं हो सकता बल्कि इसकी अज़ान मकरूह है दोबारा अज़ान दी जाये।

▣ ➟  बहारे शरीअत में है खुंसा व फ़ासिक़ अगर्चे आलिम ही हो और नशा वाले और पागल और ना समझ बच्चे और जुनुब की अज़ान मकरूह है। इन सब की अज़ान का इआदा किया जाये।
(ج3، ص31)

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص167)

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▣ ➟  
غَیرِالمغضوب
पढ़ने से नमाज़ फ़ासिद ना होगी लहन से नमाज़ कब फ़ासिद होती है?

▣ ➟   कंज़ुल ईमान में शाया शुदा मसअला दुरुस्त है यानी غَیرِ المغضوب को غَیرُ المغضوب या ء के ज़ुम्मा के साथ पढ़ लिया तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी वजह ये है कि लहन से नमाज़ उसी वक़्त फ़ासिद होगी जब माना फ़ासिद हो जाये अगर माना फ़ासिद ना हो तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी अलबत्ता ऐसा लहन मकरूह है।

▣ ➟   रह गयी बात फैले हराम के बावजूद नमाज़ के सहीह होने की तो ये ऐसे ही है जैसे कोई शख्स नमाज़ में किरअत जान बूझ कर बे तरतीब पढ़ दे तो अगर्चे इस का ये फेल हराम है और वो अपने इस फेले हराम के सबब गुनाहगार होगा लेकिन नमाज़ हर हाल में अदा हो जायेगी।

(فتاویٰ مرکز تربیت افتا ج1، ص169)

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▣ ➟   अगर ایاکا نستعین पढ़ा तो नमाज़ होगी या नहीं?

▣ ➟    सवाल : अगर किसी ने ایاک نستعین में काफ़ ज़मीर के ज़बर को खींच कर पढ़ दिया अलिफ़ के मानिंद हो गया तो उस की नमाज़ होगी या नहीं?

▣ ➟    जवाब : जिस शख्स ने नमाज़ की किरअत ایاک نستعین में काफ़ ज़मीरे मुंफसिल के ज़बर को खींचकर पढ़ दिया कि वो अलिफ़ के मानिंद हो गया तो उसकी नमाज़ हो जायेगी क्योंकि यह अलिफ़ की ज़्यादती से मानी में कोई तग़य्युर वाकेअ नहीं है इस बाब में क़ायदा ए कुल्लिया ये है कि अगर ऐसी ग़लती हो जिस से मानी बदल जाये तो नमाज़ फ़ासिद हो जाएगी वरना नहीं और अगर एराबी ग़लती ऐसी हो जिस से माना बदल जाये तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी जैसे وَاَنْھٰی عَنِ الْمُنْکَرِ ने "ر" के बाद "ی" ज़्यादती है उस के बावजूद भी नमाज़ फ़ासिद नहीं होती कि तग़य्युर माना नहीं है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص169)

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▣ ➟  मुशाबिहत में एक सूरत से दूसरी सूरत में पहुँच गया तो नमाज़ होगी या नहीं? और सजदा ए सह्व ज़रूरी है या नहीं?

▣ ➟  सवाल : ज़ैद मस्जिद का इमाम है फ़ज्र की नमाज़ में अलहम्द शरीफ के बाद "والعدیت ضبحا" की तिलावत की मगर सूरत पूरी होने में एक आयत बाक़ी थी कि मुशाबिहत की वजह से सूरह क़ुरैश पढ़ने लगा और पूरी सूरह क़ुरैश को पढ़ कर रुकूअ सजदा करके नमाज़ मुकम्मल कर लिया इस सूरत में नमाज़ होगी या सजदा ए सह्व की ज़रूरत है?

▣ ➟  जवाब : इमाम के "وَحُصِّلَ مَا فِی الصُّدُوْرِ" के बाद सूरह क़ुरैश की आयत पढ़ने से नमाज़ फ़ासिद ना होगी और ना सजदा ए सह्व की ज़रूरत क्योंकि नमाज़ उस वक़्त फ़ासिद होती है जब कि माना फ़ासिद हो जाये और सूरते मज़कूरा में माना फ़ासिद नहीं होता लिहाज़ा नमाज़ फ़ासिद ना हुई। हाँ अगर आयत याद करने में बा क़द्रे रुक्न साकित रहा तो सजदा ए सह्व वाजिब है वरना नहीं।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص170) 

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▣ ➟  अल्फ़ाज़े क़ुरआन अदा ना हो तो क्या नमाज़ में उन का तर्जुमा पढ़ सकता है?

▣ ➟   जिस शख्स से अरबी का सहीह तलफ़्फ़ुज़ अदा ना हो तो वो किसी और ज़ुबान में अरबी का तर्जुमा वग़ैरह हरगिज़ नहीं पढ़ सकता बल्कि इस पर हुरूफ़ की सहीह अदायगी की कोशिश वाजिब है और कोशिश के बावजूद सहीह हुरूफ़ अदा नही होते तो इस कोशिश के दौरान नमाज़ वग़ैरह सहीह व दुरूस्त है अगर कोशिश तर्क कर दी तो गुनाहगार होगा और नमाज़ फ़ासिद होगी जैसा कि दुर्रे मुख्तार में है :

(ج1، ص582)

(فتاویٰ مرکز تربیت افتا، ص173،ج1)

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▣ ➟  अत्तहिय्यात से पहले बिस्मिल्लाह पढ़ना मकरूहे तहरीमी है।

▣ ➟  सवाल : अत्तहिय्यात के शुरू में बिस्मिल्लाह नहीं पढ़ना चाहिये। ये नहीं (मना) तहरीमी है या तंज़ीही?

▣ ➟   जवाब : अत्तहिय्यात के शुरू में बिस्मिल्लाह पढ़ना मकरूहे तहरूमी है कि ये आयते क़ुरआनी है जो कियाम के सिवा किसी और रुक्न में पढ़ना जाइज़ नहीं।

▣ ➟   फ़तावा रज़विय्या में है : कियाम के सिवा रुकूअ व सुजूद क़ुऊद किसी जगह बिस्मिल्लाह पढ़ना जाइज़ नहीं कि वो आयते क़ुरआनी है और नमाज़ में कियाम के सिवा और जगह कोई आयत पढ़नी मम्नूअ है।

(ج3، ص134)

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص181)

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▣ ➟   जमाअत खड़ी हो तो आने वाला कहा खड़ा हो? सफ़ में जगह छोड़ना मकरूहे तहरीमी है?

▣ ➟  अगर बायीं जानिब मुक़तदी कुछ कम हों तो आने वालों के लिये बायीं जानिब खड़ा होना अफ़ज़ल है वो अक़रब अलल इम्कान और अगर इमाम के दोनों जानिब मुक़तदी बराबर हों तो दायीं जानिब खड़ा होना अफ़ज़ल है।

▣ ➟   रहा किसी के लिये सफ़ में जगह छोड़ना तो ये मम्नूअ व नाजाइज़ व मकरूहे तहरीमी है। आला हज़रत रदीअल्लाहु त'आला अन्हु फ़रमाते हैं : वस्ले सुफूफ और उन की रुख्ना बंध अहम ज़रूरिय्यात से है और तर्क फर्जा मम्नूअ व नाजाइज़ है।

 (فتاوی رضویہ، ج3، ص316)

▣ ➟   और इसी में सफ़ह 318 पर है "किसी सफ़ में फर्जा रखना मकरूहे तहरीमी है।"

▣ ➟   और इसी में सफ़ह 318 पर है "किसी सफ़ में फर्जा रखना मकरूहे तहरीमी है।"

▣ ➟   हदीस शरीफ में है : सफ़े दुरुस्त करो और अपने काँधे सब एक सीध में रखो और सफ़ के रुख्ने बन्द करो और मुसलमानों के हाथों में नर्म हो जाओ और सफ़ में शैतान के लिये खिड़कियाँ ना छोड़ो और जो शख्स सफ़ को मिलायेगा अल्लाह त'आला उसे मिलायेगा और जो शख्स सफ़ को काटेगा अल्लाह त'आला उसे काटेगा।

 (ابو داؤد شریف ج1، ص97)

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص188)

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▣ ➟  मालूम न हो कि इमाम सुन्नी है या वहाबी तो उसकी इक़्तिदा कर लें या नहीं?

▣ ➟   सवाल : एक पीर साहब ने कहा कि अगर अजनबी जगह गये जमाअत खड़ी है मालूम नहीं इमाम सुन्नी है या देवबंदी तो नमाज़ पढ़ लें बाद में मालूम हुआ कि  इमाम देवबंदी है तो नमाज़ दोहरानी पड़ेगी क्योंकि देवबंदी के पीछे नमाज़ नहीं होती है। क्या ये सहीह है?

▣ ➟   जवाब : पीर साहब का कहना दुरुस्त है कि "अगर अजनबी जगह गये जमाअत खड़ी है मालूम नहीं कि इमाम सुन्नी है या देवबंदी तो नमाज़ पढ़ लें बाद में मालूम हुआ कि इमाम देवबंदी है तो नमाज़ दोहरानी पड़ेगा। 

▣ ➟   इसी तरह एक सवाल के जवाब में आला हज़रत लिखते हैं। "जब कि शुब्हा की कोई वजह क़वी ना हो जमाअत से पढ़े फिर अगर तहक़ीक़ हो कि इमाम वहाबी था तो नमाज़ फेरे।

(فتاوی رضویہ، ج3، ص250)

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص.)

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▣ ➟  दरमियाने सफ़ में कोई बैठ कर नमाज़ पढ़े तो क्या सफ़ मुंक़त'अ हो जायेगी?

▣ ➟  अगर किसी को ऐसा उज़्र हो गया कि वो कियाम पर क़ादिर नहीं तो वो माज़ूर है बैठ कर नमाज़ पढ़ने की इजाज़त है। सफ़ में जहाँ जगह मिले वहाँ बैठ सकता है इस की वजह से क़त'अ सफ़ ना होगा और अदमे जवाज़ की कोई वजह पाई नहीं जाती इसीलिये सफ़ के दरमियान या किनारे जहाँ से जगह मिले वहाँ बैठ कर नमाज़ पढ़े।

(فتاویٰ مرکز تربیت افتا، ج1 ص261)

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▣ ➟  नमाज़ का वक़्त निकल रहा हो या पख़ाना पेशाब इस ज़ोर का लगा हो कि नमाज़ शुरू करने पर नमाज़ ही में हो जाने का खतरा हो तो नमाज़ पढ़ें या क़ज़ा करें?

▣ ➟    पेशाब या पखाना की हाजत शदीद मालूम होने की हालत में नमाज़ पढ़ना मकरूहे तहरीमी है, इसीलिये रफ़ा ए हाजत के बाद ही नमाज़ पढ़े और अगर वक़्त इतना तंग है कि रफ़ा ए हाजत और वुज़ू करने में वक़्त निकल जाने का अंदेशा हो तो उसी हालत में नमाज़ अदा कर ले लेकिन अगर उस का ज़न ग़ालिब है कि नमाज़ ही की हालत में पेशाब या पख़ाना हो जाएगा तो रफ़ा ए हाजत करे उस के बाद उस नमाज़ की क़ज़ा करे।

(فتاویٰ مرکز تربیت افتا، ج1 ص240،241)

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▣ ➟  टोपी मोड़ कर नमाज़

▣ ➟   जाड़े के मौसम में ऊनी टोपी मोड़ कर पहनने का जो रिवाज है वो शरअन कफे सौब नहीं क्योंकि फुक़हा की इस्तिलाह में "कफे सौब" (कपड़ा मोड़ना) ये है कि आदत के ख़िलाफ़ कपड़ा को मोड़ कर इस्तिमाल किया जाये और यहाँ ऐसा नहीं है। टोपी आम तौर पर मोड़ कर ही इस्तिमाल करने की आदत है बल्कि बहुत सी टोपियाँ यूँ ही मोड़ कर ही पहनी जाती हैं इसीलिए जाइज़ है और इस की वजह से नमाज़े में ज़र्रा बराबर भी कराहत ना आयेगी। आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं कि किसी कपड़े को ऐसा ख़िलाफ़े आदत पहनना जिसे मुहज़्ज़ब आदमी मजमा ना कर सके और करे तो अदब ख़फ़ीफुल हरकात समझा जाये ये भी मकरूह है।

(فتاویٰ مرکز تربیت افتا، ج1 ص242)

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▣ ➟  क्या ज़िंदगी ही में नमाज़ों का फिदिया दिया जा सकता है?

