Monday, 22 January 2024

📑 मुह़ासबा ✨ए✨ आ'माल⌛


 🌹 ✍🏻 *اَلصَّلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَیۡكَ يَــــــــارَسُوۡلَ اللّٰهِ ﷺ*

                   ❘༻ *मुह़ासबा ए दींन* ༺❘
         
*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  0️⃣1️⃣*

*हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!*

सवाल : अल्लाह कोन है!?

जवाब :- जिसने तमाम आलम और दूसरे जहान को पैदा किया उसी पाक ज़ात का नाम अल्लाह है, तमाम आलम ज़मीनों आसमान वगैरा सारा जहान पहले बिल्कुल नापैद था। कोई चीज़ भी नहीं थी फिर अल्लाह {ﷻ} ने अपनी कुदरत से सबको पैदा किया तो यह सब कुछ मौजूद हुआ, वह हमेशा से है और हमेशा रहेगा, उसका कोई शरीक नहीं, वह बे परवाह है किसी का मोहताज नहीं सारा आलम (यानी दुनिया) उस का मोहताज है कोई चीज़ उसकी मिष्ल नहीं वह सबसे यकता और निराला है!

वह ज़िंदा है और वही सब का खालिक़ व मालिक है वह कुदरत वाला है वह हर चीज़ को जानता है सबकी ज़िन्दगी और मौत का मालिक है जिसको जब तक चाहे ज़िंदा रखे जिसे चाहे मौत दे वोही सब को जिलाता और मारता है वोही सबको रोज़ी देता है जिसको चाहे इज़्ज़त और ज़िल्लत देता है वह जो कुछ चाहे करता है वोही इबादत के लाइक़ है न उसने किसी को जना न वह किसी से जना गया न वह बीवी बच्चों वाला है, वह किसी पर ज़ुल्म नहीं करता , वह इंसाफ वाला है वह गुनाहों को बख़्श् ने वाला है वह सब पर हाकिम है उस पर कोई हुक्म चलाने वाला नहीं!

दुनिया में जो कुछ होता है उसी के हुक्म से होता है बगैर उसके हुक्म से एक ज़र्रा हिल नहीं सकता, उसके किसी हुक्म और उसके किसी काम में किसी को रोक टोक की मजाल नहीं, न वह सोता है न उंघता न कभी गाफिल होता है अल्लाह {ﷻ} जहत और मकान व ज़मान व हरकत व सुकून और शक्लों सूरत वगैरा मख्लुक़ात की तमाम सिफात व कैफिय्यात से पाक है अल्लाह {ﷻ} नूर है वह किसी चीज़ से बना नहीं है!

*⚠️नोट :-* अल्लाह मखलूक नहीं जो किसी चीज़ से बना हो हर चीज का बनाने वाला खालिक़ है,  क्योंकि बनती वह चीज़ है जो पहले से न हो और अल्लाह हमेशा से है, अल्लाह ने  रोशनी, हवा, पानी, आग, मिट्टी वगैरा सबको उसी ने पैदा किया है!
واللّٰه تعالیٰ اعلم

*📘 जन्नती ज़ेवर सफा 166 से 170*
*📒 फतावा शारेह बुखारी सफा 142*
*📕 फ़ैजाने आला हजरत सफा 59*

   ज़ारी रहेगा..! *✍🏻   मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ
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🔮 𝑆𝑢𝑙𝑡𝑎𝑛 𝑒 𝐻𝑖𝑛𝑑 𝑔𝑟𝑜𝑢𝑝 ☏ 𝟩𝟧𝟨𝟨𝟫𝟪𝟢𝟪𝟥𝟪 🔮

🌹 ✍🏻 *اَلصَّلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَیۡكَ يَــــــــارَسُوۡلَ اللّٰهِ ﷺ*

                   ❘༻ *मुह़ासबा ए दींन* ༺❘
         
*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  0️⃣2⃣*

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वुज़ू में चार फ़र्ज़ है!

1. मुँह धोना
2. कोहनियों समेत दोनों हाथों को धोना
3. सर का मसह  करना
4. टखनो समेत दोनों पाँव का धोना।

फायदा - किसी उज़्व को धोने के यह मा'नी हैं कि हर हिस्से पर कम से कम दो-दो बूंद पानी बह जाये  भीग जाने या तेल की तरह पानी चुपढ़ लेने या एक आध बूंद बह जाने को धोना नहीं कहेंगे न उससे वुज़ू  या गुस्ल अदा हो  इस बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी है लोग इसकी तरफ ध्यान नहीं देते और नमाजे अकारत  जाती है यानी बरबाद होती है।

मुँह धोना लम्बाई में शुरू पेशानी से (यानी सर मे पेशानी की तरफ का वह हिस्सा जहां से आम तौर पर बाल जमने शुरू होते है ठोड़ी तक और चौड़ाई में एक कान से दूसरे कान तक मुँह है इस हद के अन्दर चमड़े के हर हिस्से पर एक बार पानी बहाना फ़र्ज़ है जिस के सर के अगले हिस्से के बाल गिर गये या जमे नही उस पर वहीं तक मुँह धोना फ़र्ज़ है जहाँ तक आदत के मुवाफिक बाल होते हैं और अगर आदत के खिलाफ किसी के नीचे तक बाल जमे हो तो उन ज्यादा बालों का जड़ तक धोना फर्ज है

मूंछों, भवों  या बच्ची  (यानी वह बाल जो नीचे के हॉट और ठोड़ी के बीच में होते है) के बाल ऐसे घने हो कि खाल बिल्कुल न दिखाई दे तो चमड़े का धोना फ़र्ज़ नहीं और अगर उन जगहों के बाल घने न हो तो जिल्द का धोना भी फ़र्ज़ है।

अगर मुछे बढ़ कर लबो को छुपा ले तो अगर्चे मूंछें घनी हो उनको हटा कर लब का धोना फ़र्ज़ है दाढ़ी के बाल अगर घने न हो तो चमड़े का धोना फ़र्ज़ है, और अगर घने हो तो गले की तरफ दबाने से जिस कद्र चेहरे के घेरे में आए उनका धोना फ़र्ज़ है और जड़ों का धोना फ़र्ज़ नहीं और जो हल्के से नीचे हो उनका धोना ज़रूरी नहीं और अगर कुछ हिस्से में घने हो और कुछ छिदरे हो तो जहां घने हो तो वहां बाल और जहां छिदरे हो उस जगह जिल्द (खाल) धोना फ़र्ज़ है!

बहुत से लोग यूं किया करते है के नाक या आंख या भवें पर चुल्लू डाल कर सारे मुंह पर हाथ फेर लेते है और यह समझते है कि मुंह धुल गया हालांकि पानी का ऊपर चढ़ना कोई मा'ना नहीं रखता इस तरह धोने में मुंह नहीं धुल्ता और वुज़ू नहीं होता!

रुखसार (गाल) और कान के बीच  जो जगह है जिसे कन पट्टी कहते है उसका धोना फ़र्ज़ है , हां उस हिस्से में जितनी जगह दाढ़ी के घने बाल हो वहां बालों का और जहां बाल न हो वहां जिल्द का धोना फ़र्ज़ है नथ का सुराख अगर बंद न हो तो उस में पानी बहाना फ़र्ज़ है अगर तंग हो तो पानी डालने में नथ को हिलाए वरना ज़रूरी नहीं!

واللّٰه تعالیٰ اعلم

*📕 बहारे शरीअ़त जिल्द 1 सफा 288 ता 298*

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मस्अला :- नमाज़ों की रकअ़तों को पूरी कर लेने के बाद पूरी अत्तहिय्यात पढ़ने की मिक़्दार बैठना फ़र्ज़ है और इस का नाम का'दए अख़ीरा है।

मस्अला : का'दए अखीरा में पूरा तशह्हुद (अत्तहिय्यात) पढ़ना वाजिब है!

मस्अला : का'दए अखीरा में तशह्हुद (अत्तहिय्यात) के बाद दरूद शरीफ और दुआ ए मासूरा पढ़ना सुन्नत है!

मस्अला : फ़र्ज़ नमाज़ में का'दए अखीरा के सिवा (कहीं भी) दरूद शरीफ नहीं पढ़ा जाएगा!

मस्अला : का'दा में नज़र गोद की तरफ करना मुस्तहब है!

मस्अला : पूरा का'दए अखीरा सोते में गुज़र गया बाद बेदारी बक़द्रे तशह्हुद बैठना फ़र्ज़ है वरना नमाज़ न होगी!

मस्अला :- का'दए अखीरा के बाद अपने क़स्द व इरादे और किसी अमल से नमाज़ को ख़त्म कर देना सलाम से हो या किसी दूसरे अमल से येह भी नमाज़ के फ़राइज़ में से है। 

واللّٰه تعالیٰ اعلم

*📒 मोमिन की नमाज़ सफा 117 ता 121*
*📗 बहारे शरीअ़त जिल्द 1 सफा 519*
*📕 जन्नती ज़ेवर सफा 280*

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*सवाल :-* आज कल जो किसी किसी व्हाट्स ऐप ग्रुप में तारीखी फर्ज़ी और ऐसे सवाल आते है, कि जिस की न दुनिया में न आखीरत में ज़रूरत पड़ती हो, तो ऐसे सवालात करना कैसा...?

*जवाब : -* हदीस शरीफ़ में है कि हुज़ूर {ﷺ} ने बे ज़रूरत मसाइल पूछ ने से मना किया है!

हज़रत अमीरे मुआविया बिन अभी सुफ़्यान रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु के सामने लोगों ने सवालात किए तो उन्होंने कहा कि क्या तुम नहीं जानते कि हुज़ूर {ﷺ} ने मुश्किल सवाल (यानी जिस से इंसान मुशक्कत में पड़े और उस से कोई फायदा भी न होता हो उसे) करने से मना फरमाया है!

ऐसा सवाल न करे जिस की दुनिया व आखीरत में ज़रूरत न हो वहीं सवाल करे जो रोज़ मर्रा की ज़रूरत के हो तारीखी फर्ज़ी और गैर ज़रूरी सवाल न करे!

📒 फतावा रज़विया जिल्द 5 सफा 344
📕 ज़िया ए शरीअ़त जिल्द 2 सफा 87

*हिदायत : -* आज का जो सवाल और जवाब था उस से हमारा मक़सद यह नहीं था कि जो सारे ग्रुपों में तारीखी सवाल आते है वह गलत है, और न यह भी सोच रख कर किया हूं कि सिर्फ हमारा ही ग्रुप अच्छा है हरगिज़ नहीं।

बल्कि असल यह है कि कुछ ऐसे ग्रुप भी है जिस में आप सब भी होंगे जहां कुछ बे ज़रूरत वाले सवाल किए जाते है, जिसका न दुनिया में न आखीरत में फायदा होता है ऐसे सवालों में लग कर सिर्फ वक़्त को ज़ाया करना होता है और क्या है ? आलिमों और मुफ्ती साहब सब से पूछो तो जवाब देना पसंद नहीं करते, और  कभी कभी तो झाड़ भी देते है कि इस तरह का सवाल न पूछा करो आपको इस से क्या हासिल होगा वगैरा...

एक सवाल मिसाल के तौर पर समझाते हैं, एक शख्स एक आलिम साहब से पूछता है कि शैतान ने जो निकाह किया था तो उसकी बीवी का क्या नाम था, आलिम साहब ने जवाब दिया कि मुझे नही पता क्योंकि मैं उस निकाह में शामिल नहीं था। दूसरी मिसाल यह कि एक बुज़ुर्ग का क़ौल मुबारक रख देंगे और पूछेंगे की यह बताइये की यह किस बुज़ुर्ग ने फरमाया। (जब की उस से हमारा कोई फायदा हासिल न होने वाला हो) या कोई हदीसे पाक रख देंगे और पूछेंगे की इसके रिवायत करने वाले हज़रत कौन हैं। तो इस किस्म की मालूमात हासिल करके  अवाम को  क्या फायदा होने वाला है ? नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, दीगर अहकाम, गुनाहों की मा'रिफ़त, मामुलात, तिजारत, निकाह, तलाक़, यह सब तो सीखते नहीं और लग जाते हैं ऐसे इल्म सीखने में जिससे कोई नफा नही, अभी भी वक़्त है संभल जाइये।

कहना यही है कि आज कल लोगों को बहुत कम वक़्त ही मिलता है ,काम है बीवी है बच्चे है मां है दोस्त है वगैरा... इन सब को भी वक़्त देना होता है, और थोड़ा बहुत इस से बचता है तो फिर हम नमाज़ के लिए इल्म सीखने के लिए वज़ाईफ पढ़ने के लिए वक़्त निकालते है,  अफसोस भी है!

और उस में भी जो मुश्किल से वक़्त मिलता है उस में ज़रूरत के मसाइल न सीख कर बे ज़रूरत वाली बातों में उलझना, उसी बातों को ढूंडना, जवाब न मिले तो और भी दिमाग खराब होता रहता है, लेकिन जो लोग इन  बातों को गौर देते है वह जल्दी इन सब में नहीं पड़ते है, बहर हाल किसी कि बुराई करना मक़्सूद नहीं है!

आखिरी में यही कहना चाहूंगा कि मुश्किल से वक़्त मिलता है सबको, आप अगर ग्रुप एडमिन है तो आप एक ज़ीम्मेदार शख़्स है और आप अगर कुछ ऐसे तारीखी सवाल करेंगे जिस से न दुनिया में न आख़ीरत में फायदा हो  तो आपका भी वक़्त ज़ाया होगा और मेंबर्स का भी।  बेहतर यही है, कि रोज़ मर्रा के मसाइल लाए जाए ताकि आपको भी फायदा हो और दूसरे मेंबर्स को भी कुछ ज़रूरत के मसाइल सीखने को मिले!

*तंबीह : -* जो लोग करते है उनको मशवरा देना हमारा काम है मनवाना हमारा काम नहीं। तारीखी से मुराद सारे सवाल नहीं है बल्कि वह सवाल जिस से हमे कोई फायदा न दुनिया में न आख़ीरत में होती है।

واللہ تعالیٰ اعلم

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  0️⃣5⃣*

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सवाल : अरबी में कोनसा हर्फ किस मखरज से अदा होते है और होटों से अदा होने वाले कितने हर्फ है ?

जवाब : होटों से सिर्फ चार हर्फ अदा होते है ب ف م و 

मख़ारिज हुरूफ का बयान 

ह़र्फ़ { ا ء ھ } हल्क़ के नीचे वाले हिस्से से अदा होते है

ह़र्फ़ { ع ح } हल्क़ के दरमियान वाले हिस्से से अदा होते है

ह़र्फ़ { غ خ }  हल्क़ के ऊपर वाले हिस्से से अदा होते है

ह़र्फ़ { ق } ज़बान की जड़ और तालू के नरम हिस्से से अदा होता है

ह़र्फ़ { ك } ज़बान की ज़ड़ और तालू के सख़्त हिस्से से अदा होता है 

ह़र्फ़ { ج ش ي } ज़बान के दरमियान और ऊपर के तालू के दरमियान से अदा होते है।

ह़र्फ़ { ض }  ज़बान की करवट और ऊपर की दाढ़ो की ज़ड़ से अदा होता है 

ह़र्फ़ { ل ن ر } ज़बान का किनारा और दातों की ज़ड़ के ऊपर तालू की जानिब वाले हिस्से से अदा होते है

ह़र्फ़ { ت د ط } ज़बान की नोक और ऊपर के दांतों की ज़ड़ से अदा होते है

ह़र्फ़ { ث ذ ظ } ज़बान का सिरा और ऊपर के दांतों के अंदरूनी किनारे से अदा होते है

ह़र्फ़ { ز س ص }  ज़बान की नोक और दोनों दांतों के अंदरूनी किनारे से अदा होते है

 होटों से सिर्फ चार हर्फ अदा होते है  ب ف م و

ह़र्फ़ { ف } ऊपर के दांतों के किनारे और नीचे की होंट की तरी वाली हिस्से से अदा होते है 

ह़र्फ़ { ب }  दोनों होटों के तर हिस्से से अदा होता है 

ह़र्फ़ { م } दोनों होटों के खुश्क हिस्से से अदा होता है

ह़र्फ़ { و } दोनों होटों की गूलाई से अदा होता है

हिदायत : यह सब तो बचपन में हम पढ़े थे  लेकिन हमे इसका इल्म नहीं रहता है , यह लिखने का ख़ास मकसद यह है कि हर हर हरफ का अपना अपना मक़ाम है और हर हर हर्फ की अपनी सीफत यानी खूबी है।  इस में हम गलती यह कर देते है कि एक ही बना देते है  यानी जैसे س  और ص में  ت ط में  ہ ح  में  ء ع में फर्क नहीं करते यानी इन सब की आवाज़ एक  ही होती है जो कि बिल्कुल गलत है,   बल्कि सब की आवाज़ अलग अलग होती है 

और यही गलती कि बिना पर कभी कभी नमाज़ पढ़ने में उसका माना फासिद हो जाता है तो नमाज़ नहीं होती है या नाक़िस होती है, इस लिए हमारी नमाज़ दुरुस्त होने और सही क़ुरआन पढ़ने के लिए यह भी ज़रूरी है वरना गलत पढ़ने से गुनाह भी मिलेगा 

واللہ تعالیٰ اعلم

📚 रहमानी क़ाइदा सफा 2-3

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सवाल : विरासत में किसके हिस्से में कितनी जायदाद आएगी यह बताया जा रहा था कि उस वक़्त लड़की ने कहा कि मै अपना हिस्सा मुआफ करती हूं और लिख कर भी दे दिया और दो गवाह के सामने मुआफ़ भी कर दिया तो लड़की की मिल्कियत रहेगी या नहीं ?

जवाब :  ज़बानी या तहरीरी तौर पर लड़की अगर तरका (विरासत का माल) लेने से इनकार कर दे फिर भी उसकी मिल्कियत ज़ाईल नही होगी। आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत अलैहिर्रहमा फरमाते है : कि अगर वारिस सराहतन कह दे की मैने अपना हिस्सा छोड़ दिया जब भी उसकी मिल्क जाईल नही होगी।

हां अगर उसे लेना मंज़ूर नहीं तो यूं करे की पहले ले ले फिर अपने भाई बहन जिसे चाहे मुकम्मल हिबा कर दे

हिदायत :- एक लड़की अपना हिस्सा तभी माफ कर सकती है जब वो अपने हिस्से को ले कर अपने कब्ज़े में कर लेगी, अभी तो उसने अपने जेब मे अपनी जायदाद रखी ही नही, तो बिना लिए, बिना अपनी मिल्कियत में दाखिल किए माफ करने का तो सवाल ही नही उठता। पहले उसको लेना पड़ेगा, फिर अगर माफ करना चाहती है तो वापस कर दे, आजकल बस ऐसी होता है कि भाई बोल देता है कि मेरी प्यारी बहना तू अपना हिस्सा माफ कर देगी न, और बहना भी कह देती है कि मैंने अपना हिस्सा माफ किया, और सोचते है कि काम खत्म, अरे भैया मैदाने महशर में फस जाओगे, बहन बिना लिए माफ कर ही नही सकती। मिसाल के तौर पर बहन के हिस्से में 5 लाख आ रहे हैं तो पहले उसे अपने कब्ज़े में 5 लाख रखना पड़ेगा, फिर जब उसके पास आ गए 5 लाख तो अगर अब माफ करना चाहती है तो वापस कर सकती है। बिना कब्ज़ा किए माफ करेगी तो होगा ही नही और वो हमेशा बहन की ही मिल्कियत रहेगी।

واللہ تعالیٰ اعلم

📚 फतावा फक़ीह ए मिल्लत जिल्द 2 सफा 401 ता 402

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सवाल : एक मुसलमान के मुर्गे की दुकान है जिस में कभी कभी कुछ मुर्गे यूहीं दब कर मर जाते हैं,  तो उस मरे हुए मुर्गे को काफिर को बता कर बेचना और उसका पैसा लेना कैसा है ?

जवाब : उस मुरदार मुर्गे को गैर मुस्लिम के हाथ फरोख्त करना जाइज़ है जबकि उस में धोका न हो, और हुज़ूर सदरुश शरीआ अलैहिर्रहमा फरमाते है

अ़क़्द फासिद के जरिआ से काफिर हरबी का माल हासिल करना मम्नूअ (मना) नहीं यानी जो अ़क़्द माबैन  दो मुसलमान मम्नूअ है अगर हरबी के साथ किया जाए तो मना नहीं मगर शर्त यह है कि वह अ़क़्द मुसलमान के मुफीद हो, मिसाल के तौर पर : एक रुपये के बदले में दो रुपये खरीदे या उसके हाथ मुर्दार को बेच डाला कि उस तरीका से मुसलमान का रुपया हासिल करना शरअ़ के खिलाफ और हराम है और काफिर से हासिल करना जाइज़ है!

*नोट : -* लिहाज़ा किसी मुसलमान भाई का ऐसा वक़्त आए तो चाहिए कि काफिर को दे कर पैसे हासिल कर ले यूंही न फेके, लेकिन धोका न दे (यानी बता दे कि इस तरह से मरा है वगैरा.!
واللہ تعالیٰ اعلم

*📚  फतावा मुशाहिदी सफा 141ता142*

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सवाल : औरतें हैज़ रोकने के लिए जो दवा का इस्तेमाल करती हैं, ताकि रमज़ान के रोज़े रख सके, या तवाफ़ कर सके, इस वजह से तक़दीर ए इलाही में भी मुदाखिलत (दखल अंदाज़ी)  होती है, और कभी कभी बीमारियों का भी सामना करना पड़ता है, तो इस तरह दवा खा कर हैज़ को रोकना कैसा ?

जवाब : जहां तक मानेअ् हैज़ दवाओं के जाइज़ व ना जाइज़ होने का ताल्लुक है तो चूंकि शरीअ़त में इस की मुमानअ़त (यानी मना) या उसके अदमे जवाज़ (यानी जाइज़ न होने) का कोई जुज़्या (ऐसा देखने में) नहीं है इस लिए उसका इस्तेमाल ना जाइज़ व गुनाह तो नहीं होगा ,

अलबत्ता तकदीरे इलाही में मुदाखिलत और बाज़ बीमारियों को दावत देने के मुतरादिफ होने की वजह से इस से बचना ज़्यादा मुनासिब है

कुछ औरत यह ख्याल करती है कि जो रमज़ान में हमारी रोज़ा छूट जाती है तो बाद में क़ज़ा रखने से सवाब में कमी आ जाती है.  महज़ यह ख्याल गलत फहमी है बल्कि सवाब में कोई कमी नहीं आएगा  सवाब उनको पूरा का ही मिलेगा!

واللہ تعالیٰ اعلم

*📘 फतावा यूरोप सफा 311*

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अगर कोई शराबी मुसलमान मुस्तहिक़ ज़कात में से है यानी फक़ीर मिस्कीन वगैरा है, तो उसको ज़कात की रक़म देने से ज़कात अदा हो जाएगी। क्योंकि अदाएं ज़कात के लिए फ़क़ीर मुस्लिम शर्त है और जब वो पाई गई तो मशरूत का वजूद यकीनी पाया जाएगा।

लेकिन ऐसे शख्स को जो गुनाहे कबीरा का आदि हो और ग़ालिब गुमान हो कि ज़कात की रक़म को भी वो उसी में खर्च करेगा, तो उस शख्स को ज़कात देना मुनासिब नही, बल्कि देने वाला शख्स गुनहगार होगा।

नोट : - ज़कात को देते वक्त ये ज़रूर देखें कि ये शख्स इन पैसों का गलत इस्तेमाल तो नही करेगा, और ये कहीं नशे वगैरा में तो मुब्तिला नही है, या जुवा जैसे खबीस चीज़ में तो मुब्तिला तो नही है, उसके बाद ही अपनी ज़कात को दे।

واللہ تعالیٰ اعلم

*📗 फतावा यूरोप सफा 292*

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🌹 ✍🏻 *اَلصَّلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَیۡكَ يَــــــــارَسُوۡلَ اللّٰهِ ﷺ*

                   ❘༻ *मुह़ासबा ए दींन* ༺❘
         
*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  🔟*

*हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!*

सवाल : एक शख़्स गैर मुस्लिम के लिए अदबन हज़रत का लफ्ज़ तहरीर करता है, ऐसा लिखना दुरुस्त है या नहीं ?

जवाब : काफिर की अदना ताज़ीम भी कुफ्र है, जिस शख़्स ने काफिर को अदबन हज़रत तहरीर किया उस पर लाज़िम है कि तौबा व तजदीदे ईमान करे और अगर बीवी वाला हो तो तजदीदे निकाह भी लाज़िम है !

सवाल : किसी गैर मुस्लिम को हाथ जोड़ कर या यूहीं नमस्ते कहना कैसा है ?

जवाब : नमस्ते और नमस्कार के माइने आदाब ,तस्लीम , सलाम करना वगैरा के होते है।

उलमा फरमाते है कि मुसलमान काफिर को नमस्ते कहे, ये हराम है। और काफिर के यहां ये शियारे ताज़ीम है और खास शियारे हिनूद है तो किसी काफिर को नमस्ते नहीं करना चाहिए क्योंकि जब हदीस में फासिक की ताज़ीम को मना किया तो काफिर की ताज़ीम की कैसे इजाज़त होगी।

इस्लाम ने मुसलमानों को आपस में मिलते वक़्त सलाम की तर्गीब दी और हुज़ूर {ﷺ} ने काफिर और फासिकों और गैरों के तरीके से बचने का हुक्म दिया

आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत रहमतुल्लाहि तआ़ला अ़लैह फरमाते है : काफिर को सलाम करना हराम है। और आगे लिखते है काफिर या फासिक को सलाम करने की सही ज़रूरत पेश आए तो लफ़्ज़े सलाम ना कहे ना कोई ऐसा लफ़्ज़ जो ताज़ीमी हो। मज़बूर हो तो आदाब कहे (यानी आ मेरे पाऊँ दाब) और मज़बूरी की हालत में आदाब कहते वक़्त भी दिल में उनकी ताज़ीम की निय्यत नहीं होनी चाहिए!

*📕 फतावा ताजुश शरीआ जिल्द 2 सफा 112*
*📒 फतावा रज़विया जिल्द 22 सफा 378*

   ज़ारी रहेगा..! *✍🏻   मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ
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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  1⃣1️⃣*

*हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!*

सवाल : भीक मांगना कैसा और भीक मांगने वाले को ज़कात देने से ज़कात अदा होगी या नहीं ?

जवाब :  भीक मांगने वाले 3 तरह के होते है एक मालदार जिसे बहुत से क़ौम के फ़कीर जोगी और साधु उन्हें भीक मांगना हराम और उन्हें देना भी हराम ऐसे लोगों को देने से ज़कात अदा नहीं हो सकती

दूसरे जो हक़ीक़त में फ़कीर है यानी निसाब के मालिक नहीं है मगर मज़बूत व तंदुरुस्त है कमाने की ताकत रखते हैं और भीक मांगना किसी ऐसी ज़रूरत के लिए नहीं जो उनकी ताक़त से बाहर हो मज़दूरी वगैरह कोई काम नहीं करना चाहते मुफ्त खाने की आदत पड़ी है जिसके सबब भीक मांगते फिरते हैं ऐसे लोगों को भीख मांगना हराम है और जो मांगने से मिले उनके लिए खबीस है

हदीस शरीफ में है : यानी न किसी मालदार के लिए सदका हराम है और ना किसी तवाना तंदुरुस्त के लिए ऐसे लोगों को भीक देना मना है कि गुनाह पर मदद करना है लोग अगर नहीं देंगे तो मेहनत मज़दूरी करने पर मज़बूर होंगे मगर ऐसे लोगों को देने से ज़कात अदा हो जाएगी जबकि और कोई शरई रुकावट न हो इसलिए के वह मालिके निसाब नहीं है

और भीख मांगने वालों की तीसरी क़िस्म वह है कि जो न माल रखते हैं और न कमाने की ताक़त रखते हैं या जितने की हाजत है उतना कमाने की ताक़त नहीं रखते ऐसे लोगों को अपनी हाजत पूरी करने भर की भीक मांगना जाइज़ है और मांगने से जो कुछ मिले वह उसके लिए हलाल व त़य्यब है और यह लोग ज़कात के बेहतरीन मुसर्रफ है उन्हें देना बहुत बड़ा सवाब है और यही वह लोग हैं जिन्हें छिड़कना हराम है

नोट : - हमें किसी भी भिकारी को भीक देने से पहले ये सोचना चाहिए कि वाक़ई में वो भीक लेने लायक है भी या नही, अगर हम उसे भीक देंगे तो कही हम ही तो गुनहगार नही हो जाएंगे, जो हट्टा कट्टा हो और कमा सकता हो, ऐसे को पैसे देना, खाना देना सब गुनाह है, उलमा ए किराम फरमाते हैं कि जो तुम रोटी उसे दोगे, उससे वो जो तवानाई (ताक़त) हासिल करेगा, और उससे मज़ीद गुनाह करेगा, तो तुम्हारा उसको सिर्फ 10 रुपये देना भी गुनाह में मदद करना कहलाएगा, लिहाज़ा ये न सोचें कि 10 रुपये देने से क्या होता है, आखिरत की फ़िक्र करे!

واللہ تعالیٰ اعلم

*📘 फतावा फैज़ुर रसुल जिल्द 3 सफा 131+132*
*📕 फतावा रज़विया जिल्द 10 सफा 254*
*📗 अनवारूल हदीस*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  1⃣2⃣*

 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

चार रकअ़त वाली नमाज़ जिसे एक रकअ़त इमाम के साथ मिली तो उसने जमाअ़त न पाई , हां जमाअ़त का सवाब मिलेगा अगर्चे का'दा अखीरा में शामिल हुवा हो, बल्कि जिसे तीन³ रकअ़तें मिलीं उस ने भी जमाअ़त न पाई जमाअ़त का सवाब मिलेगा, मगर जिसकी कोई रकअ़त जाती रही (यानी छूट गई) उसे उतना सवाब न मिलेगा जितना अव्वल (शुरू) से शरीक होने वाले को है 

इस मस्अले का मुहस्सल (खुलासा) यह है कि किसी ने क़सम खाई ''फुलां नमाज़ जमाअ़त से पढ़ेगा" और (मगर) कोई रकअ़त जाती रही तो क़सम टूट गई कफ्फारा देना होगा तीन और दो रकअ़त वाली नमाज़ में भी एक रकअ़त न मिली तो जमाअ़त न मिली और लाहिक का हुक्म पूरी जमाअ़त पाने वाले का है!

*⚠नोट : -* जब कहीं दावत में जाना हो या एयरपोर्ट जाना हो तो हम पहले से इंतेज़ाम व एहतेमाम करते हैं, कि कही देर न हो जाए, और जब नमाज़ की बात आती है तो आराम से ताख़ीर करते हैं, कुछ तो जमाअ़त भी छोड़ देते हैं, और कुछ लोग जमाअ़त का सवाब तो पा लेते हैं मगर तकबीर ए उला की फ़ज़ीलत से महरूम रह जाते हैं, लिहाज़ा नमाज़ में जमाअ़त को तरजीह दे और कोशिश करें कि पहली रकअत से शामिल हों।

*📕 बहारे शरीअ़त जिल्द 1 सफा 703*

   ज़ारी रहेगा..! *✍🏻   मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ
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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  1⃣3⃣*

 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

सुवाल : एक शख्स ने किसी बात पर बिला इजाज़ते शरई झूट बोला। इस पर जब उस को किसी ने टोका तो उस मुंहफट ने बका : "आज कल सच्चाई का ज़माना नहीं है मैं ने झूट बोला तो क्या बुरा किया !" इस तरह
कहने वाले के लिये क्या हुक्म है ?

 *जवाब :* इस तरह कहने वाले पर हुक्मे कुफ़ है। मेरे आका आला हज़रत, इमामे अहले सुन्नत, मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खान (رَحۡمَۃُاللّٰهِ تَعَالٰی عَلَیۡهِ) की ख़िदमत में इस्तिफ़्ता पेश हुवा : अम्र ने जान बूझ कर कचहरी (कोट) में झूटी गवाही दी। लोगों ने इस पर ए'तिराज़ किया तो कहने लगा : कचहरी में आज कल सच कौन बोलता है !जितने जाते हैं सभी वहां झूट ही बोलते हैं, अगर मैं ने झूट कहा तो क्या बुरा किया!

अल जवाब : हदीस में फ़रमाया : झूटी गवाही देने वाला वहां से क़दम हटाने नहीं पाता हत्ता कि अल्लाह {ﷻ}  उस के लिये जहन्नम वाजिब फ़रमा देगा यहां तक तो गुनाहे कबीरा ही था जो आदमी की हलाकत व बरबादी को बस है।

 *आगे इस का कहना कि "मैं ने झूट बोला तो क्या बुरा किया !" सरीह कलिमए कुफ़ है!* 

इस पर लाज़िम है कि तजदीदे इस्लाम करे और अगर औरत रखता हो तो अज़ सरे नौ इस्लाम लाने के बाद उसे तजदीदे  निकाह़ ज़रूरी है।

*⚠ नोट : -* गुनाह को अच्छा समझना कुफ्र होता है, एक शख्स है जो गुनाह करता है, मगर उसको दिल मे बुरा जान कर करता है, तो ये शख्स सिर्फ गुनहगार है, मगर जो शख्स गुनाह कर के यह कहता है कि '' मैंने कुछ बुरा नही किया'' गोया की गुनाह को गुनाह नहीं समझता है तो , उस शख्स का ईमान खतरे में पड़ जाता है।

 *📒 फ़तावा रज़विय्या, जिल्द 15, सफा 150+151*

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सवाल : क्या फरमाते है उलमा ए दीन इस मसअ्ला में कि बाज़ इलाकों में यह रिवाज है कि जब नई नवेली दुल्हन शौहर के घर आती है तो घर की बूढ़ी पुरानी औरते पानी से भरे लग्न (हाथ पांव धोने का बर्तन) में उसको पांव रखवाती है , और वह मुस्तअ्मल (इस्तेमाल शुदा, यानी  धुला हुआ) पानी मकान के चारों कोनों में छिड़कवा देती है, क्या यह हिंदुवाना रस्म है व रिवाज है या मुसलमानों के लिए भी ऐसा करना जाइज़ है ?

जवाब : यह रस्म हिन्दुओं का मज़हबी शिआर नहीं है और जो किसी दूसरे क़ौम का शिआर नहीं और हमारी शरीअ़त इस्लामिया में उसके करने की मुमानेअ़त भी नहीं तो वह मुबाह अ़ज़्व है!

और मेरे आका आला हज़रत, इमामे अहले सुन्नत, मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खान (رَحۡمَۃُاللّٰهِ تَعَالٰی عَلَیۡهِ) फरमाते है : दुल्हन को ब्याह कर लाए तो मुस्तहब यह है कि उसका पांव धो कर मकान के चारों कोने मै छिड़कें इस से बरकत होगी।

और उस पानी को मुस्तअ्मल कहना भी कल्यतन (पूरे तौर पर) सही नहीं है कि मुम्किन है दुल्हन बा वुज़ू हो या ना बालिगा हो, फिर यह की पांव पानी में डाला जाना अज़ क़बील रस्म व रिवाज या अज़ क़बील आमाल है न कि अज़ नव इबादत !

واللہ تعالیٰ اعلم

*📗 फ़तावा रज़विय्या, जिल्द 2 सफा 596*
*📔 सुन्नी बहीश्ती ज़ेवर जिल्द 1 सफा 403*
*📕 फतावा यूरोप सफा 389*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  1⃣5⃣*

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पड़ोसी के हुकू़क़ की रिआयत लाज़िम मुसलमान पड़ोसी के बहुत हक़ है रसूलुल्लाह {ﷺ}  फरमाते है :जीब्रील (अलैहिस्सलाम) मुझसे पड़ोसी के हक़ की ताकीदें बयान करते रहे यहां तक कि मुझे गुमान हुआ कि उसे तरका का वारिस कर देंगे! दूसरी हदीस में है रसूलुल्लाह {ﷺ}  फरमाते हैं हमसाए का हमसाए पर हक़ यह है!

{1}  बीमार पड़े तो तू उसको पूछने को जाए!
{2}  मरे तो उसके जनाज़े के साथ जाए!
{3}  वह तुझ से क़र्ज़ मांगे तो उसे क़र्ज़ दे!
{4}  उसका कोई ऐब मालूम हो जाए तो उसे छुपाए!
{5}  उसे कोई भलाई पहुंचे तो उसे मुबारकबाद दे!
{6}  कोई मुसीबत पड़े तो उसे दिलासा दे!
{7}  अपनी दीवार उसकी दीवार से इतनी ऊंची न कर कि उसके मकान की हवा रुके!
{8}  अपनी देगची की खुशबू से उसे इज़ा न दे!मगर यह की उस खाने में से उसे भी हिस्सा दे।

यानी तू अमीर है और वह गरीब और तेरे यहां उम्दा खाने पकते पकाते है, खुशबू उसे पहुंचेगी, वह उन पर क़ादिर नहीं, इस से इज़ा पाएगा लिहाज़ा उस में से उसे भी दे कि वह इज़ा खुशी से बदल जाए!

इंतीबाह : राफ्ज़ी वहाबी अगर पड़ोस में हो उनका कोई हक़ नहीं  कि वह मुरतद है , न किसी काफिर गैर ज़िम्मी (यानी हरबी काफिर) का, और यहां के सब काफिर ऐसे ही हैं, उनके बारे में सिर्फ इतना ही है कि उनसे गदर व बद उहदी (यानी लड़ाई  धोका धड़ी) जाइज़ नहीं!

*📗 फ़ैजाने आला हज़रत सफा 189* 

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सवाल : क्या फरमाते है उलमा ए किराम इस मसअले में  कि एक शख़्स ने बिस्मिल्लाह कह कर एक शिकार के ऊपर बंदूक चलाई और जब देखने गया तो वह जानवर मर चुका था तो अब वह हलाल है या हराम!

जवाब : अगर सिर्फ बंदूक से मार कर छोड़ दिया या जीबह करने की कोशिश किया लेकिन उस से पहले जानवर मर चुका था तो हराम है!

बंदूक का शिकार मर जाए यह भी हराम है कि गोलीया छरईभी (यानी धाराधार आले की तरह काट कर जख्मी नहीं करता)

*📔 अह़कामे शरीअ़त हिस्सा अव्वल सफा 42*
*📕 बहारे शरीअ़त हिस्सा 17 सफा 695*

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औरत आटा पीसने रोटी पकाने से इंकार करती है अगर वह ऐसे घराने की है के उनके यहां की औरतें अपने आप यह काम नहीं करतें या वह बीमार या कमज़ोर है  कि कर नहीं सकती तो (शौहर को) पका हुआ खाना देना होगा या कोई ऐसा आदमी दे जो खाना पकावे ,(बीवी को) पकाने पर मजबूर नहीं की जा सकती!

और अगर न ऐसे घराने की है न कोई सबब ऐसा है कि खाना न पका सके तो शौहर पर यह वाजिब नहीं कि पका हुआ उसे दे और अगर औरत खुद पकाती है मगर पकाने कि उजरत मांगती है तो उजरत नहीं दी जाएगी!

नोट : इस से उन सबको सबक हासिल करने चाहिए जो ऐसी हालत में भी मजबूर करते है जबकि घर में दूसरे अफ़राद भी मौजूद होते है जो पका सके और उन लोगों को भी जो ऐसी हालत में झगड़ा लड़ाई गाली गलौज और दूसरे की गीबत तक करने लगते है अफ़सोस 
अल्लाह हिदायत दे!

*📘 बहारे शरीअ़त हिस्सा 8 सफा 267*

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हमारे आइमा ए किराम ने हरबी को सदक़ा ए नाफिला देने की मुमानेअ़त से उनकी औरतों बच्चो किसी को मुस्तस्ना न फरमाया हु़क्म आम दिया!

हरबी से नेक सुलूक शरअ़न कोई नेकी नहीं इस लिए उसे नफ़्ल खैरात देना भी हराम है! 

उन्हें खैरात देना उन पर एक तरह की मेहरबानी और उनकी गमख्वारी है और यह हुक्म क़ुरआन मजीद के खिलाफ है!

हरबी के साथ नेक सुलूक मुसलमान को हराम है!

ज़िम्मी काफिर को न ज़कात दे सकते हैं , न कोई सदक़ा वाजिबा जैसे नज़्र व कफ्फारा व सदक़ा ए फित्र और हरबी को किसी क़िस्म का सदक़ा देना जाइज़ नहीं न वाजिबा न नफ़्ल, अगर्चे वह दारुल इस्लाम में बादशाहे इस्लाम से ईमान ले कर आया हो!

हिन्दुस्तान अगर्चे दारुल इस्लाम है मगर यहां के कुफ्फार ज़िम्मी नहीं , उन्हें सदक़ात नफ़्ल मसलन हदिया वगैरा  देना भी ना जाइज़ व हराम है!

*📗 फतावा रज़विया जिल्द 14 सफा 459*
*📕 बहारे शरीअ़त हिस्सा 5 सफा 48 (हिंदी)*
*📔 बहारे शरीअ़त जिल्द 1 सफा 931 (उर्दू)*

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अल्लाह {ﷻ} ने अपने प्यारे हबीब {ﷺ} से फरमाया : अपने  रब के  रास्ते की तरफ हिक्मत और अच्छी नसीहत के साथ बुलाओं उनसे उस  तरीक़े से  बहस करो  जो सबसे अच्छा हो 

इस आयत में अल्लाह {ﷻ} ने अपने हबीब {ﷺ} को तीन तरीकों से लोगों को इस्लाम की दावत देने का हुक्म फरमाया :

*{1} हिक्मत के साथ* इस से वह मजबूत दलाइल मुराद है जो हक़ को वाज़ेह और शुबहात को ज़ाइल कर दे!

*{2} अच्छी नसीहत के साथ* इस से मुराद तरगीब व तरहीब है यानी किसी काम को करने की तर्गीब देना और कोई काम करने से डराना!

*{3} सबसे अच्छे तरीके से बहस करने के साथ* इस से मुराद यह है कि अल्लाह {ﷻ} की तरफ उसकी आयत और दलाइल से बुलाए!

*📘 पारा 14 सूरत 16 अन नहल आयत 125*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  2⃣⭕*

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सवाल : किसी सय्यद के लड़के से जब शागिर्द हो या मुलाज़िम हो दीनी या दुन्यावी खिदमत लेना और उसको मारना जाइज़ है या नहीं!

जवाब : ज़लील खिदमत उस से लेना जाइज़ नहीं, और न ऐसी खिदमत पर उसे मुलाज़िम रखना जाइज़ , जिस खिदमत में ज़िल्लत नहीं उस पर मुलाज़िम रख सकता है, बहाल शागिर्द भी जहां तक उर्फ और मारूफ हो शरअन जाइज़ है ले सकता है और उसे मारने से एहतिराज़ (यानी बिल्कुल परहेज़) करे!

*📕 फतावा रज़विया जिल्द 22 सफा 568*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  2⃣1️⃣*

 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

मसअ्ला :- क़ियाम व रुकू व सुजूद व क़अ्दए अखीरा में तरतीब फ़र्ज़ है अगर क़ियाम से पहले रुकू कर लिया फिर क़ियाम किया तो वह रुकूअ् जाता रहा अगर क़ियाम के बाद फिर रुकूअ् करेगा नमाज़ हो जायेगी वर्ना नहीं, यूँही रुकूअ से पहले सजदा करने के बाद अगर रुकूअ किया फिर सजदा कर लिया हो जायेगी वर्ना नहीं!

मसअ्ला :- जो चीज़ें फर्ज़ हैं उन में इमाम की इत्तिबाअ् मुक़तदी पर फर्ज़ है यानी उन में का कोई फेल इमाम पेश्तर अदा कर चुका और इमाम के साथ या इमाम के अदा करने के बाद अदा न किया तो नमाज़ न होगी मसलन इमाम से पहले रुकूअ या सजदा कर लिया और इमाम रुकूअ या सजदा में अभी आया भी न था कि उसने सर उठा लिया तो अगर इमाम के साथ या बाद को अदा कर लिया, हो गई वर्ना नहीं!

मसअ्ला :- मुक़तदी के लिए यह भी फर्ज़ है कि इमाम की नमाज़ को अपने ख़याल में सहीह तसव्वुर करता हो और अगर अपने नज़्दीक़ इमाम की नमाज़ बात़िल समझता है तो उस की न हुई अगर्चे इमाम की नमाज़ सहीह हो!
واللہ تعالیٰ اعلم

*📙 बहारे शरीअ़त हिस्सा 3 सफा 65 (हिंदी)*

   ज़ारी रहेगा..! *✍🏻   मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ
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🌹 ✍🏻 *اَلصَّلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَیۡكَ يَــــــــارَسُوۡلَ اللّٰهِ ﷺ* 

                   ❘༻ *मुह़ासबा ए दींन* ༺❘
          
*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  2⃣2⃣*

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सवाल : इस्तिबरा क्या है , और इसके क्या अहकाम है ?

इस्तिबरा दो चीज़ों को कहा जाता है :

(1) जवाब :  कनीज़ खरीदी थी और मुश्तरी ने कब्ज़ा कर लिया था फिर इक़ाला हुआ तो बाईअ़ पर इस्तिबरा (यानी उस वक़्त तक वती न करे जब तक उसका गैर हामिला होना मालूम न हो जाए)  वाजिब है बगैर इस्तिबरा वती नहीं कर सकता। जिस बांदी से वती करता था उसका निकाह किसी से कर दिया निकाह हो गया मगर मालिक पर इस्तिबरा वाजिब है , यानी जब उसका निकाह करना चाहे तो वती छोड़ दे!

(2) जवाब : इस्तिबरा यानी पेशाब करने के बाद ऐसा काम करना के जिस से यह इतमीनान हो जाए के  अगर (कुछ) क़तरा बाक़ी था तो वह निकल गया अब न निकलेगा। इसे इस्तिबरा कहते है!

पेशाब करने के बाद मर्द हजरात पर इस्तिबरा करना वाजिब है। इस्तिबरा टहलने से होता है या ज़मीन पर ज़ोर से पाँव मारने या दाहिने पाँव को बाएं और बाएं पाँव को दाहिने पर रख कर ज़ोर करने या बुलंदी से नीचे उतरने या नीचे से बुलंदी पर चढ़ने या खंकारने या बाएं करवट पर लेटने से होता है। 

इस्तिबरा उस वक़्त तक करे के दिल को इतमीनान हो जाए , टहलने की मिक़दार बाज उलमा ने चालीस क़दम रखी मगर सही यह है के जितने में इतमीनान हो जाए ,इस्तिबरा का हुक्म मर्दों के लिए है , औरत बाद फारिग होने के थोड़ी देर वक्फ़ा कर के तहारत कर ले!

واللہ تعالیٰ اعلم

*📗 बहारे शरीअ़त हिस्सा {2}+[7]+(11) सफा {95} + [24] (76) (हिंदी)*
*📕 फतावा रज़विया जिल्द {1}+(4) सफा {78}+(601+632)*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  2⃣3⃣*

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सवाल : मसबूक़ मुक़्तदी का इमाम के साथ सलाम फेरने के क्या अहकाम ?

जवाब : इसकी तीन सूरत है अव्वल तो यह जान ले की मसबूक़ मुक़्तदी किसे कहते है मसबूक़ : {वह कि इमाम की बाज़ रकअतें पढ़ने के बाद शामिल हुआ और आखिरी तक शामिल रहा}

पहला 1 : - मसबूक़ मुक़्तदी ने इमाम के साथ यह ख्याल कर के क़स्दन (जान बूझ कर) सलाम फेरा कि मुझे भी इमाम के साथ सलाम फैरना चाहिए, तो उसकी नमाज़ फासीद हो गई!

दूसरा 2 : - और अगर उस मुक़्तदी ने भूल कर इमाम के ज़रा बाद में सलाम फेरा , तो सजदा ए सहव लाज़िम है!

तीसरा 3 : - और अगर उस  मुक़्तदी ने इमाम के बिल्कुल साथ साथ भूल कर सलाम फेरा तो सजदा ए सहव लाज़िम नहीं!

واللہ تعالیٰ اعلم

*📗 बहारे शरीअ़त हिस्सा 4 सफा 47 (हिंदी)*
*📙 मोमिन की नमाज़ सफा 351+352 (हिंदी)*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  2⃣4⃣*

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सवाल :  जन्नत में मुसलमान मर्दों की मुलाक़ात अपनी बीवी से होगी कि नहीं , बहुत ऐसा होता है कि शौहर मर जाता है या तलाक दे देता है फिर वह इद्दत गुजार कर दूसरे से निकाह कर लेती है इसी तरह कई मर्दों से निकाह हो तो वह जन्नत में किसकी बीवी होगी!

जवाब : {¹} जन्नत में मर्दों की मुलाक़ात अपनी बीवियों से होगी और जिस मुसलमान औरत का शौहर मर जाए फिर वह औरत दूसरे से निकाह ना करें तो जन्नत में वह उसी की बीवी रहेगी!

{²}  और अगर किसी मुसलमान औरत का शौहर मर गया बाद ईद्दत गुजार कर दूसरे से निकाह कर ले इसी तरह एक के बाद दिगरे कई मर्दों से अक़्द (निकाह) किया उसके बाद उस औरत का इंतकाल हो तो वह जन्नत में अपने आखिरी शोहर की बीवी होगी!

 {³} और अगर किसी मुसलमान औरत के शौहर ने उसे तलाक़ दे दी बाद ईद्दत उसने दूसरे से निकाह कर लिया इसी तरह कई मर्दों से निकाह किया और सब ने उसे तलाक़ दे दिया और वह किसी की बीवी ना रहे तो उसे इख्तियार दिया जाएगा कि जिसे चाहे इख्तियार कर ले तो वह उनमें से अच्छी आदत वाले को इख्तियार करेगी!

एडमिन : - मसअला 2 और 3 में यह फर्क़ है कि एक तलाक़ वाला है और दूसरा इंतकाल वाला : इंतकाल वाला में आखिरी शौहर को मिलेगी , और तलाक़ वाला में औरत को इख्तियार है!

*📕 फतावा मरकज़ तरतीब इफ्ता जिल्द दोम सफा 692+693*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  2⃣5⃣*

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कुछ लोग कहते हैं कि फलां दरख़्त पर शहीद मर्द रहते हैं या फलां ताक में शहीद मर्द रहते हैं और उस दरख़्त और उस ताक के पास जाकर फातिहा दिलाते हैं हार फूल खुशबू वगैरा डालते हैं लोबान अगरबत्ती सुलगाते है और वहां मुरादे मांगते हैं यह सब खिलाफ ए शरअ और गलत बातें हैं जो बर बिनाए जहालत आवाम में राइज हो गई है इन को दूर करना निहायत जरूरी है!

हक़ यह है कि ताको महराबों, दरख़्तों वगैरा पर महबूबा ने खुदा का क़ियाम क़रार देकर वहां हाजिरी नियाज़ फातिहा अगरबत्ती मोमबत्ती जलाना हार फूल डालना खुशबूयें मलना चुमना चाटना हरगिज़ जाइज़ नहीं!

आला हजरत अ़लैहिर्रह़मा फरमाते हैं यह सब वाहियात व खुराफात और जाहिलाना हिमाकात व बतलात है इनका ईजाला लाज़िम है!

सवाल : अवाम में मशहूर है कि रात में दरख़्त सो जाते है , फल या फूल नहीं तोड़ना चाहिए ?

जवाब : यह बे असल बात है जो अवाम के गलत औहाम व खयालात से है, दरख़्त सोते जागते नहीं बल्कि वह अपने हाल पर तस्बीह पढ़ते और सजदा करते हैं , यही वजह है कि क़ब्रिस्तान से हरी घास और पौधे उखाड़ना मना है!

*📙 गलतफहमी और उनकी इस्लाह सफा 147*
*📗 फतावा मरकज़ तरतीब इफ्ता जिल्द दोम सफा 613*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  2⃣6⃣*

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मिल्के गैर में बगैर इजाज़त तसर्रूफ जाइज नहीं, लिहाज़ा अगर ज़ैद  फातिहा से पहले या बाद में बगैर मालिक के इजाज़त के खा लेता है तो यह उस के लिए जाइज़ नहीं और अगर मालिक की इजाज़त से खाता है तो कोई हर्ज नहीं!

रही बात फातिहा से पहले खाने की तो यह न होना चाहिए के फातिहा में शीरीनी वगैरा का सवाब हुज़ूर सय्यिदे आलम और अंबिया व रसुल अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम नीज़ औलिया ए किराम रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हुम की बारगाह में पहले नज़्र किया जाता है फिर आम मोमिनीन व मोमिनात को इसालेे सवाब किया जाता है और जूठे खाने व शीरीनी के सवाब की नज़्र महबूबाने बारगाह के अदब व उनकी अज़मत शान के मुनासिब नहीं, फिर फातिहा से पहले खाना हिर्स का भी मशअर {مشعر} है , इस लिए ज़ैद हरगिज़ ऐसा न करे, वह अपनी आदत से बाज़ आए बाद फातिहा मालिक की इजाज़त से खा सकता है!

हमारे कुछ वह मुसलमान भाई हैं जो अपनी जीहालत और वहम परस्ती की बुनियाद पर यह समझते है कि जब खाना सामने न हो क़ुरआन की तिलावत व ईसाले सवाब मना है।

कुछ जगह देखा गया है मिलाद शरीफ पढ़ने के बाद इंतजार करते हैं कि मिठाई आ जाए तब तिलावत शुरू करें यहां तक कि मिठाई आने में अगर देर हो तो गिलास में पानी ला कर रखा जाता है कि उनके लिए उनके जाहिलाना खयाल में फातिहा पढ़ना जाइज हो जाए कभी ऐसा होता है कि इमाम साहब आकर बैठ गए हैं और मुसल्ले पर बैठे इंतजार कर रहे है अगर खाना आए तो क़ुरआन पढ़े यह सब वहम परस्तियां है हक़ीक़त यह है कि फातिहा में खाना सामने होना जरूरी नहीं अगर आयतें और सूरतें पढ़ कर खाना या शीरीनी बगैर सामने लाए यूं ही तक़्सीम कर दी जाए तब भी इसाले सवाब हो जाएगा और फातिहा में कोई कमी नहीं आएगी!

खुलासा यह कि खाने पीने की चीजें सामने रख कर फातिहा करने में कोई हर्ज नहीं बल्कि हदीसों से उसकी अस्ल साबित है और फातिहा में खाना सामने रखने को ज़रूरी ख्याल करना कि उसके बगैर फातिहा नहीं होगी यह भी इस्लाम में ज़्यादती वहमपरस्ती और ख्याले खाम है। जिस को मिटाना मुसलमानों पर ज़रूरी है!

हज़रत मौलाना मुफ्ती मुहम्मद खलील साहब मारहरवी फरमाते है : तुमने नियाज़ दुरूद व फातिहा में दिन या तारीख मुक़र्रर के बारे में यह समझ रखा है कि उन्ही दिनों में सवाब मिलेगा आगे पीछे नहीं तो यह समझना हुक्मे शरई के खिलाफ है, यूहीं फातिहा और इसाले सवाब के लिए खाने का सामने होना कुछ ज़रूरी नहीं या हज़रते फातिमा खातुने जन्नत की नियाज़ का खाना पर्दे मै रखना या मर्दों को न खाने देना औरतों की जिहालते है बे सबूत और गढ़ी हुई बाते है मर्दों को चाहिए कि इन खयाल को मिटाए और औरतों को सही रास्ते और हुक्मे शरई पर चलाएं!

*📙 फतावा मरकर्ज़ तरतीब इफ्ता जिल्द 1 सफा 386*
*📗 गलतफहमी और उनकी इस्लाह सफा 55 ता 57*

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मसअला - जिसकी कोई चीज़ गुम हो गई हो उसने ऐलान किया कि जो उसका पता बताएगा उसको इतना दूंगा तो इजारा बातिल है।

 मसअला - और बतौरे इनाम देना चाहता है तो दे सकता है।

अल हासिल ये हुआ के पहले से बदले में कुछ देने का एलान करेगा तो शरीअत इसे गलत कहती है, और जब किसी ने खुद से वो चीज़ ढूंढ के दे दी तो अब उसे खुशी से कुछ इनाम देना चाहता है तो दे सकता है।

*📙 बहारे शरीअ़त हिस्सा 10 सफा 487*

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किसी की बुराई उसके सामने करना अगरचे ग़ीबत में दाखिल न भी हो जबकि ग़ीबत में पीठ पीछे बुराई मोतबर हो मगर ये उससे बढ़ कर हराम है क्योंकि ग़ीबत में जो वजह है वह यह कि इज़ा मुसलिम है वह यहाँ बदर्जए उला पाई जाती है, ग़ीबत में तो ये एहतेमाल है कि उसे इत्तेला मिले या न मिले, अगर उसे इत्तेला न हुई तो इज़ा भी नहीं हुई, मगर एहतेमाल ईज़ा को यहां ईज़ा क़रार देकर शरीअ़त ने इसे हराम किया और मुंह पर उसकी मज़म्मत करना तो हक़ीक़तन ईज़ा है फिर यह क्यों हराम न हों।

बाज़ लोगों से जब यह कहा जाता है कि तुम फुलां की ग़ीबत क्यों करते हो, वह निहायत दिलेरी के साथ ये कहते हैं कि मुझे उसका डर पड़ा है, चलो मै उसके मुंह पर ये बातें कह दूंगा, उनको यह मालूम होना चाहिए कि पीठ पीछे उसकी बुराई करना ग़ीबत व हराम है और मुँह पर कहोगे तो यह दूसरा हराम होगा। अगर तुम उसके सामने कहने की जुर्अ़त रखते हो तो उसकी वजह से ग़ीबत हलाल नहीं होगी।

*📔 बहारे शरीअ़त जिल्द 3 सफा 537*

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¹ नोहा यानी मैय्यत के औसाफ मुबालगे के साथ (यानी बहुत बढ़ा चढ़ा कर) बयान कर के आवाज़ से रोना जिसको बैन कहते है बिल इज्मा यानी सब के नज़दीक हराम है यूं ही वावैला हाय मुसीबत कह के चिल्लाना भी (हराम है) 

² मय्यत पर चिल्ला कर रोना जज़अ़् (इजहारे रंजो गम, बे सब्री)  व फज़अ़् (गिर्या व जारी)  करना हराम व सख्त हराम है!

हुज़ूर {ﷺ} ने फरमाए लोगों में दो बाते कुफ्र है  :

★ किसी के नसब पर ता'न करना!
★ और मय्यत पर नोहा (रोना,पीटना, मातम) 
यानी ज़माना जहालियत में एक दूसरे के नसब पर तअ्न और मैय्यत पर नोहा करते थे हुज़ूर {ﷺ} ने इन बातों से मना फरमाए है लिहाज बचना लाज़िम है!

दो अवाज़ो पर दुनिया व आखिरत में ला’नत है 

★ ने’मत के वक़्त बाजा 

★ और मुसीबत के वक़्त चिल्लाना चिल्ला कर रोने वाली जब अपनी मौत से तौबा न करे तो क़्यामत के दिन खड़ी की जाएगी यूं की उसकी बदन पर गंधक का कुर्ता होगा और खुजली का दोपट्टा एक रिवायत में है अल्लाह {ﷻ} उसे गंधक के कपड़े पहनाएगा, और ऊपर से दोज़ख़ की लपट का दोपट्टा ओढ़ाएगा!

एक हदीस में है यह नोहा (रोना ,पीटना) करने वालियाँ क़्यामत के दिन दोज़ख में दो सफें की जाएंगी दोज़खियों के दहिने बाए वहाँ ऐसे भौंकेगी जैसे कुतिया भौंकती है और फरमाते है हुज़ूर {ﷺ} अरे सुनते नहीं हो बेशक अल्लाह {ﷻ} न आंसुओ से रोने पर अज़ाब करे, न दिल के गम पर {और ज़ुबान की तरफ इशारा कर के फरमाया} हां इस पर अज़ाब फरमाता है , या रहम फरमाए बेशक मुर्दे पर अज़ाब होता है उसके घर वालों के उस पर नोहा (रोना, पीटना , मातम) करने से!

*📙 फ़ैज़ाने आला हज़रत सफा 430+431*
*📒 बहारे शरीअ़त हिस्सा चौथा सफा 138 (हिंदी)*

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बाहमी (आपस में) मुआशक़ा (इश्क़ , आशीकी) करने वालों में से हर एक ने जो दूसरे को तहाइफ़ दिया वह रिश्वत है इस से मिल्क साबित नहीं होती और देने वाले को इख्तियार है कि वापस ले ले  रिश्वत देने वाला और लेना वाला दोनों जहन्नमी है!

एडमिन : - अक्सर यह वेलेंटाइन वाले दिन होता है मर्द व औरत के माबैन जो ना जाइज महब्बत का ताल्लुक क़ाइम होता है और यह ना जाइज व हराम है अगर किसी ने यह तहाइफ लिए है तो उस पर तौबा के साथ साथ यह तहाइफ वापस करना भी लाज़िम है!

*📕 फतावा रज़विया जिल्द 23 सफा 568*
*📙 फतावा रज़विया जिल्द 16 सफा 515*

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मैसेज में जो सलाम लिखे होते है क्या उस का जवाब लिख कर ही जवाब देना ज़रूरी है ?

जवाब : सलाम करना सुन्नत है और जवाब देना वाजिब लेकिन मैसेज में लिखे हुए सलाम का जवाब लिख कर भेजना ज़रूरी नहीं, मैसेज में सलाम पढ़ कर ज़बान से जवाब दे दिया तो इस से भी सलाम का जवाब हो गया और वाजिब पर अमल भी हो गया!

ख़त में सलाम लिखा होता है उसका जवाब भी वाजिब है, और यहां जवाब दो तरह होता है एक यह कि ज़बान से जवाब दे दूसरी सूरत यह है कि सलाम का जवाब लिख कर भेजे!

हिदायत : इस में सबसे ज़्यादा गौर वाली बात यह है और उमूमन लोग इस में गलती भी कर जाते है और गुनहगार भी होते वह यह है, कि किसी का मैसेज आता है तो पढ़ कर फौरन जवाब नहीं देते और इंतिजार करते है कि जब हम मैसेज करेंगे तो जवाब लिख कर भेजेंगे इस में ताखीर के सबब गुनहगार होगा, और दूसरा व्हाट्स ऐप पर वॉइस भी आती है तो पहले मुकम्मल सुनते है फिर जब अपनी वॉइस करते है तो उसमें जवाब देते!

यह तरीक़ा सबसे बेहतर होगा जब किसी की मैसेज (पोस्ट) या वॉइस आए तो जैसे सलाम पढ़े या सुने तो फौरन अपनी ज़बान से इतनी आवाज़ में जवाब दे की खुद का कान सुन ले, या फौरन बिना आगे पढ़े या सुने ही हम भी मैसेज से जवाब दे दे फिर आगे की बाते पढ़े या सुने!

और अगर आपने सिर्फ ज़बान से दे दिए तो लिख कर भी दे दीजिए ताकि सामने वाले को भी मालूम हो जाए कि जवाब दे दिया, या बद गुमानी न कर बैठे कि सलाम का जवाब नहीं दिया वगैरा....

तंबीह : - जब हमारे मैसेज में भेजे हुए सलाम का जवाब न आए तो हमे यही ख्याल करना चाहिए कि उन्होंने ज़बान से जवाब दे दिए होंगे, यह न सोचे कि अभी तक कोई जवाब नहीं आया मेरे सलाम का, बल्कि हमे यही हुस्ने ज़न रखना चाहिए कि सामने वाले ने ज़बान से जवाब दे दिए होंगे, बद गुमानी से बचे बिला वजह बद गुमानी हराम है!

واللہ تعالیٰ اعلم

*📙 बहारे शरीअ़त जिल्द 3 सफा 463*
*📕 ज़िया ए शरीअ़त जिल्द 2 सफा 214*

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  3⃣2⃣*

 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

सवाल : उसूले फिक़्ह क्या है ?

जवाब : उसूले फिक़्ह : वह इल्म है जिस में अहकामे फिक़्ह के असबात व दलाइल से बहस की जाए, या ऐसे उसूल का जानना जिनके ज़रीआ अहकामे शरइया अम्लीया की मा'रिफत हासिल हो, या ऐसे क़वाइद का इल्म जिनकी मदद से फिक़्ह व मसाइल शरइया तक तहक़ीक़ के साथ पहुंचा जाए!

उसूले फिक़्ह का मो'ज़ूअ़: अदिल्ला अर्बआ और अहकाम, बाज़ लोगों ने अदिल्ला अर्बआ को ही मो'ज़ूअ़ क़रार दिया है!

गर्ज़ व गायत : अदिल्ला शरइया से अहकाम का इस्तिंबात और सआ़दत दारैन का हसूल!

उसूल : अस्ल की जम्अ़ है, अस्ल का लुग़्वी मा'ना है : "वह शै जिस पर किसी गैर की बुनियाद हो" ख्वाह हिस्सी तौर पर हो ख्वाह अक़ली तौर पर!

फिक़्ह का लुग्वी मा'ना है जानना और समझना!

हिदायत : यह कुछ लोगों के सर से ऊपर जाने वाला है लेकिन आप गौर से समझेंगे तो ज़रूर आप समझ जाएंगे कि हां हमने कुछ सीखा है यह एक इल्म है जिसका नाम है "उसूले फिक़्ह" आप सब भी कोशिश करे कि इसे सीखे इसे दर्से निज़ामी में सिखाए जाते है!

*📙 उसूले फिक़्ह हन्फी सफा 8*

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सवाल : मय्यत को दफना कर कितनी देर तक रुकना चाहिए, और क्या मय्यत को दफना कर  चालीस क़दम हटने के बाद मुर्दे से  सवाल होता है , और क्या चालीस क़दम दफना कर चले जाए तब अज़ान देना चाहिए ? 

जवाब : दफन के बाद कब्र के पास इतनी देर ठहरना मुस्तहब है, जितनी देर में एक ऊंट ज़िबह करके उसका गोश्त तक़्सीम कर दिया जाए, इतनी देर तक क़ब्र के पास ठहरने से मय्यत को उंस होगा और नकिरैन के जवाबात देने में वहशत न होगी, और जितनी देर क़ब्र के पास ठहरे इतनी देर तक तिलावत क़ुरआन मजीद व ज़िक्रो अज़कार में मशगूल रहें और मय्यत के लिए दुआ व इस्तग्फार करते रहें और ख़ास तौर पर यह दुआ करें कि मय्यत मुंकिर नकीर के जवाब में साबित क़दम रहे!

एक हदीस में है : हुज़ूर {ﷺ} जब किसी को दफ़न करने से फारिग होते तो उसकी क़ब्र के पास खड़े होकर फरमाते : अपने भाई के लिए बख्शीश तलब करो और अल्लाह तआ़ला से उसके साबित क़दम रहने कि दुआ करो क्योंकि अब उस से सवाल किए जायेंगें!

मय्यत को दफ़न करने के बाद ही मय्यत से सवाल होता है, चालीस क़दम हटने की रिवायत ग़लत है, और चालीस क़दम जाने के बाद अज़ान देना यह भी दुरुस्त नहीं (फतावा रज़विया जिल्द चहारम क़दीम सफा 445/ फतावा अमजदिया जिल्द अव्वल सफा 366 किताबुल जनाइज़ के हासिया पर है : मैयत को क़ब्र में उतारने से पहले भी अज़ान देना मसनून है। लिहाज़ा इस सूरत में वाज़ेह है कि लोगों को क़ब्रिस्तान में मौजूद रहते हुए अज़ान कहने में कोई हर्ज नहीं, और क़ब्र के पास ही अज़ान दे!

*📙 फतावा बरकाते रज़ा सफा 306 ता 307*

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सवाल : क़ब्रिस्तान में लोगों से मुसाफहा व मुआ़नक़ा  करना कैसा ?

जवाब :  क़ब्रिस्तान उन जगहों में से नहीं जहां मुसाफहा मुआ़नका करना मना है, इस लिए वहां मुसाफहा मुआ़नक़ा करना जाइज़ है!

हिदायत : हुज़ूर {ﷺ} जब क़ब्रिस्तान जाते तो क़ब्र वालो पर सलाम करते!

लिहाज़ा हमे भी चाहिए कि हम भी जब क़ब्रिस्तान जाए तो सलाम किया करें।

और फरमाते है : कि क़ब्रिस्तान जाया करो इस से तुम्हे तुम्हारी मौत याद आएगी।

*📙 फतावा रज़ा दारुल यतामा सफा 417 ता 418*

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कुछ कुफ्रिया ज़ुमले जिस से बचना लाज़िमी है!

भारत माता की जय बोलना कुफ्र है!

जय हिन्द बोलना भी जायज़ नहीं है कि शियारे हिनूद है, हिंदुस्तान जिंदाबाद कहें!

वन्दे मातरम गाने वाला काफिर है!

गैर मुस्लिमो को शहीद कहना कुफ्र है!

जो ये कहे कि मौलवी से अच्छे तो पंडित हैं काफिर है!

जिसने मज़ाक़ में भी ये कहे कि सोचता हूं कि मैं हिन्दू या ईसाई हो जाऊं या किसी भी काफिरो मुर्तद फिरके का नाम लिया तो फौरन काफिर हो गया!

किसी काफिर को महातमा कहना कुफ्र है!

मुसलमान अगर जय श्री राम, जय हनुमान,हर हर महादेव, जय श्री गणेश,जय भीम,हरे रामा हरे कृष्णा या मैरी क्रिस्मस या इस तरह का कोई भी मज़हबी नारा जो काफिरों में मशहूर है लगायेगा तो काफिर है!

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में हैं भाई भाई जो ये नारा लगाये काफिर है!