▣ ➟  क़ज़ा नमाज़ों का फिदिया ज़िंदगी में नहीं अदा किया जा सकता कि फिदिया मर्द की जानिब से उस के वुरसा की मौत के बाद अदा करते हैं चुनाँचे हदीसे पाक में है : जो कोई मर जाये और उस पर रोज़े की क़ज़ा बाक़ी हो तो उस की जानिब से हर दिन के बदले एक मिस्कीन को खाना खिलाया जाये नीज़ सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम इरशाद फरमाते हैं : कोई किसी की जानिब से रोज़ा रखे नमाज़ पढ़े हाँ उस की तरफ से खाना खिला दे।

▣ ➟  इमाम तहतावी फरमाते हैं : यानी फिदिया दे कर रोज़ा साकित करने के बारे में नस वारिद है और मशाइख़ इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस मसअले में नमाज़ रोज़ा के मिस्ल है इसीलिये कि वो रोज़े से अहम है।

▣ ➟  अल्लामा हस्कफ़ी रहमतुल्लाह त'आला अलैह फरमाते हैं : अगर किसी की वफ़ात हो गयी और उस के जिम्मे क़ज़ा नमाज़ें हैं और कफ़्फ़ारे की वसिय्यत कर गया तो हर नमाज़ और हर रोज़ा के बदल निस्फ सा गेहूँ सदक़ा ए फित्र की मिक़दार उस के तिहाई माल में से दिया जाये और अगर मय्यित ने कुछ माल ना छोड़ा तो उस का वारिस निस्फ सा गेहूँ लेकर एक नमाज़ या एक रोज़े के बदल किसी गरीब को दे फिर वो गरीब उसी वारिस को वापस कर दे और इसी तरह इतनी बार लौट फेर करे कि सब नमाज़ों और रोज़ों का फिदिया अदा हो जाये।

▣ ➟  लिहाज़ा जो शख्स मर जाये और उस के जिम्मे नमाज़ और रोज़े हों तो उन के बदले फिदिया दे सकता है लेकिन ज़िन्दा ये चाहे कि मै ज़िंदगी में ही फिदिया दे कर कज़ा नमाज़ों से बरीउज़्ज़िमा हो जाऊँ तो ऐसा नहीं हो सकता। अहादीसे पाक में मौत के बाद फिदिये की अदायगी का हुक्म दिया गया है।

▣ ➟  लिहाज़ा बकर का क़ौल सहीह है कि बादे मौत वसिय्यत या बग़ैर वसिययत वुरसा का मय्यित के जिम्मे क़ज़ा नमाज़ों और रोज़ों का फिदिया देना सहीह है। इसीलिये ज़ैद के जिम्मे वो नमाज़ें बादस्तूर बाक़ी हैं उसे चाहिए कि उन्हें अदा कर और अगर सहीह कोशिश के बावजूद ना कर सके तो बादे मौत अपने वुरसा को फिदिया की अदायगी की वसिय्यत कर जाये।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص287-288)

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▣ ➟  किन वुजूहात की बिना पर सजदा ए सह्व साकित हो जाता है?

▣ ➟   बेशक कुछ वाजिबात ऐसे हैं कि सजदा ए सह्व वाजिब होने के बाद भी साकित हो जाता है मस्लन वक़्त में गुंजाइश ना हो तो सजदा ए सह्व साकित हो जायेगा। जैसा कि फ़क़ीहे आज़मे हिन्द हुज़ूर सदरुश्शरिया रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं :

▣ ➟   सजदा ए सह्व उस वक़्त वाजिब है कि वक़्त में गुंजाइश हो अगर वक़्त ना हो मस्लन नमाज़े फ़ज्र में सह्व वाकेअ हो और पहला सलाम फेरा और सजदा अभी किया कि आफताब तुलू कर आया तो सजदा साकित हो गया यूँ ही अगर क़ज़ा पढ़ता था और सजदा से पहले क़रसे आफताब ज़र्द हो गया सजदा साकित हो गया। जुम्आ या ईद का वक़्त जाता रहेगा जब भी यही हुक्म है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص292-293)

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▣ ➟   सजदा वाजिब था मगर दुरुदे इब्राहीम शुरू कर दिया तो सजदा कब करे?

▣ ➟    ऐसी सूरत में ज़ैद दुरुदे इब्राहीम पूरा करने के बाद सजदा ए सह्व करे इसके लिये अहवाल (ज़्यादा मुहतात) तरीक़ा यही है कि अत्तहिय्यात पढ़ने के बाद दूरूद शरीफ भी पढ़े इस के बाद सजदा ए सह्व करे फिर अत्तहिय्यात व दुरूद शरीफ़ वग़ैरह पढ़कर सलाम फेरे।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص294)

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▣ ➟   मुसाफ़िर पर जमात वाजिब है या नहीं अगर है तो तर्क पर फ़ासिक़ होगा या नहीं? 

▣ ➟    मुसाफ़िर पर जमात वाजिब है या नहीं इस सिलसिले में उलमा का इख़्तिलाफ़ है कोई वुजूब और कोई अदम-ए-वुजूद का क़ौल करता है मगर आला हज़रत क़ुद्स सिर्रहु ने इन दोनों क़ौल के दरमयान तत्बीक़ फ़रमाई कि अगर मुसाफ़िर हालत-ए-क़रार में है तो जमात वाजिब है और अगर हालत-ए-फ़रार में है तो वाजिब नहीं। 
अलबत्ता हालत-ए-क़रार में होते हुए अगर मुसाफ़िर जमात तर्क करे तो उस पर फ़िस्क़ का हुक्म ब-निस्बत मुक़ीम के हल्का होगा। 

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 295)

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▣ ➟  क्या दौराने खुत्बा आयते करीमा صلوا علیہ وسلموا تسلیما पर बुलंद आवाज़ से दुरूद शरीफ पढ़ सकते हैं?

▣ ➟  खतीब जब खुत्बा में नबी पाक सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम का इस्मे पाक ले या आयते सलातो पढ़े तो सामईन को दिल में दूरूद दुरूद शरीफ पढ़ने का हुक्म है। उस वक़्त ज़ुबान से पढ़ने की इजाज़त नहीं।

▣ ➟  और मुजद्दिदे आज़म इमाम अहमद रज़ा खान अलैहिर्रहमा फरमाते हैं : और ख़ुत्बे में हुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम का इस्म पाक सुनकर दिल में दुरूद पढ़ें ज़ुबान से सुकूत फ़र्ज़ है।

(فتاوی رضویہ، ج3، ص709) 

▣ ➟  ऐसा ही फ़तावा मुस्तफविय्या सफ़हा 220, बहारे शरीअत जिल्द 4, सफ़हा 103  में भी है। 

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص300)

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▣ ➟  मुसाफ़िर को जुम्आ मुआफ़ है, जुम्आ के दिन ज़वाल के वक़्त सफर मकरूह है और ज़वाल से पहले बेहतर नहीं।

▣ ➟  मुसाफ़िर को जुम्आ की नमाज़ मुआफ़ है लेकिन जुम्आ के दिन ज़वाल के बाद सफर करना मकरूह है और ज़वाल से पहले भी सफर करना अच्छा नहीं और आला हजरत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि जिधर सफर को जाये जुमेरात या पीर का दिन हो और सुबह का वक़्त मुबारक है और अहले जुम्आ को रोज़े जुम्आ क़ब्ले जुम्आ सफर करना अच्छा नहीं।

(فتاوی رضویہ، ج4، ص292)

▣ ➟  अलबत्ता अगर किसी मजबूरी या खास वजह से सफर करना पड़े और वापसी में भी जुम्आ के दिन अस्र की नमाज़ से क़ब्ल पहुँचे तो उस वक़्त मुसाफ़िर पर ज़ुहर की नमाज़ अदा करना फ़र्ज़ है।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص308)

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▣ ➟   क्या एक ही मस्जिद में दो मर्तबा जुम्आ जायज़ है? 

▣ ➟  एक मस्जिद में दो मर्तबा जुम्आ की नमाज़ पढ़ना नाजायज़ है। इसीलिए कि नमाज़ -ए- जुम्आ के लिए ज़रूरी है कि इमाम ख़ुद सुलताने इस्लाम हो या उस का मुक़र्रर कर्दा वमाज़िन हो और ये ना हो तो ब-ज़रूरत वहां के मुसलमानों ने जिसे इमामते जुम्आ के लिए मुअय्यन व मुक़र्रर किया हो और मस्जिदे वाहिद के लिए दो इमाम की ज़रूरत नहीं, कि अवाम अज़ ख़ुद मुक़र्रर कर लें हाँ अगर मस्जिद तंग हो और वहाँ कोई सुन्नी जामे मस्जिद भी ना हो तो अराकीने मस्जिद सुन्नी क़ाज़ी के यहाँ उस की दरख्वास्त पेश करें अगर क़ाज़ी ज़रूरत समझे तो एक और लाइके इमाम शख़्स को इमामते जुम्आ की हैसियत से मुक़र्रर कर दे, अब ब-वजहे ज़रूरत बारी बारी दोनों की इक़्तिदा में नमाज़ दुरुस्त होगी लेकिन एक इमाम की इक़्तिदा में दो जमा'अत हरगिज़ जायज़ नहीं।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1, ص 318)

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▣ ➟  मुसाफ़िर जुम्आ पढ़ ले तो ज़ुहर साक़ित होगी या नहीं? और जुम्आ के तकमील के लिए कितनी चीज़ों का पाया जाना ज़रूरी है? 

▣ ➟   अगर मुक़ीम इमाम की इक़्तिदा में मुसाफ़िर ने जुम्आ अदा की तो जुम्आ की नमाज़ सही है और ज़ुहर उस के ज़िम्मे से साक़ित होगी। 

▣ ➟   जुम्आ पढ़ने के लिए 6 शर्तें हैं, उनमें से एक भी शर्त मफ़क़ूद हो तो होगा ही नहीं। 

(1) मिस्र या फ़ना-ए-मिस्र।
(2) सुलताने इस्लाम या उस का नायब जिसे जुम्आ क़ायम करने का हुक्म दिया। 
(3) वक़्ते ज़ुहर।
(4) ख़ुत्बा। 
(5) जमात यानी इमाम के इलावा कम से कम तीन मर्द। 
(6) इज़्ने आम यानी मस्जिद का दरवाज़ा खोल दिया जाये कि जिस मुसलमान का जी चाहे आए कोई रोक टोक ना हो। 

▣ ➟   मज़ीद तफ़सील के लिए बहारे शरीयत, जिल्द 4, सफ़ा - 83 का मुताला करें! 

فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 319)

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▣ ➟  ख़ुदकुशी करने वाले की जनाज़ा पढ़ना कैसा है? 

▣ ➟    ख़ुदकुशी करने वाला अगर मुसलमान है तो उस की नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाएगी यही सही है। और आला हज़रत रदीअल्लाहु त'आला अन्हु ने यही लिखा है कि उस की नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाएगी, इस वक़्त अल-मल्फ़ूज़ जो दस्तयाब है उस में ना-जायज़ वाली बात नहीं लिखी है और अगर किसी क़दीम नुस्ख़ा में ना-जायज़ लिखा हो तो उसे किताबत व तबा'अत की ग़लती समझें! 