अपने माथे पर कश्का (टीका) लगवाना कुफ्र है कि यह कूफ्फार मुश्रिकीन का मज़हबी शियार है!

हिदायत : देखा आपने इंसान किस किस तरह से अपने ईमान को गवा सकता है, इसी तरह से अगर इंसान अपने माथे में टीका लगाए तो उस शख्स पर तजदीदे ईमान और तजदीदे निकाह ज़रूरी है। लिहाज़ा हम सबको चाहिए कि एहतियातन तजदीदे ईमान और  तजदीदे  निकाह कर लिया करें। 

सिर्फ दो गवाह लगते है और कुछ भी नही गवाह अपने बेटे भी हो सकते है। हर इंसान को कम से कम दिन में  एक मरतबा हर गुनाह और कुफ्र से तौबा कर ही लेना चाहिए, और हर महीने दो महीने में एहतियातन तजदीदे निकाह भी कर ले तो बेहतर है। ईमान ही सबसे बड़ी दौलत है, अगर यह नही बचा पाए तो हमेशा हमेशा दोज़ख में ही रहना पड़ेगा!

 *📕 फतावा मुशाहिदा सफा 292*
 *📙 फतावा शारेह बुखारी जिल्द 2 सफा 463 ता 598*

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सवाल : ज़ोहर का वक़्त खत्म होने में चंद (कुछ) मिनट रह गए हों तो क्या उस वक़्त में नमाज़ पढ़ सकते है या क़ज़ा कर के पढ़े ? 

जवाब : इस नमाज़ को हरगिज़ क़ज़ा नहीं करेंगे, बल्कि इतना कम वक़्त रह गया है कि सिर्फ तकबीरे तहरीमा ही वक़्त ज़ोहर में हो सके और फिर वक़्त असर शुरू हो जाए तब भी नमाज़ हो जाएगी मगर बिला ज़रूरत इतनी ताखीर करना दुरुस्त नहीं!

फज्र की नमाज़ में अगर वक़्त तंग है तो उस वक़्त भी नमाज़ शुरू कर दें। अगर सलाम फेरने से पहले सूरज तुलुअ हो गया तो नमाज़ को बाद में इआदा कर ले। यहाँ पर भी नमाज़ क़ज़ा करने का हुक्म नही है, इसको बाद में दोहराना भी पड़ेगा, इसका फायदा ये है कि क़ज़ा के वबाल से बच जाएगा।

हिदायत :- लोगो को नमाज़ के साथ साथ नमाज़ के मसअले मसाइल भी सीखना ज़रूरी है, जैसे नमाज़ के फ़राइज़, वाजिबात, मकरूहात, मुफ़्सीदात, यह सब सीखे हो तब ही तो उसकी नमाज़ दुरुस्त होगी, वरना नहीं सीखेंगे तो दो गुनाह मिलेगा, एक न सीखने का और दूसरा गलती करने का,  इसी तरह से वक़्त के मसअले मसाइल भी सीखना ज़रूरी है कि कोनसा नमाज़ किस वक्त में पढ़ा जाए कम वक्त का क्या तरीक़ा है!

अब देखिए काफी लोगो के साथ ऐसे हालात पेश आ जाते हैं कभी कभी कि सिर्फ दो मिनट रहता है, और उस वक़्त इंसान ये सोचता है कि अब दो मिनट में चार रकअत कैसे पढूंगा, लिहाज़ा वो क़ज़ा कर देते है, अफसोस उसे हरगिज़ क़ज़ा करने की इजाज़त नही है, जब शरीअत खुद कह रही है कि अगर सिर्फ इतना कम वक्त बचा है कि अल्लाहु अक्बर कह सकते हो तो नमाज़ शुरू कर दो, उसके बाद अगर्चे फौरन दूसरी नमाज़ का वक़्त दाखिल हो जाये, तुम्हारी ये वाली नमाज़ हो जाएगी।  सोचिये एक मसअला नही मालूम रहने की वजह से इंसान कितने बड़े गुनाह में मुब्तिला हो जाता है। मगर ये मसअला फज्र की नमाज़ को छोड़ कर है, बाकी चारो नमाज़ों का यही हुक्म है, मगर जानबूझ कर ऐसा करना दुरुस्त नही, कभी कभी ऐसे हालात हो जाये तो हरगिज़ नमाज़ क़ज़ा न करें।

*📕 बहारे शरीअ़त हिस्सा 4 सफा 37*
*📙 प्रोग्राम आपके मसाइल का हल सफा 34*

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इफ्ता की लुग्वी व इस्तेलाही तहकीक 

इफ्ता : इफ्ता का लुग्वी मा'ना है जवाब देना इसी मा'ना के ऎतबार से क़ुरआने मजीद  में बादशाह मिश्र का यह कौल मंकूल है {तरजमा : ए दरबारियों मेरे ख्वाब का जवाब दो} 

मुश्किल मसाइल के अहकाम बताना फतवा कहलाता है, और इस्तेलाह में इफ्ता का मा'ना है, मसअला का शरई हुक्म और फैसला बताना!

इफ्ता की अज़मत व अहमियत इन आयतों से भी ज़ाहिर होती है कि अल्लाह {ﷻ} ने क़ुरआन मजीद में इफ्ता की निस्बत खुद अपनी जानिब फरमाई है इरशादे रब्बानी है {ऐ महबूब तुम से फतवा पूछते है तुम फरमा दो कि अल्लाह तुम्हे कलाला में फतवा देता है}और फरमाया {और तुमसे औरतों के मुताल्लिक फतवा पूछते है तो तुम फरमा दो कि अल्लाह तुम्हे उसका फतवा देता है}

*📕 फतावा क़ादरिया सफा 7*

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सवाल : सास का हाथ चूमना कैसा !?

(1) जवाब : नहीं चूमना चाहिए मना है मुफ्ती ए आज़म हिन्द फरमाते है , अगर दोनों जवान हो या एक जवान हो तो हरगिज़ न चाहिए यानी नहीं चूमना चाहिए चाहे ताज़ीमन ही क्यो न हो!

(2) और मजीद फरमाते है कि अगर फितने का खौफ हो तो तकबील तो तक़बील (यानी चूमना तो चूमना) इस सूरत में तो हाथ में हाथ लेना भी न चाहिए!

(3) और फरमाते है , कि शहवत से अम्न ( यानी हिफ़ाज़त) न हो तो हाथ में हाथ लेना (ही सिर्फ) ना जाइज नहीं बल्कि बे शहवत भी ना जाइज है!

नोट : - पहली सूरत में फकत चूमने के मुताल्लिक़ जवाब है जो कि हमारा सवाल भी था उस में हमने बे शहवत से पूछा था चूमने के मुताल्लिक है!

और दूसरे सूरत  में हाथ में हाथ लेना भी नहीं चाहिए!

और तीसरे में शहवत से हिफ़ाज़त नहीं तो  हाथ में हाथ लेना भी ना जाइज है!

*📕 फतावा मुफ्ती आज़म जिल्द 5 सफा 144 +145*

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सवाल : किसी को शरीअ़त की बात बताने पर यह जुमला कहना कैसा "कि तुम बहुत हदीस झाड़ते हो (बकते) हो ज़्यादा हदीस पढ़ गए हो" और उस पर क्या हुक्म होगा!

जवाब : शरीअ़त का सही हुक्म बताने पर सामने वाले का यह कहना कि तुम बहुत हदीस झाड़ते हो (बकते) हो ज़्यादा हदीस पढ़ गए हो, यह उसकी खुली हुई गुमराही है हदीस शरीफ़ और हुक्मे शरअ़ की तौहीन है और यह कुफ्र है जैसा कि बहारे शरीअ़त हिस्सा 9 सफा 172 इस इबारत से ज़ाहिर है, इल्मे दीन और उलमा की तौहीन बे सबब यानी महज़ इस वजह से कि आलिम इल्मे दीन है (तो) कुफ्र है यूहीं शरअ़ की तौहीन करना, लिहाज़ा उस शख्स पर वाजिब है कि ऐलानिया तौबा व इस्तग़्फार करे और शरीअ़त का हुक्म बताने पर ऐसी बेहूदा बातें आइंदा न करने का अहद (वादा) करे!

हिदायत : इस पर वह शख़्स गौर फरमाए कि जब कोई शख़्स हुक्मे शरअ़ बताते है तो उनके इल्म से चिड़ते है और बे झिजक यह बोल पड़ते है कि तुम बहुत हदीस झाड़ते हो बहुत हदीस पढ़ गए हो वगैरा... अपनी आखिरत को बचाए और नसीहत को क़बूल करे (वरना हमारा काम है बताना मनवाना नहीं)

*📕 फतावा फक़ीह ए मिल्लत जिल्द अव्वल सफा 289+290*

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सवाल : किसी औरत ने अंधेरी रात में अपने शोहर को जिमाअ़  के लिए उठाना चाहा तो धोके से शहवत के साथ बालिग लड़के पर हाथ पड़ गया तो क्या हुक्म होगा ?

जवाब : मुराहिक़ (वह लड़का कि अभी बालिग न हुआ मगर उसके हम उम्र बालिग हो गए हो उसकी मिकदार बारह बरस की है इस) ने अगर वती की या शहवत के साथ छुआ या बोसा लिए तो मुसाहिरत हो गई!

यह अफआ़ल क़स्दन हो या भूल कर या गलती से या मजबूरन बहर हाल मुसाहिरात साबित हो जाएगी मसलन अंधेरी रात में मर्द ने अपनी औरत को जीमाअ़् (हम्बिस्तरी) के लिए उठाना चाहा गलती से शहवत के साथ मुश्तहात लड़की पर हाथ पड़ गया उसकी मां उस पर हमेशा के लिए हराम हो गई यूं ही अगर औरत ने शौहर को उठाना चाहा और शहवत के साथ हाथ लड़के पर पड़ गया को मुराहिक था हमेशा को अपने उस शौहर पर हराम हो गई!

हिदायत : इसी लिए फरमाया गया है कि बच्चा जब बुलुगत की उम्र को पहुंचने लगे तो उसका बिस्तर अलग कर दो ताकि इस क़िस्म की गलती, गलती से भी न हो!

*📙 बहारे शरीअ़त जिल्द 2 सफा 25*

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सवाल : बिला मजबूरी कुहनियां खोल कर  जैसे आज कल आधी आस्तीन की शर्ट पहन कर कुछ लोग नमाज़ अदा करते है यह कैसा है ?

जवाब : बिला मजबूरी (यानी उसके पास दूसरे कपड़े हो फिर भी) आधी आस्तीन वाले कपड़े में नमाज़ पढ़ना मकरूहे तंजीही है और अगर कोई मजबूरी नहीं (यानी उसके पास दूसरे कपड़े मौजूद नहीं है) तो अब कराहत भी नहीं और अगर आस्तीन चढ़ा कर नमाज़ पढ़ता है तो मकरूहे तहरीमी है!

और लोग इसी पर कयास कर के कहते है कि हाफ आस्तीन में नमाज़ पढ़ना मकरूहे तहरीमी है जोकि बिल्कुल ग़लत है बल्कि अगर वह जान बूझ कर भी हाफ आस्तीन में नमाज़ पढ़ता है तब भी मकरूहे तज़ीही है!

हिदायत : इस से लोगों को यह सबक हासिल करना चाहिए कि बाज़ अवकात कोई शख़्स हाफ आस्तीन में नमाज़ पढ़ते है तो हम फौरन कह देते है कि नमाज़ नहीं हुई या मकरूहे तहरीमी हुई  या यह कि इस तरह नमाज़ नहीं होगी आप दूसरा कपड़ा पहन कर आए वगैरा... और इस तरह उनकी जमअत भी चली जाती है,  और हम यह भी नहीं देखते की सामने वाला किस सूरत में पढ़ रहा है, मजबूरी है भी की नहीं और अगर मजबूरी न हो तो भी उसकी नमाज़ हो जाएगी दोहराना वाजिब नहीं, और मजबूरी है तो कोई हर्ज भी नहीं!

अफसोस है ऐसे जाहिलों पर जो बिना सोचे समझे बगैर इल्म के गलत फतवे लगाते है हुज़ूर {ﷺ} फरमाते है जो बगैर इल्म का फतवा दे उस पर तमाम ज़मीन व आसमान के फरिश्ते लानत करते है!

*📕 फतावा अमजदिया अव्वल सफा 193*
*📒 फतावा फक़ीहे मिल्लत जिल्द अव्वल सफा 174*

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सवाल : सर पर बगैर टोपी के रुमाल लपेट कर नमाज़ पढ़ना कैसा ?

जवाब : सर पर बगैर टोपी के रुमाल लपेट कर नमाज़ पढ़ना मकरूहे तंजीही है, और आला हज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते है : अगर रुमाल बड़ा हो के इतने पेच आ सकें जो सर को छुपा ले तो वह इमामा ही हो गया और छोटा रुमाल जिस से सिर्फ दो एक पेच आ सकें लपेटना मकरूह है!

इसी तरह नंगे सर नमाज़ अगर बे वजह सुस्ती है तो मकरूह है और अगर नमाज़ को हल्का और बे कद्र समझ कर हो तो कुफ्र है, (और अगर नंगे सर पढ़ने में खुशूअ़ व खुज़ूअ़ हासिल होती हो तो कोई हर्ज नहीं)

*📒 नमाज़ के अहम मसाइल सफा 50*
*📕 फतावा रज़विया जिल्द 7 सफा 300*

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 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

सवाल : ब क़ौल मुफ्ती अब्रार अहमद अमजदी के फरमान के मुताबिक : अगर कोई मुसलमान शख्स अपने वेबसाइट (WEBSITE) पर अपने अफकार व नज़र्यात जो ब शक्ले तहरीर या तक़रीर में हो उस के अंदर कोई अक़्वाल व इबारात मोजिबे कुफ्र हो तो उस वेबसाइट के मालिक पर क्या हुक्म होगा ?

जवाब : मुफ्ती अब्रार अहमद अमजदी फरमाते है : इस वेबसाइट पर मौजूद ऐसे अक़्वाल व नज़्रियात जो मोजिबे कुफ्र हैं वह अगर उसके अपने नहीं बल्कि किसी दूसरे की किताब या तहरीर में है तो उसकी वजह से वेबसाइट के मालिक पर हुक्मे कुफ्र न होगा।

 हां अगर उसके अपने अफ़कार व नज़्रियात को ब शक्ले तक़रीर व तहरीर उस वेबसाइट पर मौजूद है वह इसी के माने जाएंगे इस लिए अगर उन अक़्वाल व ईबारात में कोई मोजिबे कुफ्र बात है तो वेबसाइट (website) के मालिक पर लुजु़मे कुफ्र हुक्म होगा!

अलबत्ता उसके मालिक को काफिर न कहेंगे जब तक कि रोज़ रोशन की तरह ईयां न हो कि वाक़ई वह यही नज़रिया रखता है, इस लिए कि किसी क़ौल का कुफ्र होना और है और क़ाइल का काफिर होना और हैं।

हिदायत : इस से हमको यह सबक मिलता है कि किसी के भी कुफ्र को देख कर फौरन कुफ्र का फतवा नही देना चाहिए, और काफिर का फतवा फौरन नही लगाना चाहिए, अगर हुक्मे शरीअत मालूम करना ज़रूरी है तो उसको मुफ़्तीयाने किराम के पास जा कर पूछा जाए। क्योंकि कभी कभी कुफ्र ए लुज़ूमी होता है और कभी कभी कुफ्र ए इल्तेज़ामी। किसी कुफ्र में इंसान मुर्तद नही होता है, और किसी कुफ्र में इंसान मुर्तद हो जाता है, आम आवाम को इसकी इजाज़त नही है कि वो कुफ्र का फतवा लगाए।

नबी ए करीम ﷺ ने इरशाद फरमाया की जब कोई शख़्स किसी को काफिर कहता है तो उसमें से एक इंसान ज़रूर काफिर होता है, या तो जिसको कहा जा रहा है वो काफिर होगा, और अगर वो काफिर नही है तो कुफ्र कहने वाले पर लौट आएगा और ये शख़्स काफिर हो जाएगा!

واللہ تعالیٰ اعلم

*📗 जदीद मसाइल पर उलमा की रायें  और फैसले हिस्सा सोम सफा 379*

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सवाल : मज़ाहिबे बात़िला मसलन क़ादियानी, राफ़्ज़ी या वहाबी की किताबें फरोख्त करना कैसा ?

जवाब : मज़ाहिबे बातिला की किताबें फरोख्त करना हराम है , इस में बात़िल की इशाअत और हक़ की तौहीन है!

किसी नाक़िस बल्कि कामिल को भी बिला ज़रूरत बद मज़हबों की किताब देखना ना जाइज़ है कि इंसान है, मुम्किन है कोई बात {معاذ اللہ} दिल में जम जाए और हलाक हो जाए!

हिदायत :  इंसान को तिजारत करने से पहले तिजारत के उसूल सीखना ज़रूरी है, वरना गुनाहों में मुब्तिला हो जाता है, लिहाज़ा जब इंसान किसी भी चीज़ की तिजारत करता है, तो वह उसे कम से कम जो वह तिजारत कर रहा है उसके मसअले मसाइल कम से कम इतना ज़रूर सीखे  जिस से उसकी रोज़ी हलाल हो जाए!

*📕 इस्लाहुल अवाम 61*
*📒 मल्फुज़ाते आला हज़रत सफा 433*

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सवाल : आज कल हिंदुस्तान में गाय की कु़र्बानी को बाज़ मुसलमान मुश्रीको की खुशनूदी के लिए मना करते है तो उसका बंद करना कैसा है!?

जवाब : मुश्रीको की खुशनूदी के लिए गाय की कु़र्बानी बंद करना हराम हराम सख्त हराम है और जो बंद करेगा जहन्नम के अज़ाबे शदीद का मुस्तहिक़ होगा और रोज़े क़्यामत मुश्रीको के साथ एक रस्सी में बांधा जाएगा!

मजीद आला हज़रत इमाम अहले सुन्नत इमाम अह़मद रजा़ खान अलैहिर्रहमा फरमाते है : हिंदुस्तान में गाय की कु़र्बानी क़ाइम व जारी रखना वाजिब है, इस नापाक मस्लेहत के लिए उसका छोड़ना हराम, गाय की कुर्बानी इस्लाम का शिआर है, शिआरे इस्लाम बंद करने की वहीं कोशिश करेगा जो इस्लाम का बदख्वाह है और हुनूद से जैसा इत्तेहाद मनाया जा रहा है हराम है हराम है क़त़ई हराम है, नुहूस क़ुरआने अज़ीम से हराम है और उसके नताइज हो रहे हैं वह हर शख्स पर ज़ाहिर है।

क़ुरआने अज़ीम में साफ इरशाद फरमाया कि तुम में जो उनसे दोस्ती रखेगा वह सब उन्ही में से है!

फिर क्योंकर मुम्किन था कि मुश्रीकों से इत्तिहाद करने वाले मुशरिक न हो जाते, यह वहां है और अगर सच्चे दिल से ताइब हो कर बाज़ न आए तो सही हदीसों का इरशाद है कि उनका हश्र भी बुत परस्तों के साथ होगा, मौला अज़्ज़ व जल्ल अपने ग़ज़ब से पनाह दे!

*📙 फैज़ाने आला हजरत सफा 639* 
*📕 अहकामे शरीअ़त सफा 157*

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सवाल : - मय्यत को ताबूत में दफन करने का क्या हुक्म है!?

जवाब : फुक़हाए किराम ने ज़िक्र किया है कि अगर फौत होने वाला शख्स मर्द हो तो बिला उज़्र उसे ताबूत समेत दफ़्न करना मकरूह है और अगर मय्यत औरत है तो उसे ताबूत के साथ दफ़्न करना अफ़ज़ल है, ज़रूरत व हाजत के वक़्त मर्द मय्यत के लिए ताबूत बनाने में हर्ज नहीं है, हाजत से मुराद जैसे ज़मीन का नरम होना, इसी तरह जैसे ज़मीन में पानी है  या मय्यत के आज़ा किसी हादसे के सबब मुंतशिर (फैलने वाला) है तो उसे ताबूत में दफ़्न किया जा सकता है, हमारे मशाइख ने औरतों को ताबूत में दफन करने को मुस्तहसन क़रार दिया है, यानी अगर ज़मीन नरम भी न हो तब भी क्योंकि यह सित्र और क़ब्र में रखते वक़्त मय्यत को छूने से इजनेताब का ज़रिया है और अगर खुदा न ख़्वास्ता किसी हादसे या बारिश की कसरत या अचानक क़ब्र खोदे जाने के सबब मय्यत ज़ाहिर हो जाए तो सित्र क़ायम रहेगा.!

*सबक एडमिन : -* इस मसअले से हमारी बहनों को सबक हासिल करना चाहिए कि जो शरीअत तुम्हारे इंतेक़ाल हो जाने के बाद भी तुम्हारे सित्र का लिहाज़ रख रही है, कोई तुम्हें छू न पाए, अचानक से कभी क़ब्र खुल जाए तो तुम्हें कोई देख न पाए, इसलिए बगैर उज़्र के भी तुम्हे ताबूत में दफन करने को अफ़ज़ल क़रार दे रही है, और एक हमारी बहने हैं जो बे पर्दा महफिलों में घूम रही है, ऐसे ऐसे कपड़े पहन रही है कि जिस में सब ज़ाहिर हो रहा है, तो ज़रा सोचिए उस रब के सामने क्या जवाब दोगे अपनी बेपर्दगी का, ख्याल रहे यह बे परदागी किसी भी ज़माने में कभी भी जाइज़ नहीं हो सकता लाख अपना हिले बहाने निकाल लो क़ब्र में जाने के बाद सब होश आ जाएगा!

واللہ اعلم و رسول اعلم {ﷻ} {ﷺ}

*📚 तफहीमुल मसाइल जिल्द 11 सफा 269+270*

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सवाल : क्या फरमाते है उलमा ए किराम इस मसअले के बारे में कि क्या मैं अपनी बीवी को उसके वालिदैन से मिलने के लिए मुझसे इजाज़त ले, क्या बीवी शौहर के इजाज़त के बगैर अपने वालिदैन को मिल सकती है ?

जवाब : कोई और मानेअ़् शरई न हो तो शौहर अपनी बीवी को उसके वालिदैन से मिलने के लिए नहीं रोक सकता और औरत दिन भर के लिए हफ्ता में एक बार अपने मां बाप को मिलने शौहर की इजाज़त के बगैर भी का सकती है, अगर्चेे (चाहे) मर्द मना करे मगर रात अपने शौहर के घर में ही गुजारेगी.!

हिदायत :  कुछ शोहर हज़रात अपनी बीवी को उनके मायके जाने और उनके वालिदैन से बिला वजह मिलने से रोकते हैं, उन्हें शर्म आनी चाहिए, ये तो लड़की का हक़ है कि वो अपने माँ बाप से हफ्ता में कम से कम एक बार अपने वालिदैन से मिले  अगर बीवी का मायका शहर में ही है तो इस सूरत में तो हर शोहर को अपनी बीवी को उसके वालिदैन से मिलने की इजाज़त देना वाजिब है, वरना गुनहगार होगा, और बीवी का मायका शहर से बाहर है तो कम से कम 3 या 4 महीने में जब बीवी कहे तो उसे उसके वालिदैन से मिलने की इजाज़त देना चाहिए।

आजकल अक्सर शौहर अपना हक़ जताते हैं कि मेरा कहना बिना माने अगर तू बाहर गयी तो गुनहगार होगी जब की कोई शरई वजह भी न हो, तो यह जान लो कि अगर माँ बाप से हफ्ता में एक दिन जाती है तो वो बिना कहना माने भी जाये तब भी गुनहगार नही होगी.!

📒 फतावा यूरोप बरतानिया सफा 327

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सवाल : जहेज़ का सामान बाद तलाक़ वापस किया जाएगा कि नहीं ?

जवाब : शादी के वक़्त जो समान लड़का वालों को लड़की वालों की  तरफ से दिया गया था वह सब जहेज़ है वह लड़की कि मिल्क है उसे वापस किया जाए (यानी लड़की वालों को जहेज़ वापस मांगना जाइज है)

सवाल : शादी के वक़्त जो बारातियों को खाना खिलाया जाता है उसका मुआवज़ा मांगना जाइज है या नहीं जब कि तलाक़ वाक़ेअ हो गई हो.!

जवाब : शादी के वक़्त जो बारातियों को खिलाया पिलाया गया है लड़की वाले उसका मुआवजा हरगिज़ नहीं ले सकते कि वह तबर्रुअ़ था (अपने तरफ से वह काम सवाब के लिए करना जो वाजिब न हो) उसका मुआवज़ा मांगना शरअ़न जाइज़ नहीं न उसका कोई हक़दार है.!

📚 فتاویٰ سراوستی جِلد دوم صفحہ ٤٩

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सवाल : किस वक्त मुफ्ती साहब से सवाल न किया जाए, और क्या एक ही मसअले को कई मुफ्ती साहब से मालूम कर सकते है ताकि जो मन पसंद का फतवा मिल जाए उस पर अमल किया जाए ?

जवाब : जिस वक्त मुफ्ती के अख्लाक में तग़य्युर हो या उसका दिल किसी दूसरे काम में मशगूल हो या कोई भी ऐसी सूरत हाल हो जिसमें गौर व फिकर करना मुश्किल होता है उस वक्त उससे सवाल न पूछा जाए जैसे शदीद गुस्से या भूख या प्यास गम के वक्त या बेपनाह खुशी या शदीद गर्मी या तकलीफ देह मर्ज़ में इबतिला (मुसीबत) के वक्त सवाल न पूछा जाए 

सवाल करने वालों के लिए चंद मशवरे

मसअला मालूम करने वालों को चंद बातों का खयाल रखना चाहिए 

{1} कोशिश करे कि एक मुफ्ती साहब से मसाइल मालूम करें

{2} उस मुफ्ती से मसाइल पूछें जिससे उसका राब्ता आसानी से हो सके 

{3} मुफ्तियाने किराम में जिस के बारे में मशहूर है कि यह इल्म और तक्वा में दूसरों से फाइक है उस से मसाइल मालूम करे 

{4} एक मसअला मुतअद्दद मुफ्तियाने किराम से न पूछे कि इस सूरत में आम तौर पर यह होता है कि जिसका फतवा नफ़्स के मुताबिक होता है उस पर अमल किया जाता है 

{5} बिला ज़रूरत मसाइल न पूछे, औला खुद ही मुस्तनद और आसान किताबों का मुतालआ करे जैसे फतावा फैज़ुर रसुल और बहारे शरीअ़त, जिन मसाइल में हाजत हो सिर्फ उन्ही के बारे में दरयाफ़्त करे 

{6} मसअला मालूम करने में मुदबाना अंदाज़ इख्तियार करे, पांव फ़ैला कर न पूछे, ''तुम'' से खिताब न करे, कोई ना पसंदीदा या ना जाइज़ काम के मुताल्लिक पूछे तो यह न कहे कि ‘‘ जैसे आप किसी के साथ यूं कारोबार करें तो क्या हुक्म है, ’’ बल्कि ज़ैद और बकर की मिसालों के साथ पूछे (जैसे ज़ैद यह काम करे तो ज़ैद पर क्या हुक्म होगा)

*मन पसंद फतवे पर अमल :-* बाज़ लोगों को आदत होती है कि मुख्तलिफ मुफ्तियाने किराम से मसाइल पूछते फिरते है ताकि कहीं से उनकी गर्ज़ के मुआफिक़ फतवा मिल जाए और उस पर अमल कर लें, यह हक़ीक़त में शरीअ़त पर नहीं बल्कि अपने नफ्स के हुक्म पर अमल करना है और यह बिल इज़मा ना जाइज़ है.!

📚 आदाब ए फतवा सफा 44 + 45

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सवाल : हिन्दुस्तान में जिस जगह पर गाय, बैल को ज़िबह करना क़ानून्न जुर्म है वहां पर छुपके से बैल को ज़िबह कर के उसके गोश्त को बेचना कैसा है.

जवाब : हिंदुस्तान के अक्सर जगहों पर गाय बैल ज़िबह पर पाबंदियां है और आए दिन इसके फ़र्जी वाक़ियात पर फितना फसाद और क़त्ल व गारत गिरी होती रहती है इस लिए आम हालात में कोई ऐसी बात नहीं करनी चाहिए जिस से अम्न व अमान में खलल हो, साहिबे फतावा बैहरुल उलूम जिल्द पंजुम सफा 362 पर फरमाते है जहां पाबंदियां हो वहां ज़िबह करना क़ानून्न मना है।

 और जहां गवर्नमेंट ने जबरन कोई कानून ख़िलाफ़े इस्लाम बनाया हो तो शरअन हम माज़ूर हैं। इसलिए इस किस्म के काम से परहेज़ करें। ज़ाबेह का यह फेल कानून्न मना है मगर शरअ़ कोई नाजाइज़ फे'ल (काम) नही है इसलिए इसका गोश्त खाने में कोई कबाहत नही है।

हिदायत :- ऐसा काम ना ही किया जाए तो बेहतर है, वरना अगर पकड़े गए तो बदनामी अलग और पिटाई अलग होती है। लिहाज़ा जिस मुल्क में रहते हैं वहाँ के कानून पर अमल करें, और अपने आप को और अपने घर वालों को और अपने क़ौम को बदनाम होने से बचाएं।

📚 فتاویٰ فخر ازھر جِلد دوم صفحہ 154 + 155

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सवाल : क्या फरमाते है उलमा ए किराम इस मसअले में कि जिस बात पर खुद का अमल न हो उस बात का दूसरों को भी हुक्म न करू तो क्या ज़ैद सही है 

जवाब : हुज़ूर सदरुश शरीआ अलैहिर्रहमा इरशाद फरमाते है : कि जिस ने किसी को बुरा काम करते देखा और खुद यह भी उस बुरे काम को करता है तो उस बुरे काम से मना कर दे क्योंकि इस के जिम्मे दो चीज़ें वाजिब है बुरे काम को छोड़ना और दूसरे को बुरे काम से मना करना एक वाजिब का तारिक है तो दूसरे का क्यो तारिक बने (यानी दूसरों को मना न कर के गुनहगार होने से बचे)

हिदायत :- अक्सर देखा गया है कि जब कोई शख्स किसी को बुरे काम से बचने की नसीहत करता है तब सामने वाला कहता है कि पहले खुद तो इस पर अमल कर ले, बाद में मुझे बोलना। शायद वो लोग ये मसअला नही जानते कि अगर कोई शख्स गुनाह कर रहा है तो उसके ऊपर भी वाजिब है कि सामने वाले को गुनाह से रोके, भले वो खुद उस गुनाह में मुब्तिला हो। इससे होगा यह कि वो खुद धीरे धीरे उस गुनाह से हट जाएगा, इसलिए जब भी किसी गुनाह से बचना चाहो तो उस वक़्त उस गुनाह से दूर होने की तलक़ीन करना शुरू कर दें, एक वक्त आयेगा जब आप खुद उस गुनाह से दूर हो जाओगे.!  اِن شاء اللہ

📒 فتاویٰ فخر ازھر جِلد دوم صفحہ 405

📚 बहारे शरीअ़त हिस्सा 16 सफा 620

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 {1} क़ुरआन ए मजीद में जब) अब्द की निस्बत अल्लाह की तरफ हो तो उस से मुराद मखलूक "आबिद या बंदा" होता है, और अगर अब्द की निस्बत बन्दों की तरफ हो तो उसका मा'ना "खादिम नौकर होंगे"

इसकी पहली मिसाल 
{اَنۡكِحُوا الۡاَیَامٰى مِنۡكُمۡ وَ الصّٰلِحِیۡنَ مِنۡ عِبَادِكُمۡ وَ اِمَآئِكُمۡ}
और निकाह करो उन में से उनका जो बे निकाह हो और अपने लायक़ गुलामों और लौंडियों का

इसकी दूसरी मिसाल
{قُلۡ یٰعِبَادِیَ الَّذِیۡنَ اَسۡرَفُوۡا عَلٰۤى اَنۡفُسِہِمۡ لَا تَقۡنَطُوۡا مِنۡ رَّحۡمَۃِ اللّٰهِ}
फरमा दो कि ए मेरे वह गुलामो जिन्होंने ज़्यादती की अपनी जानों पर मत ना उम्मीद हो अल्लाह की रहमत से

इन आयतों में चूंकि ‘‘ अ़ब्द ’’ की निस्बत बन्दों की तरफ है इस लिए इस के मा'ना मखलूक़ न होंगे बल्कि खादिम गुलाम होंगे लिहाज़ा अब्दुन नबी और अब्दुर रसूल के मा'ना है नबी के खादिम.!

{2} क़ुरआन ए मजीद में ) जब मोमिन को ईमान का हुक्म दिया जाए या नबी को तक्वा का हुक्म हो तो उस से मुराद "ईमान और तक़्वा पर क़ायम रहना होगा" क्योंकि वहां ईमान व तक़्वा तो पहले ही मौजूद है और तहसील हासिल मुहाल है, 

इसकी पहली मिसाल 
¹ {یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡۤا اٰمِنُوۡا}
ए ईमान वालों ईमान लाओ यानी ईमान पर क़ायम रहो

इसकी दूसरी मिसाल
² {یٰۤاَیُّہَا النَّبِیُّ اتَّقِ اللّٰهَ}
ए नबी अल्लाह से डरो यानी अल्लाह से डरे जाओ

इसकी तीसरी मिसाल
³ {اٰمِنُوۡا بِاللّٰهِ وَ رَسُوۡلِہٖ}
ए मोमिनो अल्लाह व रसूल पर ईमान लाओ, यानी ईमान पर क़ायम रहो

इन जैसी तमाम आयात में ईमान व तक़्वा पर इस्तक़ामत मुराद है ताकि तर्जमा दुरुस्त हो , नीज़ मुसलमानों को अहकाम अमल करने के लिए दिए जाते है और नबी ए करीम {ﷺ} को अहकाम इस लिए दिए जाते है ताकि वह अमल कराए जैसे जिहाद के मुसाफिर पार उतरने के लिए जहाज़ में सवार होते है और कप्तान पार उतरने के लिए वहां बैठता है इसी लिए मुसाफिर किराया दे कर और कप्तान तंख्वा ले कर सवार होते है.!

{3} क़ुरआन ए मजीद में) ख़ल्क़ की निस्बत जब बंदे की तरफ हो तो उस से मुराद "बनाना, घड़ना"  और अगर खल्क की निस्बत जब अल्लाह की तरफ हो तो उस से मुराद "पैदा करना होगी" यानी नीसत को हस्त करना 

इसकी पहली मिसाल
{الَّذِیۡ خَلَقَ الۡمَوۡتَ وَ الۡحَیٰوۃَ لِیَبۡلُوَكُمۡ اَیُّكُمۡ اَحۡسَنُ عَمَلًا}
अल्लाह ने पैदा किया मौत और जिंदगी को ताकि तुम्हारा इम्तिहान करे कि कोन अच्छे अमल वाला है

इसकी दूसरी मिसाल
{خَلَقَ كُلَّ شَیۡءٍ ۚ  وَ ہُوَ بِكُلِّ شَیۡءٍ عَلِیۡمٌ}
और पैदा किया अल्लाह ने हर चीज़ को और वह हर चीज़ का जानने वाला है

इसकी तीसरी मिसाल
{خَلَقَكُمۡ وَ الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِكُمۡ}
अल्लाह ने पैदा किया तुमको और तुमसे पहले वालों को

इन जैसी तमाम आयतों में ‘‘ ख़ल्क़ ’’  के मा'ना "पैदा करना" है क्योंकि इसका फाइल अल्लाह तआ़ला है.!