(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 327)

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▣ ➟  हिजड़े की जनाज़ा पढ़े या नहीं? 

▣ ➟   अगर हिजड़ा मुसलमान है तो बिला शुब्हा उस की नमाज़े जनाज़ा पढ़ना जायज़ व दुरुस्त बल्कि फ़र्ज़-ए-किफ़ाया है अगर्चे वो कैसा ही गुनाहगार व मुर्तकिब-ए-कबीरा हो अगर्चे उसने ज़िंदगी में कभी नमाज़ ना पढ़ी हो!

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص, 342)

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▣ ➟  पेशाब के साथ मनी निकलना

▣ ➟   अगर मनी अपनी जगह से शहवत के साथ जुदा नहीं होती तो पेशाब के साथ निकलने से ग़ुस्ल वाजिब ना होगा अलबत्ता वुज़ू टूट जाएगा जैसा के सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं : "अगर मनी पतली पड़ गई कि पेशाब के वक़्त या वैसे कुछ फितरात बिला शहवत निकाल आई तो ग़ुस्ल वाजिब नहीं अलबत्ता वुज़ू टूट जाएगा।

(فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص70)

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▣ ➟  माए मुस्ता'मल से कपड़ा पाक होगा या नहीं? 

▣ ➟   सवाल: जै़द कहता है कि माए मुस्ता'मल से नापाक कपड़ा पाक किया जा सकता है और बकर  कहता है कि माए मुस्ता'मल
से कपड़े की सिर्फ वो नजासत दूर की जा सकती है जो सूखने पर नज़र आती है तो इन दोनों में किस का क़ौल सही है? 

▣ ➟   जवाब: जै़द का क़ौल सही है बेशक माए मुस्ता'मल से हर नापाक कपड़ा पाक किया जा सकता है ख़्वाह कैसी भी नजासत लगी हो ना कि सिर्फ वो नजासत दूर की जा सकती है जो सूखने पर नज़र आए। हाँ उस से सिर्फ वुज़ू व ग़ुस्ल नहीं हो सकता है ऐसा ही फ़तावा रज़विय्यह जिल्द: 1, स़फ़ा 264 के हाशिया और बहारे शरीअ़त, जिल्द 2, स़फ़ा 102 पर है! 

▣ ➟   और बकर का क़ौल सही नहीं वो तौबा करे कि उसने बे-इल्म फ़तवा दिया। 

▣ ➟   हदीस शरीफ़ में है यानी जिसने बे-इल्म फ़तवा दिया उस पर आसमान व ज़मीन के मलाइका ला'नत करते हैं। 

(کنز العمال، ج10، ص193)

(فتاوی فقیہ ملت،ج1، ص71)

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▣ ➟  इस्तिन्जा का बेहतर तरीक़ा

▣ ➟   सवाल: इस्तिन्जा का सही तरीक़ा क्या है? जै़द कहता है कि जो इमाम बग़ैर ढेले के इस्तिन्जा करता है उस के पीछे नमाज़ नहीं होती और बकर कहता है कि ढेला लेना ज़रूरी नहीं और जै़द ऐसे इमाम के पीछे नमाज़ नहीं पढ़ता तो क्या ऐसे इमाम के पीछे नमाज़ सही है या नहीं? अगर सही है तो जै़द पर शर'ई हुक्म क्या है? 

▣ ➟   जवाब: इस्तिन्जा का बेहतर तरीक़ा ये है कि बादे पेशाब पाक मिट्टी, कंकर या फटे पुराने कपड़े से पेशाब सुखाये फिर पानी से धो डाले लेकिन अगर सिर्फ पानी ही इस्तिमाल करे तो भी दुरूस्त है इस में कोई हर्ज नहीं और उस के पीछे नमाज़ पढ़ना बिला चूँ चिरा जायज़ है कि ढेले से इस्तिन्जा करना सुन्नत है फ़र्ज़ व वाजिब नहीं और ढेले के इस्तिमाल के बाद पानी का इस्तिमाल अफ़ज़ल है। 

▣ ➟   अलबत्ता अगर किसी को बा'द-ए-पेशाब क़तरा की शिकायत हो तो उस पर इस्तिबरा करना यानी ढेले वग़ैरा का इस्तिमाल करना वाजिब है। 

▣ ➟   और जै़द ने जो ये बात कही है कि जो इमाम बग़ैर ढेले के इस्तिन्जा करता है उस के पीछे नमाज़ नहीं होती हरगिज़ सही नहीं उस पर तौबा व इस्तिग़फ़ार लाज़िम कि उसने बग़ैर इल्म फ़तवा दिया हदीस शरीफ़ में है जिसने बग़ैर इल्म फ़तवा दिया उस पर ज़मीन व आसमान के फिरिश्ते ला'नत करते हैं।
(کنزل عمال، ج10، ص73)

▣ ➟   और वो इस बुनियाद पर इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ना छोड़कर जमा'अत तर्क करता है तो वो फ़ासिक़ व मरदूद शहादत है।  ऐसा ही फ़तावा रज़विय्या जिल्द 3, स़फ़ा: 380 पर है।

(فتاوی فقیہ ملت،ج1، ص 73)

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▣ ➟  वुज़ू के लिये मिस्वाक सुन्नते मुअक्किदा है या ग़ैर मुअक्किदा?

▣ ➟   हर नमाज़ के लिये वुज़ू करते वक़्त मिस्वाक करना सुन्नते ग़ैरे मुअक्किदा है। हाँ अगर मुँह में बदबू हो तो इसे दूर करने के लिये मिस्वाक करना सुन्नते मुअक्किदा है। जैसा कि इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी कुद्दस सिर्रहू तहरीर फरमाते हैं कि "मिस्वाक वुज़ू की सुन्नते क़ब्लिया है, हाँ सुन्नते मुअक्किदा उस वक़्त है जब कि मुँह में तग़य्युर हो।

(فتاوی رضویہ، ج1، ص155)

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص73)

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▣ ➟  नजिस कपड़ा पहन कर ग़ुस्ल करना कैसा है?

▣ ➟   नजिस कपड़ा पहन कर ग़ुस्ल नहीं करना चाहिए क्योंकि पानी पड़ने के बाद नजासत फैल जायेगी हाथ में लग जायेगी फिर बे एहतियाती से सारा बदन बल्कि बर्तन भी नजिस हो जायेगा, लिहाज़ा पाक कपड़ा ही पहन कर ग़ुस्ल करना चाहिये अगर कोई दूसरा पाक कपड़ा मौजूद ना हो तो पहले इस की नजासत दूर कर ले अगर नजासत वाले कपड़े को पहन कर पानी के बाहर ग़ुस्ल किया और अब पानी डाला तो अब वो कपड़ा पाक हो गया क्योंकि ज़्यादा पानी डालना तीन बार धोने और निचोड़ने के क़ाइम मक़ाम हो जायेगा और अगर तालाब या नदी में खूब ग़ुस्ल करे तो भी पाक हो जाएगा और दबाव पड़ने से भी नाजासत दूर हो जायेगी और अगर नजासत खुश्क है तो इसे रगड़ना ज़रूरी है क्योंकि बग़ैर रगड़े ऐसी नजासत का ज़वाल (खत्म होना) मुश्किल है महज़ मरूर माए (पानी का गुज़रना) या बार बार दबाव काफी नहीं।

(فتاوی مرکز تربیت افتا، ج1، ص75)

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▣ ➟  बैठ कर नमाज़ पढ़ने में रुकूअ का तरीक़ा

▣ ➟  जब मर्द बैठ कर नमाज़ पढ़े तो वो रुकूअ में इतना झुकेगा के पेशानी झुक कर घुटनो के मुक़ाबिल आ जाये और इतना करने के लिये सुरीन उठाने की ज़रूरत नही तो सुरीनोंं को उठा कर पाँव की उंगलियो को क़िब्ले की तरफ़ मुतवज्जह भी नही करेगा।
जैसा कि आला हज़रत अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं "बैठ कर नमाज़ पढ़ना तो इसका दर्जा ए कमाल व तरीक़ा ए आ'अदाल ये है कि पेशानी झुक कर घुटनों के मुक़ाबिल आ जाये इस क़द्र के लिये सुरीन उठाने की हाजत नही तो क़द्रे आ'अदाल से जिस क़द्र ज़ायद होगा बेकार व बेजा में दाखिल हो जायेगा"।

(فتاوی رضویہ، ج3، ص51)

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص 100)

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▣ ➟   इमाम से पहले अगर तशह्हुद पढ़ ले तो

▣ ➟   इमाम से पहले अगर तशह्हुद, दुरूद शरीफ़ और दुआ से फारिग हो जाये तो खामोश बैठा रहे या तशह्हुद को शुरु से फिर पढ़े या कलिमा ए शहादत की तकरार करे या कोइ दुआ पढ़े जो याद हो। और सहीह ये है कि पढ़ने में जल्दी ना करे इस तरह पढ़े की इमाम के साथ फारिग हो।

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص101)

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▣ ➟  नमाज़ की सुन्नते मुअक्कदा और गैरे मुअक्कदा

▣ ➟  फिक़्ह की किताबो में नमाज़ की सुन्नतो की तादाद मुख्तलिफ़ है। दुर्रे मुख्तार मा शामी जिल्द अव्वल में इसकी तादाद 23 है, फतावा आलमगीरी में 26 है, मज्मउल  अनहर शरह मुल्तक़ी अल बहर में 22, बहरुर रायिक़ शरह कंजूल दक़ाइक़ में 23, मिराक़िल फलाह शरह नूरुल ईज़ाह में 51 और किताबुल फिक़्ह अलल मज़ाहिबुल रबा में 40 है जब कि बहारे शरीअत जिल्द 3 में इनकी तादाद 90 है।

▣ ➟  लिहाज़ा किताबे फिक़्ह में सुन्नतो की तादाद मुख्तलिफ़ होने से ज़ाहिर यही है की बहारे शरीअत में बतायी गयी नमाज़ की सुन्नतें मुअक्कदा और गैर मुअक्कदा दोनों हैं।

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص102)

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▣ ➟  एक सजदा भूल जाए तो?

▣ ➟   नमाज़ में दोनों सजदे करना फ़र्ज़ है , लिहाज़ा जो सजदा भुल जाए हुक्म ये है कि अगर नमाज़ के आखिर में याद आया तो सजदा कर ले फिर अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा सह्व करे और अगर क़ादा या सलाम के बाद कलाम से पहले याद आया तो सजदा करके अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा सह्व करे और क़ादा भी करे वो क़ादा बातिल हो गया।

▣ ➟   हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि " किसी रकअत का कोई सजदा रह गया आखिर में याद आया तो सजदा कर ले फिर अत्तहिय्यात पढ़ कर सजदा सह्व करे और सजदा के पहले जो अफ़आले नमाज़ अदा किये बातिल ना होंगे। हाँ अगर क़ादा के बाद वो नमाज़ वाला सजदा किया तो जरूर वह क़ादा जाता रहा।
 (بہار شریعت، ج4، ص51)

▣ ➟   और अगर सलाम वा कलाम के बाद याद आया कि एक सजदा रह गया है तो फिर से नमाज़ पढ़े।

(فتاوی فقیہ ملت، ج4، ص51)

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▣ ➟  इमाम को रुकू में पायें तो? 

▣ ➟  अगर इमाम को रुकू में पायें और ये गालिब गुमान हो कि सना पढ़ेगा तो रुकू छूट जाएगा तो ऐसी सूरत मे सीधा खड़े होने की हालत में तकबीरे तहरीमा कहे और बगैर सना पढ़े तकबीर कहता हुआ रुकू में चला जाये और अगर इमाम का हाल मालूम हो कि रुकू में देर करता है सना पढ़ कर भी शामिल हो जाऊँगा तो सना पढ़ कर रुकू में जाये कि ये सुन्नत है और तकबीरे तहरीमा खड़े होने की हालत में ही कहना फ़र्ज़ है। बाज़ लोग जो नही जानते वो ये करते है कि इमाम अगर रुकू में है तो तकबीरे तहरीमा कहते हुये झुकते हैं। अगर इतना झुकने से पहले अल्लाहु अकबर खत्म ना किया कि हाथ फेलाए तो घुटने तक पहुँच जाए तो नमाज़ ना होगी। ऐसा ही फतावा रज़विय्या जिल्द सोम सफहा 193 में है।

▣ ➟  और हदीस शरीफ में है : जिस ने इमाम को (रुकू में) पाया और इमाम के सर उठाने से पहले रुकू कर लिया तो उसे वो रकअत मिल गयी।

 (بیہقی شریف جلد دوم صفحہ128)

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص105) 

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▣ ➟  इस दुआ के बाद आमीन नही कहना चाहिये।

▣ ➟   सवाल : इमाम फ़र्ज़ नमाज़ के बाद दुआ माँगता है और दुआ में ये आयते करीमा "لا الہ الا انت سبحنک انی کنت من الظلمین" पढ़ता है और मुक़्तदी आमीन पुकारते है ज़ैद ये केहता है कि ये आयाते करीमा फ़र्ज़ नमाज़ के बाद बतौरे दुआ पढ़ना और मुक़्तदियों का पीछे आमीन कहना जाइज नहीं क्योंकि आला हज़रत ने फ़तावा रज़विय्या के अंदर मना फरमाया है  ज़ैद का कहना दुरुस्त है या नहीं?

▣ ➟   जवाब : ज़ैद का कहना दुरुस्त है कि इस आयत को बतौरे दुआ पढ़ना और मुक़्तदी पीछे आमीन कहें जाइज नही अल्बता कोई शख्स किसी परेशानी में मुब्तिला हो तो इस आयत को बतौरे वज़ीफ़ा पढ़ कर अल्लाह तआला से दुआ करे तो वो दुआ कुबूल फरमा लेता है।

▣ ➟   मगर आला हज़रत इमाम अहले सुन्नत सैय्यिदुना इमाम अहमद रजा मुहद्दिस बरेलवी  رَحْمَۃُ اللہِ تَعَالٰی عَلَیْہِ का क़ौल इसके मुतालिक़ नज़र से नही गुज़रा। 

(فتاوی فقیہ ملت، ج1،ص107)

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▣ ➟ नमाज़ के बाद मुसल्ले का कौना मोड़ना कैसा?

▣ ➟  आला हज़रत علیہ الرحمۃ والرضوان इसी तरह के एक सवाल का जवाब देते हुये तहरीर फरमाते है : रसूलुल्लाह صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم ने इरशाद फरमाया " शैतान तुम्हारे कपड़े अपने इस्तिमाल में लाता है तो कपड़ा उतार कर तह कर दिया करो कि इस का दम रास्त् हो जाये कि शैतान तह किये हुए कपड़े को नही पहनता।"

۔ (کنز العمال، ج15، ص299)

▣ ➟  और मुअजमुल औसत तबरानी में है " कपड़े लपेट दिया करो कि उन की जान में जान आ जाये की शैतान जिस कपड़े को लपेटा हुआ देखता है उसे नहीं पहनता और जिसे फेला हुआ पता है उसे पहनता है।"

۔ (کنز العمال، ج15، ص299)

▣ ➟  और इब्ने अबिददुनिया में है " जहाँ कोई बिछौना बिछा हो जिस पर कोई सोता ना हो उस पर शैतान सोता है। इन अहादिस से इस की अस्ल निकलती है और पुरा लपेट देना बेहतर।"

 (فتاوی رضویہ، ج3، ص75)

▣ ➟  बाकी ये कि शैतान इस पर नमाज़ पढता है, ये बात सहीह नही है।

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص108)

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▣ ➟  सवाल : नमज़ी के आगे से गुज़रना बहुत बड़ा गुनाह है तो सामने कौन सी ऐसी चीज़ रखी जाये कि जिसके सबब आगे से गुज़र सकें? घर में नमाज़ पढ़ने में दिक्कत होती है। 

▣ ➟   जवाब: घर की दीवार या किसी खंबे के सामने नमाज़ पढ़ी जाये और अगर ये मुमकिन ना हो तो कम से कम एक हाथ यानी देढ़ फीट ऊंची और उंगली के बराबर मोटी कोई चीज़ सामने रख ली जाये तो इसके पीछे से गुज़र जाना जायज़ होगा।

▣ ➟   बिला उज़्रे शरई घर में नमाज़ पढ़ने और जमाअत को छोड़ने वाला फासिक़ मर्दूदशहदा है। जमाअत छोड़ने का उज़्र है कि मरीज़ जिसे मस्जिद तक जाने में मशक़्क़त हो, अपाहिज़ जिसका पाँव कट गया हो, जिस पर फालिज हुआ, इतना बूढ़ा कि मस्जिद तक जाने से आजिज़ हो, अंधा अगरचे कोई ऐसा हो जो इसे मस्जिद तक पहुँचा दे, सख्त बारिश और सख्त कीचड़ का हाइल होना, सख्त सर्दी, सख्त तारीकी, आँधी, माल या खाने के तलफ होने का अंदेशा, क़र्ज़ ख्वाह का खौफ और ये रंग दस्त है ज़ालिम का खौफ़, पख़ाना पेशाब या रीह की सख्त हाजत है, खाना हाज़िर है और नफ़्स को इस ख्वाहिश हो, मरीज़ की तीमार दारी कि जमाअत के लिये जाने से उस को तकलीफ़ होगी और घबराएगा, ऐसा ही बहारे शरीअत, जिल्द 3, सफ़हा 131 पर है।

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص149)

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▣ ➟  बिला उज़्र जमा'अत छोड़ना

▣ ➟  हदीस शरीफ में है: हुज़ूर ﷺ ने फरमाया जिस ने अज़ान सुनी और आने से कोई उज़्र माने नहीं उसकी वो नमाज़ मक़्बूल नहीं लोगों ने अर्ज़ की उज़्र क्या है ?फरमाया खौफ या मर्ज़
और एक रिवायत में है जो अज़ान सुने और बिला उज़्र हाज़िर ना हो उसकी नमाज़ ही नहीं।

(بہار شریعت ج3، ص146)

▣ ➟  और आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु फरमाते हैं : जमा'अत हर मुसलमान पर वाजिब है यहाँ तक कि तर्के जमा'अत पर सहीह हदीस में फरमाया ज़ुल्म और कुफ्र है और निफ़ाक़ ये है कि आदमी अल्लाह के मुनादी को पुकारता सुने और हाज़िर ना हो।

▣ ➟  सहीह मुस्लिम शरीफ़ में है : अगर मस्जिद में जमाअत को हाज़िर ना होगे और घरों में नमाज़ पढ़ोगे तो गुमराह हो जाओगे, ईमान से निकल जाओगे।

 (فتاوی رضویہ، ج6، ص38) 

▣ ➟  और हज़रत फ़क़ीहे आज़मे हिन्द अलैहिर्रहमा व रिदवान दुर्रे मुख्तार, रद्दुल मुहतार और गुनिया के हवाले से फरमाते हैं : जमाअत वाजिब है बिला उज़्र एक बार भी छोड़ने वाला गुनाहगार और मुस्तहिके सज़ा है और कई बार तर्क करे तो फ़ासिक़ मरदूदुश्शहादा और उसको सख्त सज़ा दी जायेगी अगर पड़ोसियों ने सुकूत किया वो भी गुनाहगार हुये।

(بہار شریعت ج3، ص130) 

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص152) 

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▣ ➟   सवाल : जहाँ मिंबर की वजह से दो मुक़्तदियों की जगह खाली रहती है बूजा मिंबर क़तअ स़फ है या नहीं? 
जब के मेहराब में छोटा मिंबर बनाया जा सकता है। क्या ज़माना ए नबी सल्लाहू तआला अलैहि वसल्लम में वस्त मस्जिद मेहराब का दस्तूर था या बाद की ईजाद है?

▣ ➟   जवाब : सूरते मसऊला में जब कि सफे अव्वल में मिंबर की वजह से दो मुक़्तदियों की जगह खाली रहती है तो ये बेशक क़तअ  सफ है और सफ क़तअ करना हराम है। हदीस शरीफ़ में है : रसूलुल्लाह सल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अपनी सफो को सीधे रखो और कंधे से कंधा मिलाओ और अपने भाईयो के साथ आराम से खड़े हो और दरमियान जगह को पुर करो सफ में शैतान के लिए फराखी ना छोड़ो और जिस ने सफ़ को मिलाया उस को अल्लाह मिलायेगा और जिस ने सफ़ को क़तअ किया उस को अल्लाह अलाहिदा कर देगा। 

(مشكوة شريف،ص99)

▣ ➟  लिहाज़ा जब मेहराब में छोटा मिंबर बनाया जा सकता है तो मिंबर का वो हिस्सा जिस से क़तअ सफ हो उस को तोड दिया जाए और मिंबर बना दिया जाए या मिंबर के सामने की जगह छोड़ कर सफ बंदी की जाए और ज़माना ए नबी सल्लाहू तआला अलैहि वसल्लम बल्कि खुल्फा ए राशिदीन के ज़माने में वस्त मस्जिद का दस्तूर ना था बाद की ईजाद है जैसा कि आला हज़रत तहरीर फरमाते हैं " ताक़ जिसे अब मेहराब कहते हैं हादिस है ज़माना ए अक़दस व ज़माना ए खुलफा राशिदीन में ना था।

(فتاوی رضویہ،ج3،ص362)

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▣ ➟  अगर बच्चे मर्दों की सफ में खड़े हो तो क्या हुक्म है ?

▣ ➟  अगर बच्चे मर्दों की सफ में खड़े हो तो नमाज़ में कोई खलल ना आएगा नमाज़ हो जाएगी लेकिन बेहतर ये है कि बच्चो को उससे रोका जाए और पीछे खड़े होने की तलक़ीन की जाए और सिर्फ एक बच्चा हो तो उलमा ने उसे सफ़ में दाखिल होने और मर्दों के दरमियान खड़े होने की इजाज़त दी है।

▣ ➟  हाँ अगर बच्चे नमाज़ से खूब वाक़िफ हो तो उन्हें सफ़ से नहीं हटाना चाहिए और कुछ बे इल्म जो ये ज़ुल्म करते हैं कि लड़का पहले से नमाज़ में शामिल है अब ये आए तो उसे निय्यत बांधा हुआ हटा कर किनारे कर देते हैं और खुद बीच में खड़े हो जाते हैं ये महज़ जिहालत है और कुछ लोगो का ये खयाल है कि लड़का अगर बराबर खड़ा हो तो मर्द की नमाज़ ना होगी ग़लत है जिसकी कुछ असल नहीं, ऐसा ही फतावा रज़विय्या, जिल्द 3, सफह 73, पर है।

(فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص154)

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▣ ➟  नमाज़ के दौरान आँधी आ जाये तो क्या करे?