हिदायत : आज का जो सवाल व जवाब था उस से मकसद यह था कि एक नए इल्म की तरफ ले जाए जो की हम नही जानते थे, यह एक तर्जमा कुरआन के उसूल है मैं, आप सबको यह दावत देना चाहूंगा की इस किताब को जरूर पढ़े ताकि बात़िल फिरकों की जो तर्जमा है उस में कितनी गलती करते है उस से आप बा खबर रहे और सही तर्जमा का इल्म हो आपको एक इल्म सीखने को मिलेगा जो की इसकी पहचान भी जरूरी है.!

इसी किताब के सफा 15 ता 22 तक बाते पढ़ कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम लोगों को इस के ताल्लुक से भी जानना जरूरी है , बद मजहब भोली भाली अवाम को गलत तर्जमा कर के उनको दीन से दूर कर के गुमरही में ले जाते है, और हमे पता भी नही होता की सामने वाला ने सही भी कहा की कुछ गलत, क्योंकि हम तो कुछ इस ताल्लुक से इल्म तो सीखते नहीं इस लिए जो कहा वह मान लो और उसके गलत तर्जमा की वजह से हमारा ईमान खतरे में पड़ जाता है, और भी बातें है लेकिन पोस्ट बहुत बड़ी हो गई है बाकी इस के जितने फायदे है वह सफा 15 से 22 तक पढ़ लीजिए.!

कोशिश और नियत करें की इस किताब को जरूर पढ़ेंगे اِن شاء اللّٰه

📚इल्म उल क़ुरआन सफा  132 ता 149📚
क़ुरआन पारा 18 सूरह अन्नूर आयत 32
क़ुरआन पारा 24 सूरह अज़ ज़ुमर आयत 53
क़ुरआन पारा 29 सूरह अल मुल्क आयत 2
क़ुरआन पारा 7 सूरह अल अनआ़म आयत 101
क़ुरआन पारा 1 सूरह अल बक़रा आयत 21
क़ुरआन पारा 5 सूरह अन निसा आयत 136
क़ुरआन पारा 21 सूरह अल अहज़ाब आयत 1

   ज़ारी रहेगा..! *✍🏻   मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ
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🔮 𝑆𝑢𝑙𝑡𝑎𝑛 𝑒 𝐻𝑖𝑛𝑑 𝑔𝑟𝑜𝑢𝑝 ☏ 𝟩𝟧𝟨𝟨𝟫𝟪𝟢𝟪𝟥𝟪 🔮


🌹 ✍🏻 *اَلصَّلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَیۡكَ يَــــــــارَسُوۡلَ اللّٰهِ ﷺ* 

                   ❘༻ *मुह़ासबा ए दींन* ༺❘
          
*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  5⃣3⃣*

 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

सवाल : खुदकुशी करना कैसा, और क्या खुदकुशी करने से काफिर हो जाता है ?

जवाब : खुदकुशी यानी खुद अपने हाथ से अपने को मार डालना हराम और गुनाहे कबीरा है। ऐसे शख्स को जहन्नम में इसी चीज़ से अज़ाब दिया जाएगा जिससे उसने खुदकुशी की होगी, जैसा कि हदीस में इरशाद हुआ हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फरमाया जो शख्स अपनी ज़ात को किसी चीज़ से क़त्ल कर दे तो अल्लाह तआ़ला उसको जहन्नम में इसी चीज़ से अज़ाब देगा। 

एक और रिवायत में आया है कि हुज़ूर {ﷺ} ने इरशाद फरमाया की जिसने लोहे के हथियार से खुदकुशी की तो दोज़ख की आग में वो हथियार उसकी हाथ मे होगा और वो उससे अपने आप को हमेशा ज़ख्मी करता रहेगा। और जो शख्श ज़हर खा कर खुदकुशी करेगा वो नारे दोज़ख में हमेशा ज़हर खाते रहेगा।

खुदकुशी करने वाला इंसान खुदकुशी करने से काफिर नही होता, क्योंकि कबीरा गुनाह करने से इंसान काफिर नही होता और यही अहले सुन्नत का मज़हब और यही हक़ है। लिहाज़ा यह अपनी सज़ा काट कर जन्नत में ज़रूर जाएगा।

सवाल :- क्या कोई आकिल बालिग मुसलमान के लिए जान बूझ कर खुद कुशी करना कोई ऐसी सूरत है जिस में गुनाह न हो ?

जवाब - एक शख्श ने दूसरे से कहा कि तू अपने को तलवार से क़त्ल कर वरना मैं तुझे निहायत बुरे तरीके से क़त्ल करूँगा। तो उस शख्स को ग़ालिब गुमान हुआ के अगर मैं अपने को क़त्ल न करूँगा तो ये शख्स जैसे धमकी दे रहा है वैसी कर गुज़रेगा यानी इक़राह शरई पाया गया तो इस सूरत में खुदकुशी करना गुनाह नही.!

📒 फतावा आलमगीरी जिल्द 5
📚 फतावा अकबरिया जिल्द दोम सफ़ा 241

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  5⃣4⃣*

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सवाल : शरई मुसाफिर कोन है.!

जवाब : शरअन मुसाफिर वह शख्स है जो तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) तक जाने के इरादे (नियत) से बस्ती से बाहर हुआ , और मुसाफिर उस वक्त तक मुसाफिर है जब तक अपनी बस्ती में पहुंच न जाए या आबादी में पूरे पन्द्रह दिन ठहरने की नियत न करे। यह उस वक्त है जब तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) चल चुका हो और अगर तीन मंजिल पहुंचने से पहले वापसी का इरादा कर लिया तो मुसाफिर न रहा अगर्चे जंगल में हो.!

मुसाफिर पर वाजिब है कि नमाज़ में कस्र करे यानी चार रकअ़त फ़र्ज़ को दो पढ़े.!

काफिर तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) के इरादे से निकला दो दिन के बाद (तकरीबन 92 km से कम में) मुसलमान हो गया तो उस के लिए कस्र है.!

और नाबालिग तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) के इरादे से निकला और रास्ते में बालिग हो गया अब से जहां जाना है तीन दिन की राह न हो (यानी 92 km से कम हो) तो पूरी पढ़े.!

सवाल : औरत हैज़ में थी कि उसी दौरान मुसाफिर हुई और 92 किलो मीटर्स (3 दिन की राह) के बाद 15 दिन से कम की नियत में रुकी और वही पाक हुई, तो वह अब नमाज़ क़स्र पढ़ेगी की पूरी ?

जवाब : पूरी पढ़ेगी क्योंकि वह सफर हैज़ की हालत में हुई थी जहां हैज़ से पाक होगी वहां से अगर आगे तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) जाना है तो क़स्र पढ़ेगी, लेकिन ऊपर की तहरीर में पहले सफर किया हुआ है बाद में नहीं इस लिए वह पूरी नमाज़ पढ़ेगी.!

बहारे शरीअ़त में है :- हैज़ वाली औरत पाक हुई और अब से तीन दिन की राह न हो (92 km से कम हो) तो पूरी पढ़े.!

📒 पर्दादारी सफा 84
📚 बहारे शरीअ़त हिस्सा 4 सफा 64+65

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सवाल : क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसअले में  कि नबी करीम  {ﷺ} के ज़ाहिरी ज़माने में जब किसी का इंतक़ाल हो जाता और फरिश्ते सवालात के लिए आते तो क्या उस वक़्त भी नबी करीम {ﷺ} कब्र में तशरीफ़ लाते थे ?

जवाब : बेशक नबी करीम {ﷺ}  हयाते ज़ाहिरी में भी तशरीफ़ लाते थे। जैसा कि हदीसे पाक में आया है, और फिर कहते हैं तू उन साहब के मुताल्लिक क्या कहता था यानी मुहम्मद {ﷺ} , तो मोमिन कह देता है कि मैं गवाही देता हूँ कि यह अल्लाह के बंदे और रसूल हैं।

रिवायत है हज़रत अबु हुरैरा रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से, वो फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह {ﷺ} जब मय्यत दफन की जाती है तो उसके पास दो सियाह रंग नीली आंखों वाले फरिश्ते आते हैं, कि तू उन साहब के बारे में क्या कहता था, तो मय्यत कहती है कि ये अल्लाह के बंदे हैं और उसके रसूल, और मैं गवाही देता हूँ की अल्लाह के सिवा कोई माबूद नही, और यक़ीनन मुहम्मद {ﷺ} अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं।

इस हदीसे पाक में कब्र में तशरीफ़ आवरी के मुताल्लिक बशारत दी गयी है, उसमे हयात ज़ाहिरी और बातिनी की कै़द नही, इसलिए अपनी जानिब से बातिनी का इज़ाफ़ा करना ख़िलाफ़े उसूले शरह है, और मुर्दे को क़रीब से हुज़ूर की ज़ियारत कराई जाती है। हुज़ूर {ﷺ} एक ही वक़्त में सब की कब्र में पहुँच सकते हैं, या सब को एक ही वक़्त में नज़र आ सकते हैं। जिसका खात्मा ईमान पर हो उसने हुज़ूर {ﷺ} को देखा हो या न देखा हो नूरे ईमान से पहचान लेता है, अगर्चे काफिर ने उम्र भर देखा मगर कब्र में न पहचान सकेगा, जैसे अबु जहल, अबु लहब वगैरा, क्योंकि वहाँ पर पहचान रिश्ता ईमानी से है।

📚 फतावा फख़रे अज़हर जिल्द 1 सफा 160

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सवाल : कु़र्बानी की जानवर की उम्र क्या होनी चाहिए और बकरा या बकरी का छह⁶ माह बच्चा (यानी छे महीने का बच्चा) अगर इतना बड़ा हो कि दूर से देखने में साल भर का मालूम होता हो तो क्या उसकी कु़र्बानी जाइज़ है ?

जवाब : कु़र्बानी की जानवर की उम्र यह होनी चाहिए, ऊंट पांच साल का , गाय दो साल की, बकरी एक साल की, और अगर दुम्बा या भेड़ का बच्चा छः माहा (छे महीने का) बच्चा अगर इतना बड़ा हो कि दूर से देखने में साल भर का मालूम होता हो तो उसकी कुर्बानी जाइज़ है.!

और बकरा या बकरी साल भर से एक भी दिन कम हो तो उसकी कुर्बानी जाइज़ नहीं
 और मुफ्ती जलालुद्दीन किब्ला अहमद अमजदी अलैहिर्रहमा फरमाते है :  कि इस बकरी की कुर्बानी जाइज़ नहीं ख्वाह कितना ही फरबा हो कि कुर्बानी की बकरी की उम्र  साल भर होना ज़रूरी है.!

हिदायत : बकरा और बकरी, के हुक्म अलग है, और  दुम्बा और भेड़, इनका हुक्म अलग है,  बहुत कम ही लोग इस तरह के मसअले को ज़ेहन नशी रखते है.!

📕 फतावा फख्र ए अज़हर जिल्द दोम सफा 185
📒 बहारे शरीअ़त हिस्सा 15 सफा 342

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सवाल : नमाज़ी के सामने से गुज़रना और हटना कैसा ?

जवाब : नमाज़ी के आगे से गुजरना बहुत सख्त गुनाह है नमाज़ी के आगे से गुजरने वाला गुनहगार होता है, लेकिन नमाज़ी की नमाज़ में कोई ख़लल नुकसान  नही आता.!

नमाज़ी के आगे से गुजरने की सख्त मुमानेअ़त है हदीसो में इस पर सख्त वईदे वारिद है मस्लन : हदीस इमाम अहमद हज़रत अबी जहीम रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से रिवायात करते है कि हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि वसल्लम इरशाद फरमाते है अगर नमाज़ी के आगे से गुजरने वाला जानता कि उस पर कितना गुनाह है तो चालीस बरस खड़ा रहेना उस गूजर जाने से उसके हक़ में बेहतर था.!

हदीस इब्ने माजा की रिवायत में हज़रत अबू हुरैरह रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से है कि हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि वसल्लम इरशाद फरमाते है : कि अगर कोई जानता कि अपने भाई के सामने नमाज़ में आड़े होकर आगे से गुजरने में कितना गुनाह है तो सो *100* बरस खड़ा रहना उस एक क़दम चलने से बेहतर समझता.!

हदीस अबू बकर इब्ने अबी शयबा अपनी मुसन्नफ में हज़रत अब्दुल हमीद बिन अब्दुर्रहमान रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से रावी कि हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि वसल्लम इरशाद फरमाते है : कि अगर नमाज़ी के आगे से गुजरने वाला जानता कि इस तरह गुजरना कितना बड़ा गुनाह है  तो चाहता कि उस की रान टूट जाए मगर नमाज़ी के सामने से न गुजरे आम तौर से मसाजिद में देखा गया है कि दो शख़्स आगे पीछे नमाज़ पढ़ते हैं यानि एक पीछली सफ़ में और दूसरा उसके सामने अगली सफ़ में, अगली सफ़ में नमाज़ पढ़ने वाला पीछे वाले से पहले फारिग हो जाता है और फिर उसकी नमाज़ ख़त्म होने का इन्तिज़ार करता रहता है कि वह सलाम फेरे तब यह वहाँ से हटे और उस से पहले हटने को नमाज़ी के सामने से गुज़रना ख़्याल किया जाता है, हालांकि ऐसा नहीं है,आगे नमाज़ पढ़ने वाला अपनी नमाज़ पढ़ कर हट जाए तो उस पर गुज़रने का गुनाह नहीं है.!

गुलासा यह है कि नमाज़ी के सामने से गुज़रना मना है हटना मना नहीं है, सदरुश्शरिया ह़ज़रत मौलाना अमजद अली आज़मी अलैहिर्रह़मा तह़रीर फरमाते हैं कि : अगर दो शख़्स नमाज़ी के आगे से गुज़रना चाहते हों और सुतरह को कोई चीज़ नहीं तो उन में से एक नमाज़ी के सामने उसकी तरफ पीठ कर के खड़ा हो जाए, और दूसरा उसकी आड़ पकड़ के गुज़र जाए,फिर वह दूसरा उसकी पीठ के पीछे नमाज़ी की तरफ पुश्त कर के खड़ा हो जाए और ये गुज़र जाए वह दूसरा जिधर से आया उसी तरफ़ हट जाए.!

इस से ज़ाहिर है कि गुज़रने और हटने में फरक़ है और गुज़रने का मतलब ये है कि नमाज़ी के सामने एक तरफ से आये और दूसरी तरफ निकल जाए,ये यक़ीनन नाजाइज़ व गुनाह है, और अगर नमाज़ी के सामने बैठा है और किसी तरफ़ हट जाए तो ये गुज़रना नहीं है और इस में कोई गुनाह नहीं है.!

हिदायत : हटने और गुजरने में फ़र्क होता है, बहुत कम ही लोग इस तरह के मसअले को ज़ेहन नशी रखते है.!

📘 बहारे शरीयत जिल्द 1 हिस्सा 3 सफह 157+ 617
📓 फतावा हिन्दिया जिल्द-1 सफह 104
📒 रद्दुल मुह़तार जिल्द 2 सफह 483
📕 तीनो हदीसे ब: हवाला : फतावा रजविया जिल्द 3 सफहा 316 / 317
📚 गलत फहमियां और उनकी इस्लाह़ सफह 35

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सवाल :  एक मुसलमान के लिए बुन्यादी तौर पर जिन उलूम का सीखना लाज़िमी व ज़रूरी (यानी फ़र्ज़) है उनकी कितनी क़िस्में है ?

जवाब तीन³ क़िस्में है, पहला : इल्म उल कलाम (अक़ाइद का इल्म) जैसे अल्लाह {ﷻ} के ज़ात व सिफ़ात, नुबुव्वत व रिसालत, ईमान व कुफ्र, जन्नत व दोज़ख़, हश्र व नश्र, जिन व मलाइका (फरिश्ते) वगैरा, (क्या है कैसे माना जाए)

दूसरा : इल्में फ़िक़्ह, जैसे नमाज़, (वुज़ू, गुस्ल, पाकी नपाकी) रोज़ा, हज, ज़कात, निकाह, तलाक़, तिजारत, हैज़, निफास, पर्दा, हुक़ूक़े वालिदैन व हुक़ूक़े शौहर बीवी, वगैरा और इन सबके सारे अहकाम (क्या है और कैसे किया जाए)

तीसरा : इल्मेंं तसव्वुफ़ जैसे बुग्ज़, हसद, जलन, बद गुमानी, बद शुगूनी, गिबत, चुगलखोरी, रियाकारी, सूद वगैरा यह (क्या है और कैसे बचा जाए)

इन सबका इल्म सीखना हर आक़िल बालिग मुसलमान (मर्द औरत) पर फर्ज़ है (इन में कुछ मखसूस पर है जैसे मालदार पर ज़कात, हज वगैरा) इन सब में पहले अक़ाइद का इल्म, हासिल करें, इल्म अक़ाइद के बगैर खुदा न खांसता ईमान खतरे में पड़ सकता है, क्योंकि एक मुसलमान को जब यह मालूम ही नहीं होगा कि मुझे अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात, नुबुव्वत व रिसालत, वगैरा के बारे में क्या अक़ीदा रखना है तो उसके अक़ीदा की दुरुस्ती क्योंकर हो सकेगी, (यानी कैसे दुरुस्त होगा ?)

यक़ीनी सी बात है ना वाक़िफ की बिना पर मुसलमान बात़िल नज़रियात को भी अक़ीदा बना सकता है, लिहाज़ा हर एक बज़ाते खुद ईमान की हिफाज़त के सिलसिले में इस्लामी अक़ाइद खुद ही नहीं बल्कि अपने घर वालों रिश्तेदारों और दोस्तों, बाल बच्चे शागिर्द वगैरा, को भी सीखने की तरग़ीब दिलाए.!

इल्मे अक़ाइद और दिगर इल्म सीखने का एक बुन्यादी और बड़ा ज़रिया यह भी है कि बहारे शरीअत पढ़ा जाए अवाम और ख़ास दोनो के लिए बहुत मुफीद है.!

एडमिन सबक : ✍🏻 निहायत अफसोस की बात है आज कल हर चीज़ के लिए घंटों बल्कि पूरा दिन गुज़ारने के लिए वक़्त है लेकिन इल्म ए दीन जो फ़र्ज़ या वाजिब है उन सब को सीखने का टाइम नहीं, अक्सर वह लोग कहते है जो इल्म ए दीन नही सीखें होते है कि हम तो बहुत पुरसुकून ज़िंदगी जीते है (क्योंकि कोई दुन्यावी नुकसान नही है इस लिए) यह तो मरने के बाद पता चलेगा कि असल ज़िंदगी तो आखिरत है और जिस दुनिया की तकलीफ न होने को पुरसुकून समझ बैठे थे वह नही थे, पुरसुकून तो वह था जो इल्म सीख कर उस पर अमल करते, खुदारा अपनी आखिरत को खराब न करें कम से कम इतना ज़रूर इल्म सीखें जिससे आपके अक़ीदे और इबादात व मुआमलात और गुनाहों की मारिफ़त हासिल कर ले.!

पहली बात तो लोग इल्म ही नहीं सीखते और अगर कोई व्हाट्स ऐप सब में सवाल जवाब के ज़रिए सीखते भी है तो इस में भी रोज़ मर्रा के मसाइल नही बल्कि अक्सर ज़्यादातर तारीखी सवाल जवाब ही होते है जिसका सीखना न फ़र्ज़ है न वाजिब बल्कि जिसका न दुनिया में न आखिरत में काम आए तो इस तरह के तारीखी फर्जी सवाल करना भी मना है, इस लिए आप अगर किसी ग्रुप को चलाते है तो रोज़ मर्रा के मसाइल व जदीद दौर के खुराफात सब से आगाह करें, सही अक़ीदा सिखाए.!

आज का पहला सवाल थोड़ा हार्ड तो लगा लेकिन मेरे पूरे ग्रुप के सारे सवाल के निचोड़ यही सवाल है, अगर कोई अच्छी तरह इल्म को सीखे होते तो इतने आसान सवाल के सही जवाब ज़रूर देते लेकिन अक्सर लोग तारीखी में रहते है तो यह कैसे मालूम करें कि हमे कितने तरह के उलूम सीखना फ़र्ज़ है ? हमारे ग्रुप में इसी तरह के ज्यादातर रोज़ मर्रा के सवाल होंगे आपकी मर्ज़ी सीखें या नहीं।

واللہ تعالیٰ اعلم

📕 बहारे शरीअ़त शरह हिस्सा 1 सफा 3

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सवाल :  किसी बुज़ुर्ग की दरगाह पर जाकर इस तरह दुआ करना कैसा मसलन ऐ ख़्वाजा गरीब नवाज़ मै बे औलाद हूं मुझे औलाद दे दीजिए ?

जवाब : अहले सुन्नत व जमात का अक़ीदा यह है के अल्लाह ने अपने मेहबूबाने बारगाह अम्बियाये किराम, ऑलियाये इज़ाम को आलम में तसर्रुफ़ की क़ुदरत अता फरमाई है और यह अक़ीदा क़ुरान व अहादीस से साबित है। क़ुरान मजीद में मज़कूर है कि अल्लाह ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को मुर्दे जिलाने, मादर्ज़ाद अंधे को बिना करने, और मिट्टी की मूर्ति में जान डालने की क़ुदरत अता फरमाई थी।

अल्लाह अपने मेहबूब के आंख, कान, हाथ में ये कुव्वत अता फर्मा देता है की वो नज़दीक और दूर, ज़ाहिर और छिपी हुई, हर चीज़ को देखते हैं। दूर ओ नज़दीक, बुलंद व पस्त आवाज़ को सुनते हैं, आलम में तसर्रुफ़ करते हैं। यानी अल्लाह के इज़्न (इजाज़त) से जिसे जो चाहें अता कर दें। जिससे जो चाहें छीन लें, दूर व नज़दीक जहाँ चाहें हाज़िर हो जाएं।इसीलिये गौसे आज़म फरमाते हैं कि किसी भी मुसीबत में जो मुझसे फरयाद करेगा मैं उसकी मुसीबत दूर कर दूंगा।

इन तफसीलो से ज़ाहिर हो गया कि किसी का किसी बुज़ुर्ग की मज़ार पर जा कर ये दरख्वास्त पेश करना कि मेरी फलां मुश्किल दूर कर दीजिए, फलां हाजत पूरी कर दीजिए, मुझे माल व दौलत दीजिये, औलाद दीजिये, बिला शुभह जाएज़ व दुरुस्त है। कुफ्र व शिर्क होना तो दूर की बात है, नाजायज़ व गुनाह भी नही। अलबत्ता बेहतर यह है कि ये अर्ज़ करे की आप दुआ कीजिये कि अल्लाह मुझे ये अता फरमाए।

सबक एडमिन ✍🏻 :  सबक - हर इंसान को अपने अक़ीदे को दलाइल के साथ सीखना ज़रूरी है, उसकी वजह ये है कि अगर कोई हमसे पूछ लें कि आप ये काम क्यों करते हो, तो आपके पास जवाब रहना चाहिये जिससे सामने वाला मुतमईन हो जाए। मगर यहाँ तो सूरते हाल ये है कि खुद सुन्नी को इतनी फुरसत नही है कि अहले सुन्नत के अक़ाइद को जिसे हम अपनाते हैं उसे दलील के साथ सीख सके। 

हमने कुछ चीज़ों को बस रस्म बना लिया है, उसके पीछे की दलील नही जानते कि हम क्यों इस काम को करते हैं, और अगर कोई बदमज़हब हमसे इसके मुताल्लिक पूछ लें, तो हम जवाब देने से आजिज़ आ जाते हैं। इसलिए हमें हमारे अक़ाइद को दलील के साथ सीखना ज़रूरी है।

📕 फतावा शारेह बुखारी जिल्द 2 सफा 163+164

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सवाल :  आजकल अक्सर मसाजिद में खुजूर की टोपियां लोग डाल देते हैं, और अक्सर टोपियां टूटी हुई भी होती हैं, तो ऐसी टोपियां पहन कर नमाज़ पढ़ना कैसा ?

जवाब - फुक़्हाए किराम इरशाद फरमाते हैं की काम काज के कपड़ों में नमाज़ पढ़ना मकरूह है। जो कपड़े मैले कुचैले हों, ख़्वाह ऐसे की इन्हें पहन कर आदमी बड़ो के रूबरू न जा सके, और इसी क़ौले आखिर से ये बात मालूम हुई कि जिस हालत व हयत में आदमी बड़ों के सामने जाते हुए शर्माए उनमे नमाज़ न पढ़े।

हज़रत उमर फ़ारूक़ रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु ने ऐसे मौक़े के लिए इरशाद फरमाया के " अगर मैं तुम्हे किसी के पास किसी काम से भेजू तो क्या ऐसे कपड़ो में जा सकोगे ? सामने वाले ने अर्ज़ किया " नहीं", तो हज़रते उमर ने फरमाया की तो फिर खुदा की बारगाह में ऐसे कपड़ों में क्यों जाओ।

और ज़ाहिर है कि ऐसी टोपी ख़ुसूसन जबके वो टूटी हुई हो, आदमी मस्जिद से बाहर सर पर रखना भी गवारा नही करता, बड़ो के सामने नही जाता तो फिर  नमाज़ में वो क्यों ऐसे गवारा करता है, और बहरहाल ये एक नापसंदीदा काम है, लेकिन न ऐसा कि उसपर वईद आयी हो, लेहाज़ा मकरूहे तंज़ीही है। जिसका खुलासा ये है कि इस काम को करना नही चहिये, गवारा नही होना चाहिए, इससे बचना चाहिए।

सबक एडमिन ✍🏻 :  मकरूहे तंज़ीही की तारीफ यह है कि उस काम को शरीअत नापसंद तो करती है, मगर इस हद तक ना पसंद नही करती कि करने वाला गुनहगार हो जाए, अगरचे बार बार करे, और उससे बचना ही चाहिए।

लिहाज़ा ऐसी टोपी पहन कर नमाज़ पढ़ा तो नमाज़ तो हो जाएगी मगर मकरूहे तंज़ीही की कराहत रहेगी, और सवाब में भी कमी आएगी। और कोशिश करें कि जेब मे ही कपड़े की टोपी रख लें, वो ज़्यादा भारी भी नही होती, आपके मोबाइल से तो हल्की ही होती है, तो जब मोबाइल रख सकते हैं तो टोपी रख कर भी चल सकते हैं।

 📕 फतावा खलीलिया जिल्द अव्वल सफा 260 + 261

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सवाल :  क्या फरमाते हैं उलमा ए दीन व मुफ़्तीयाने शरह इस मसअले में, कि लोग अजमेर शरीफ से जो धागा वगैरा ला कर पहनते हैं उसका क्या हुक्म है, और जो धागा या पत्थर चाहे कही का हो, बगदाद शरीफ, अजमेर शरीफ या बरेली शरीफ, तो उस धागे या पत्थर को गले मे लटकाना या हाथ मे बांधना कैसा है ?

अल जवाब : ये फैल जाइज़ नही क्योंकि इसमें गैर मुस्लिमों से मुशाबहत है, और इस तरह करने वाले लोगो को देख कर उमूमन उनके गैर मुस्लिम होने का शुबा होने लगता है। और हदीस शरीफ में है कि "जो किसी क़ौम से मुशाबहत इख़्तेयार करे वो उन्ही में से है" मज़ीद ये के ये धागे वगैरा बिज़्ज़ात खुद कोई फायदा नही रखते और न ही शरीअ़त में इनकी कोई क़ाबिले क़द्र हैसियत है।

बल्कि ये सिर्फ अपना गंदा धंधा चलाने का ढोंग है जो बुज़ुरगाने दीन का सहारा ले कर भोले भाले लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए इन चीज़ों को खुद साख्ता करामातें और फ़ज़ीलतें बयान करते हैं। लिहाज़ा हर मुसलमान पर लाज़िम है कि इस तरह के धागे वगैरा का इस्तेमाल हरगिज़ न करे और उनसे दूर रह कर अपने आप को उस बुरी निस्बत व मुशाबहत से बचाए।

सबक एडमिन ✍🏻 :  सबक - आजकल ये बहुत ज़्यादा देखा जाता है, जो कोई भी वहां जाता है, इसको तबर्रुक (बरकत वाला) समझ कर ले आते हैं और अपने कलाई पर और पूरे खानदान के कलाई पर बंधवा देते हैं। जबके इसके जाइज़ होने की कोई दलील नही, और उल्टा ये गैरों से मुशाबहत रखती है, इसलिए अगर किसी चीज़ के बारे में नही मालूम है, तो बस देखा देखी न किया करें, बल्कि अपने क़रीबी आलिम से उसके मुताल्लिक पूछ लिया करे, कि इस काम को करने से कहीं हम गुनहगार तो नही हो रहे। और फिर अमल में लाएं कुरआन ए मजीद में अल्लाह {ﷻ} ने इरशाद फरमा " तो ऐ लोगों इल्म वालो से पूछो अगर तुम्हे इल्म नही"

{पारा 14 सूरह 16 अन नहल आयत 43}

*📓 फतावा रज़ा दारुल यतामा सफा 456 + फतावा मरकजे़ तरबियते इफ़्ता सफा 436*

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*सवाल : -* जिस पर कुर्बानी वाजिब थे उसने नहीं किए तो अब क्या करे ?

*जवाब :-* मसअला : अय्यामे नहर गुज़र गए और जिस पर कुर्बानी वाजिब थी उसने नहीं की है तो कुर्बानी फ़ौत हो गई अब नहीं हो सकती, फिर अगर उसने कुर्बानी का जानवर मुअय्यन कर रखा है मसलन मुअय्यन जानवर की कुर्बानी की मन्नत मानली है वह शख्स गनी हो या फ़क़ीर बहर सूरत उसी मुअय्यन (तय किया हुआ) जानवर को जिंदा सदका करे और अगर ज़िब्ह कर डाला तो सारा गोश्त सदक़ा करे उसमें से कुछ ना खाए, और अगर कुछ खा लिया है तो जितना खाया है उसकी क़ीमत सदका करे, और अगर ज़िबह किए हुए जानवर की कीमत जिंदा जानवर से कुछ कम है तो जितनी कमी है उसे भी सदका करे और फ़क़ीर ने कुर्बानी की निय्यत से जानवर खरीदा है और कुर्बानी के दिन निकल गए चूंकि उस पर भी उसी मुअय्यन (तय किया हुआ) जानवर की कुर्बानी वाजिब है लिहाज़ा उस जानवर को ज़िंदा सदक़ा कर दे और अगर ज़िब्ह कर डाला तो वही हुक्म है जो मन्नत में मज़कूर हुआ, ये हुक्म उसी सूरत मैं है कि कुर्बानी ही के लिए खरीदा हो और अगर उसके पास पहले से कोई जानवर था और उसने उसके कुर्बानी करने की निय्यत कर ली या खरीदने के बाद कुर्बानी की निय्यत की तो उस पर कुर्बानी वाजिब ना हुई और गनी ने कुर्बानी के लिए जानवर खरीद लिया है तो वही जानवर सदक़ा कर दे और ज़िब्ह कर डाला तो वही हुक्म है जो मज़कूर हुआ और खरीदा ना हो तो बकरी की क़ीमत सदक़ा करे.!

मसअला: कुर्बानी के दिन गुज़र गए और उसने कुर्बानी नहीं की और जानवर या उसकी क़ीमत को सदक़ा भी नहीं किया यहां तक के दूसरी बक़र ईद आ गई अब ये चाहता है के साले गुज़िस्ता (यानी गुज़रे हुए साल) की कुर्बानी की क़ज़ा इस साल कर ले ये नहीं हो सकता बल्के अब भी वही हुक्म है के जानवर या उसकी क़ीमत सदक़ा करे.!

मसअला : जिस जानवर की कुर्बानी वाजिब थी अय्यामे नहर गुज़रने के बाद उसे बेच डाला तो समन (तय शुदा क़ीमत) का सदक़ा करना वाजिब है¹

मसअला : पिछले सालों में वाजिब होने के बावजूद कुर्बानी न की तो दरमियानी बकरी की क़ीमत सदक़ा करना ज़रूरी है जिस साल की कुर्बानी के बदले क़ीमत देनी है उस साल की तेरह जुलहिज्जा की क़ीमत का एतिबार होगा²

दर्से हिदाया : इस में बहुत अहम नसीहत उन लोगों के लिए भी है कि जो खुद का एहतिसाब नहीं करते कि मुझ पर कुर्बानी वाजिब है या नहीं, और अगर मालूम हो जाए फिर कुछ माल की लालच में सोचते हैं कि घर में कई अफराद पर वाजिब है कि अपना छोड़ देते हैं यहां तक हिस्सा भी नहीं लेते, तो ज़रा गौर करे कि अभी तो 1100/1500₹ में बात बन सकती है लेकिन जब यह अय्यामे नहर (कुर्बानी के 3 दिन) गुज़र गए तो अब हिस्सा वाला सदका नहीं होगा बल्कि अब सीधे एक जानवर की क़ीमत या जानवर ही सदका करना होगा ये छोटे जानवर बकरी भी कर सकते हैं लेकिन ये बाद में 6000/9000₹ देने पड़ सकते हैं फिर तो और ज़्यादा आफोस होगा इसलिए पहले ही अपना वाजिब अदा कर ले!

¹📕 बहारे शरीअत हिस्सा 15 सफा 509 (हिंदी)
²📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ सफा 50

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*सवाल : -* मियां बीवी का एक ही बर्तन में खाना पीना कैसा ?

*जवाब :-* मिया बीवी को एक ही बर्तन से किसी चीज़ को खाना या पीना दुरुस्त है, उम्मुल मोमिनीन हज़रते आएशा रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हा फरमाती हैं कि मैं ज़माना हैज़ में पानी पीती फिर हुज़ूर ﷺ को देती तो जिस जगह मेरा मुंह लगा होता हुज़ूर ﷺ वहीं दहन (मुंह) मुबारक रख कर पीते

मज़्कूरा रिवायत इस बात पर दलील है कि मियां (शोहर) बीवी का एक ही बर्तन से किसी चीज़ के खाने या पीने में कोई हर्ज नहीं है बल्कि सुन्नत है!¹

*सबक :-* इस से उन लोगों को खास तौर पर सबक हासिल करना चाहिए जो इस तरह के अमल करने वालों पर बिना वजह तंक़ीद (नुक्ता चीनी) करते रहते हैं कि बीवी का जूठा खा रहा है, गोया कि बीवी से डर के रहने वाला गुलाम है, उनकी बारगाह में गुज़ारिश है कि इस्लाम को सही से समझे दीन में क्या अच्छा है क्या बुरा है सीखें, फिर कुछ अमल में लाए और दूसरे के ऊपर तंक़ीद करे, बल्कि एक साथ और जूठे खाने से दिल में महब्बत ही पैदा होती है, इसका जीता जागता मिसाल यह है कि जब शादी होती है तो छुहारे एक में से आधा शोहर और आधी बीवी खाती है, जिस से दोनों के माबैन (दरमियान) और महब्बत बढ़ जाती है!