▣ ➟  नमाज़ शुरू करके तोड़ना बिला उज़्रे शरई सख़्त नाजाइज़ व हराम है। खुदा -ए- त'आला का इरशाद है :

"ولا تبطلوا اعمالکم" 
यानी अपने आमाल बातिल ना करो।
(پارہ 26 سورہ محمد آیت 33)

▣ ➟  हज़रते सदरुल अफ़ाज़िल अलैहिर्रहमा इस आयत की तफ़्सीर करते हुये तहरीर फ़रमाते हैं कि "इस आयत में अमल के बातिल करने की मुमानिअत फरमायी गयी तो आदमी जो अमल शुरू करे ख़्वाह वो नफ़्ल ही नमाज़ या रोज़ा या और कोई, लाज़िम है कि उस को बातिल ना करें।

(تفسیر خزائن العرفان)

▣ ➟  और आला हज़रत मुजद्दिदे आज़म सैय्यिदुना इमाम अहमद रज़ा खान अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "निय्यत तोड़ना बे ज़रूरते शरईया सख़्त हराम है।

(فتاوی رضویہ، ج3، ص383)

▣ ➟  लिहाज़ा सूरते मसूऊला में अगर हल्की बारिश हुई या आँधी आई या ज़लज़ला का सिर्फ़ झटका महसूस किया तो इन सूरतों में नमाज़ तोड़ना जाइज़ नहीं, हाँ अगर सख्त बारिश या इतनी शदीद आँधी आई कि नमाज़ तोड़े बग़ैर चारा कोई नहीं या ज़लज़ला का झटका इतना सख़्त लगा कि जान जाने का खतरा है इन सूरतों में निय्यत तोड़ना जाइज़ है।

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص159)

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▣ ➟  दाहिनी जानिब इमाम के सलाम फेरते वक़्त मुक़तदी जमाअत में शरीक हुआ तो उस की शिरकत सहीह है या नहीं?

▣ ➟   सूरते मसऊला में  अगर इमाम पर सजदा ए सह्व वाजिब था जिस के लिये वो दाहिनी जानिब सलाम फेर रहा था या उसे सह्व याद ना रहा इसीलिये वो क़तअ की निय्यत से दाहिनी जानिब सलाम फेरने के बाद बायीं जानिब सलाम में मश्गूल था फिर कोई फेल नमाज़ के मनाफ़ी करने से पहले सजदा ए सह्व कर लिया तो इन सूरतों में सलाम फेरते वक़्त आने वाला जमाअत में शरीक हो तो उस की शिरकत सहीह है।

▣ ➟  और अगर सजदा ए सह्व वाजिब ना था मगर उस के लिये सलाम फेर रहा था, सह्व होना याद था उस के बावजूद निय्यते क़त'अ व सलाम में मशरूफ था या इख़्तितामे नमाज़ के लिये सलाम फेर रहा था इन सूरतों में मुक़्तदी का जमाअत में शरीक होना सहीह नहीं।

▣ ➟  हज़रते सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा फ़रमाते हैं कि पहली बार लफ़्ज़े सलाम कहते ही इमाम नमाज़ से बाहर हो गया अगर्चे अलैकुम ना कहा हो उस वक़्त कोई शरीक हुआ तो इक़्तिदा सहीह ना हुई हाँ अगर सलाम के बाद सजदा ए सह्व किया तो इक़्तिदा सहीह हो गयी।

(بہار شریعت، ج3، ص89)

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص160)

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▣ ➟  सवाल : सजदा में दोनों पाऊँ ज़मीन से उठे रहें या सिर्फ उंगलियों का सिरा ज़मीन से लगा तो नमाज़ होगी या नहीं?

▣ ➟  जवाब : हालते सजदा में दोनों पाऊँ ज़मीन से उठे रहे या उंगलियों का सिरा ज़मीन से लगा रहा तो नमाज़ नहीं होगी जैसा कि हज़रत सदरुश्शरिया रहमतुल्लाह अलैह तहरीर फ़रमाते हैं  "पाऊँ की एक उंगली का पेट लगाना शर्त है तो अगर किसी ने इस तरह सजदा किया कि दोनों पाऊँ ज़मीन से उठे रहे नमाज़ ना होगी बल्कि अगर सिर्फ़ उंगली की नोक ज़मीन से लगी जब भी ना हुई।

(بہار شریعت، ج3، ص70)

▣ ➟  और आला हज़रत रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं कि "सजदा में फ़र्ज़ है कि कम अज़ कम पाऊँ की एक उंगली का पेट ज़मीन पर लगा हो और पाऊँ की अक्सर उंगलियों का पेट ज़मीन पर जमा होना वाजिब है। यूँ ही नाक की हड्डी ज़मीन पर लगना वाजिब है। पाऊँ को देखिये उंगलियों के सिरे ज़मीन पर होते हैं किसी उंगली का पेट बिछा नहीं होता सजदा बातिल नमाज़ बातिल।

(فتاوی رضویہ، ج1، ص55)

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص168)

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▣ ➟ सवाल : क्या हिन्दुस्तान में ऐसी कोई बड़ी मस्जिद है कि जिस में नमाज़ी के सामने से गुज़रना जाइज़ है?

▣ ➟ जवाब : सैय्यिदुना आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "मस्जिदे कबीर सिर्फ़ वो है जिस में मिस्ले सेहरा इत्तिसाले सुफ़ूफ़ शर्त है जैसे मस्जिदे खवारिज्म के सोलह हज़ार सुतून हैं बाक़ी आम मसाजिद अगर्चे दस हज़ार गज़ मुकस्सर हो मस्जिदे सग़ीर है और इन में दीवार किब्ला तक बिला हाइल गुज़रना नाजाइज़।

(فتاوی رضویہ، ج3، ص401)

▣ ➟ लिहाज़ा हिंदुस्तान में ऐसी कोई बड़ी मस्जिद नहीं है जिस में नमाज़ी के सामने से गुज़रना जाइज़ है।

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص169)

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▣ ➟  सवाल : मौजूदा दौर में मस्जिदे नबवी और मस्जिदे हरम के इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ी जा सकती है या नहीं?

▣ ➟  जवाब : हज़रत अल्लामा इब्ने आबीदिन शामी रहीमहुल्लाह त'आला तहरीर फ़रमाते हैं : अब्दुल वहाब के मानने वाले नज्द से निकले और मक्का -ए- मुअज़्ज़मा व मदीना पर जबरदस्ती क़ब्ज़ा कर लिया वो लोग अपना मज़हब हम्बली बताते हैं। लेकिन इन का अक़ीदा ये है कि सिर्फ़ वही लोग मुसलमान हैं और जो इन के ऐतिक़ाद की मुखालिफ़त करे वो काफिर व मुशरिक हैं इसीलिये इन लोगों ने अहले सुन्नत व जमा'अत और इन के आलिमों के क़त्ल को जाइज़ ठहराया।

(درا المحتار، ج4، ص262)

▣ ➟  और देवबंदी मसलक के शैखुल इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद तांडवी लिखते हैं कि "मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब का अक़ीदा था कि जुमला अहले आलम और तमाम मुसलमान मुशरिक व काफिर हैं और इन से क़त्लो क़िताल करना और इन के अम्वाल को इन से छीन लेना हलाल और जाइज़ बल्कि वाजिब है।"

(شہاب ثاقب صفحہ 43)

▣ ➟  देवबंदी मसलक के दूसरे मशहूर मौलाना खलील अहमद अमेठी लिखते हैं : "मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब के वहाबी चेलों ने उम्मत को काफ़िर कहा।"
(المہند صفحہ 37)

▣ ➟  और जो किसी मुसलमान को काफ़िर कहे वो काफ़िर ना हो तो इससे काफ़िर कहने वाला खुद काफ़िर हो जाता है। जैसा कि हदीस शरीफ़ में है। हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: जिस ने अपने भाई को काफ़िर कहा तो वो कुफ्र खुद इस पर पलट आया।

(مشکوۃ ص411)

▣ ➟  लिहाज़ा मज़्कूर मस्जिदों के इमाम अगर वहाबी हैं तो इन के पीछे नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती। आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि वहाबिया क़तअन बे दीन इन के पीछे नमाज़ जाइज़ नही।
(فتاوی رضویہ، ج3، ص240)

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص171)

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▣ ➟   आधी आस्तीन का कुर्ता या क़मीज़ वग़ैरह पहन कर नमाज़ पढ़ना कैसा?

▣ ➟    अगर उस के पास दूसरा कपड़ा पूरा आस्तीन का मौजूद है तो मकरूह है वरना बिला कराहत जाइज़ है। हज़रत सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस के पास कपड़ा मौजूद हो और सिर्फ़ आधी आस्तीन या बनियान पहन कर नमाज़ पढ़ता है तो कराहते तंज़ीही है और कपड़ा मौजूद नहीं तो कराहत भी नहीं, मुआफ़ है और अगर कुर्ते या अचकन की आस्तीन मोड़ कर नमाज़ पढ़ता है तो नमाज़ मकरूहे तहरीमी है।

(فتاویٰ امجدیہ، ج1، ص193) 

( فتاویٰ فقیہ ملت، ج1، ص174) 

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▣ ➟   शेरवानी या सदरी का बटन खुला रहना और नमाज़

▣ ➟   आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "ऊंगरखे जो सदरी या चुग्गा पहनते हैं और उर्फ़े आम में उनका कोई बोताम भी नहीं लगाते और उसे मा'यूब भी नहीं समझते तो इस में भी हर्ज नहीं होना चाहिये कि ख़िलाफ़े मो'ताद नहीं। 

(فتاوی رضویہ، ج3، ص447)

▣ ➟   लिहाज़ा इस तरह कपड़ा पहन कर नमाज़ पढ़ा कि नीचे कुर्ते का सारा बटन बंद है और ऊपर शेरवानी या सदरी का कुल या बाज़ बटन खुला रहे तो हर्ज नहीं। 

▣ ➟   और जो बहारे शरीअ़त में मकरूहे तन्ज़ीही का हुक्म किया गया है आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी अलैहिर्रहमा की मज़कूरा बाला तहरीर से ज़ाहिर है कि वो उस सूरत में है जहाँ सदरी या शेरवानी के कुल या बाज़ बटन के खुला रहने को मायूब समझा जाता हो। 

( فتاویٰ فقیہ ملت، ج1، ص174) 

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▣ ➟  बड़े बाल और नमाज़ :

▣ ➟  क्या बड़े बाल जो सजदा करते वक़्त गालों पर आ जायें, इस तरह नमाज़ में कोई हर्ज नहीं?

▣ ➟  हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि :" हुज़ूर ﷺ के मुऐ मुबारक कभी निस्फ कान तक कभी कान की लौ तक होते और जब बढ़ जाते तो शाने मुबारक से छू जाते"।

(بہارِ شریعت،16،ص199)

▣ ➟  और आला हज़रत मुहद्दिस बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "बाल निस्फ़ कान के काँधों तक बढ़ाना शर'अन जाइज़ है।

(فتاویٰ رضویہ، ج9، ص32)

▣ ➟  लिहाज़ा मज़कूरा तरीके पर बाल रखना अज़ रू -ए- शर'अ दुरूस्त है और इस से नमाज़ में कोई कराहत नहीं आती अगर्चे रुकू व सुजूद की हालत में बाल से उन की दाढ़ी और कान ढक जाते हैं और लटक कर रुख़सार तक पहुँच जाते हैं।

(فتاویٰ فقیہ ملت، ج1، ص175)

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▣ ➟  जूड़ा बांध कर नमाज़

▣ ➟  जूड़ा बांध कर नमाज़ नमाज़ पढ़ना मर्द के लिये जाइज़ नहीं अलबत्ता औरतों के लिये जाइज़ है। सैय्यिदी आला हज़रत मुहद्दिसे बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं: "जूड़ा बांधने की कराहत मर्द के लिये ज़रूर है।"

(فتاویٰ رضویہ ح3، ص417)

▣ ➟   हदीस में है: नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने मर्द को जूड़ा बांध कर नमाज़ पढ़ने से मना फरमाया।

(عمدۃ الرعایہ حاشیہ شرح وقایہ ج1، ص167) 
(فتاویٰ فقیہ ملت، ج1، ص167) 

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▣ ➟  सजदा में जाते वक़्त लुंगी या पजामा उठाना कैसा?

▣ ➟   फक़ीहे आज़मे हिंद हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहीर्रहमा व रिज़्वान मकरुहाते तहरीमा के बयान में तहरीर फरमाते हैं :  "कपड़ा समेटना मसलन सजदा में जाते वक़्त आगे या पीछे से उठा लेना अगर्चे गर्द से बचने के लिये किया हो और बिला वजह हो तो और ज्यादा मकरूह।"

(بہارِ شریعت، ح3 ص165)
(فتاویٰ عالمگیری مع خانیہ ج1، ص105)

(فتاویٰ فقیہ ملت، ج1 ،ص176)

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▣ ➟  सोने चाँदी के अलावा काँच (शीशा) प्लास्टिक और दूसरी धातों की चूड़ियाँ पहनना और पहन कर नमाज़ पढ़ना कैसा है?

▣ ➟  सोने चाँदी के अलावा काँच (शीशा) और प्लास्टिक का ज़ेवर भी औरतों को पहनना जाइज़ है और दूसरी तमाम धातों का ज़ेवर पहनना जाइज़ नहीं, आला हज़रत इमाम अहमद रजा़ मुहद्दिस बरेलवी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से सवाल किया गया कि औरतों को काँच की चूड़ियाँ पहनना जाइज़ है या नहीं? इस के जवाब में आप तहरीर फरमाते है : जाइज़ है, बल्कि औरत के लिए सिंगार की निय्यत से मुस्तहब, बल्कि शौहर या माँ बाप का हुक्म हो तो वाजिब और धातों के मुतल्लिक़ तहरीर फरमाते है : चाँदी सोने के सिवा लोहे, पीतल तांबे रंग का ज़ेवर औरतों को भी मुबाह नहीं, और तहरीर फरमाते है : तांबा पीतल कांसा लोहा तो औरतों को भी पहनना ममनूअ है और इस से नमाज़ उन की भी मकरूह है।

(فتاویہ رضویہ)

▣ ➟  लिहाज़ा काँच (यानी शीशा) और प्लास्टिक की चूड़ियाँ पहनना और पहन कर नमाज़ पढ़ना सहीह व दुरुस्त और सोने चाँदी के अलावा दूसरी तमाम धातो की चूड़ियाँ पहनना नाजाइज़ और पहन कर नमाज़ पढ़ना मकरूह है ।
واللہ تعالیٰ اعلم

(فتاوی فقیہ ملت, ج1،ص117)

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▣ ➟  लम्बा पजामा और नमाज़

▣ ➟   पजामा या पेंट से टखने छुपे रहे तो इस की दो सूरतें हैं अगर तकब्बुर की वजह से हो तो नमाज़ मकरूहे तहरीमी होगी वरना तन्ज़ीही।

(فتاوی رضویہ، ج3، ص448)

▣ ➟   और कफ़े सौब (कपड़े मोड़ना) मुत्लकन मकरूहे तहरीमी है। और कपड़ा में खोंस कर नमाज़ पढ़ना भी मकरूहे तहरीमी है, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेल्वी क़ुद्दस्सिर्रहू तहरीर फरमाते हैं : "रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैही वसल्लम ने नमाज़ में कपड़ा समेटना, घर्सने (खोसने) से मना फरमाया और हर वो नमाज़ जो मकरूहे तहरीमी हो उस का इआदा वाजिब है मगर मकरूहे तन्ज़ीही हो तो इआदा वाजिब नहीं।

فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص178، 177)

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▣ ➟  औरतों की तरह सजदा करने से नमाज़ होगी?

▣ ➟  सूरते मसऊला में नमाज़ नहीं होती है कि सजदा में एक उंगली का पेट ज़मीन पर लगना शर्त है जैसा कि बहारे शरीअत और शामी दुर्र मुख़्तार में है, और औरतों की तरह सजदा करने में ये शर्त अदा नहीं होती है लिहाज़ा नमाज़ भी नहीं होती।

(فتاوی فقیہ ملت ج1، ص178)

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▣ ➟  नमाज़ में अगर कुर्ते के बटन खुले रहे तो नमाज़ होगी या नहीं?

▣ ➟   कुर्ते के बटन खुले रख कर नमाज़ पढ़ना मकरूहे तहरीमी है जब कि सीना नज़र आये, आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत मुहद्दिसे बरेल्वी रदिअल्लाहु त'आला अन्हु तहरीर फरमाते हैं कि किसी कपड़े को खिलाफ़े आदत पहनना जैसे मुहज़्ज़ब आदमी मज़्मा या बाज़ार में ना कर सके और करे तो बे अदब खफीफ़ुल हरकात समझा जाये ये भी मकरूह है, जैसे ऐसा कुर्ता जिस के बटन सीने पर हैं पहनना और बोटाम (बटन) इतना लगाना कि सीना या शाना खुले रहे। और अगर कुर्ते पर शेरवानी या सदरी हो और उसके बटन खुले रखे तो हरज नहीं क्योंकि आम तौर पर उसके बटन नहीं लगाये जाते और इसे मायुब भी नहीं समझा जाता है।

(فتاوی فقیہ ملت ج1، ص181)

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▣ ➟  नंगे सर नमाज़ पढ़ना कैसा ?

▣ ➟   फुक़हा -ए- किराम ने नंगे सर नमाज़ पढ़ने की तीन कि़स्में की हैं :

(1) ▣ ➟   सुस्ती से नंगे सर नमाज़ पढ़ना यानी टोपी पहनना बोझ मालूम होती हो या गर्मी मालूम होती हो तो मक़रूहे तंज़ीही है। 

(2) ▣ ➟  तहक़ीर व इहानते नमाज़ मक़सूद हो, मसलन नमाज़ कोई ऐसी शान वाली चीज़ नहीं जिस के लिये टोपी इमामा पहना जाये तो कुफ्र है। 

(3) ▣ ➟  खुशू व खुज़ू के लिए हो तो जाइज़ है।

(فتاوی فقیہ ملت، ج1،ص181)

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▣ ➟   कंधे पर से रुमाल लटका कर नमाज़ पढ़ना और नमाज़ में उंगली चटकाना।

▣ ➟   रुमाल, शॉल या चादर के दोनों किनारे दोनों मूंढे से लटकते हों ये मकरूहे तहरीमी है और एक किनारा दूसरे मूंढे पर डाल दिया और दूसरा लटक रहा है तो हर्ज नहीं और एक मूंढे पर डाला इस तरह कि एक किनारा पीठ पर लटक रहा हो और दूसरा पेट पर तो ये भी मकरूह है। ऐसा ही बहारे शरीअत, जिल्द 3, सफ़ह 139 पर है।

▣ ➟   और नमाज़ में उंगलियाँ चटकाना भी  मकरूहे तहरीमी है हदीस शरीफ में है "जब तुम नमाज़ की हालत में हो तो उंगलियाँ ना चटकाओ।"

▣ ➟   और जिन सूरतों में नमाज़ मकरूहे तहरीमी होती है उन नमाजो़ का दोहराना वाजिब होता है।

(فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص183)


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▣ ➟   इमामा में टोपी का दिखाई देना 

▣ ➟   इमामा सर पर इस तौर पर बांधना कि बीच में टोपी ज़्यादा खुली रही तो नमाज़ मकरूहे तहरीमी होगी ता तंजी़ही?

▣ ➟   हज़रत सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "लोग ये समझते है कि टोपी पहने रहने की हालत में एतिजार होता है मगर तहक़ीक़ ये है कि एतिजार इस सूरत में है कि इमामा के नीचे कोई चीज़ सर को छुपाने वाली ना हो"।

(فتاوی امجدیہ،ج1،ص199)

▣ ➟   इस से ज़ाहिर हुआ कि सूरते मसऊला में नमाज़ मकरूहे तंजी़ही होगी ना कि तहरीमी।

(فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص184)


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▣ ➟  साहिबे तरतीब के लिए क़जा नमाज़ 

▣ ➟  साहिबे तरतीब जिस की नमाज़ कज़ा हो गई है अगर्चे मस्जिद में उस वक़्त पहुँचा जब कि इमाम ज़ुहर की आख़िरी रकअत में था उस के लिये ये हुक्म है कि फज्र की कज़ा पढ़ कर अगर जमाअत में शरीक हो सकता है तो ऐसा ही करे वरना जमाअत छोड़ कर पहले कज़ा पढ़े फ़िर ज़ुहर की नमाज़ तन्हा अदा करे। ये उस सूरत में है जब कि नमाज़ का कज़ा होना याद हो और वक़्त में गुंजाइश हो।

(فتاوی فقیہ ملت،ج1،ص212)

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▣ ➟  हालते सफ़र में क़ज़ा नमाज़

▣ ➟   हालते सफ़र में जो नमाज़ें क़ज़ा हो जायें उन्हें पूरी अदा करेंगे या क़स्र?

▣ ➟  हालते सफ़र में जो नमाज़ें क़ज़ा हो जायें घर में उन्हें क़स्र ही पढ़ने का हुक्म है। जब कि वो शरई मुसाफ़िर रहा हो यानी कम से कम 92.5 किलोमीटर के सफ़र की निय्यत से निकला हो। हुज़ूर सदरुश्शरिया अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं कि "जो नमाज़ जैसी फौत हुई उस की क़ज़ा वैसी ही पढ़ी जायेगी। मस्लन सफ़र में नमाज़ क़ज़ा हुई तो चार रकअत वाली दो ही पढ़ी जायेगी अगर्चे इक़ामत की हालत में पढ़े।

(بہار شریعت، ج4، ص43)

(فتاوی فقیہ ملت، ج1، ص214)

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▣ ➟  ख़ुत्बे के दौरान अंगूठे चूमना और दुरूद पढ़ना 

▣ ➟   ख़ुत्बे में हुज़ूरे अक़दस सल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम का नामे पाक सुन कर अंगूठे ना चूमे ये हुक्म सिर्फ ख़ुत्बे के लिये है वरना आम हालत में नामे नामी सुनकर अँगूठे चूमना मुस्तहब है और दुरूद शरीफ़ बा वक़्ते ख़ुत्बा दिल में पढ़ सकते हैं और आवाज़ से पढ़ना जाइज़ नहीं कि ज़ुबान को जुंबिश ना दे इसीलिये कि ज़ुबान से सुकूत फ़र्ज़ है। ऐसा ही फ़तावा रज़विय्या, जिल्द 3, सफह 741 और फ़तावा अमजदिया, जिल्द 1, सफह 286 पर और बहरुर राइक़, जिल्द 2, सफह 155 में है।

(فتاوی فقیہ ملت،ج1ص247)

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▣ ➟  किसी की तरफ से नमाज़ अदा करना 

▣ ➟  सवाल : क्या बेटे का अपनी नमाजो़ं का सवाब अपने वालिद को बख्शने से उस के सवाब में कमी होंगी? और इससे वालिद के ज़िम्मे की कज़ा अदा हो गई क्या?