*¹📚 ज़िया ए शरीअ़त जिल्द अव्वल सफ़ा 90*

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*सवाल : -* क्या फरमाते हैं उलमाए किराम इस मसअले में कि एहतलाम हुआ और मनी का क़तरा कपड़े या बिस्तर पर लग कर सूख गया तो कपड़े का क्या हुक्म होगा? और अगर एहतलाम हो जाए बिस्तर पे और सुबह होने के बाद पता नहीं है कि किस जगह एहतलाम लगा है तो इस हालत में क्या करें?

*जवाब :-* सिर्फ सूख जाने से कपड़ा पाक न होगा बल्कि मल कर उसे झाड़ने और साफ करने से पाक होगा, जैसा कि बहारे शरीअत में है : कि मनी कपड़े पर लग कर खुश्क हो (सूख) गई, तो फक़त (सिर्फ) मल कर झाड़ने और साफ करने से कपड़ा पाक हो जाएगा अगर्चे मलने के बाद उसका कुछ असर कपड़े में बाक़ी रह जाए इस मसअले में औरत व मर्द और इंसान व हैवान (जानवर) तंदुरुस्त व मरीज़ जुर्यान सब की मनी का हुक्म एक है

और एहतलाम होने के बाद यक़ीन हो कि बिस्तर पर लगा या लगते देखा था और अब पता नहीं चल पा रहा है तो इस सूरत में पूरा बिस्तर तीन दफा इस तरह धुलना ज़रूरी है कि हर दफा पूरी ताक़त से निचोड़े कि पानी का क़तरा बाक़ी न रहने पाए, सिर्फ उस जगह का धुलना काफी न होगा जहां नजासत लगी है, मगर जो चीज़ निचोड़ने के क़ाबिल न हो जैसे चटाई, दरी, गद्दा, क़ालीन, कम्बल वगैरा उसको पाक करने का तरीक़ा यह है कि उसको धो कर छोड़ दे यहां तक कि पानी टपकना बंद हो जाए यूंही दो मर्तबा और धोए फिर जब तीसरी मर्तबा पानी टपकना बंद हो गया तो वह चीज़ पाक हो गई इसी तरहऔ ऐसा रेशमी कपड़ा जो अपनी नाज़ुकी के सबब निचोड़ने के क़ाबिल नहीं उसे भी यूंही पाक किया जाएगा!

*📕 फतावा फख्रे अज़हर जिल्द अव्वल सफा 119+121*

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*सवाल : -* उलमाए किराम में अगर किसी फुरुई मसाइल को लेकर इख्तेलाफ हो जाए, तो उन में से किसी को बुरा भला फासिक गुमराह वगैरा कहना कैसा ?

*जवाब :-* फुरुई मसाइल में इख़्तेलाफ़ रहमत है, नबी करीम ﷺ ने इरशाद फरमाया इख़्तेलाफ़ मेरी उम्मत के लिए रहमत है, लेकिन कुछ लोग इस रहमत को ज़हमत (तकलीफ) बनाए हुए हैं, अगर किसी मसअले में किसी बुज़ुर्ग से इख़्तेलाफ़ किया जाए और इख़्तेलाफ़ करने वाले ने अपनी तहक़ीक़ और दलाइल से इख़्तेलाफ़ किया हो तो कुछ लोग उसको गुमराह या फ़ासिक़ कहते हुए नज़र आते हैं और इस इख़्तेलाफ़ से उनका हाज़मा इस तरह खराब हो जाता है कि उनको ज़रा भी हज़म नहीं होता जिस बिना पर वो लआन, तआन, तफसीक़ तज़लील (ज़लील) करते नज़र आते हैं जबकि इजतेहादी मसाइल में किसी को बुरा भला कहना जाइज़ नहीं¹

आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा अलैहिर्रहमा फरमाते हैं: और इजतेहादी मसाइल में किसी को फासिक़ कहना जाइज़ नहीं, इजतेहादी मसाइल में किसी पर लआन तआन भी जाइज़ नहीं ना कि मआज़ल्लाह ऐसा ख्याल के गुमराह या काफिर कहा जाए,
और फरमाते हैं: जो कोई उन तमाम मानों के बावजूद किसी एक तरफ पुख्ता यक़ीन दिखाए तो वह बे बाक निडर और बे एहतियात है, पस रासिख उलमा और मोहतात हज़रात की यही पहचान है कि वो मुख्तलिफ इजतेहादी मसाइल में किसी एक तरफ यक़ीन नहीं रखते²

फतावा शारेह बुखारी ने हैं: जब उलमा का किसी मसअले में इख्तेलाफ हो तो यह दुरुस्त नहीं कि एक दूसरे को फासिक़ कहा जाए, मौलाना अशरफ रहमतुल्लाह अलैह मज़ामीर के साथ क़व्वाली सुना करते थे और ये बात आला हज़रत के इल्म में थी इस के बावजूद आला हज़रत उनकी क़याम ताज़ीम करते थे और उनकी दस्तबोसी भी करते थे बल्कि आपने अपनी खिलाफत से उनको नवाज़ा था, यही हाल मुफ्ति आज़मे हिन्द रहमतुल्लाह अलैह और अल्लामा हामिद रज़ा का था सय्यद मुहम्मद साहब की दस्तबोसी करते उनकी क़याम ताज़ीम करते, बात दरअसल यही है, जब एक मसअला में इख़्तेलाफ़ हो तो एक दूसरे को  फ़ासिक़ फाजिर नहीं कहा जाएगा³

आला हज़रत से सवाल हुआ: मज़ारे क़ब्र का का बोसा लेना (चूमना) चाहिए या नहीं ? आप ने जवाब दिया, फिल वक़ेअ़ बोसा क़ब्र में उलमा का इख्तेलाफ है और तहक़ीक़ यह है कि वह एक अम्र है, दो चिस्सों दाई व मानेअ के दरमियान, दायरे दाई महब्बत है, और मानेअ अदब तो जिसे गलबा महब्बत हो तो उस पर मुआख्ज़ा नहीं, मजीद फरमाए: जब किसी मसअला का हमारे मज़हब या दीगर आइम्मा के मज़हब पर जवाज़ निकल सकता है तो वो ऐसा मुनकिर नहीं कि इस पर इनकार और उस से मना करना वाजिब हो, हाँ गुनाह वो है कि वो इस के हराम होने और इस के मना होने पर इजमा हो⁴

देखा आपने इमाम अहले सुन्नत अलैहिर्रहमा ने ये नहीं फरमाया बोसा देने वाला फ़ासिक़ है बल्कि कहा उस से कोई मुआखज़ा नहीं, और आखिर में तो ये फरमा दिया ये वो मुनकिर नहीं जिस पर इनकार वाजिब हो, इससे उन मुफ्तियों को सबक लेना चाहिए जो इख़्तेलाफी मसाइल में फ़ासिक़ का फतवा दाग देते हैं और आलिम मुफ़्ती की ज़ात को मजरूह (ज़ख्म) कर देते हैं, आला हज़रत अलैहिर्रहमा ने एक और मक़ाम पर फरमाए: बोसा क़ब्र में बहुत इख्तेलाफ है, आवाम के लिए एहतियात मना है¹ 

अगर आपको मंसबे इफ्ता मिला है तो आप किसी मुफ्ती या आलिम का नाम लेकर वो भी ऐसे मसअला में जिस में अक्सर उलमा मशाइख जवाज़ के क़ायल हैं उसको फासिक़ क़रार दे, तो मैं (मुसन्निफ) समझता हूं ये काम सरासर उसूले इफ्ता के खिलाफ है आपका यह फतवा सिर्फ फर्द वाहिद के लिए नहीं मुजव्वज़ीन के लिए भी होगा, और उनको फासिक़ बनाना होगा (لا حول ولا قوۃ الا باللہ)

एहतियात तो यह है अपने मुवफ्फिक़ में इम्कान खता समझते हुवे अपने फतावा में नरमी और एहतियात का पहलू अपनाया जाए चूंकि मसअला क़तई नहीं बल्कि इजतिहादी हैं वो भी ऐसा जिस में अक्सरियत मुब्तिला हैं, किसी आलिम या मुफ्ती को फासिक़ कहना गोया कि क्या आपके पास वही इलाही आई है या आपको यह गैब से बताया गया कि आप ही इस मसअले में हक़ पर है, बाक़ी ना हक़ फासिक़ फाज़िर है,, अल्लाह करीम हमें मंसबे इफ्ता का सही इस्तेमाल करने की तौफीक़ अता फरमाए फहम फिक्ह और गहन इफ्ता अता फरमाए¹

बहुत सारे ऐसे मसाइल हैं जिन में खुद सय्यिदी आला हज़रत अलैहिर्रहमा ने अकाबिर उलमा से इख्तेलाफ किया और आला हज़रत के बाद के उलमा ने इख्तेलाफ किया, मिसाल के तौर पर पेशाब की बहुत बारीक छींटें कपड़े पर पड़ जाए तो कपड़ा नापाक न होगा लेकिन वह कपड़ा थोड़े पानी (बाल्टी वगैरा) में गिर जाए तो पानी नापाक होगा या नहीं, इस बारे में आला हज़रत फरमाते हैं: कि नापाक हो जाएगा लेकिन उसके बाद सद्रुश शरीआ (बहारे शरीअत के मुसन्निफ) ने यह मुवफ्फिक़ इख्तियार किया के पानी नापाक नहीं होगा, इसी तरह आला हज़रत ने सेब का चूना खाना फतावा रज़विया में हराम लिखे हैं लेकिन उलमाए बहार ने उसे हलाल क़रार दिया है, इस तरह के बहुत सारे मसाइल हैं लेकिन किसी ने किसी पर लआन तआन नहीं किया ना ही तफसीक़ की, न जाने क्यों आज लआन तआन वाली बला में आलिम मुफ्ती कहलाने वाले भी मुब्तिला हैं ज़रा सा किसी आलिम को किसी मसअला में इख्तेलाफ करता पाया तो उस पर लआन तआन शुरू कर देते हैं¹

मामूली इख़्तिलाफ़ात को झगड़ों का सबब बनाना

बाअ़ज़ फ़ुरूई और नव'पैद (नये) मसाइल जिनका ज़िक्र सराहतन (खुले अल्फ़ाज़) में क़ुरआन व हदीस और फ़िक़ह की मुस्तनद किताबों में नहीं मिलता, उनके मुताल्लिक़ कभी-कभी आलिमों की राय अलग हो जाती है, ख़ासकर आज साइंस के दौर में नई-नई ईज़ादात की बुनियाद पर ऐसे मसाइल कसरत से सामने आ रहे हैं तो कुछ उलमा के दरमियान इख़्तिलाफ़ात को लड़ाई, झगड़े, गाली-गलौच, लअ़न व तअ़न का सबब बना लेते हैं और आपस में गिरोहबंदी कर लेते हैं, यह उनकी सख़्त ग़लतफ़हमी है।

फ़ुरूई मसाइल में इख़्तिलाफ़ की बुनियाद पर पार्टीबन्दी कभी नहीं करना चाहिए। न एक दूसरे को बुरा भला कहना चाहिए, बल्कि जो बात आपके नज़दीक़ हक़ व दुरुस्त है वह दूसरों को समझा देना काफ़ी, अगर मान जायें तो ठीक, वरना उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिये और उन्हें अपना मुसलमान भाई ही ख़्याल करना चाहिए, मगर आजकल छोटी-छोटी बातों पर आपस में लड़ाई-झगड़े, दंगे करना और पार्टियां बनाने की मुसलमानों में बीमारी पैदा हो गई है। यह इसलिये भी हुआ कि आजकल लोग नमाज़ व इबादत व क़ुरआन की तिलावत और दीनी किताबों के पढ़ने में मशग़ूल नहीं रहते, खाली रहते हैं इसलिए उन्हें ख़ुराफ़ात सूझती है और ख़्वामख़्वाह की बातों में लड़ते और झगड़ते हैं।

कुछ लोग इस फ़ुरूई इख़्तिलाफ़ को उलमाए दीन की शान में गुस्ताख़ी करने और उन्हें बुरा भला कहने का बहाना बना लेते हैं, ऐसे लोग गुमराह व बद्दीन हैं, इनसे दूरी बहुत ज़रूरी है और इनकी सोहबत ईमान की मौत है। क्यूंकि उलमाए दीन की शान में गुस्ताख़ी और मौलवियों को बुरा भला कहना बदमज़हबी है। गुमराहों की गुमराही की शुरूआ़त यहीं से होती है, अहले इल्म व फ़ज़्ल असहाबे दयानत व अमानत में अगर किसी बात पर इख़्तिलाफ़ हो जाए तो आम लोगों को ख़ुदाए तआ़ला की तौफीक़ से जिधर ज़हन का झुकाओ हो जाए, उस बात पर अमल करना चाहिए, और दूसरे की शान में भी बेअदबी न करके, उसका भी एहतिराम करते रहना चाहिए, और ख़ुदाए तआ़ला से रो-रो कर तौफ़ीक़ ए ख़ैर और सीधे रास्ते पर क़ायम रहने की दुआ करते रहना चाहिए⁵

"हदीस में है कि रसूले पाक सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम जब जंगे ख़न्दक़ से वापस मदीने में तशरीफ़ लाए और फ़ौरन यहूदियों के क़बीले बनू क़ुरैज़ा पर हमले का इरादा फ़रमाया, और सहाबा को हुक्म दिया कि असर की नमाज़ बनु क़ुरैज़ा में चलकर पढ़ी जाए, लेकिन रास्ते में वक़्त हो गया, यानी नमाज़े असर का वक़्त ख़त्म हो जाने का अन्देशा हो गया तो कुछ सहाबा ने नमाज़ का वक़्त जाने के ख़ौफ़ से रास्ते में ही नमाज़ अदा फ़रमाई और उन्होंने ख़्याल किया कि हुज़ूर का मक़सद यह नहीं था कि चाहे वक़्त जाता रहे, लेकिन नमाज़ बनू क़ुरैज़ा ही में पढ़ी जाए, और कुछ लोगों ने वक़्त की परवाह न की और नमाज़े असर बनू क़ुरैज़ा ही में जाकर पढ़ी, हुज़ुर के सामने जब यह ज़िक्र आया तो आपने दोनों को सही व दुरुस्त फ़रमाया। दोनों में से किसी को भी बुरा नहीं कहा⁶

"एक और हदीस में है कि एक मरतबा हुज़ूर के दो सहाबा सफ़र को गए, रास्ते में पानी न मिलने की वजह से दोनों ने मिट्टी से तयम्मुम करके नमाज़ अदा फ़रमाई, फ़िर आगे बढ़े पानी मिल गया और नमाज़ का वक़्त बाक़ी था, एक साहब ने वुज़ू करके नमाज़ दोहराई... लेकिन दूसरे ने नहीं दोहराई,

वापसी में हुज़ूर ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर होकर क़िस्सा बयान किया तो हुज़ूर ﷺ ने उन साहब से जिन्होंने नमाज़ दोहराई थी और तयम्मुम की नमाज़ को काफ़ी समझा था। उनसे फ़रमाया तुमने सुन्नत के मुताबिक़ काम किया, और दोहराने वालों से फ़रमाया तुम्हारे लिए दोगुना (डबल) सवाब है⁷

"यानी हुज़ूर ने दोनों को हक़ और दुरुस्त फ़रमाया,, इन हदीसों से पता चलता है कि इख़्तिलाफ़ के बाद भी दो गिरोह हक़ पर हो सकते हैं जबकि दोनों की नियत सही हो, इन हदीसों से तक़लीदे अइम्मा का इनकार करने वाली नाम निहाद "जमाअ़ते अहले हदीस" को सबक़ लेना चाहिए जो यह कहते हैं कि इख़्तिलाफ़ के बावजूद चारों मसलक यानी "हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी, हंबली" कैसे हक़ पर हो गए ?
हज़रत मौला ए कायनात सैय्यदना व मौलाना अली मुर्तज़ा रदियल्लाहु तआ़ला अन्हु, और सैय्यदना अमीरे मुआ़विया रदियल्लाहु तआ़ला अन्हु में जंग हुई, मगर दोनों का ही एहतिराम किया जाता है,* और दोनों में किसी को बुरा भला कहना सख़्त गुमराही और जहन्नम का रास्ता है⁵

इसकी मिसाल यूँ समझना चाहिए कि जैसे मां और बाप में अगर झगड़ा हो जाए तो औलाद अगर मां को मारे पीटे, या गालियां दे, तब भी बदनसीब व महरूम और अगर बाप के साथ ऐसा बर्ताव करे तब भी, यानी औलाद को उस झगड़े में इजाज़त न होगी कि एक की तरफ़ होकर दूसरे की शान में बेअ़दबी करे,, बल्कि दोनों का एहतिराम ज़रूरी होगा। या किसी शागिर्द के दो उस्तादों में लड़ाई हो जाए तो शागिर्द के लिए दोनों में किसी के साथ बेहूदगी और बदतमीज़ी की इजाज़त न होगी, मक़सद यह कि बड़ों के झगड़ों में छोटों को बहुत एहतियात व होशियारी की ज़रूरत है, इस उन्वान के तहत हमने जो कुछ लिखा है उसका हासिल यह है कि जब तक कोई शख़्स दीन की ज़रूरी बातों का मुन्किर और अक़ीदे में ख़राबी की वजह से इस मंजिल को न पहुंच जाए कि उसको ख़ारिजे इस्लाम और काफ़िर कह सकें, तब तक उसके साथ नरमी का ही बरताव करना चाहिए और समझाने की कोशिश करते रहना चाहिए और ख़ुदाए तआ़ला से उसकी हिदायत की दुआ करते रहना चाहिए⁵

हां वोह लोग जो दीन की ज़रूरी बातों के मुन्किर हों, क़ुरआन व हदीस से साबित सरीह उमूर के क़ाइल न हों या अल्लाह तआ़ला और उसके महबूब सल्लल्लाहु तआ़ला अलैहि वसल्लम और दीगर अम्बिया-ए किराम व औलियाए इज़ाम व उलमाए ज़विल, एहतिराम की शान में तौहीने और गुस्ताख़ियां करते, या गुस्ताख़ाने रसूल की तहरीकों और जमाअ़तों  से क़सदन जुड़े हुए हों, उनकी तारीफ़ करते हों, वह यक़ीनन इस लाइक़ नहीं, बल्कि उनसे जितनी नफ़रत की जाए कम है, क्यूंकि अल्लाह और अल्लाह वालों की शान में गुस्ताख़ी व बेअदबी इस्लाम में सबसे बड़ा जुर्म है, और ऐसे शख़्स की सोहबत ईमान के लिए ज़हरीला नाग है, उलमाए अहले हक़ के दरमियान फ़ुरूई इख़्तिलाफ़ात की सूरत में दोनों जानिब का एहतिराम व अदब मलहूज़ रखने का मशवरा जो हमने दिया है, यह उन्हीं के लिए है जो वाक़ई आलिम हों, फ़क़ीह व मुहद्दिस हों, वरना आजकल के कुछ अनपढ़ जो दो/चार उर्दू की किताबें पढ़कर आलिम बनते या सिर्फ़ तक़रीरें करके स्टेजों पर अल्लामा कहलाते, क़ुरआन व हदीस में अटकलें लगाते हैं, मसाइल में उलमा से टकराते हैं, अपनी दुकान अलग सजाते हैं, यह इसमें दाख़िल नहीं बल्कि यह तो उम्मते मुस्लिमा में रखना अन्दाज़ी करने वाले और फ़ितनापरवर हैं⁵
सय्यदी आला हज़रत फ़रमाते हैं "जहां इख़्तिलाफ़ाते फ़रूईया हों जैसे हनफ़ी और शाफ़ई फ़िरके अहले सुन्नत में वहां हरगिज़ एक दूसरे को बुरा कहना जाइज़ नहीं⁸

ख़ानक़ाही इख़्तिलाफ़ात और इस सिलसिले में सही बात

आजकल ख़ानक़ाही इख़्तिलाफ़ात का भी ज़ोर है, और एक पीर के मुरीद दूसरे के मुरीदों को और एक सिलसिले वाले दूसरे सिलसिले वालों को एक आंख नहीं भाते और उन्हें अपना दुश्मन जानते हैं, और यह इसलिए कि उन्हें इस्लाम व क़ुरआन और अल्लाह व रसूल से मोहब्बत नहीं वरना यह हर मुसलमान और अल्लाह व रसूल पर ईमान रखने वाले से मोहब्बत करते, आजकल कुछ पीर भी ऐसे हैं कि उन्हें अपने ही मुरीद भाते हैं और अच्छे लगते हैं और दूसरों के मुरीदों को देखकर उनका ख़ून खौलता है,... जबकि पीरी और उस्तादी के आदाब व उसूल से है कि वह अपने शागिर्दों और मुरीदों को जहां अपनी ज़ात से अक़ीदत व मोहब्बत सिखाये, वही दूसरे अहले इल्म व फ़ज़्ल व मसाईख़ व सुलहा (नेक लोगों) की बेअ़दबी और गुस्ताख़ी से बचाए, बल्कि मुरीद करने का मक़सद ही उसे बेअ़दबी से बचाना है क्योंकि इसमें ईमान की हिफ़ाज़त है और ईमान बचाने के लिए ही तो मुरीद किया जाता है, और ईमान अदब ही का दूसरा नाम है।

जो पीर मुसलमानों को नफ़रत की तालीम दे रहे हैं और क़ौमे मुस्लिम को टुकड़ों में बांट रहे हैं, मुरीदों को मशाइख़ व उलमा का बेअदब बना रहे हैं वह हरगिज़ पीर नहीं हैं बल्कि वह शैतान का काम कर रहे हैं और इब्लीस का लश्कर बढ़ा रहे हैं, इस बारे में हक़ व दुरुस्त बात यह है कि जो मुसलमान किसी भी सिलसिला ए सहीहा में मुत्तसिलुस्'सिलसिला पाबन्दे  शरअ़ पीर का मुरीद है और उसके अक़ाइद दुरुस्त हैं, वह हमारा भाई है और मुरीद ना भी हुआ हो वह भी यक़ीनन मुसलमान है और उसकी निजात के लिए यह काफ़ी है, मुरीद होना ज़रूरी नहीं, मुसलमान होना ज़रूरी है। मुरीद होना सिर्फ़ एक अच्छी बात है वह भी उस वक़्त जबकि पीर सही हो⁵

दरअसल पीरी व मुरीदी"..... लड़ाई झगड़े और गिरोहबंदी का सबब तब से बनी जब से यह ज़रिया'ए मआ़श और सिर्फ़ खाने कमाने, और लंबे-लंबे नज़रानों के हासिल करने का धंधा बनी है, आज ज़्यादातर पीरों को इस बात की फ़िक्र नहीं के मुरीद नमाज़ पढ़ता है कि नहीं, ज़कात निकालता है कि नहीं, सुन्नी है कि बदअक़ीदा, मुसलमान है कि ग़ैर मुस्लिम, उन्हें तो बस नज़राना चाहिए, जो ज़्यादा लंबी नज़्र दे वही मियां के क़रीब है, वरना वह मियां के नज़दीक बदनसीब है⁵

¹📚 फतावा फैज़ाने इमाम मुहम्मद सफा 90 ता 95
²📚 फतावा रज़विया जिल्द जिल्द 23 सफा 175
³📚 फतावा शारेह बुखारी जिल्द 2 सफा 277
⁴📚 फतावा रज़विया जिल्द 9 सफा 533
⁵📚 ग़लत फ़हमियां और उनकी इस्लाह, सफा 99 ता 104
⁶📚 सहीह बुख़ारी जिल्द: 1 सफा 129
 ⁷📚 निसाई, अबू दाऊद, मिश्कात, बाबे तयम्मुम, सफा 55
⁸📚 अल मलफ़ूज़, हिस्सा अव्वल सफा 51

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*सवाल : -* सोसल मीडिया (व्हाट्स ऐप) पर बाज़ लोग ऐसा करते हैं कि किसी की ज़ाती तहरीर में से उसका नाम हटा कर अपना नाम लिख कर आगे शेयर करते हैं, ऐसा करना कैसा है?

*जवाब :-* किसी की ज़ाती तहरीर से उसका नाम हटा कर उसे अपने नाम से चला देना नाजाइज़ और इल्मी चोरी के ज़ुमरे में आता है, आजकल सोशल मीडिया पर ये सिलसिला काफी आम है कि दूसरे की तहरीर से उसका नाम हटा दिया जाता है और बाज़ तो अपना नाम डाल कर ये तासीर देते हैं की यह तहरीर हमारी है, ये इन्तेहाई मज़मूम अमल और गुनाहों का दरवाज़ा खोलने का मुतरादिफ़ है क्योंकि इस में धोका, लोगो से बगैर काम किए तारीफ चाहना और तहरीर लिखने वाले की दिल आज़ारी है, लिहाज़ा हर किसी को इस अमल से बचना चाहिए.!

अल्लाह पाक फरमाता है : हरगिज़ न समझना उन्हें जो खुश होते हैं अपने किए पर और चाहते हैं कि बे किए उनकी तारीफ हो ऐसों को हरगिज़ अज़ाब से दूर न जानना उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है.!

📕 शरई मसाइल का मजमुआ हिस्सा 4 सफा 77
📚 सुरह आले इमरान आयत 188

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*सवाल : -* ऊनी टोपी को मोड़ के पहने और उसी हालत में नमाज़ पढ़े तो नमाज़ का क्या हुक्म होगा ?

*अल जवाब : -* जाड़े के मौसम में ऊनी टोपी मोड़ कर पहनने का जो रिवाज है वह शरअन कफे सौब नहीं क्योंकि फोकहा की इस्तेलाह में कफे सौब यह है कि आदत के खिलाफ कपड़े को मोड़ कर इस्तेमाल किया जाए और यहां ऐसा नहीं, यह टोपी आम तौर पर मोड़ कर ही इस्तेमाल करने की आदत है, बल्कि बहुत से टोपियां यूंही मोड़ कर पहनी जाती हैं तो यह मोड़ना आदत के मुवाफिक़ है, इसलिए इस तरह ऊनी टोपी मोड़ कर नमाज़ पढ़ना जाइज़ व दुरुस्त है और इसकी वजह से नमाज़ में कोई ज़र्रा बराबर भी कराहत न आएगी¹

आला हज़रत मुहद्दीसे बरेलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं : किसी कपड़े को ऐसा खिलाफे आदत पहनना जिसे मुहज़्ज़ब (तहज़ीब सीखाने वाले) आदमी मजमा या बाज़ार में न कर सके और अगर करे तो बे अदब खफीफुल हरकात समझा जाए यह मकरूह है, इसी तरह फतावा फैजुर रसूल में है !²

²📚 फतावा रज़विया जिल्द 7 सफा 385
²📚 फतावा फैजुर रसूल जिल्द अव्वल सफा 373
¹📚 फतावा मसाइले शरईय्या सफा 172
¹📚 फतावा मरकजे तरबियते इफ्ता जिल्द अव्वल सफा 241

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*सवाल : -*  ताली बजाना कैसा ?

*अल जवाब :-* ताली बजाना कुफ्फार (काफिरों) का तरीक़ा है, कुफ्फार नमाज़ की जगह ताली बजाया करते थे, जैसा कि सरकारे आला हज़रत अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं : ताली बजाना अफ़आले कुफ्फार से है जैसा कि खुद क़ुरआने पाक में मौजूद है {और बैतुल्लाह (का'बा) के पास उनकी नमाज़ सिर्फ सीटियां बजाना और तालियां बजाना ही था}¹

हज़रते सय्यिदुना अब्दुल्लाह बिन अब्बास रदि अल्लाहु अन्हु फरमाते हैं : कि कुफ्फारे कुरैश का'बा शरीफ का नंगे होकर तवाफ करते और सीटियां और तालियां बजाया करते थे²

और सदरुश्शरीआ बदरुत्तरीक़ा हज़रत अल्लामा मौलाना मुफ्ती मुहम्मद अमजद अली आज़मी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं : नाचना, ताली बजाना, सितार, एक तारा दो तारा, हारमुनियम, चंग, तंबूर, बजाना इसी तरह दूसरे किस्म के बाजे सब नाजाइज़ हैं³

नोट : उलमा फरमाते है किसी मजबूरी के सबब ताली बजाना जाइज़ है (जबकि दिल में बुरा जानते हो) एक मिसाल पेश करते हैं जैसे, किसी गैर मुस्लिम से मदद की ज़रूरत हो या कोई दीनी काम जैसे मदरसा या मस्जिद के लिए किसी नेता को बुलाया और यह जानता है कि यह इजाज़त दे देगा तो काम हो जायेगा तो उनके इस्तेकबाल के लिए ताली बजा सकते हैं, क्योंकि उनके इस्तेकबाल के लिए ताली बजाते हैं अब अगर ऐसा न किया जाए तो वो नाराज़ हो जाएंगे और काम रुक जाएगा, ऐसी सूरत में बवजहे मजबूरी बजा सकते हैं इस क़दर कि वह खुश हो जाए और काम न रुके!

¹📚 पारा 9 सूरह 8 अल अंफाल आयत 35
²📚 फतावा रज़विया जिल्द 24 सफा 4
³📚 बहारे शरीअत जिल्द 3 हिस्सा 16 सफा 512
⁴📚 ज़िया ए शरीअत जिल्द अव्वल सफा 100

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*सवाल : -* आख़िर इस में हिक्मत क्या थी कि उस वक़्त हूरें होने के बावजूद हज़रत हव्वा पैदा की गई और हूरें अलहेदा रखी गई ?

*जवाब :-* उस की हिक्मत बिल्कुल ज़ाहिर है कि हुरें सिर्फ़ ख़िदमत और राहत के लिये हैं न कि नस्ल की पैदाईश के लिये क्योंकि नस्ल की पैदाईश अपनी हम जीन्स बीवी से ही हो सकती है और हुरें बशर या इंसान नहीं, वह जन्नत के जाफ़रान से पैदा हुई हैं जैसा कि हदीस शरीफ़ में है इसलिये जन्नत में नस्ल न होगी, सिर्फ़ जज़ा होगी, और उस वक़्त नस्ल की ज़रूरत थी कि दुनिया हज़रत आदम अ़लैहिस्सलाम के नस्ल ही से आबाद होने वाली थी, उसी नस्ल के लिये इन्हें की हम जिन्स बीवी हज़रत हव्वा पैदा हुईं, आज भी इंसान का निकाह जिन्नात गाय भैंस जानवर से नहीं हो सकता कि उस निकाह से नस्ल हासिल नहीं हो सकती !

*📗 हम से पूछिए सफ़ा 124*

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*सवाल : -* अगर किसी ने फ़र्ज़ नमाज़ में किसी रकअत के अंदर एक (किया और एक) सजदा करना भूल गया फिर आखिर में याद आया तो क्या करें ?

*जवाब : -* नमाज़ में दोनों सजदे करना फ़र्ज़ है अगर एक छूट गया तो इसकी तलाफी सजदा ए सहव से भी नहीं होगी, बल्कि आखिर में एक सजदा और कर ले जो फर्ज वाला बाक़ी था फ़िर अत्तहिय्यात पढ़े और सजदा ए सहव कर के फिर अत्तहिय्यात वगैरा पढ़ कर नमाज़ मुकम्मल करे तो उसकी नमाज़ हो जायेगी, 

और अगर सलाम फेर देने के बाद याद आया तो अभी तक किसी से बात चीत न किया हो अपनी जगह पर ही है तो एक छूटा हुआ सजदा करे फिर अत्तहिय्यात पढ़े और सजदा ए सहव कर के अत्तहिय्यात वगैरा पढ़ कर नमाज मुकम्मल करे तो उसकी नमाज़ हो जायेगी

और अगर सलाम व कलम (बात चीत) कर लिया उसके बाद याद आया कि फ़र्ज़ का एक सजदा रह गया था तो अब नमाज़ को शुरू से पढ़े!

*📬 फतावा मसाइले शरईय्या जिल्द 3 सफा 305 +306 📗*

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*सवाल : -* इमाम साहिबे तरतीब नहीं है उन से सुबह फजर की नमाज़ नींद के गलबा की वजह से क़ज़ा हो गई अब वो जुमुआ की नमाज़ पढ़ाने आए हैं तो क़ज़ा पढ़ा फिर नमाज़ पढ़ाए तो इनके पीछे नमाज़ का क्या हुक्म होगा¹ ? और अगर बगैर क़ज़ा पढ़े जुमुआ पढ़ा दिया तब क्या हुक्म होगा² ?

*जवाब :-* अगर किसी की नमाज़ सोने की वजह से या भूलने की वजह से क़जा हो जाए तो बेदार होने पर पढ़ ले जबकि मकरूह वक़्त न हो कि उसका वही वक़्त है तो उस पर क़ज़ा का गुनाह भी न होगा, जैसा कि हदीस शरीफ़ में है, हुज़ूर ﷺ ने फरमाया कि सोते में (अगर नमाज़ जाती रही) तो क़ुसूर नहीं, क़ुसूर (कोताही) तो बेदारी (जागने) में है। एक दूसरी हदीस में है हुज़ूर ﷺ ने फरमाया जो नमाज़ से सो जाए या भूल जाए तो जब याद आए पढ़ ले कि वही उसका वक़्त है

और अल्लामा सद्रुश शरीआ अलैहिर्रहमा फरमाते हैं सोते में या भूले से नमाज़ क़ज़ा हो गई तो उसकी क़ज़ा पढ़नी फर्ज़ है, अलबत्ता क़ज़ा का गुनाह उस पर नहीं मगर बेदार होने और याद आने पर अगर वक़्त मकरूह न हो तो उसी वक़्त पढ़ ले ताखीर मकरूह है। हां अगर बेदार होने पर वक़्त मकरूह न था फिर भी न पढ़ा तो क़ज़ा का गुनाह होगा लेकिन जब भी पढ़ेगा क़ज़ा इस के ज़िम्मे से साक़ित हो जाएगी

चूंकि सवाल में मज्कूर है कि क़ज़ा को इमाम ने अदा कर लिया तो कोई कबाहत नहीं, और अगर क़ज़ा भी न पढ़ी जब भी नमाज़े जुमुआ हो जाएगी हां अगर साहिबे तरतीब से फजर क़ज़ा हो जाए फिर (क़ज़ा) पढ़े बगै़र जुमुआ़ की नमाज़ पढ़ाए तो नमाज़ न होगी जबकि क़ज़ा याद हो और क़ज़ा पढ़ने के लिए वक़्त में गुंजाइश हो!..✍🏻

*📬 फतावा मसाइल शरइय्या जिल्द सोम सफा 432+433 📗*

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*सवाल : -* क्या कोई कुंवारी औरत दूसरे के घर जा कर पढ़ा सकती है ?

*जवाब : -* अगर वोह मुंदरजा ज़ेल (5) शर्तों पर अमल करती है तो जाइज़ है!

{1} कपड़े बारीक न हों, जिन से सर के बाल या कलाई वगैरा का कोई हिस्सा चमके!

{2} कपड़े तंग व चुस्त न हों, जो बदन की हय्यात यानी सीने का उभार या पिंडली वगैरा की गोलाई ज़ाहिर करे!

{3} बालों या गले या पेट या कलाई या पिंडली का कोई हिस्सा ज़ाहिर न होता हो!

{4} ना महरम के साथ खफीफ (यानी मामूली सी) देर के लिए भी तन्हाई न होती हो!

{5} उसके वहां आने जाने में फितना का गुमान न हो यह पांचों शर्तें अगर जमा (मौजूद) हैं तो हरज नहीं और इन में से एक भी कम है तो हराम है¹

*नोट : -* इस ज़माने में पांचों शराईत पर अमल मुश्किल तरीन है

*दर्से हिदाया :-* बिला ज़रूरत किसी भी औरत को घर से बाहर जॉब करना दुरुस्त नहीं, क्योंकि औरत घर में ही अच्छी लगती है और बिला ज़रूरत भी घर में कर सकती है, जैसे कुछ बच्चों को पढ़ाए ट्यूशन के तौर पर वगैरा, और अगर कोई शरई मजबूरी हो कि कोई कमा कर देने वाला नहीं है और उसे अपना घर वगैरा भी चलाना है तो इस सूरत में जो ऊपर शर्त है उसके पेशे नज़र कर सकती है, मगर ऐसी ही जॉब करे जिस में यह सारी शर्तें पाई जाए, वरना आपकी दुनिया तो सवर सकती है मगर आखिरत बर्बाद होगी, मौला अमल की तौफीक दे!...✍🏻

¹📗 फतावा रज़विया जिल्द 22 सफा 248
¹📚 ज़िया ए शरीअत जिल्द अव्वल सफा 111

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*सवाल : -* नापाक तहबंद पहन कर गुस्ल करने से पाक होगा या नहीं ?

*जवाब : -* नजिस कपड़ा पहन कर ग़ुस्ल करने से भी ग़ुस्ल हो जाएगा बशर्ते कि कपड़े पे बहुत पानी डाले कि वो पाक हो जाएगा, और जब कपड़ा पाक हो जाएगा तो ग़ुस्ल भी हो जाएगा

मगर उमूमन लोग बहुत ज़ियादा पानी नहीं डालते, जिससे नजासत और फैल जाती है बल्कि हाथ में नजासत लग जाती है फिर बेएतियाती से सारा बदन यहाँ तक कि बर्तन भी नजिस हो जाता है इसलिए पाक ही कपड़ा पहन कर ग़ुस्ल करना चाहिए और या तो महफूज़ मकाम पर नंगे नहाना चाहिए, हाँ अगर नदी वगैरा में ग़ुस्ल करे, और नजासत ऐसी हो के बगैर मले ज़ाइल न हो तो इसे मल कर धोए, और अगर (नजासत) ऐसी न (यानी मलने वाले के इलावा) हो तो पानी के धक्के और बहाव से कपड़ा खुद ब खुद पाक हो जाएगा, जब भी ग़ुस्ल हो जाएगा¹

*¹📚 फतावा मसाइले शरईय्या जिल्द 2 सफा 172*

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*सवाल : -* ज़ैद ने अपनी बीवी से कहा "तू मेरी बीवी नहीं" तो इस सूरत में तलाक़ होगी या नहीं ?

*जवाब :-* यह जुम्ला कि "तू मेरी बीवी नहीं" मज़हबे मुख्तार पर बिलकुल्लिय्या अल्फाज़ तलाक़ से नहीं है, अगर बनिय्यते तलाक़ कहा जब भी (तलाक़) नहीं होगी¹

(और अगर) ज़ैद ने अपनी बीवी के मुतअल्लिक यह कहा "तू मेरी बीवी नहीं और मैं तेरा शौहर नहीं" और इस जुमला के कहने के वक़्त ज़ैद ने तलाक़ की निय्यत भी कर ली थी, तो ज़ैद को बीवी पर इस जुमला से एक तलाक़े रजई वाक़ेअ होगी²

*सबक : -* तलाक़ की बारीकी इतनी ज़ियादा है कि आप ऊपर के दो मसअले बज़ाहिर एक ही जुमला है मगर हुक्म अलग अलग है इस से अंदाज़ा लगा ही लिए होंगे, जान लीजिए कि कोई भी अल्फाज़ जब तक यह दलालत न करे यानी जिस लफ़्ज़ से यह ज़ाहिर न हो कि अपनी बीवी को तलाक़ दे रहा है तो उस सूरत में तलाक़ की निय्यत शामिल होने के बाद भी तलाक़ नहीं होगी, इसी तरह बसों औक़ात ऐसा जुमला बोल देते हैं जिस में बज़ाहिर तलाक़ के लफ़्ज़ मौजूद नहीं होते हैं मगर बिना निय्यत के भी तलाक़ हो जाती है, इसलिए जब कभी भी इस तरह के कोई मसअला दरपेश आए तो हमें चाहिए कि अज़ खुद नतीजा निकालने के बजाए मुफ्तियाने किराम से पूरा वाक़िया सही से बयान करे और उनसे सही जवाब तलब करे!

*नोट :-* मज्कूरा अल्फाज़ "तू मेरी बीवी नहीं है" में फोक़्हा का इख्तेलाफ भी है इस लिए इसे बोलने से परहेज करे और कोई बोल दे तो बजाए खुद फतवा देने के किसी अच्छे मुस्तनद मुफ्ती साहब से राब्ता करे!

¹📚 फतावा सिरावस्ती जिल्द 2 सफा 77
²📚 फतावा सिरावस्ती जिल्द 2 सफा 74

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*सवाल : -* मेराज का सफर कितने साल का था ? और आपने कितने वक़्त सफर तय फरमाए ?

*जवाब : -* सफर एक आन में, जब आप तशरीफ लाए तो बिस्तर भी गर्म था और जंजीर भी हिल रही थी, मगर यह सफर आपका अस्सी हजार साल का था¹

दर्से हिदाया: बेशक मेराज हक़ इसका इनकार बाज़ सूरतों में काफिर और बाज़ सूरतों में गुमराह क़रार दिया जाएगा, जैसे क़ुरआने पाक में जो ज़िक्र है कि बैतूल मुक़द्दस तक का सफर, इसका इनकार करने वाला काफिर हो जाएगा, इससे आगे आसमानों वगैरा का हदीसों से साबित है उस पर गुमराही का हुक्म आएगा²

एक हदीसे पाक पेश की जाती है कि अम्मा आएशा सिद्दीक़ा रदि अल्लाहो तआला अन्हा फरमाती हैं कि जिसने ये कहा की नबी ए करीम ﷺ ने शबे मेराज में अल्लाह तआला को अपनी आंखों से देखा तो उसने हुज़ूर पर झूट गढ़ा, और फिर आयत पेश की, कि कोई भी आंख अल्लाह तआला का इहाता नहीं कर सकती, इसको दलील बना कर कुछ एतराज़ करने वाले कहते हैं कि देखो खुद आएशा सिद्दीक़ा फ़रमा रही है, तो क्या ये झूट कह रही है ? और हम अहलेसुन्नत हज़रत इब्ने अब्बास रदि अल्लाहु तआला अन्हु की रिवायत को फौक़ियत देते हैं जिस में साबित है कि हुज़ूर ﷺ ने अल्लाह तआला को शबे मेराज में अपनी आंखों से देखा, इसके बारे में उलमा ने कुछ यूं फरमाए हैं 

कि उस वक़्त अम्मा आएशा सिद्दीक़ा तीन साल की थी और चूंकि आप उस वक़्त रूखसती नहीं हुई थी यानी अपने घर में ही रहती थी, तो ज़ाहिर है कि आपने खुद हुज़ूर से नहीं सुनी थी, अगर ऐसा होता तो अम्मा आएशा सिद्दीक़ा हदीस पेश करती, कि तुम कहते हो, हालांकि नबी ने मुझसे फरमाया मैने नहीं देखा, उन्होंने यह नहीं किया बल्कि आपने क़ुरआन की वो आयात पेश की जिस में, यह था कि कोई भी आंख अल्लाह को इहाता नहीं कर सकती, गोया कि उनका अपना इस्तदलाल था, यानी आपने खुद गौरो तफक्कुर किया कि जब अल्लाह यह फरमा रहा है कि कोई आंख इहाता नहीं कर सकती, तो सरकार ने नहीं देखा तो तुम क्यों बयान कर रहे हैं

जबकि हज़रते इब्ने अब्बास ने फरमाए कि देखे हैं तो चूंकि आप मर्दों में रहते थे, और मर्दों में चूंकि यह बात आम थी, तो मर्दों की गवाही का एतबार किया जाएगा, तो एक तरफ हदीस है और एक तरफ अम्मा आएशा सिद्दीक़ा रदि अल्लाहो तआला अन्हा इस्तेहाद है, ये मुसल्लमा उसूल है कि जब क़ुरआन और हदीस टकरा जाए तो, दरमियान रास्ता निकाले जिस से दोनों पर अमल हो जाए मगर जब टकराव खत्म न हो तो हम क़ुरआन इख्तियार करेंगे हदीस नहीं, और अगर हदीस और इस्तेहाद के अंदर टकराव पैदा हो जाए तो हदीस को लिया जाएगा और इस्तेहाद छोड़ा जाएगा, लिहाज़ा चूंकि जियारत हदीस से साबित है और इसका इनकार अम्मा आएशा सिद्दीक़ा रदि अल्लाहो तआला अन्हा इस्तेहाद से साबित है।

और हमारे बाज़ उलमा ने फरमाए कि अगर इस में गौर किया जाए तो कोई इख्तेलाफ है ही नहीं, इसलिए कि जो साहब ए किराम जियारत का दावा कर रहे हैं वो, वो जियारत है जिस में अल्लाह की जात का इहाता (घेराव) नहीं, ज़ियारत दो तरह की है जैसे कोई इंसान दूसरे को सामने से देखे तो पूरा देख पाएगा यानी इहाता (घेराव) कर ले रहा है, और दूसरा इस तरह देखना जैसे आप किसी बड़ी दीवार के बिलकुल क़रीब मस (टच) हो कर देखे तो जितनी आंख दीवार को देख सकती है बस उतना ही देखा गया यानी पूरी दीवार को आपने इहाता (घेराव) नहीं कर लिया

तो सहाब ए किराम ने जिसका दावा किए वो यही था यानी आप ﷺ ने अल्लाह का जियारत भी कर लिए और इहाता (घेराव) भी नहीं हुआ, और अम्मा आएशा सिद्दीक़ा रदि अल्लाहो तआला अन्हा जिस ज़ियारत का इनकार कर रही है वो वही है जिस में इहाता (घेराव) पाया जाए, गोया कि अम्मा आएशा अम्मा आएशा सिद्दीक़ा फरमा रही है कि कि सरकार ने देखा तो है मगर तुम ये दावा करो कि जैसे एक इंसान दूसरे को देख कर निगाहों ने इहाता कर लिया हो, तो उसने नबी ए करीम पर झूट बांधा, इसलिए कि कोई भी आंख अल्लाह का इहाता नहीं कर सकती, और बरोज़े कियामत मोमिन भी अल्लाह को देखेंगे तो फिर वो सब कैसे होगा, यही बेहतरीन इसकी तशरीह है, और जब एक आम मोमिन भी देखेंगे तो दुनिया में ही हुज़ूर ﷺ ने जियारत कर लिए तो कोन सा ताज्जुब वाली बात है! *वल्लाहु आलम*

¹📚 मुस्तंद इस्लामिक मालूमात सफा 19
²📚 खजाइनुल इरफान सूरह बनी इसराइल आयत 1 के तहत सफा 255

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*सवाल : -* हुज़ूर ﷺ को आलिमुल गैब कहना कैसा ?

*जवाब :-* मना है, बाज़ (कुछ) अल्फाज़ की खुसूसिय्यत होती है कि वह अल्लाह तआला के साथ खास होते हैं उनका इतलाक (बोलना, इस्तेमाल) अल्लाह तआला के इलावा किसी पर नहीं होता, जैसे रहमान कि अगरचे हुज़ूर ﷺ रहमतुललिल आलमीन है मगर हुज़ूर ﷺ को रहमान कहना मना है, इसी तरह अगरचे हुज़ूरे अक्दस ﷺ गैब जानते हैं मगर आलिमुल गैब कहना मना है, मगर वहाबी इस से ये मुराद लेते हैं कि हुज़ूरे अक्दस ﷺ गैब नहीं जानते, यह उनकी गुमराही है।¹

अहले सुन्नत व जमाअत जिसे पहचान या इम्तियाज़ के लिए इस ज़माने में मसलके आला हज़रत से ताबीर करते हैं उनका अकीदा है कि हुज़ूरे अक्दस ﷺ आलमे गैब है मगर आलिमुल गैब नहीं, हुज़ूर ताजुश शरीआ अलैहिर्रहमा इरशाद फरमाते हैं बेशक आलिमुल गैब का इतलाक गैरुल्लाह के लिए रवां नहीं, और रहा आपकी निस्बत हमारा यह कहना कि हुज़ूर ﷺ आलिमुल गैब हैं बिलकुल इफ्तरा (इल्ज़ाम, बोहतान) है इसका इतलाक (बोलना) गैरे खुदा के लिए हम अहले सुन्नत व जमाअत के नज़दीक हराम व नाजाइज़ है²

मज्कूरा हवालों से अहले सुन्नत व जमाअत का अकीदा साबित हो गया कि रसूल अल्लाह ﷺ के लिए आलमे गैब का अकीदा रखना चाहिए आलिमुल गैब का नहीं, आलिमुल गैब खुदाए तआला की ज़ात है। अब रहा कि इन दोनों के दरमियान फ़र्क क्या है ? तो फ़र्क यह है कि आलिमुल गैब का इतलाक किया (बोला) जाता है ज़ाती (यानी जो खुद का हो उस) पर और आलमे गैब का इतलाक होता है अताई (जो किसी को दिया गया हो उस) पर

¹📚 फतावा शारेह बुखारी जिल्द अव्वल सफा 448
¹📚 फतावा गौसो ख़्वाजा जिल्द अव्वल सफा 94
²📚 अनवारे रज़ा सफा 35+134

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*सवाल : -* तौरिया करना कैसा ?

*जवाब : -* बिला ज़रूरत तौरिया करना शरअन नाजाइज़ है और इस पर गुनाह भी मिलेगा जैसा कि बहारे शरीअत में है, तौरिया यानी लफ्ज़ के जो ज़ाहिर मा'ना हैं वह गलत हैं मगर उसने दूसरे मा'ना मुराद लिए जो सही है ऐसा बिला हाजत जाइज़ नहीं और हाजत हो तो जाइज़ है, तौरिया की मिसाल यह है कि तुम ने किसी को खाने के लिए बुलाया वह कहता है मैने खाना खा लिया, उस के ज़ाहिर मा'ना यह है कि उस वक़्त का खाना खा लिया है मगर वह यह मुराद लेता है कि कल खाया है यह भी झूट में दाखिल है¹ (इसलिए यहां तौरिया करना जाइज़ नहीं था)²

*दर्से हिदाया :-* इस में अक्सर लोग जो आजिज़ी के इज़हार में सोचते हैं कि मना कर दो और हम तो अपनी जगह दुरुस्त ही मा'ना (मायना) मुराद लिए हैं तो हमारी गिरफ्त नहीं होगी, ऐसे शख्स के लिए खास नसीहत है कि यह झूट ही है इस से बचना ज़रूरी है और यह आपकी आजिज़ी किसी काम की नहीं उल्टा आप गुनहगार ही ठहरेंगे, बल्कि आप उनके लिए दुआ के अल्फाज़ कहे जैसे कि अल्लाह तआला बरकत दे, ज़ियादा दे वगैरा *वाल्लाहु तआला आलम"*

¹📗 बहारे शरीअत हिस्सा 16 सफा 518
¹📚 100 शरई मसाइल का मज्मूआ़ हिस्सा 1 सफा 84

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*सवाल : -*  इल्म अफ़ज़ल है या अदब ?

*जवाब :-* अदब इल्म से अफ़ज़ल है : हमारे बड़े पीर हुज़ूर गौसे आज़म रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु फरमाते हैं कि हर मोमिन पर वाजिब है कि अदब को इख़्तियार करे और बयान करते हैं कि मुरादे मुस्त़फा अमीरुल मोमिनीन हज़रते उमर फारूक़ रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु ने फरमाया : कि पहले बाअदब हो जाओ फिर इल्म सीखो, 

अबू अब्दुल्लाह बलखी रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु फरमाते हैं कि अदब पहले, इल्म बाद में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु फरमाते हैं कि जब मुझ से बयान किया जाता है कि फलां आ़लिम को तमाम अगलों और पिछलों के बराबर इल्म है तो मुझे उससे मुलाक़ात न होने का अफ़सोस नहीं होता लेकिन अगर मुझे मालूम हो जाए कि फलां शख्स को अदबे नफ़्स हासिल है तो मुझे उस से मिलने की आरज़ू होती है और मुलाक़ात न होने का अफसोस होता है!

*नोट : -* अदब अफ़ज़ल है इसकी वजह यह है कि इल्म हर किसी के पास हो सकता है सीख भी सकता है मगर जिस के पास अदब न हो तो इल्म बेकार है, और खुद अदब भी एक इल्म का ही हिस्सा है यानी किसी चीज़ का किसी की ताज़ीम करने वाला इल्म, इसकी छोटी सी मिसाल यह है कि इल्म शैतान के पास भी था फिर भी उसने इंकार किया और काफिरों में से हो गया, और फरिश्तों के पास अदब था उसने इकरार और ताज़ीम किया और सजदा किया !

📚 अनवारूल बयान सफा 587

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*सवाल : -* आजकल मुसल्मान वलियों, नबीयों को पूजते हैं, उनकी क़ब्रों पर चढ़ावे, कब्रें, चूमना, क़ब्रों पर चादरें चढ़ाना, उनका एहतेराम करना, यह सब उनकी इबादत है कुफ़्फ़ार व मुशरिकीन बुतों को पूजते थे, और यह क़ब्रों को, अल्लाह तआ़ला ने हुक्म दिया कि सिर्फ़ अल्लाह को पूजो (वहाबी नजदी)

*जवाब : -* इस सवाल के दो जवाब हैं एक इल्ज़ामी दूसरा तहक़ीक़ी, इल्ज़ामी जवाब तो यह है कि अगर चढ़ावा चढ़ाना अदब करना इबादत है तो काबा शरीफ़ पर ग़िलाफ़ चढ़ाना काबा की इबादत हुई, मक़ामे इब्राहीम पर बोसा देना उस पत्थर की इबादत हुई, संगे असवद और उलमाए देवबंद के हाथ चूमना, यह सब इबादतें हुईं और सब ग़ैरुल्लाह के पुजारी हुए ? तहक़ीक़ी जवाब यह है कि इबादत हर वक़्त वह ताज़ीम है जो किसी को ख़ुदा की मिस्ल मान कर की जाए, जब तक कि अक़ीदा न हो कोई ताज़ीम इबादत नहीं होती, इबादत में अपनी अबदियत और  दूसरे की माबूदियत का अक़ीदा ज़रूरी है !

📚 हम से पूछिए सफ़ा 129 + 130

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*सवाल : -* क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस वाक़िआ के बारे में कि या जुनैद या जुनैद कहने से एक शख्स दरिया पार कर गया और फिर वही शख्स जब अल्लाह अल्लाह कहता तो दरिया में डूबने लगता था, क्या यह वाक़िआ सही है ?

*अल जवाब : -* या जुनैद या जुनैद कह कर दरिया पार करने का वाक़िआ़ बेशक मुस्तनद व मोतबर है, जैसा कि फकीहे मिल्लत मुफ्ती जलालुद्दीन अहमद अमजदी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि : या जुनैद या जुनैद कह कर दरिया पार करने का वाक़िआ़ मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी अलैहिर्रहमा का बयान फरमाना और इमामुल फोक़्हा हुज़ूर मुफ्ती आज़म हिंद अलैहिर्रहमा का उसे मल्फूज़ में तहरीर फरमाना वाक़िआ़ मज्कूरा के मुस्तनद होने की खुली हुई दलील है

लिहाज़ा ज़ैद का इसको बयान करना दुरुस्त है और बकर का इस वाक़िआ़ को बे बुन्याद बे अस्ल कहना और उसे गुमराह कुन क़रार देना गलत है, अगर कोई कहे कि या जुनैद या जुनैद कहे तो न डूबे और अल्लाह अल्लाह कहे तो डूब जाए यह कैसे हो सकता है, तो ऐसा कहने वाले को सूबा महाराष्ट्र में भेज दिया जाए कि इसी शहर के क़रीब हज़रत क़मर अली दरवेश अलैहिर्रहमा का मज़ारे मुबारक है,

वहां एक बड़ा गोल पत्थर है जिसका वज़न नौ किलो बताया जाता है वह "क़मर अली दरवेश" कहने पर उंगलियों के मामूली सहारा देने से ऊपर उठता है और अल्लाह कहने से नहीं उठता, मैं खुद इसका तजुर्बा कर चुका हूं इस में क्या राज़ है अल्लाह ही बेहतर जाने !

सबक एडमिन : इस में यह न सोचे कि (mazallah) अल्लाह के नाम से बड़ा जुनैद बगदागी अलैहिर्रहमा का नाम और मर्तबा है, यह सब हर अक्ल में आने वाली चीज़ नहीं है, उस वाक़िआ का तशरीह कुछ यूं है कि उस शख्स ने जब अल्लाह का नाम लेना शुरू किया था तो अपने मन से नहीं बल्कि उसे शैतान ने वर्गलाया था, इस वजह से ऐसा हुआ यानी आप किसके कहने पर गए हो यह देखे, हो सकता है अल्लाह की हिक्मत ही यही हो कि मेरे महबूब बंदे का नाम लो, बहर हाल जब दरिया पार हो गया तब आप अलैहिर्रहमा से अर्ज की कि ऐसा क्यों हुआ कि अल्लाह का नाम लूं तो डूब जाऊं और आपका नाम लूं तो पानी पर चलने लगूं, तो आपने जवाब में इरशाद फरमाए तू अभी जुनैद तक नहीं पहुंचा अल्लाह तक पहुंचने की बाते कर रहा है.! (वल्लाहु आलम)

📚 फतावा मसाईले शरईय्या जिल्द अव्वल सफा 316

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*सवाल :-* इल्म अफ़ज़ल है या अदब ?

*जवाब : -* अदब इल्म से अफ़ज़ल है : हमारे बड़े पीर हुज़ूर गौसे आज़म रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु फरमाते हैं कि हर मोमिन पर वाजिब है कि अदब को इख़्तियार करे और बयान करते हैं कि मुरादे मुस्त़फा अमीरुल मोमिनीन हज़रते उमर फारूक़ रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु ने फरमाया : कि पहले बाअदब हो जाओ फिर इल्म सीखो, 

अबू अब्दुल्लाह बलखी रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु फरमाते हैं कि अदब पहले, इल्म बाद में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक रदि अल्लाहु तआ़ला अन्हु फरमाते हैं कि जब मुझ से बयान किया जाता है कि फलां आ़लिम को तमाम अगलों और पिछलों के बराबर इल्म है तो मुझे उससे मुलाक़ात न होने का अफ़सोस नहीं होता लेकिन अगर मुझे मालूम हो जाए कि फलां शख्स को अदबे नफ़्स हासिल है तो मुझे उस से मिलने की आरज़ू होती है और मुलाक़ात न होने का अफसोस होता है!

*नोट :-* अदब अफ़ज़ल है इसकी वजह यह है कि इल्म हर किसी के पास हो सकता है सीख भी सकता है मगर जिस के पास अदब न हो तो इल्म बेकार है, और खुद अदब भी एक इल्म का ही हिस्सा है यानी किसी चीज़ का किसी की ताज़ीम करने वाला इल्म, इसकी छोटी सी मिसाल यह है कि इल्म शैतान के पास भी था फिर भी उसने इंकार किया और काफिरों में से हो गया, और फरिश्तों के पास अदब था उसने इकरार और ताज़ीम किया और सजदा किया !

*📚 अनवारूल बयान सफा 587*

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*सवाल :-* क्या सच्ची तौबा से नमाज़ क़ज़ा का गुनाह मुआफ हो जाएगा ?

*जवाब : -* सच्ची तौबा से क़ज़ा करने का गुनाह मुआफ हो जाता है अलबत्ता तौबा उसी वक़्त सही होगी जबकि छूटी हुई नमाज़ की क़ज़ा पढ़ ली जाए, अगर नमाज़ की क़ज़ा न पढ़ी तो ये तौबा क़ुबूल न होगी!

*सबक : -* आज अक्सर आवाम तौबा का दुरुस्त मफ़हूम ही नहीं समझती, कुछ तो ये समझ लेते हैं कि दोनों हाथों को दोनों रुखसार (गाल) पर जल्दी जल्दी पलट पलट कर फेर लो, कुछ यह समझते हैं कि फ़क़त ज़ुबान से अस्तगफिरुल्लाह पढ़ लो, तो हमारे सारे गुनाह जो हमने किए वो सब धूल गए, असल मसअला यह है कि इंसान जो गुनाह किया है उससे वो नादिम हो, शर्मिंदा हो, और आगे वो गुनाह न करने का पुख्ता इरादा कर ले, और अगर उसके गुनाह ऐसे थे जिसकी क़ज़ा करने का हुक्म शरीअत देती है तो उस क़ज़ा को भी मुकम्मल अदा करना शुरू कर दे, तब जा के ये कहा जाएगा कि हाँ उसकी तौबा क़ुबूल हुई है, इसी तरह किसी का माल दबाया हो तो उसे वापस कर दे तब मुकम्मल होगा, वरना सिर्फ ज़ुबानी ज़बां खर्च करने से और अमल से ऐसा कुछ ज़ाहिर न करना जिससे उसके शर्मिंदगी का पता चले तो ये तौबा के क़ुबूल होने की अलामत नहीं है!

*¹📗 ज़रूरिय्याते दीन सफा 73*

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*सवाल :-* हमनें तो अपना मान कर उनको गले लगाया था, पत्थर को हमने पूज खुदा बनाया था" अगर कोई शख्स इस जुमलों पर अपने होंट हिला कर वीडियो बना कर, फेसबुक (व्हाट्स ऐप) पर डालता है और लोग देख कर कमेंट में तारीफ करते हैं, तो उन सबका क्या हुक्म है ?

*जवाब :-* पत्थर को हमनें पूज खुदा बनाया था, यह जुमला कुफ्र है उस पर होंट हिलाने वाला तौबा तजदीदे ईमान (और शादी शुदा हो तो तजदीदे) निकाह भी करे, और जिन लोगों ने उस पर कमेंट किया है वह सब भी तौबा करे कमेंट करने वालों ने गाने को सही समझ कर उस पर कमेंट किया तो वह भी तौबा तजदीदे ईमान निकाह करे और अगर सिर्फ उसकी एक्टिंग देख कर कमेंट किया है तो भी तौबा करे, कि गुनाहों के काम पर उसकी तारीफ है¹

*दरसे हिदाया : -* आज हमारे तकरीबन आधे से ज़ियादा मुसलमान इन्हीं सब में मुब्तिला हैं और कुछ इसी में अपना ईमान बर्बाद कर रहे हैं, इल्मे दीन से तो वाकिफ है नहीं, कि कम से कम यह पता रहे कि कौनसा गाना कुफ़्रिया है और कौनसा नहीं, और स्टेटस पर लगा कर दूसरों को दिखाते हैं, अव्वल तो गाना खुद नाजाइज व हराम चीज़ है, फिर पता नहीं उन लोगों के अंदर कौनसा कीड़ा काटता है जो  स्टेटस पर लगा कर गुनाहे ज़ारिया करते हैं और बसों अवक़ात अपना ईमान बर्बाद भी करते हैं और दूसरों का भी, और काफी कम तादाद होती हैं उन लोगों की जो उनकी एक्टिंग को लाइक करते हैं, वरना तकरीबन हर नौजवान जो नाच गाने और मुजरा को पसंद करते हैं वो उन सब बोल (गाने) को ही पसंद करते हैं और अपना ईमान गवां बैठते हैं, आज कल 30, 30 सेकंड के ऐसे ऐसे वीडियो कुफ्रिया गाने और डायलॉग आवाम में फैला हुआ है, जो महज़ (सिर्फ) स्टेटस लगाने और उनको लाइक करने से ईमान चला जाता है

खुदारा इन चीज़ों से दूर रहिए, आग से खेलना बंद करो, वरना ज़रूर जल के राख हो जाओगे, दुनिया में भी मरोगे (बुग्तोगे) और आख़िरत में मरना (भुगतना) तो तय है ही, खुलासा यह कि अगर कुफ़्रिया गाने को स्टेटस में लगाए तो कुफ्र, उस पर कोई उस स्टेटस को पसंद कर के खुद में रख लिया तो उसका ईमान भी गया, (क्योंकि उन सभी ने उस कुफ्र को पसंद किया) और किसी ने उस पर फ़क़त उसकी एक्टिंग को पसंद कर के कमेंट किया तो कुफ्र तो नहीं मगर हराम ज़रूर है, और आज कल काफी लोग को कमेंट करते हैं वो एक्टिंग को नहीं बल्कि पूरे 30 सेकिंड के वीडियो को पसंद करते हैं, तो अगर यह मकसद हुआ तो ये भी ईमान से गए!

इन से करोड़ हां गुना बेहतर है कि दीन के क़रीब रहो और बजाए स्टेटस पर गाना लगाने के नात ए पाक या आज कल इस्लाही वीडियो (जिस में तस्वीर न हो वो) भी 30 सेकंड की आती है उसे लगाए और लोगों में सवाबे जारिया के मुस्तहिक़ बने, और जिन के स्टेटस पर गाने बाजे कभी देखे तो उन्हें तंबीह करे और अच्छी चीज़ लगाने की तरगीब दे, अल्लाह करे हमारी बातें हमारे उन सभी मुसलमान भाई बहनों के ज़ेहन में उतर जाए और अमल की तौफीक़ नसीब हो जाए!

*¹📚 फतावा फैज़ाने इमाम मुहम्मद सफा 38*

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*सवाल :-* क़ुरआन अफ़ज़ल है या नबी ए करीम ﷺ अफ़ज़ल है ?

*जवाब : -* असल मसअला समझने के लिए पहले क़ुरआन के दो इतलाक़ (यानी दो चीज़ों पर बोले जाने) को ज़ेहन नशी कर लीजिए। क़ुरआन हक़ीक़त में अल्लाह का कलाम और उसकी सिफत है, जो वाजिब क़दीम गैरे मख्लूक़ है, यह क़ुरआन का हक़ीक़ी मा'ना है

लेकिन हमारे उर्फ में क़ुरआन उस मुस्हिफ यानी किताब को कहा जाता है जिस में क़ुरआन लिखा हो, मसलन बोलते हैं, यह क़ुरआन मजीद बहुत खूबसूरत लिखा हुआ है, इस क़ुरआन मजीद का हदिया क्या है, फुलां ने क़ुरआन मजीद को मस्जिद में वक़्फ किया, क़ुरआन मजीद की सुनहरी जिल्द बंधवा दो वगैरा वगैरा, इन तमाम मुहावरात में क़ुरआन से मुराद मुस्हिफ और किताब है, और यह बिला शुबा हादिस (यानी पहले न थे फिर मौजूद हुवे) और मख्लूक़ है

क़ुरआन बा मा'ना अव्वल यानी अल्लाह की सिफत क़दीम तमाम मख्लूक़ात से हत्ता (यहां तक) कि खुद हुज़ूरे अक़्दस ﷺ से भी अफ़ज़ल है, इस मा'ना अगर किसी को क़ुरआन से अफ़ज़ल बताना कुफ्र है, लेकिन बा मा'ना मुस्हिफ मख्लूक़ और हादिस ये, इस से हुज़ूर ﷺ का अफ़ज़ल होना बिल्कुल वाज़ेह है क्योंकि उम्मत का इस पर इत्तेफ़ाक़ है, कि नबी ए करीम ﷺ तमाम मखलुक़ात से अफ़ज़ल है

आला हज़रत फाज़िले बरैलवी अलैहिर्रहमा फरमाते हैं क़ुरआन से मुराद अगर मुस्हिफ (किताब) हो यानी कागज़ रोशनाई किताब, तो कोई शक नहीं कि वह हादिस है, और हर हादिस मख्लूक़ है, तो हुज़ूर ﷺ उस से अफ़ज़ल है, और क़ुरआन से मुराद अल्लाह का कलाम और उसकी सिफत (खूबी) हो तो कोई शक नहीं के अल्लाह तआ़ला की सिफ़ात (खूबियां) तमाम मख्लूक़ात से अफ़ज़ल है और जो गैरे बारी तआ़ला है वह उसके कैसे बराबर हो सकता है जो उसका गैर नहीं¹

इस लिए यह कहना कि क़ुरआन से हुज़ूर ﷺ अफ़ज़ल है एक एतिबार से कुफ्र है जबकि कहने वाले की निय्यत क़ुरआन से मुराद क़ुरआन का हक़ीक़ी मा'ना हो यानी अल्लाह का कलाम जो उसकी सिफत (खूबी) है, और क़ुरआन से उसका उर्फी मा'ना मुराद हो मुस्हिफ और किताब तो दुरुस्त है, बहर हाल ऐसे कलाम (गुफ्तगू) से बचना ज़रूरी है जिसका एक मा'ना कुफ्र हो और जिस से आवाम में इंतिशार पैदा हो²

*दर्से हिदाया :-* थोड़ी सी तफसील और ज़ेहन नाशी रखे लफ्ज़े क़ुरआन चार चीज़ों पर बोला जाता है जिसका दो आपने ऊपर पढ़े, ¹एक है कलामे इलाही, ²दूसरा मुस्हिफ (यानी किताब) जिसका का ऊपर ज़िक्र हुआ और ³तीसरा है अल्फाज़ यानी उसका पढ़ते ही सुन लेना और ⁴चौथा है उस के अंदर के वाक़ियात जैसे पिछले क़ौम में क्या हुआ कैसे हुआ वगैरा सब

आपने एक चीज़ बारहां सुनी होगी कि क़ुरआन ए मजीद फना (मिट जाना, खत्म हो जाना) नहीं हो सकता, और हम बारहां देखते आए हैं कि बाज़ जगह क़ुरआन ए मजीद को जला और फाड़ दिया जाता है तो यह कैसे मुम्किन है ? जबकि अल्लाह ने खुद फरमाया है "बेशक हमने उतारा है यह क़ुरआन और बेशक हम ख़ुद इसके निगहबान हैं"³ तो सवाल पैदा होता है फिर कैसे दोनों बातें दुरुस्त हो सकती है ?