▣ ➟  जवाब: अपनी नमाजो़ं का सवाब वालिद को बख्शा तो औलाद को भी सवाब मिलेगा और वालिद को भी लेकिन ये ख़्याल कि बाप के ज़िम्मे से कज़ा नमाजो़ं का बोझ उतार गया ये ग़लत है, वो बोझ तो बाक़ी रहेगा।

(فتاوی بحر العلوم،ج1،ص100)

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▣ ➟   अज़ान के अल्फाज़ में कमी ज़्यादती 

▣ ➟    सवाल : मुसीबत के वक़्त यानी आँधी, आग, हवा की ज़्यादती के वक़्त और क़ब्र के पास अज़ान देते वक़्त حی علی الصلاۃ وحی علی الفلاح की जगह دافع البلاء یا دافع الوباء یا कहना जाइज़ है या नही? अज़ान मुकम्मल करने के बाद मज़्कूरा अल्फाज़ की ज़्यादती कर सकते हैं या नहीं

▣ ➟   अल-जवाब : अज़ान के पंद्रह कलिमे हुज़ूर ﷺ से मुतवातिर मन्क़ूल हैं। उलमा के नज़्दीक इस में कमी और ज़्यादती मम्नूअ है।

▣ ➟   अज़ान किस तरह दी जाती है ये सब को मालूम है, मुतवातिर तरीके पर इस में कुछ कमी या ज़्यादती नहीं करनी चाहिये, यही उलमा का क़ौल है, चाहे पंज वक़्ता नमाज़ हो या दाफेअ वला वग़ैरह उमूर के लिये।

▣ ➟   आलामगीरी अव्वल सफ़ह 56 में है : उलमा फरमाते हैं नौ मौलूद के कान में अज़ान देने वाला भी इस का लिहाज़ करे के حی علی  الصلاۃ और وحی علی الفلاح कहते वक़्त दायें और बायें मुँह फेरें।

▣ ➟    पस सूरते मसऊला में  حی علی الفلاح के बजाये دافع البلاء و دافع الوباء कहना रवा ना होगा। 

(فتاوی بحر العلوم، ج1، ص113)

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▣ ➟   टखनों से नीचे पजामा

▣ ➟  सवाल : टखनों से नीचे पजामा पहनना कैसा है? ऐसे शख़्स की इमामत का क्या हुक्म है? और जो ग़ैर शरई लिबास पहन कर नमाज़ पढ़ाये उस की इमामत दुरुस्त है या नहीं?

▣ ➟  अल जवाब : बराहे तकब्बुर टखनों के नीचे रखना हराम है। और ऐसे शख़्श की इमामत बिला शुब्हा मकरूह और नाजाइज़ है और अगर बराहे तकब्बुर नहीं है जैसा कि हज़रते अबू बकर रदिअल्लाहु त'आला अन्हु ने अर्ज़ की कि या रसूलुल्लाह ﷺ मेरा तहबन्द तो एक तरफ़ ढुलक जाया करता है। हाँ उस को पकड़े रहूँ तो तब रुका रहेगा, आप ने फ़रमाया तुम तकब्बुरन नहीं लटकाते हो, इसीलिये आलमगीरी में तकब्बुरन ना हो तब उसके लटकने को मकरूहे तंज़ीही लिखा है। बिला तकब्बुर व नाज़ हो तो भी नहीं लटकाना चाहिये मगर इस सूरत में इमामत मकरूह या नाजाइज़ न होगी।

▣ ➟  और ग़ैर शरई यानी ऐसा लिबास जो हराम है। पहन कर नमाज़ पढ़ाई तो इमामत ज़रूर मकरूहे तहरीमी है।

(فتاوی بحر الولوم، ج1، ص443)

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▣ ➟  दाढ़ी मुंडे की नमाज़

▣ ➟  दाढ़ी मुंडे की नमाज़ होती तो है मगर मकरूहे तहरीमी होती है कि दुबारा ऐ़ब दूर करके दोहराई जाये। 
दुर्रे मुख़्तार में है: जो नमाज़ मकरूह पढ़ी गई उस का दोहराना वाजिब है। 

▣ ➟  जिसने दाढ़ी मुँडा रखी है, दुबारा सिहत के साथ तभी पढ़ सकता है जब तौबा करे और दाढ़ी मुंडाना छोड़ दे।

▣ ➟  मुख़्तस़र ये कि इस त़रह़ नमाज़ पढ़ने के बाद भी आख़िरत में मुवाख़ज़ा होगा, अगर सह़ीह़ त़रीक़े से दोहराया नहीं। हाँ उस का अज़ाब तारिकुस् स़लात के अज़ाब से कम होगा।

(فتاوی بحر العلوم، ج1، ص444)

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▣ ➟  अगर सिर्फ अत्तहिय्यात पढ़ कर सलाम फेरे और दुरूद शरीफ़ भूल गए तो क्या नमाज़ होगी? 

▣ ➟ का'दा -ए- आख़िराह में बादे अत्तहिय्यात दुरूद शरीफ़ पढ़ना सुन्नते मुअक्कदा है और इस के बाद मासूरा दुआओ में से कोई भी दुआ पढ़ना मुस्तहब है और तर्के सुन्नत या मुस्तहब से चूँकि सज्दा ए सह्व नहीं आता लिहाज़ा कुल्लिया मुक़र्रर किया गया है कि मुस्तहब के तर्क से नमाज़ का पढ़ना मुस्तहब् होता है और तर्के सुन्नत से नमाज़ का पढ़ना सुन्नत और तर्के वाजिब से अगर सज्दा ए सह्व भी तर्क हो जाये तो नमाज़ का इआदा वाजिब होता है।

(फ़तावा दीदारिया)

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▣ ➟  सित्रे औरत खुलने या दिखने से वुज़ू का टूटना।

▣ ➟   हज़रत अल्लामा मुफ्ती दीदार अली शाह रहीमहुल्लाहू त'आला लिखते हैं : हनफियों के नज़दीक अपना या किसी ग़ैर का अंदामे नहानी देखने से तो क़तअन वुज़ू नहीं टूटता, अलबत्ता किसी ग़ैर के अंदामे नहानी पर क़स्दन नज़र डालना या नंगा हो कर किसी को अपना अंदामे नहानी दिखाना बहुत बड़ा गुनाह है। बल्कि बाद वुज़ू अगर कोइ पानी से इस्तिन्जा करना या आबे दस्त लेना भो जाये और याद आने पर इस्तिन्जा पानी से करे या आबे दस्त ले ले जब भी वुज़ू नहीं टूटता।

(فتاوی دیدار یہ، ص69)

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▣ ➟ सित्रे औरत खुलने या दिखने से वुज़ू का टूटना।

▣ ➟  इमामे अहले सुन्नत, आला हज़रत रहीमहुल्लाहू त'आला लिखते हैं कि अपना पराया सित्र देखने से अस्लन वुज़ू में खलल नहीं आता, ये मस'अला अवाम में गलत मशहूर है। हाँ! पराया सित्र बिलक़स्द देखना हराम है, और नमाज़ में और ज़्यादा हराम, अगर क़स्दन देखेगा नमाज़ मकरूह होगी और इत्तिफाक़न निगाह पड़ जाये फिर नज़र फेर ले या आँखें बंद कर ले तो हर्ज नहीं, हदीस में है :

▣ ➟  पहली निगाह जो बे-मक़्सद पड़े वो तेरे लिये है यानी तुझ पर इस में मुवाखिज़ा नहीं और दूसरी निगाह यानी जब दोबारा क़स्दन देखा या पहली निगाह ही क़ाइम रखे मुँह ना फेरे, आँखे ना बंद करे तो इस का तुझ पर मुवाखिज़ा है।
واللہ تعالی اعلم

(فتاوی افریقہ، ص95، 96)

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▣ ➟  सित्रे औरत खुलने या दिखने से वुज़ू का टूटना

▣ ➟   बहरुल उलूम, हज़रत अल्लामा मुफ्ती अब्दुल मन्नान आज़मी रहीमहुल्लाहु त'आला से सवाल किया गया कि जिस का घुटना खुला हुआ हो, उस का ज़बीहा खा सकते हैं या कोई क़बाहत है? और क्या सित्रे औरत क़स्दन या सह्वन खुलने से वुज़ू टुट जाता है?

▣ ➟   आप लिखते हैं कि घुटने रान के ताबेअ हैं और उन आज़ा में से है जिन का छुपाये रखना हर मुसलमान के लिये ज़रूरी है और उस को खोलना बिला ज़रूरत गुनाह है, लेकिन हालते ज़िबह में घुटने खुल जायें या खोल दिये जायें तो उस से ना ज़बीहा पर फ़र्क़ पड़ता है ना वुज़ू टूटता है, ज़बीहा जाइज़ है और वुज़ू बाक़ी है।

واللہ تعالی اعلم

(فتاوی بحر العلوم، ج4، ص516)

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▣ ➟  सित्रे औरत खुलने या देखने से वुज़ू का टूटना

▣ ➟   सवाल हुआ कि बरहना किये गये ग़ुस्ल और उस के वुज़ू से नमाज़ हो सकती है या नहीं और क्या शर्मगाह देखने से वुज़ू टूट जाता है? 

▣ ➟   अल्लामा मुफ़्ती दीदार अली शाह रहमतुल्लाह त'आला अलैह लिखते हैं कि ग़ुस्ल के वुज़ू के बाद दोबारा वुज़ू करने की कोई ज़रूरत नहीं अगर्चे बरहना ही गुस्ल किया हो, इस वास्ते की अपनी शर्मगाह या दूसरे की शर्मगाह देखने से वुज़ू नहीं टूटता अल्बता अपनी शर्मगाह को बरहना छू लेने से इमाम शाफ़ई रहमतुल्लाह त'आला अलैह के नज़दीक वुज़ू टूट जाता है, मगर देखने से इन के नज़दीक भी नहीं टूटता, और इमामे आज़म अबु हनीफा रहमतुल्लाह अलैह के नज़दीक ना देखने से टूटेगा ना बरहना छूने से, लिहाज़ा अगर शर्मगाह बादे वुज़ू छू ली हो तो बिल्हाज तहक़ीके इमामे शाफ़ई रहीमहुल्लाह अगर वुज़ू कर ले औला है ना कि ज़रूरी।

(فتاوی دیداریہ، ص75)

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▣ ➟  सित्रे औरत खुलने या देखने से वुज़ू का टूटना

▣ ➟   हज़रत अल्लामा मुफ्ती अब्दुल वाजिद क़ादरी रहमतुल्लाह अलैह लिखते है कि सित्रे औरत खुलने से वुज़ू नहीं जायेगा क्योंकि फ़ुक़हा -ए- किराम ने इसे नवाकिज़े वुज़ू में शुमार नहीं फ़रमाया बल्कि इस बाब में फ़ुक़हा की तसरीहात मौजूद हैं कि ऐन हालते नमाज़ में भी अगर किसी के सित्रे गलीज़ पर नज़र पड़ जाये तो उस से नमाज़ बातिल नहीं होती। अगर ये नाकिज़े वुज़ू होता तो नमाज़ ज़रूर बातिल हो जाती।

▣ ➟   मराकिउल फ़लाह जिल्द अव्वल मे है : उस की नमाज़ मुत्लक़ा या अजनबिया की शर्मगाह को देखने से बातिल नहीं होगी यानी शर्मगाह से मुराद फ़र्जे दाखिल है।

▣ ➟   लेकिन ये याद रखना चाहिये कि बे उज़्रे शरई किसी के सामने सित्रे औरत का खोलना या किसी के सित्र पर नज़र करना हराम व बद अंज़ाम है और खास शर्मगाह को देखना या दिखलाना अशद व बदतर है।

(فتاوی یورپ، ص138)

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▣ ➟  सित्रे औरत खुलने या दिखने से वुज़ू का टूटना 

▣ ➟  सदरुश्शरिया, अल्लामा मुफ्ती अमजद अली आज़मी रहीमहुल्लाह लिखते हैं कि अवाम में जो मशहूर है कि घुटने और सित्रे औरत खुलने या अपना या पराया सित्र देखने से वुज़ू जाता रहता है महज़ बे-असल बात है। हाँ! वुज़ू के आदाब से है कि नाफ़ के नीचे तक सब सित्र छुपा हो बल्कि इस्तिन्जा के बाद फौरन ही छुपा लेना चाहिये कि बगैर ज़रूरत सित्र खुला रहना मना है और दूसरों के सामने खोलना हराम है।

(بہار شریعت، ج2، ص309)

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▣ ➟   सित्रे औरत खुलने या दिखने से वुज़ू का टूटना।

▣ ➟    मलफ़ूज़ाते आला हज़रत में है कि वुज़ू किसी चीज़ के देखने या छूने से नहीं जाता। जान बूझ कर सित्रे औरत खोलने से नमाज़ जाती रहती है।

▣ ➟   तीस उज़्व औरत के औरत (पोशीदा रखना ज़रूरी) है और 9 मर्द के, उन में से किसी उज़्व का चहारुम हिस्सा बा क़द्रे रुक्न यानी तीन बार सुब्हान अल्लाह कहने तक बिला क़स्द खुला रहना मुफ़्सिदे नमाज़ है और बिल क़स्द तो अगर एक आन के लिये खोले तो नमाज़ जाती रहेगी।

(ملفوظات اعلی حضرت، ج1)

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▣ ➟  सित्रे औरत खुलने या देखने से वुज़ू का टूटना।

▣ ➟   सवाल : ग़ुस्ल के साथ जो वुज़ू किया जाता है, क्या वो वुज़ू नमाज़ की अदायगी और तिलावते क़ुरआन के लिये काफी है? इसी तरह अगर कोई वुज़ू की हालत में कपड़ा तब्दील करते हैं तो क्या वुज़ू क़ाइम रहता है?