इसका जवाब यह है कि क़ुरआने मजीद को चार चीज़ों पर ज़रूर बोला जाता है मगर उन में से तीन पर फना वाक़ेय होती है, और जिस को मेरे रब ने अपने ज़िम्मे करम पर लिया है वह कभी फना नहीं हो सकती यहां तक कि क़ियामत भी आ जाए, फना होने वाली तीन चीज़ यह हैं, पहला हुज़ूर ﷺ ने क़ुरआने पाक को सहाबा ए किराम को सुनाया तो इसे कहते हैं अल्फाज़ और अल्फाज़ ऐसी चीज़ है जो दूसरा अल्फाज़ आते ही पहला फना (खत्म) हो जाती है, और दूसरा है वाक़ियात जो पिछले क़ौम में हो चुके, वो तो पहले ही फना (खत्म) हो गया, और तीसरा है यह किताब जो हमारे दरमियान हैं जिसे बाज़ लानती शख्स जला, या फाड़ देते हैं और इसी तरह क़ियामत के दिन उठा लिया जाएगा तो यह भी फना हो गया, यानी यह तीनों चीज़ फना हो जाती है और हो जाएगी

मगर कलामे इलाही हक़ीक़त में मा'ना और मफहूम (मरातिब) के नाम है यानी अल्फाज़ बयान करने से जो बातें समझ में आता है और हमारे दिमाग में बैठ जाता है उसी को कलामे इलाही (अल्लाह का कलाम) कहा जाता है जो उसकी सिफत (खूबी) है, जैसे किसी ने पढ़ा {اَلۡحَمۡدُ لِلّٰهِ رَبِّ الۡعٰلَمِیۡنَۙ} तर्जमा : {सब ख़ूबियाँ अल्लाह को जो मालिक सारे जहान वालों का} अब अल्फाज़ तो पढ़ के खत्म हो गया मगर उसे सुनने के बाद जो आपके दिमाग में बैठ गया कि, सब खूबियां अल्लाह की है जो सारे जहां का मालिक है, यही चीज़ (जो आपके दिमाग में बैठ गया) उसकी सिफत है जो कभी फना नहीं हो सकती!  
वल्लाहु आलम

²📕 फतावा शारेह बुखारी जिल्द अव्वल सफा 275
²📒 फैज़ाने इमाम मुहम्मद सफा 34+35
³📓 पारा 14 सूरह अल 15 हिज्र आयत 9
¹📚 फतावा रज़विया जिल्द 15 सफा 271

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*सवाल :-* रमज़ान के दिनों में ज़ैद के घर में कुछ लोग बीमार थे, और रोज़ा रखे हुवे थे तो ज़ैद ने पहला जुमला बोला कि, "रोज़ा क्या है" मतलब और भी तो फराइज है जैसे नमाज़, ज़कात, हज, उसको भी अदा करो यानी नेकी का हुक्म दिया, और दूसरा जुमला बोला कि कोई रोज़ा रखे और नमाज़ न पढ़े तो फाक़ा है, तो ज़ैद पर क्या हुक्म होगा ?

*जवाब :-* रोज़ा नाम है जिमा (हम्बिस्तरी) खाने पीने से सुब्हे सादिक़ से गुरूबे आफताब तक रुक जाने का नाम है, अगर कोई रोज़ा रखे नमाज़ न पढ़े तो वह नमाज़ न अदा करने के सबब (वजह से) गुनहगार होगा लेकिन उसका रोज़ा हो जाएगा, उसको फाक़ा से ताबीर करना जिहालत है, और बाज़ (कुछ) सूरतों में कुफ्र भी है

अगर बीमार हो और रोज़ा पूरा करने पर क़ादिर न हो तो रोज़ा छोड़ दे बाद में क़ज़ा करे, रोज़ा क्या है अगर उस को हल्का जानकर हिकारत की नियत से कहा तो ये कुफ्र है, रोज़ा क्या है कहने से मुराद अगर ये थी कि रोज़ा रखना फ़र्ज़ है और उसके साथ साथ और भी तो फ़राइज़ हैं उस को अदा करना भी तो ज़रूरी है, सिर्फ रोज़ा ही थोड़ी है नमाज़ ज़कात हज वगैरा भी तो फ़र्ज़ है उन को भी अदा करो तो उस पर कोई हुक्म नहीं, बल्कि तमाम फ़राइज़ को अदा करने पर नेकी का हुक्म देना सवाब है!¹

*दर्से हिदाया :-* खुलासा यह कि इस तरह का जुमला से परहेज़ करनी चाहिए और रोज़ा के साथ साथ नमाज़े पंचगाना और तरावीह की भी अदायगी करे, अल्लाह हमें अमल की तौफीक़ अता फरमाए

*¹📚 फतावा फैज़ाने इमाम मुहम्मद सफा 58+59*

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*सवाल :-* क्या मुसलमान गैर मुस्लिम को किसी भी कारोबार में अपना पाटनर बना सकता है.!?

*जवाब : -* कारोबार में गैर मुस्लिम को पाटनर बनाना इस शर्त पर जाइज़ है कि उस से दीन में कोई ज़रर न हो वरना हराम है

लेकिन मुआमला करना खरीदो फरोख्त के लिए या पड़ोस की वजह से या हमराही के सबब से, इस तौर पर कि उस से दीन में ज़रर (नुक़्सान) न हो हराम नहीं, इस क़िस्म के मुआमलात में मुसलमानों को कुफ्फार के साथ महल व मौक़ा पर हसब हाजत मकारिम अख्लाक़ का बर्ताव भी जाइज़ है ताकि वह भी अहले इस्लाम के साथ वैसा ही बर्ताव करें

*अल इंतिबाह :-* इस फतवे में कुफ्फार से मुराद अहले कुफ्र व शिर्क गैर मुसल्लिमीन हैं मुनाफिक़ीन व मुर्तदीन ज़माना वहाबी देवबंदी राफ्ज़ी वगैरा नहीं ! क्योंकि इनसे सलाम कलाम बाहमी खुर्द व नूश और मुआमलादारी भी मवालाते क़ल्बी यानी दिली दोस्ती की तरह हराम है, सिर्फ शरअन मजबूरी और इज़्तियार में ही उन से मुआमलादारी दुरुस्त होगी !

*📚 फतावा फखरे अज़हर जिल्द दो सफा 473+474*

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*सवाल :-* बाज़ (कुछ) लोग कहते हैं कि अल्लाह ने तुम्हारे लिए अच्छा सोचा होगा, यह कहना कैसा ? 

*जवाब : -* अल्लाह पाक के लिए लफ्ज़े सोचना या सोच का इस्तेमाल नाजाइज़ है क्योंकि अल्लाह पाक सोचने से पाक है, हमारे यहां इल्म की कमी और अल्फाज़ के दुरुस्त इंतिखाब न होने की वजह से इरादे की जगह सोच का लफ़्ज़ इस्तेमाल कर देते हैं और (हमारा) मुराद इरादा फरमाना होता है, लोगों को चाहिए कि उस की जगह लफ़्ज़ फैसला या मुक़द्दर इस्तेमाल करें

अलबत्ता किसी का अक़ीदा ही यह हो कि अल्लाह पाक क़ादिर नहीं या आलिमुल गैब नहीं, और बाद में सोचा है कि क्या करना है (मआ़ज़ल्लाह) तो यह अल्फाज़ इस्तेमाल करना सरीह कुफ्र है, मुफ्ती शरीफुल हक़ अमजदी अलैहिर्रहमा लिखते हैं कि यह जुमला कि "अल्लाह भी अपने दिल में सोचता होगा" यक़ीनन सरीह कुफ्र है इस जुमले में तीन कुफरियात हैं (पहला: अल्लाह के लिए दिल माना, दूसरा: दिल जिस्म का एक टुकड़ा है, तीसरा: अल्लाह जिस्म और आज़ाए जिस्मानियात से मुनज़्ज़ाह यानी पाक है, इसके इलावा) दूसरा यह कि उसने कहा सोचता होगा, सोचता वह है जो आलिमुल गैब न हो और क़ुदरत न रखता हो, अल्लाह के लिए सोचने का अस्बात उसके क़ादीर होने और आलिमुल गैब होने से इंकार है!

*दर्से हिदाया : -* हमारे अंदर आज इल्म की इतनी कमी है जिसका कोई हद हिसाब नहीं लगाया जा सकता, न जाने कितने ऐसे जुमले हम रोज़ दिन ब दिन इस्तेमाल करते हैं, और वो सही है या गलत इसका ज़रा भी दिलों दिमाग में ख्याल तक नहीं होता, दौरे हाजिर में अपना ईमान बचाना बहुत मुश्किल है वजह बस इल्म की कमी, लिहाज़ा अगर अपना ईमान सही सलामत ले जाना और अज़ाबात से बचना चाहते हैं तो हमें चाहिए कि हर चीज़ को स्टेप बाय स्टेप सब इल्म सीखें इतना कि अपने अक़ाइद व आमाल गलतियों से महफूज़ रहते हुवे दुरुस्त हो सके! 

¹📚 फतावा शारेह बुखारी जिल्द अव्वल सफा 162
¹📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ सफा 1

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*सवाल :-* रोज़े की हालत में अपनी बीवी को बोसा लेना या छूना कैसा ? और इस सूरत में इंज़ाल हो जाए तो इस से रोज़े का क्या हुक्म होगा ?

*जवाब : -* रोज़े में बीवी के साथ बोस व किनार करना मकरूह है जबकि इंज़ाल होने या जिमा (हम्बिस्तरी) में पड़ने का अंदेशा हो और अगर ऐसा खौफ (अंदेशा) न हो तो कोई हर्ज नहीं अलबत्ता बोस व किनार (लिपट कर चूमने) की वजह से इंज़ाल (मनी का खुरूज) हो गया तो रोज़ा टूट जाएगा, तौबा और उस रोज़े की क़ज़ा करना होगी अलबत्ता कफ्फारा नहीं¹

*हिंदिया में है :-* बीवी का बोसा लेने में हर्ज नहीं जबकि जिमा (हम्बिस्तरी/सोहबत) और इंज़ाल (मनी निकल जाएगा इस) में पड़ने का खौफ (अंदेशा) न हो, और अगर खौफ हो तो मकरूह है, और छूने के अहकाम तमाम सूरतों में बोसा वाले हैं²

*मसअला :-* औरत को बोसा लिया या छुवा या मुबाशिरत की या गले लगाया और इंजाल हो गया तो रोज़ा जाता रहा (यानी टूट गया) और औरत ने मर्द को छुवा और मर्द को इंजाल हो गया तो रोज़ा न गया (और अगर) औरत को कपड़े के ऊपर से छुवा और कपड़ा इतना दबीज़ (मोटा) है कि बदन की गर्मी महसूस नहीं होती तो फासिद न हुवा अगर्चे (भले चाहे) इंजाल हो गया³

*दर्से हिदाया :-* खुलासा यह कि इन चीज़ों के करने से बचा जाए जिस में गुमान हो कि रोज़ा टूट जाएगा, और अगर किसी को गुमान है कि ऐसा नहीं होगा तो कर तो सकता है मगर फिर भी बचना ही चाहिए, और अगर कोई करे तो उस पर फौरन कोई हुक्म न लगाए। 

*नोट : -* इंज़ाल (यानी मनी का निकल जाना, और मनी सफेद खून और गाढ़ा होता है, जिस के शहवत के साथ निकल जाने पर गुस्ल फ़र्ज़ हो जाता है)

¹📚 100 शरई मसाइल का मजमुआ सफा 37
²📚 हिंदिया जिल्द अव्वल सफा 220
³📚 बहारे शरीअत जिल्द अव्वल हिस्सा 5 सफा 988
³📚 क्या आप जानते हैं, सफ़ह 558+559

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*सवाल :-*  मय्यत को दफना कर कितनी देर तक रुकना चाहिए, और क्या मय्यत को दफना कर  चालीस क़दम हटने के बाद मुर्दे से  सवाल होता है , और क्या चालीस क़दम दफना कर चले जाए तब अज़ान देना चाहिए ? 

*जवाब :-* दफन के बाद कब्र के पास इतनी देर ठहरना मुस्तहब है, जितनी देर में एक ऊंट ज़िबह करके उसका गोश्त तक़्सीम कर दिया जाए, इतनी देर तक क़ब्र के पास ठहरने से मय्यत को उंस होगा और नकिरैन के जवाबात देने में वहशत न होगी, और जितनी देर क़ब्र के पास ठहरे इतनी देर तक तिलावत क़ुरआन मजीद व ज़िक्रो अज़कार में मशगूल रहें और मय्यत के लिए दुआ व इस्तग्फार करते रहें और ख़ास तौर पर यह दुआ करें कि मय्यत मुंकिर नकीर के जवाब में साबित क़दम रहे

एक हदीस में है : हुज़ूर {ﷺ} जब किसी को दफ़न करने से फारिग होते तो उसकी क़ब्र के पास खड़े होकर फरमाते : अपने भाई के लिए बख्शीश तलब करो और अल्लाह तआ़ला से उसके साबित क़दम रहने कि दुआ करो क्योंकि अब उस से सवाल किए जाएंगे

मय्यत को दफ़न करने के बाद ही मय्यत से सवाल होता है, चालीस क़दम हटने की रिवायत ग़लत है, और चालीस क़दम जाने के बाद अज़ान देना यह भी दुरुस्त नहीं (फतावा रज़विया जिल्द चहारम क़दीम सफा 445/ फतावा अमजदिया जिल्द अव्वल सफा 366 किताबुल जनाइज़ के हासिया पर है : मैयत को क़ब्र में उतारने से पहले भी अज़ान देना मसनून है। लिहाज़ा इस सूरत में वाज़ेह है कि लोगों को क़ब्रिस्तान में मौजूद रहते हुए अज़ान कहने में कोई हर्ज नहीं, और क़ब्र के पास ही अज़ान दे.!

📬 फतावा बरकाते रज़ा सफा 306 ता 307📚

ज़ारी रहेगा..! *✍🏻 मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ

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*सवाल :-*  किराए पर जो मकान दिया गया है उस मकान की क़ीमत और किराए पर ज़कात का क्या हुक्म होगा ?

*जवाब : -* जो मकान किराए पर दिया हुवा है उसकी क़ीमत पर ज़कात फ़र्ज़ नहीं अलबत्ता निसाब का साल पूरे होने पर अगर किराए वाली रक़म हाजते असलिय्या के इलावा मौजूद है तो वह दीगर अमवाले ज़कात के साथ हिसाब में शुमार होगी, अगर शराइत पाई गएं तो उस पर ज़कात फ़र्ज़ होगी

फतावा रज़विया में है: (किराए के) मकानात पर ज़कात नहीं, अगरचे पचास करोड़ के हों, किराया से जो साल तमाम पर पस उस पर ज़कात आएगी, अगर खुद या और माल से मिल कर क़दरे निसाब हो।

दर्से हिदाया: खुलासा यह आसानी से समझे कि जो मकान की क़ीमत है मसलन पचास लाख तो उस पर ज़कात नहीं होगा क्योंकि वो मकान है जोकि माले ज़कात में शुमार नहीं होता, मगर जो किराया आता है तो चूंकि वो पैसे की शक्ल में होता है तो अगर वो हाजते असलिय्या यानी ज़रूरत से ज़ियादा है तो इस पैसे पर ज़कात होगा!
वल्लाहु आलम

¹📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ सफा 42
²📚 फतावा रज़विया जिल्द 10 सफा 161

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*सवाल :-*  रोज़े की हालत में लिपिस्टिक लगाना कैसा ?

*जवाब :-* रोज़े की हालत में औरतें लिपिस्टिक लगा सकती हैं इस से रोज़ा नहीं टूटता, अलबत्ता जिन औरतों को होंटो पर ज़बान फेरने की आदत हो तो वो रोज़े की हालत में लिपिस्टिक लगाने से गुरेज़ (परहेज) करें, क्योंकि इस तरह करने से अगर लिपिस्टिक का कोई जुज़ (हिस्सा) हल्क़ से नीचे गिर गया तो रोज़ा टूट जाएगा¹

प्रोफेसर मुफ्ती मुनीबुर रहमान साहब फरमाते हैं: रोज़े की हालत में ख्वातीन का मेकअप करना जाइज़ है बशर्ते कि गैर महरम मर्दों के सामने बेपर्दगी और नमो नुमाइश न हो, लिपिस्टिक लगाना जाइज़ है बशर्ते कि इसके अज्ज़ा तर्कीबी (मिलावट) में कोई नापाक चीज़ शामिल न हो और अगर लिपिस्टिक वाटर प्रूफ है और उसके लगे रहने की वजह से होंटो की जिल्द (हिस्सा) वुज़ू के दौरान पानी से तर (गीला) नहीं होती तो वुज़ू अदा नहीं होगा, और ऐसे तमाम वुज़ू से नमाज़ सही अदा नहीं होगी और जो किसी शरई फ़र्ज़ की सेहत (सही) अदा में मानेअ (रुकावट) बन जाए वह जाइज़ नहीं है²

दर्से हिदाया: खुलासा यह कि लिपिस्टिक लगाना फी नफ्सी कोई बुरी चीज़ नहीं है जबकि उस में कोई नजासत वाली चीज़ न मिला हो, और ना महरम के लिए न हो बस अपने घर में रहने के लिए लगाए तो इस में कोई हर्ज नहीं यानी जाइज़ है, और इस से रोज़े में भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा मगर अपनी आदतों को देख ले कि कहीं बताई गई सूरत वाली आदत तो नहीं, (और दौरे हाजिर में अक्सर ख्वातीनों की ऐसी आदत पाई जाती है) अगर हो तो न ही लगाए रोज़े की हालत वरना हो सकता हो कि आपका रोज़ा इस से बेकार हो जाए, और अगर वाटर प्रूफ वाला हुआ तो वुज़ू न होने की सूरत में नमाज़ भी न होगी, बेहतर है इस से परहेज ही किया जाए! *वल्लाहु आलम*

¹📚 राहे शरीअत सफा 156
²📚 तफहीमुल मसाइल जिल्द अव्वल सफा 190

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*सवाल :-*  क्या बहन को भाई, या भाई को बहन को ज़कात दे सकते हैं ?

*जवाब : -* भाई बहन अगर मुस्तहिक़े ज़कात हों और गैरे सय्यद हों तो उन्हें ज़कात देना जाइज़ बल्कि अफ़ज़ल है कि सिला रहमी का भी सवाब है, आलमगिरी में हैं: ज़कात फितरा और मन्नत (की रक़म वगैरा) पहले भाई बहनों को देना अफ़ज़ल है¹ फतावा अहले सुन्नत अहकामे ज़कात में है: रिश्तेदारों में से कोई हाजत मंद और शरई फ़क़ीर है तो उसको ज़कात देना अफ़ज़ल है, मगर इस में चंद शराइत है²

किन रिश्तेदारों को ज़कात दे सकते हैं 
बहन, भाई, चचा, फूफी, खाला, मामु, बहू, दामाद, सौतेला बाप, सौतेली मां, शोहर की तरफ से सौतेली औलाद, बीवी की तरफ से सौतेली औलाद³

किन को ज़कात नहीं दे सकते ?

नीचे दर्ज मुसल्मानों को ज़कात नहीं दे सकते अगर्चे शरई फ़क़ीर हों : {1} बनू हाशिम (यानी सादाते किराम) चाहे देने वाला हाशिमी हो या गैरे हाशिमी, {2} अपनी अस्ल (यानी जिन की औलाद में से ज़कात देने वाला हो) जैसे मां बाप, दादा, दादी, नाना, नानी वगैरा, {3} अपनी फुरूअ (यानी जो उस की औलाद में से हों) जैसे बेटा, बेटी, पोता, पोती, नवासा, नवासी वगैरा  
{4} मियां बीवी एक दूसरे को ज़कात नहीं दे सकते {5} गनी के ना बालिग बच्चे (क्यूं कि वोह अपने बाप की वजह से ग़नी शुमार होते हैं)³

*दर्से हिदाया : -* सबसे पहले तो ज़कात के मसअले मसाइल सीखें, तब आपको पता चलेगा कि ज़कात किन चीज़ों पर है और कितना बनेगा, फिर कैसे निकाले, किसको दे सकते हैं किसे नहीं वगैरा वगैरा सब सीखें, फिर ये भी कि ज़कात देना सबसे पहले किसको अफ़ज़ल है वगैरा!

¹📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ हिस्सा 7 सफा 43
²📚 फतावा अहले सुन्नत अहकामे ज़कात सफा 400
¹📚 फतावा रज़विया जिल्द 10 सफा 252
¹📚 बहारे शरीअत जिल्द अव्वल सफा 933
³📚 फैज़ाने ज़कात सफा 61
³📚 फतावा रज़विया जिल्द 10 सफा 268

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*सवाल :-*  अगर औरत का टखना नमाज़ में खुला रहे तो क्या नमाज़ हो जाएगी ?

*जवाब : -* नमाज़ में जो बदन के हिस्से औरत को छुपाना ज़रूरी हैं उस में टखना भी शामिल है लेकिन टखना अलग से पूरा एक उज़्व (बदन का हिस्सा) नहीं बल्कि पिंडली के साथ मिल कर एक उज़्व (हिस्सा) शुमार होता है और उसूल यह है कि जो आज़ा (हिस्से) सितरे औरत में मुस्तक़िल तौर पर शामिल हैं उनका चौथाई (¹/⁴) हिस्सा खुला रहा तो नमाज़ नहीं होगी, और सिर्फ टखना चौथाई तक नहीं पहुंचता, लिहाज़ा नमाज़ के दौरान अगर औरत का टखना ज़ाहिर रहा तो भी नमाज़ हो जाएगी¹

फतावा रज़विया में हैं: दोनों पिंडलियां यानी ज़ेर ज़ानों से टखनों तक (मुकम्मल दो उज़्व है)  अगर एक उज़्व (हिस्सा) की चहारम (चौथाई ¹/⁴) खुल गई, अगर्चे बिला क़स्द (बगैर इरादे के) ही खुली हो और उसने वैसी हालत (यानी खुले हुवे ही) में रुकूअ या सुजूद या कोई रुक्न कामिल अदा किया, तो नमाज़ बिल इतिफाक़ जाती रही (यानी टूट गई) अगर सूरते मज्कूरा में पूरा रुक्न तो अदा न किया, मगर इतनी देर गुज़र गई, जिस में तीन बार सुब्हान अल्लाह कह लेता, तो भी मज़हबे मुख्तार पर जाती रही, अगर तकबीरे तहरीमा इसी हालत में कही कि एक उज़्व की चहारम (¹/⁴) खुली है, तो नमाज़ सिरे से मुंअक़िद ही न होगी, अगरचे तीन तस्बीहों की देर तक मक्शूफ न रहे, इन सब सूरतों में अगर एक उज़्व की चहारम (¹/⁴) से कम ज़ाहिर है, तो नमाज़ सही हो जाएगी अगर्चे निय्यत से सलाम तक इंकिशाफ रहे²

*दर्से हिदाया : -* खुलासा यह कि कोई हिस्सा अगर नमाज़ में दिखे तो उसकी पहले मालूमात करे और उसका चौथाई हिस्सा खुल जाएगी तो नमाज़ टूट जाएगा अगर इस से कम है तो नमाज़ हो जाएगी, इन से उन लोगों को दर्स हासिल करनी चाहिए जो आज कल के नौजवान फटी हुई जींस वगैरा पहनते हैं जिस में रान वगैरा सब दिखते रहते हैं यह नमाज़ के इलावा भी बुरा है और नमाज़ में भी कराहत आती है! *वल्लाहु आलम*

¹📙 सौ शरई मसाइल का मजमुआ हिस्सा 7 सफा 24
²📚 फतावा रज़विया जिल्द 6 सफा 30+41

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*सवाल :-*  अगर ज़ैद ने बकर को क़र्ज़ दिया है और बकर वापस करने की इस्तिताअत (ताक़त) नहीं रखता तो क्या ज़ैद उस में ज़कात की निय्यत कर सकता है ?

*जवाब : -* जो रक़म किसी को कर्ज़ दी हुई है अगर वह वापस करने की इस्तिताअत (ताक़त) नहीं रखता तो दी हुई रक़म में ज़कात की निय्यत करना जाइज़ नहीं और न इस तरह ज़कात अदा होगी¹ रद्दुल मोहतार में है: किसी को क़र्ज़ मुआफ किया और ज़कात की निय्यत कर ली तो ज़कात अदा नहीं होगी²

*सवाल :-* मुआफ किया हुआ क़र्ज़ निसाब में शामिल होगा या नहीं ?

*जवाब : -* किसी को क़र्ज़ मुआफ़ कर दिया तो इसकी दो सूरतें हैं {1} अगर क़र्ज़ गनी (साहिबे निसाब) को मुआफ किया तो उस (मुआफ शुदा) हिस्से को भी ज़कात देना होगी और {2} अगर शरई फ़क़ीर (जो साहिबे निसाब नहीं उस) को क़र्ज़ मुआफ़ किया तो उस हिस्से की ज़कात साक़ित  हो जाएगी²

*दर्से हिदाया : -* क़र्ज़ के लेन देन के मुआमले को हमेशा लिखित कर के रखा करे ताकि आगे किसी क़िस्म की पेचीदगी न हो, बाज़ लोग मुक़र जाते हैं तो आपके लिए सुबूत रहेगा, और खास कर ज़कात के मुआमले में कि उसका आप साल बा साल ज़कात जोड़ सकेंगे और जब वो क़र्ज़ आपको देंगे तो चूंकि वो पहले से ही जुड़ा हुआ रहेगा तो आप फिर उस पैसे का आसानी से ज़कात अदा कर पाएंगे, ख्याल रहे क़र्ज़ पर हर साल ज़कात बनती है देने वाले पर (क्योंकि वो आपका ही पैसा है) मगर अदायगी उस वक्त लाज़िम होगी जब वो कर्ज़ वापस दे दे! *वल्लाहु आलम*

¹📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ हिस्सा 7 सफा 44
²📚 रद्दुल मोहतार जिल्द 3 सफा 226

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*सवाल :-*  बीवी की इसलाह नहीं की जाती, उस से इश्क़ किया जाता है, तुम फतवों से घर चलाओगे तो अपना घर बर्बाद करोगे महब्बत से घर चला कर देखो हमेशा आबाद रहेगा, ऐसा जुमला बोलना कैसा ?

*जवाब :-* मज़्कूर सवाल में घर फतवों से चलाओगे तो अपना घर बर्बाद करोगे यह जुमला सही नहीं इस तरह के जुमले इस्तेमाल न किया जाए, अगर उसका मतलब फतवों की तौहीन करना है, चूंकि फतवा हुक्मे शरअ होता है और हुक्मे शरअ की तौहीन कुफ्र है या यह खिलाफ शरअ काम से उसको रोकोगे (मसलन) बात बात पर उसको कहोगे (बताओगे कि) यह हराम है, यह नाजाइज़ है (वगैरा) बार बार उस से कहोगे तो यह कुफ्र है, की उसने हराम काम से रोकने और उस पर इसलाह करने को घर बर्बाद करने से ताबीर किया जोकि कुफ्र है तौबा करे हराम काम और खिलाफे शरअ काम से रोकने पर घर बर्बाद नहीं बल्कि घर आबाद होता है¹

*दर्से हिदाया :-* जो घर महब्बत से चलाते हैं वो भी शरीअत के हिसाब से ही चलती है, क्योंकि महब्बत भी शरीअत ने ही सिखाई है, और रही बात बीवी की इस्लाह नहीं कि जाती है उससे इश्क़ किया जाता है, तो दरअसल इस्लाह को छोड़ कर जो इश्क़ की बातें करते हैं, वो इश्क़ नहीं बल्कि दुश्मनी निभाते हैं, महब्बत तो ये है कि अपने घर वालो को शरीअत सिखाई जाए, जब जब वह गलती करें उनकी इस्लाह की जाए, क़ुरआने पाक में अल्लाह ने एक दूसरे को जहन्नम की आग से बचने और बचाने का हुक्म फरमाया है और इस पर तभी अमल होगा जब शरीअत के हराम कामों को छोड़ा और छुड़वाया जाएगा, और शरीअत को छोड़ कर जो लोग दुन्यवी रिश्ते निभाते हैं अक्सर उनके आमाल जहन्नम में पहुंचा देगी, इसलिए अपनी जुबान पर लगाम दे, अगर इल्म नहीं है तो आपका खामोश रहना ही बेहतर है, बिना इल्म के फतवे (हुक्म, जवाब) दोगे तो इसी तरह कुफ्र के खाई में जा गिरोगे, और बगैर तौबा किए मर गए तो जहन्नम ऐसे लोगों को अपने आगोश में लेने के लिए तैयार बैठी है, जहां पर हमेशा हमेशा के लिए चले जाओगे!...✍🏻

*¹📚 फतावा फैज़ाने इमाम मुहम्मद सफा 98*

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*सवाल :-*  औरतों का ज़ियादा हो जाना क़ियामत की निशानी है ?

*जवाब : -* अहादिस में क़ियामत की मुख्तलिफ निशानियां बयान की गई हैं जिस में से एक यह भी है कि क़ुर्बे क़ियामत औरतें ज़ियादा हो जाएंगी और मर्द कम हो जायेंगे, बुखारी व मुस्लिम की हदीस का एक जुज़ (हिस्सा) है : "और औरतों की कसरत होगी और मर्द कम होंगे यहां तक कि पच्चास औरतों का एक कफील (जिम्मेदार) होगा¹

*शरह :-* इस तरह कि लड़कियां ज़ियादा पैदा होंगी लड़के कम, फिर मर्द जंगों वगैरा में ज़ियादा मारे जाएंगे अपने बीवी बच्चे छोड़ जायेंगे इन वजूह (वजहों) से औरतों की बहुतात (कसरत) होगी, इसका यह मतलब नहीं कि एक खाविंद (शौहर) की पचास बीवियां होगी कि यह हराम है बल्कि मतलब यह है कि एक खाविंद (शौहर) उन में औरतें बेटियां पचास होंगी मां, दादी, खाला, फूफी, वगैरा और उनका मुंतज़म (इंतज़ाम करने वाला) एक मर्द होगा²

*दर्से हिदाया :-* खुलासा यह कि मज़्कूरा हदीस से यह समझना कि एक मर्द के पचास बीवियां होगी यह गलत है बल्कि एक मर्द उसके पीछे पचास औरतें होंगे जिस में बेटी बीवी मां बहन खाला फूफी वगैरा सब शामिल होंगे, और यह बेशक क़ियामत की निशानी है और अंक़रीब आने वाला है बल्कि बाज़ देशों में यह तादाद बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और जल्द पूरी होने वाली है, अल्लाह हमारी औरतों को नेक आमाल करने वाला बनाए!

¹📙 बुखारी किताबुल इल्म हदीस 18
²📕 मिरातुल मनाजीह जिल्द 7 सफा 274
¹📗 सौ शरई मसाइल का मजमुआ हिस्सा 7 सफा

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*सवाल :-*  किन सूरतों में रोज़ा टूटने से क़ज़ा और कफ्फारा दोनों वाजिब है!

*जवाब : -* जान बूझ कर खा पी लेना ★ किसी दूसरे के लुआब (थूक) चाट लेना ★ बीवी से सोहबत करना जबकि रोज़ा याद हो ★ जान बूझ कर कच्चा गोश्त या चावल खा लेना ★ जान बूझ कर सिगार, हुक्का, बीड़ी सिगरेट वगैरा पीना ★ अगर किसी ने थोड़ी सी नस्वार रोज़ा की हालत में मुंह में रख कर फौरन निकाल दी और उसका पूरा यक़ीन हो कि नस्वार का कोई जुज़्व (हिस्सा) हल्क़ में नहीं गया तो रोज़ा फासिद नहीं होगा, मगर बिल इत्तिफाक मकरूह है, चूंकि नस्वार का मुंह में थोड़ी सी रखने से उसका मक़्सद हासिल नहीं होता लिहाज़ा उसको उमूमन ज़ियादा देर रखा जाता है और उसके रखने से लुआब (थूक) भी ज़ियादा पैदा होता है लिहाज़ा नस्वार के मुरव्वजा इस्तेमाल को मुफसिदे सोम (रोज़े का टूटना) क़रार दिया गया है!

📙 बहारे शरीअत जिल्द अव्वल सफा 986
📚 फजाइल व मसाइल रमज़ानुल मुबारक सफा 6

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*सवाल :-*  किराए पर जो मकान दिया गया है उस मकान की क़ीमत और किराए पर ज़कात का क्या हुक्म होगा ?

*जवाब : -* जो मकान किराए पर दिया हुवा है उसकी क़ीमत पर ज़कात फ़र्ज़ नहीं अलबत्ता निसाब का साल पूरे होने पर अगर किराए वाली रक़म हाजते असलिय्या के इलावा मौजूद है तो वह दीगर अमवाले ज़कात के साथ हिसाब में शुमार होगी, अगर शराइत पाई गएं तो उस पर ज़कात फ़र्ज़ होगी

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*दर्से हिदाया : -* खुलासा यह आसानी से समझे कि जो मकान की क़ीमत है मसलन पचास लाख तो उस पर ज़कात नहीं होगा क्योंकि वो मकान है जोकि माले ज़कात में शुमार नहीं होता, मगर जो किराया आता है तो चूंकि वो पैसे की शक्ल में होता है तो अगर वो हाजते असलिय्या यानी ज़रूरत से ज़ियादा है तो इस पैसे पर ज़कात होगा! *वल्लाहु आलम*

¹📙 सौ शरई मसाइल का मजमुआ सफा 42
²📚 फतावा रज़विया जिल्द 10 सफा 161

ज़ारी रहेगा..! *✍🏻 मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ

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🌹✍🏻اَلصَّلٰوةُ وَالسَّلَامُ عَلَیۡكَ يَــــارَسُوۡلَ اللّٰهِ ﷺ

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  9️⃣9⃣*

 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

*सवाल :-*  किसी को तोहफा देकर वापस लेना कैसा.!?