▣ ➟  जवाब : ग़ुस्ल मस्नून हो या फ़र्ज़, तिलावते क़ुरआने करीम और नमाज़ वग़ैरह की अदायगी के लिये दोबारा वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है अगर्चे बरहना ग़ुस्ल किया हो, यही वुज़ू काफ़ी है। बाज़ लोग ख़्याल करते हैं कि बरहना होने के सबब वुज़ू टूट जाता है, ये ख़्याल दुरुस्त नहीं है। जब तक जिस्म से किसी नजासत का इख़राज ना हो, वुज़ू क़ाइम रहता है। शर'अन ग़ुस्ल का नाम तहारते कुबरा है और वुज़ू को तहारते सुग़रा कहा जाता है। जब तहारते सुग़रा से नमाज़ हो सकती है तो तहारते कुबरा से बदर्जा -ए- अवला अदा की जा सकती है।

▣ ➟   अल्लामा अमजद अली आज़मी लिखते हैं कि आवाम में जो मशहूर है कि घुटना या सित्र खुलने या अपना, पराया सित्र देखने से वुज़ू जाता रहता है, महज़ बे-अस्ल है।

(تفہیم المسائل، ج6، ص59)

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▣ ➟  सित्रे औरत खुलने या दिखने से वुजू का टूटना 

▣ ➟   आ़ला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी रहीमहुल्लाह त'आला से सवाल किया गया कि क्या फरमाते हैं उलमा -ए- दीन इस मसअले में की अपने घुटने खुल जाने या अपना या पराया सित्र बिला क़स्द या बिलक़स्द देखने या दौड़ने या बुलंदी पर कूदने या गिरने से वुज़ू टूट जाता  है या नहीं?

▣ ➟   आप रहीमहुल्लाह त'आला लिखते हैं कि इन में से किसी बात से वुज़ू नहीं जाता। सित्र खुलने या दिखने से वुज़ू जाना कि अव्वाम की ज़बाने ज़द है महज़ बे असल है, उलमा ने सित्रे औरत को आदाबे वुज़ू से गिना अगर कश्फ़ से वुज़ू टूट जाता तो फराइजे़ वुज़ू से होता ।

(فتاوی رضویہ،ج1،ص470)

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▣ ➟  अज़ाने वहाबी के जवाब का हुक्म

▣ ➟  सवाल : क्या फरमाते हैं उलमा -ए- किराम इस मसअले में कि वहाबी जब अज़ान दे तो उस का जवाब देना कैसा है? 

▣ ➟  जवाब : वहाबी की अज़ान अज़ान नहीं इसीलिये उसकी अज़ान के जवाब की हाजत नहीं। जैसा कि सैय्यदी आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं :  इस्मे जलालत पर कलिमा -ए- ताज़ीम और नामे रिसालत पर दुरूद शरीफ पढ़ेंगें अगर्चे ये अस्मा -ए- तैय्यबा किसी की ज़ुबान से अदा हों मगर वहाबी की अज़ान अज़ान में शुमार नहीं जवाब की हाजत नहीं और अहले सुन्नत को इस पर इक्तिफ़ा की इजाज़त नहीं बल्कि ज़रूर दोबारा अज़ान कहें।

(فتاویٰ رضویہ، ج2، ص421) 
(فتاویٰ مشاہدی، ص166) 

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▣ ➟  गाँव की मस्जिद छोड़ कर शहर में जुम्आ अदा करने जाना।

▣ ➟ इस में कोई हर्ज नहीं है कि गाँव की मस्जिद छोड़ कर जुम्आ पढ़ने के लिये शहर जाये, ये कोई नाजाइज़ व गुनाह नहीं कि मस्जिदे मुहल्ला का हक़ ग़ैरे जुम्आ में है। जैसा कि आला हज़रत अलैहिर्रहमा फ़रमाते हैं : जुम्आ मस्जिदे जामा में अफ़ज़ल है, मस्जिदे मुहल्ला का हक़ नमाज़े पंजगाना में है जब वो जामा नहीं और दूसरी जगह जाने में उनको आसानी है तो मुमानिअत की कोई वजह नहीं।
(فتاوی رضویہ، ج3، ص749)

▣ ➟ और गाँव में मज़हबे हनफ़ी के मुताबिक़ जुम्आ व ईदैन पढ़ना जाइज़ नहीं बल्कि मम्नूअ है। पस जुम्आ अगर शहर में पढ़े तो गुनाह क्यों होगा? जैसा कि आला हज़रत अलैहिर्रहमा दूसरी जगह फ़रमाते हैं : फ़र्ज़ियत व सिहत व जवाज़े जुम्आ सब के लिये इस्लामी शहर होना शर्त है जब कि बस्ती नहीं जैसे बन, समुदंर, पहाड़ या बस्ती है मगर शहर नहीं जैसे देहात या शहर है मगर इस्लामी नहीं जैसे रूस, फ्रांस के बिलादान में ना जुम्आ फ़र्ज़ है ना सहीह ना जाइज़ बल्कि मम्नूअ व बातिल व गुनाह है। इस के पढ़ने से फ़र्ज़े ज़ुहर ज़िम्मा से साकित ना होगा।
(فتاوی رضویہ، ج3، ص715)

▣ ➟ एक जगह और फ़रमाते हैं : मगर दरबराहे आवाम फ़क़ीर का तरीक़ा -ए- अमल ये है कि इब्तिदा खुद उन्हें मना नहीं करता ना उन्हें नमाज़ से बाज़ रखने की कोशिश पसन्द रखता है। एक रिवायत पर सिहत उन के लिये बस है वो जिस तरह खुदा व रसूल का नाम पाक ले लें ग़नीमत है। मुशाहिदा है कि इस से रोकें तो वो वक़्ती छोड़ बैठते हैं।
(ایضاً 714)

(فتاوی مشاہدی، ص187)

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▣ ➟  जुम्आ की अज़ाने सानी में नामे मुहम्मद ﷺ पर अँगूठे चुमना कैसा है?

▣ ➟   सूरते मसऊला में ना चूमना अवला है और अगर चूमे तो हर्ज नहीं। जैसा कि इमामे अहले सुन्नत, हुज़ूर सैय्यदि आला हजरत  अलैहिर्रहमा तहरीर फ़रमाते हैं :अज़ाने ख़ुत्बा के जवाब और उस के बाद दुआ में इमाम व साहिबैन रदिअल्लाहु त'आला अन्हुम  का इख़्तिलाफ़ है, बचना अवला और करें तो हर्ज नहीं यूँ ही अज़ाने ख़ुत्बा में नामे पाक पर अँगूठे चूमना उसका भी यही हुक़्म है लेकिन ख़ुत्बा में महज़ सुकूत व सुकून का हुक्म है। ख़ुत्बा में नामे पाक सुन कर सिर्फ दिल में दुरूद शरीफ पढ़ें और कुछ ना करें ज़ुबान को जुंबिश भी ना दें।

(فتاوی رضویہ، ج3، ص759)
(فتاوی مشاہدی، ص201)

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▣ ➟   शर्ट पेंट में इन (अंदर) कर के नमाज़ पढ़ना कैसा है?

▣ ➟   शर्ट को पेंट के अंदर घुरस लेना जिस को "इन" करना भी कहते हैं मकरूहे तहरीमी है कि ये कफ्फ़े सौब है।

▣ ➟   फ़तावा बरेली शरीफ, सफ़हा 251 में है, सलवार या पजामा को अज़ार बन्द में घुरसना, तहबन्द बाँध लेने के बाद इसे मज़ीद घुरसना, शर्ट को पेंट के अंदर दबा लेना जिसे "इन" कहते हैं, आस्तीन को ऊपर चढ़ा लेना, रुकू और सुजूद के वक़्त सलवार या पजामा या दामन को ऊपर उठाना मकरूहे तहरीमी है।

(فتاوی اکرمی، ص125)

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▣ ➟   (1) औरत को चोटी बाँध कर नमाज़ पढ़ना कैसा है?

▣ ➟  (2) औरत अपने भतीजे के साथ हज व उमरा कर सकती है या नहीं?

▣ ➟  (1) सूरते मसऊला में औरत चोटी बाँध कर नमाज़ पढ़ सकती है अलबत्ता मर्द को चोटी बाँध कर नमाज़ पढ़नी जाइज़ नहीं।

▣ ➟  हदीस फ़िक़्ह में जहाँ भी मना है वहाँ मुज़क्कर की ज़मीर लायी गयी है जिस से साबित होता है कि औरत को जूड़ा बाँध कर नमाज़ पढ़नी जाइज़ है।

▣ ➟  (2) भतीजे से मुराद भाई का लड़का है या देवर का, अव्वल के साथ जाना जाइज़ है कि वो मुहर्रमाते अब्दिया में से है और सानी के साथ जाइज़ नहीं।

(فتاوی فیض الرسول، ج1، ص539)
(فتاوی اکرمی، ص129)

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▣ ➟  ज़ुहर से पहले की सुन्नतें जमाअत की वजह से छूट जायें तो फ़र्ज़ के बाद कौन सी सुन्नतें पहले पढेंगा फ़र्ज़ के पहले की या बाद की?

▣ ➟  ज़ुहर के क़ब्ल की सुन्नतें जमाअत की वजह से फौत हो जायें तो बादे फ़र्ज़ पढ़ी जायेंगी इस में रिवायतें मुख्तलफ़ हैं कि बादे फ़र्ज़ दो रकअत सुन्नत पढ़ी जायें या क़ब्ले 2 रकअत बेहतर ये है कि पहले बाद वाली पढ़ लें फिर चार क़ब्ल वाली पढें।

▣ ➟  जैसा कि फ़त्हुल क़दीर में है : बेहतर है दोनों रकअतों को मुक़द्दम करना इसीलिये कि चार रकअत मौज़े मस्नून से फौत हो गयीं तो दोनों रकअतों को क़स्दन बिला ज़रूरत अपनी जगह दे फ़ौत ना किया जाये।

(فتاوی اکرمی، ص132)

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▣ ➟  वुज़ू करने वाला तयम्मुम करने वाले की इक़्तिदा कर सकता है? 

▣ ➟   वुज़ू करने वाला तयम्मुम करने वाले की इक़्तिदा कर सकता है
हिदाया अव्वल बाबुल इमामत में है, जाइज़ है कि तयम्मुम करने वाला वुज़ू करने वाले की इमामत करे।

▣ ➟   और नूरुल ईज़ाह बाबुल इमामत सफ़हा 79 में है कि वुज़ू करने वाले को तयम्मुम करने वाले की इक़्तिदा करना सहीह है।

(فتاوی اکرمی, ص 137) 

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▣ ➟  क़ब्रिस्तान में नमाज़ पढ़ना

▣ ➟  क़ब्रिस्तान में नमाज़ पढ़ना जाइज़ है बशर्ते कि सामने क़ब्र ना हो और क़ब्र है तो मकरूहे तहरीमी और दाएं बाएं हो तो हर्ज नहीं।

(  فتاویٰ اکرمی، ص111)

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