*जवाब :-* किसी को कोई चीज़ बिला एवज़ हिबा या बख्शिश के तौर पर देने के बाद वापस लेना बहुत बुरी बात है, हदीस में इरशाद हुआ उसकी मिसाल ऐसी है जिस तरह कुत्ता क़ै (उल्टी) कर के फिर चाट ले, लिहाज़ा मुसलमान को इस से बचना ही चाहिए, बाज़ औक़ात बाज़ लोग औछे पन पर उतर कर ऐसा मुतालबा कर बैठते हैं कि लाओ हमारी फूलां चीज़ वापस करो, यह बड़ी ओछी और गिरी हुई हरकत है¹

हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: किसी शख्स के लिए जाइज़ नहीं है कि किसी को कोई अतिया (तोहफा) दे, या किसी को कोई चीज़ हिबा (बख्शिश, इनाम) करे और फिर उसे वापस लौटा ले, सिवाए वालिद के कि वह बेटे को देकर उस से ले सकता है, उस शख्स की मिसाल जो अतिया (तोहफा) दे कर या हिबा कर के वापस ले लेता है कुत्ते की मिसाल है कुत्ता पेट भर कर खा लेता है, फिर क़ै (उल्टी) करता है, और अपने क़ै (उल्टी) किए हुवे को दुबारा खा लेता है।

अगर किसी ने किसी को कोई तोहफा दिया और वापस लेता है तो उसकी मिसाल कुत्ते और क़ै (उल्टी) किए हुवे को दुबारा खा लेने के मिस्ल (जैसा) है, लिहाज़ा उस (देने वाले) पर लाज़िम है कि लेने वाले से मुतालबा (तलब, मांग) न करे कि अब उसे लेना नाजाइज़ व हराम है²

*दर्से हिदाया :-* नाज़रीन आपने मुलाहिजा फरमाया कि कैसी घिनौनी बात है यह कि उल्टी किया हुआ वापस खा जाए, इन से उन लोगों को दर्स हासिल करनी चाहिए जो देते वक्त नियत में पहले से ही खोट रखते हैं और किसी को कुछ तोहफा दे देते हैं, और जब कभी किसी मौक़े पर उनसे ना इत्तेफाकी झगड़ा वगैरा हो जाती है तो अपना दिया हुआ तोहफा वापस मांगते हैं, जोकि इस के लिए जाइज़ नहीं, हमारे मुआशरे में ऐसे हजारों केस देखने को मिलेगा कि लोग अक्सर ऐसा करते ही हैं, कभी दोस्ती यारी में तो कभी शौहर बीवी में, तो भाई बहन में वगैरा, हां वालिद अपने बेटे से ले सकता है!

*खास तंबीह : -* यह ज़रूरी बातें याद रहे आज कल के नौजवान लड़का लड़की फैशन परस्त जो एक दूसरे को तोहफा देते लेते हैं, इनका लेना देना रिश्वत है³ जोकि एक गुनाह, वहां ये तोहफा मुराद नहीं है, और इस से मिल्क (मालिक होना) साबित नहीं होती और देने वाले को इख्तियार है कि वापस ले ले, और रिश्वत को वापस करना वाजिब होता है, लिहाज़ा ऊपर की बातें इस पर न फिट करें, अल्लाह हमें अमल की तौफीक़ दे! *वल्लाहु आलम*

¹📚 सुन्नी बहिश्ति ज़ेवर सफा 503 (हिंदी pdf)
²📚 फतावा मसाइल शरईय्य
³📚 फतावा रजविया जिल्द 23+ 16, सफा 568, 515

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*सवाल :-*  औरत के पास जो ज़ेवर होता है उसकी जक़ात किस के जिम्मे हैं ?

*जवाब : -* वह ज़ेवर जो औरत की मिल्किय्यत (यानी जिस ज़ेवर की मालिक औरत) है उसकी ज़कात हरगिज़ शौहर के ज़िम्मे नहीं, अगरचे शौहर कसीर (बहुत ज़ियादा) माल रखता हो, (जब शौहर के ज़िम्मे ही नहीं) तो ज़कात न देने पर शौहर के ऊपर न कोई वबाल न कोई गुनाह होगा, हां मुनासिब तरीक़ा पर तंबीह व ताकीद (टोके और बार बार कहा) करे और उसे समझाए, कि ज़कात न देना कितना बड़ा गुनाह है, और वह ज़ेवर जो शौहर ने औरत को दिया और उसकी मिल्क कर दिया उस पर भी यही हुक्म है (यानी औरत ही ज़कात देगी)

और अगर शौहर ने सिर्फ पहनने के लिए दिया उसकी मिल्क (मालिक) नहीं किया अपने ही मिल्क में रखा जैसा कि बाज़ घरानों में रिवाज़ है तो बेशक उसकी ज़कात मर्द के ज़िम्मे है जबकि वह खुद (मालिक निसाब हो) या यह और दूसरे माल से मिलकर क़दरे निसान हो और हाजते असलिय्या से फारिग हो !¹

*सबक : -* हमारी बाज़ बहने इसी हरीस (लालची) क़िस्म की होती है कि उनके पास बहुत सारे गहने सेट सब सोने चांदी की पड़ी होगी मगर कहेंगे "हमारे पास है ही क्या है ? हम तो गरीब है" मगर अफसोस की अपना इहतिसाब (हिसाब किताब) नहीं करती कि देखूं मेरे ऊपर ज़कात फ़र्ज़ हो रही है या नहीं इसी तरह कुर्बानी वाजिब हो रही है या नहीं, ज़रा भी परवाह नहीं करती, याद रखे ज़कात अदा न करने पर बहुत बड़ा अज़ाब सब है, जैसे एक रिवायत में आता है कि उसके गले में गंजे सांप का तौक़ पहनाया जाएगा, और हुज़ूर ﷺ ने उस पर लानत फरमाई है² वगैरा वगैरा, इसलिए मेरी बहनों इस वबा (ज़कात न देने से) बाज़ आ जाए और अपने माल का पूरे पूरे हिसाब कर के ज़कात अदा करे !

¹📚 सुन्नी बहिश्ति ज़ेवर सफा 329
¹📚 फतावा रजविया शरीफ
¹📚 ज़िया ए शरीअत जिल्द अव्वल सफा 30
²📚 सही बुखारी जिल्द 4 सफा 8 + जिल्द 1 सफा 474

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*सवाल :-*  कुछ बूढ़े लोग अपने खयाल में कि रोज़ा नहीं रख पाऊंगा रखूंगा तो मर जाऊंगा या बहुत तबियत ख़राब होगी तो क्या इस तरह रमज़ान का रोज़ा छोड़ सकते हैं ? और रोज़े के बदले में फिदिया दे तो अदा हो जाएगा ?

*जवाब :-* ताक़त न होना एक वाक़ई (सच मुच) होता है और एक कम हिम्मती (बुज़दिली) होता है, कम हिम्मती (बुज़दिली) का कुछ एतिबार नहीं, अक्सर औक़ात शैतान दिल में डालता है कि हमसे से यह काम हरगिज़ न हो सके और करेंगे तो मर जाएंगे, बीमारी बढ़ जायेगी, फिर जब खुदा पर भरोसा कर के किया जाता है, तो अल्लाह तआ़ला अदा करा देता है, कुछ भी नुक़सान नहीं पहुंचता, मालूम होता है कि वो शैतान का धोका था, 75 बरस उम्र में बहुत लोग रोज़े रखते हैं, हां ऐसे कमज़ोर भी हो सकते हैं कि सत्तर ही बरस की उम्र में न रख सकें, तो शैतान के वसवसों से बच कर खूब सही तौर पर जांचने चाहिए, एक बात तो यह हुई

दूसरी यह कि इन (ज़ियादा उम्र वालों) में बाज़ (कुछ) को गर्मियों में रोज़ा की ताक़त वाक़ई नहीं होती, मगर जाड़ों (सर्दियों) में रख सकते हैं, यह भी कफ्फारा (रोज़े न रखने के बदले में फिदिया) नहीं दे सकते, बल्कि गर्मियों में क़ज़ा (छोड़) कर के जाड़ों (सर्दियों) में रोज़े रखना उन पर फ़र्ज़ है। तीसरी बात यह कि इन में बाज़ (कुछ) लगातार (रमज़ान के) महीना भर के रोज़े नहीं रख सकते, मगर एक दो दिन बीच कर के रख सकते हैं, तो जितने रख सकें उतने रखना फ़र्ज़ है, जितने क़ज़ा हो (न रख पाए, छूट) जाएं (तो) जाड़ों (सर्दियों) में रख ले। चौथी बात यह है कि जिस जवान या बूढ़े को किसी बीमारी के सबब ऐसा जुअ़फ (कमज़ोर) हो कि रोज़ा नहीं रख सकते उन्हें भी कफ्फारा देने को इजाज़त नहीं, बल्कि बीमारी जाने का इंतजार करें, अगर शिफा (ठीक) होने से पहले मौत आ जाए तो (क़ब्ल मौत) कफ्फारा की वसिय्यत करदें

गर्ज़ यह है कि कफ्फारा इस वक़्त  है कि रोज़ा न गर्मी में रख सके न जाड़े (सर्दियों) में, न लगातार न मुतफ्फरिक (अलग अलग), और जिस उज़्र (हिला) के सबब ताक़त न हो उस उज़्र के जाने की उम्मीद न हो, जैसे वह बूढ़ा कि बुढ़ापे ने उसे ऐसा ज़ईफ कर दिया कि गंडेदार रोज़ा (नागा कर के) मुतफर्रिक (अलग अलग) कर के जाड़े में भी नहीं रख सकता तो बुढ़ापा तो जाने की चीज़ नहीं, ऐसे शख्स को कफ्फारा का हुक्म है, हर रोज़े के बदले पौने दो सेर गेहूं उठनी ऊपर बरैली के तौल से, या साढ़े तीन सेर जौ एक एक रुपया भर ऊपर दे। उसे कफ्फारा का इख्तियार है कि रोज़ का रोज़ दे दे या महीना भर का पहले ही अदा कर दे या खत्मे माह (रमज़ान का महीना खत्म होने) के बाद कई फक़ीरों को दे या सब एक ही फ़क़ीर को दे सब जाइज़ है। वल्लाह तआला आलम¹

*दर्से हिदाया : -* अल्लाहु अक्बर ! कितनी तफसील से इसे समझने को मिला, कि एक फ़र्ज़ की क्या अहमिय्यत होती है, और शरीअत ने हमें किसी मुआमले में जबरदस्ती नहीं किया है, कितनी आसानी दी है, इन से उन सभी बूढ़े (मर्द औरत) जो बस उम्र का बहाना करते फिरते हैं और कुछ तो नौजवान (लड़का, लड़की) भी शामिल है उन सब को अपनी आखिरत का खौफ खानी चाहिए और अपनी हालत का जायज़ा (हिसाब) ले कि क्यों रोज़ा नहीं रखते ? क्या वजह है ? क्या हमें शरीअत ने इस मुआमले में कहा है कि रोज़ा छोड़ सकते हो ? (अगर नहीं) तो फिर डरो उस अज़ाब से जो इस के छोड़ने की वजह से मिलेगा, अरे दुनियावी डॉक्टर साइंस सब भी कहते हैं कि साल में कम से कम 45 दिन भूखे रहना चाहिए इस से अंदर के कीड़े मर जायेंगे और तरह तरह के बीमारियों से महफूज़ रहोगे, लेकिन हमारी शरीअत हमें पहले से हर चीज़ की तालीम देती है जिस में हमारे लिए भलाई ही भलाई है, अल्लाह हमारे मुसलमान भाइयों और बहनों को अमल की तौफीक़ दे!

¹📚 फतावा आला हज़रत सफा 79+80

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*सवाल :-* चांद बड़ा देख कर यह कहना कैसा ? (कि चांद आज का नहीं कल का है)

*जवाब :-* हदीस में फरमाया : क़ुर्बे क़ियामत (की निशानियों) में से है कि चांद बड़ा नज़र आएगा, दूसरी हदीस में हैं: क़ुर्बे क़ियामत की निशानियों में से है कि चांद वाज़ेह होगा तो कहा जाएगा कि दूसरी रात का है। दोनों हदीसों का हासिल यह है कि  क़ुर्बे क़ियामत की यह भी एक अलामत (पहचान) है कि हिलाल (चांद) फूला हुआ निकले, लोग कहें कल का है

चांद के बड़े होने पर भी लिहाज़ (ख्याल) नाजाइज़ है, बहुत लोग चांद को बड़ा देख कर कहने लगते हैं कि कल का है या आज 29 न थी 30 थी कि 29 का चांद इतना बड़ा नहीं होता, यह उनकी खाम ख्याली (गलत ख्याली) है, ऐसी ही अक्लें दौड़ाते हैं शरई मुआमले तो रूयत (देखने) का एतिबार है खुद यहीं देखा जाए या दूसरे शहर की रूयत पर शरई शहादतें गुज़रे, यहां क़यास बातों का दखल नहीं, खत या तार या अक़्ली क़यासों या दूसरे शहर की हिकायतों (कहानियों) का शरअ में असलन एतिबार नहीं, मसलन कुछ लोग आए और बयान किया कि वहां फुलां दिन ईद है या वहां रूयत हुई, इस पर असलन लिहाज़ नहीं जब तक गवाहाने आदिल शरई खुद अपना देखना न बयान करें, दुर्रे मुख्तार में हैं: उस सूरत में सुबूत नहीं होगा अगर गवाहों ने गैरो की रूयत पर गवाही दी हो क्योंकि यह हिकायत है

और बतौरे इल्मे हियात ही चले तो इंशा अल्लाह तआला फ़क़ीर साबित कर सकता है कि 29 का चांद बाज़ 30 के चांदों से बड़ा होना मुमकिन और सब से बढ़ कर वहमों को दूर करने वाला तो यह है कि हुज़ूर ﷺ ने फरमाया: क़ुर्बे क़ियामत का एक असर यह है कि हिलाल (चांद) बड़े नज़र आयेंगे, और फरमाया : क़ुर्बे क़ियामत की एक अलामत यह है कि हिलाल (चांद) सामने ही नज़र पड़ेगा देखने वाला कहेगा कि दो रात का है, बाज़ ने कहा तीन रात का है।¹

*दर्से हिदाया : -* खुलासा यह कि ऐसी  बातें न की जाए कि चांद बड़ा नज़र आ रहा है तो कल का होगा वगैरा, बल्कि बाज़ सूरतों में गुनहगार भी होगा कि शरीअत के खिलाफ चीज़ें हैं, और यह क़ियामत की निशानी है, लिहाज़ा इस से परहेज़ करे, और बाज़ लोग चांद को देख कर दूसरों को दिखाने के लिए उंगली से इशारा करते हैं यह मकरूह है इस से भी बचना चाहिए, अल्लाह अमल की तौफीक़ दे!
वल्लाहु आलम

¹📚 फतावा आला हज़रत सफा 75 ता 77

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*सवाल :-*  काफिर से दोस्ती और महब्बत करना, और उन्हें तोहफा वगैरा देना कैसा ?

*जवाब : -* काफिर से क़ल्बी (दिल से) महब्बत करना और उन्हें तोहफा वगैरा देना शरअन नाजाइज़ व हराम है, इरशादे रब्बानी है {ऐ ईमान वालो यहूद व नसारा को दोस्त न बनाओ वह आपस में एक दूसरे के दोस्त हैं और तुम में जो कोई उनसे दोस्ती रखेगा तो वह उन्हीं में से है बेशक अल्लाह बेइन्साफ़ों को राह नहीं देता}¹ तफसीर सिरातुल जिनान में है कि इस आयत में यहूद व नसारा के साथ दोस्ती और उनकी मदद करना, उनसे मदद चाहना और उनके साथ महब्बत रवाबित (ताल्लुक़ात) रखना मम्नूअ़ फरमाया गया, यह हुक्म आम है अगरचे आयत का नुज़ूल किसी खास वाक़िया में हुआ हो, चुनांचें यहां यह हुक्म बगैर किसी क़ैद के फरमाया गया कि ऐ ईमान वालो ! यहूदों और ईसाइयों को दोस्त न बनाओ, यह मुसलमानों के मुक़ाबिले में आपस में एक दूसरे के दोस्त हैं, तुम्हारे दोस्त नहीं क्योंकि काफिर कोई भी हो और उनमें बाहम (आपसी में) कितने ही इख्तेलाफ हों, मुसलमानों के मुक़ाबिले में वह सब एक हैं,  ’’اَلْکُفْرُ مِلَّۃٌ وَّاحِدۃٌ‘‘ {कुफ्र एक मिल्लत है}

लिहाज़ा मुसलमानों को काफिरों की दोस्ती से बचने का हुक्म देने के साथ निहायत सख्त वईद बयान फरमाई कि जो उनसे दोस्ती करे वह उन्हीं में से है, इस बयान में बहुत शिद्दत और ताकीद है कि मुसलमानों पर यहूद व नसारा और दीने इस्लाम के हर मुखालिफ से अलैहदगी और जुदा रहना वाजिब है। और जो काफिरों से दोस्ती करते हैं वह अपनी जानों पर ज़ुल्म करते हैं, इस से यह भी मालूम हुआ कि इस्लामी हुकूमत में कुफ्फार को कलीदी (अहम हैसिय्यत वाली) असानियां न दी जाएं, यह आयत मुबारका मुसलमानों की हजारों मुआमलात में रहनुमाई करती है और उसकी हक़्क़ानिय्यत (सच्चाई) रोज़े रोशन की (बिलकुल पूरी) तरह इयां (ज़ाहिर) है, पूरी दुन्या के हालात पर नज़र दौड़ाएं तो समझ आएगा कि मुसलमानों की ज़िल्लत व बरबादी का आगाज तभी से हुआ जब आपस में नफरत व दुश्मनी और टूट फूट का शिकार होकर गैर मुस्लिमों को अपना खैर ख्वाह और हमदर्दी समझ कर उनसे दोस्तियां लगाएं और उन्हें अपनों पर तरजीह दी, अल्लाह हमें अक़्ले सलीम अता फरमाए²

अलबत्ता क़ल्बी महब्बत न हो बल्कि किसी हिक्मत के तहत काफिरों को तोहफा दिया जाए जैसे कि आजकल कुफ्फार मुसलमान के साथ तशद्दुद से पेश आते हैं जहां मुसलमानों की कमी है वहां उन पर ज़ुल्म करते हैं तो उन्हें नर्म करने के लिए और उनके ज़ुल्मो सितम से बचने के लिए तोहफा दे सकते हैं, या काफिर प्रधान या मंत्री या कोई और ओहदा (ऊंचे लेवल) पर फाइज़ (पहुंचा) है तो उसको भी इस निय्यत से कि वक़्त आने पर मुसलमानों का साथ देंगे (तो तोहफा) देने में कोई हर्ज नहीं दे सकते हैं, सरकारे आला हज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते हैं: किसी शरई मसलेहत के तहत काफिर को हदिया (तोहफा) जिस में किसी रसम काफिर का ऐज़ाज़ न हो उसका हदिया क़ुबूल करना जिस से दीन पर कोई एतराज़ न हो फी नफसीही हलाल है³ (मजीद तफसील के लिए किताब में पढ़े)

*दर्से हिदाया :-* खुलासा यह कि बिला उज्र उनको तोहफा न दिया जाए न उनसे लगाव रखा जाए, और अगर इसे बढ़ाए तो दिल में महब्बत बढ़ेगी और फिर उनसे महब्बत करना गुनाह है कि बसों औक़ात कुफ्र तक ले जाएगा, और किसी खास अपना फायदा के लिए ज़ाहिरी महब्बत इज़हार करते हुवे तोहफा देने में हर्ज नहीं जैसा कि ऊपर मिसाल से समझाया गया, मगर हमारी क़ौम को अल्लाह समझ अता फरमाए, कि ऐसे ऐसे गैर मुस्लिम को दोस्त बना लिए हैं कि उनके साथ खाना पीना उठना बैठना सब, और तो और उनके तेहवारों में शिरकत मुबारकबादी मेल मिलाप ये सब भी बहुत ज़्यादा हो गया है, जिस से बचना बहुत ही ज़रूरी है! वल्लाहु आलम बिस्सवाब

¹📕 अल क़ुरआन पारा 6 सूरह अल माइदा 5 आयत 51
²📙 तफसीरे सिरातुल जिनान तहत सूरह माइदा आयत 51
²📚 फतावा मसाइले शरईय्या जिल्द अव्वल सफा 403 ता 406

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*सवाल :-*  क्या घर में लीमू (नींबू) हो तो जिन्नात नहीं आते है ?

*जवाब :-* इस तरह के अक़वाल मिलते हैं कि घर में लिमू रखने से जिन्नात क़रीब नहीं आते, चुनांचे इमाम जलालुद्दीन सुयूती अलैहिर्रहमा लिखते हैं: काज़ी अली बिन हसन खलई की सवानेह हयात में कि जिन्नात उनके पास आते रहते थे, एक मर्तबा अर्से दराज (बहुत दिनों) तक नहीं आए तो क़ाज़ी साहब ने उनसे उसकी वजह पूछी तो जिन्नों ने बताया कि आपके घर में लिमू (नींबू) था और हम ऐसे घर में नहीं आते जिस में लिमू होता है¹

*मसअला : -* जिन्नात के वुजूद का इनकार करना कुफ्र है²

*दर्से हिदाया :-* किसी भी चीज़ पर फौरन हुक्म लगाने से हमें बचना चाहिए, जिन्नात के बाज़ लोग सिरे से इंकार करते हैं उनके उजूद का, और बाज़ लोग अपने बच्चों को जिन वगैरा से डराते हैं यह भी दुरुस्त नहीं, जिन्नात से बचने का रूहानी इलाज यह है कि दुआ की तरह हाथ उठा ले और बिस्मिल्लाह शरीफ पढ़े, फिर सुरह इखलास, सूरह फलक, सूरह नास पढ़े, फिर हथेलियों पर दम करे और सारे अगले हिस्से पर फेरे फिर दाएं बाएं, जहां जहां हाथ पहुंचता है वहां हाथ फेरे!³

¹📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ हिस्सा 7 सफा 92
²📚 बहारे शरीअत हिस्सा 1 सफा 26
³📚 मलफूज़ाते आला हज़रत सफा 338

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*सवाल :-*  रक्षाबंधन की राखी बेचना, उसकी तिजारत करना कैसा है!

*जवाब : -* राखी कि तिजारत करना नाजाइज़ व गुनाह है, वजह यह है कि राखी का इस्तेमाल सिर्फ रक्षाबंधन के लिए होता है ! जो यहाँ के गैर मुस्लिमों का मज़हबी शीआर है तो राखी कि तिजारत गुनाह पर मदद है जो नाजाइज़ व गुनाह है!

हुज़ूर फ़क़ीह ए आज़म हिन्द नाइबे हुज़ूर मुफ़्ती ए आज़म हिन्द शरह बुखारी हज़रत अल्लामा मुफ़्ती शरीफुल हक़ अमजदी अलैहीर्हमा तहरीर फ़रमाते हैं कि गैर मुस्लिमों के किसी मज़हबी मेले में जाना जाइज़ नहीं, ख़रीद व फरोख्त करना अपने कारोबार का प्रोपेगंडा करना नाजाइज़ है करने वाले गुनाहगार है।

📕 जिया ए शरीअत, जिल्द 1सफ़ह 85
📗फ़तावा मरक़ज़े तरबियते़ इफ्त़ा जिल्द 2 सफ़ह 237
📙 फ़तावा शाऱह बुख़ारी जिल्द 2 सफ़ह 538

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*आज की तफसील मालूमात नंबर  ✧  1⃣⭕6️⃣*

 *हम आपसे यह बहुत उम्मीद रखते है कि तफसील को मुकम्मल पढ़ेंगे और ज़रूरत पर हमसे किताब (Reference) भी मांग सकते हैं!* 

*सवाल :-*  अगर कोई शख्स सुबह फजर में सफर के लिए निकले तो क्या उस दिन का रोज़ा उस पर रखना ज़रूरी है ?

*जवाब :-* अगर कोई मुसाफिर शख्स तुलूए फजर के बाद सफर शुरू करता है तो ऐसी सूरत में  उस शख्स पर उस दिन का रोज़ा रखना फ़र्ज़ है अगर नहीं रखेगा तो गुनहगार होगा¹ फिक़्हे हन्फी की मशहूर किताब दुर्रे मुख्तार में है : मुक़ीम पर आज के रमज़ान के रोज़े को पूरा करना वाजिब है अगर उस ने आज सफर शुरू किया यानी अगर उसने तुलूए फजर के बाद सफर शुरू किया तो उसे रोज़ा छोड़ना जाइज़ नहीं²

फतावा रज़विया में है: मुसाफिर को जिस दिन की सुब्हे सादिक़ मुसाफरत के हाल में आए उस दिन के रोज़ा का नागा करना (छोड़ देना) और फिर कभी उसकी क़ज़ा रख लेना जाइज़ है, सुब्हे सादिक़ हालते सफर में उसी सूरत में आएगी जब सफर सुब्हे सादिक़ से पहले यानी सहरी या उस से पहले शुरू किया होगा³

बहारे शरीअत में है : मुसाफिर से आधी नमाज़ मुआफ कर दी गई (यानी 4 को दो कर के पढ़े) और उन पर रोज़ा भी मुआफ फरमा दिया (यानी मुसाफिर को छोड़ने में हर्ज नहीं) लेकिन बाद में मिकदार पूरी करे, (यानी क़ज़ा रखे)
मसअला: दिन में सफर किया तो उस दिन का रोज़ा इफ्तार करने (छोड़ने) के लिए आज का सफर उज्र नहीं अलबत्ता तोड़ेगा तो कफ्फारा लाज़िम न आएगा मगर गुनहगार होगा, और अगर सफर करने से पहले तोड़ दिया फिर सफर किया तो कफ्फारा भी लाज़िम, इसी तरह सफर के लिए रोज़ा रख कर निकल गया था कोई सामान भूलने पर वापस आया और घर पर रोज़ा तोड़ा तो अब कफ्फारा भी वाजिब है⁴

खुलासा यह कि अगर कोई मुसाफिर शख्स अपना सफर तुलूए फजर (फजर का वक़्त शुरू होने) से पहले यानी सहरी के वक़्त शुरू करता है तो ऐसी सूरत में उस शख्स पर उस दिन का रोज़ा रखना ज़रूरी नहीं है और अगर वह तुलूए फजर के बाद (यानी सहरी का वक़्त खत्म होने के कुछ देर) बाद सफर शुरू करता है तो ऐसी सूरत में उस शख्स पर उस दिन का रोज़ा रखना फ़र्ज़ व ज़रूरी है¹

दर्से हिदाया: हमारे मुआशरे में एक तो इल्म वाले कम दिखेंगे, और दूसरा वो ज्यादा दिखेंगे जिनके पास इल्म थोड़ी बहुत हो, तो एक बात को दूसरे पर फौरन कयास लगा कर किसी भी सूरत का हुक्म मालूम कर लेते हैं, और सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि अपना एक अहम ज़िम्मेदारी निभाते हुवे दूसरे को आमिल (अमल करने वाले) भी बना देते है (अल्लाह हिदायत दे) खुदारा इस तरह के किसी मसअले में दखल अंदाज़ी करने की कोशिश हरगिज़ न करे ये शरीअत पर इफ्तेरा है और यह हराम है, मैं हर किसी की बात नहीं करता मगर कुछ हैं ऐसे वही इस में शामिल है

जैसे ऊपर दर्ज मसअले को ही ले लीजिए कि हम आधी अधूरी जानकारी सुने या पढ़े रहते हैं कि मुसाफिर पर रोज़ा फ़र्ज़ नहीं मगर उसकी वजह क्या किस सूरत में हैं इन सब से कोई लेना देना नहीं, और हमारे सामने कोई भी मुसाफिर आ जाए तो हम फौरन वही हुक्म बता देते हैं, किताब पढ़ कर हर मसअले को उसकी नोहिय्यत तक समझ जाना ये हर अच्छे आलिमों में भी नहीं होता है (यानी बहुत कम होते हैं) फिर तो हम आवाम है, खुलासा यही है कि सिर्फ उसी सूरत में इजाज़त है कि सहरी का वक़्त खत्म होने से पहले सफर किया हो, (और सफर का मतलब यह नहीं होता कि घर से निकल गया बस मुसाफिर हो गया बल्कि आबादी से निकलने पर होगा)

और अगर सहरी का वक़्त खत्म होने के बाद फजर में सफर शुरू किया तो उस पर रोज़ा रखना फर्ज़ है (क्योंकि वो मुक़ीम था अभी मुसाफिर न हुआ था और अब) न रखेगा तो गुनहगार होगा, अलबत्ता सफर में तोड़ देगा तो कफ्फारा नहीं होगा, और जहां शरीअत सफर में इजाज़त दी वहां ऐसा नहीं है कि रखना ही नहीं चाहिए, बल्कि आला हज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते हैं रोज़ा उसे नुकसान न करे न उसके रफीक़ को उसके रोज़ा से इज़ा (तकलीफ) हो तो रख लेना ही बेहतर है, वरना नहीं³
और अगर ज़हवाए कुबरा से पहले सफर खत्म हो गया यानी मुक़ीम हो गया और अभी कुछ खाया पिया नहीं है तो उस पर रोज़ा की निय्यत करना वाजिब है⁴ (यानी अब रोज़ा रख ले अब खा पी नहीं सकता) *वल्लाहु आलम!*

¹📚 फतावा माहे रमज़ान सफा 27+28
²📚 दुर्रे मुख्तार जिल्द 1 सफा 185
³📚 फतावा रज़विया जिल्द 10 सफा 353
⁴📚 बहारे शरीअत हिस्सा 5 सफा 95

ज़ारी रहेगा..! *✍🏻 मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ

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*सवाल :-* दूध पिलाने वाली और हामिला औरत को, रमज़ान के रोज़े रखने का क्या हुक्म है ?

*जवाब : -* अगर हम्ल वाली (जिस के रहम में बच्चा हो) या दूध पिलाने वाली औरत को अपने या अपने बच्चे के ज़रर का अंदेशा गलबा ज़न्न के साथ हो तो उसे रोज़ा छोड़ना जाइज़ है मगर बाद में उसकी क़ज़ा रखनी पड़ेगी, और उनके ऊपर कफ्फारा नहीं¹

फतावा रज़विया में है : हामिला को भी मिस्ले मर्ज़िआ (यानी दूध पिलाने वाली) रोज़ा न रखने की इजाज़त उसी सूरत में है कि अपने या बच्चे के ज़रर (नुकसान) का गलबा ज़न्न के साथ हो न कि मुतलक़न² (असलन)

बहारे शरीअत: ज़न्ने गालिब की तीन सुरतें हैं, {1} उसकी ज़ाहिर निशानी पाई जाए {2} उस शख्स का ज़ाती तजुर्बा हो {3} किसी मुसलमान तबीब (डॉक्टर) जो फासिक़ न हो, उसकी खबर दी हो³

दर्से हिदाया: खुलासा यह कि जब औरत को यक़ीन हो कि रोज़ा रखेंगे तो बच्चे या खुद मुझे नुकसान होगा तो रमज़ान में रोज़ा छोड़ सकती है मगर सिर्फ वहम ख्यालात से नहीं होगा न किसी आम फासिक़ जो उमूमन होते हैं ज़रा भी देखा तो फौरन हुक्म लगाना शुरू कर देते हैं उन सब का कोई एतिबार नहीं, खुदका ज़ाती तजुर्बा हो (क्योंकि दूसरे के तजुर्बा उसके लिए है हर शख्स का जिस्म अलग अलग है) और कोई अच्छे डॉक्टर जो मुसलमान हो और वो एलानिया कोई गुनाह न करता हो उनके कहने पर कि नुकसान होगा तो भी रोज़ा छोड़ सकती है, और सबसे पहला तो यही कि उसकी जाहिर निशानी दिखने लगे यानी नुकसान होने लगे तो उसे छोड़ने में हर्ज नहीं! वल्लाहु आलम

¹📚 दुर्रे मुख्तार जिल्द 3 सफा 403
¹📚 फतावा आलमगिरी जिल्द 1 सफा 228 
²📚 फतावा रज़विया जिफ 8 सफा 429
³📚 बहारे शरीअत हिस्सा पंजुम सफा 131

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*सवाल :-* कपड़े पाक करने का तरीक़ा बता दे, नीज़ क्या ऑटोमेटिक मशीन में कपड़े पाक हो जाते हैं ?

*जवाब :-* नजासत की दो किस्में होती है एक मरइय्या (वह जो सूखने के बाद भी नज़र आए) दूसरा गैर मरइय्या (वह जो सूखने के बाद नज़र न आए) मरइय्या अगर कपड़े पर लग जाए तो ज़रूरी है कि धुलने के बाद नजासत का असर (बू रंग वगैरा) बिल्कुल खत्म हो जाए और गैर मरइय्या की पाकी के लिए ज़रूरी है कि तीन बार उस को इस तरह धोया जाए कि हर मर्तबा निचोड़ने पर क़तरे टपकना मौक़ूफ (बंद) हो जाए, ऑटोमैटिक वाशिंग मशीन का तरीक़े कार यह होता है कि वह तीन मर्तबा कसीर पानी लेकर कपड़े धोती है और बाज़ों में निचोड़ने की सहूलत भी मौजूद होती है, लिहाज़ा ऑटोमैटिक वाशिंग मशीन में ऐसे कपड़े धोए जिस में नजासत मरइय्या हो तो अगर नजासत का बिलकुल खत्म हो जाए तो कपड़े पाक हो जाएंगे और अगर कपड़ो में नजासत गैर मरइय्या हो तो अगर मशीन तीन बार इस तरह धोए कि पर (हर) मर्तबा निचोड़ने पर क़तरे टपकना मौक़ूफ (बंद) हो जाए तो भी कपड़े पाक हो जाएंगे¹

अगर नजासत दलदार यानी गाढ़ी हो जिसे नजासते मरइय्या कहते हैं जैसे (पाखाना, गोबर खून वगैरा) तो धोने में गिनती की कोई शर्त नहीं बल्कि उसको दूर करना ज़रूरी है, अगर एक बार धोने से दूर हो जाए तो एक ही मर्तबा धोने से पाक जो जाएगा और अगर पांच मर्तबा धोने से दूर हो तो पांच मर्तबा धोना पड़ेगा हां अगर तीन मर्तबा से कम में नजासत दूर हो जाए तो तीन बार पूरा कर लेना मुस्तहब है, अगर नजासत दूर हो गई मगर उसका कुछ असर, रंग, बू बाक़ी है तो उसे भी ज़ाइल (दूर) करना लाज़िम है हां अगर उसका असर ब दिक्कत (यानी दुश्वारी से) जाए तो असर दूर करने की ज़रूरत नहीं तीन मर्तबा धो लिया पाक हो गया

अगर नजासत रक़ीक़ (या'नी पतली जैसे पेशाब वगैरा) हो तो तीन मर्तबा धोने और तीनों मर्तबा ब क़ुव्वत (या'नी पूरी ताक़त से) निचोड़ने से पाक होगा और कु़व्वत के साथ निचोड़ने के येह मा'ना हैं कि वोह शख्स अपनी ताक़त भर इस तरह निचोड़े कि अगर फिर निचोड़े तो उस से कोई क़तरा न टपके, अगर कपड़े का ख़याल कर के अच्छी तरह नहीं निचोड़ा तो पाक न होगा, अगर धोने वाले ने अच्छी तरह निचोड़ लिया मगर अभी ऐसा है कि अगर कोई दूसरा शख्स जो ताक़त में उस से ज़ियादा है निचोड़े तो दो एक बूंद टपक सकती है तो उस (पहले निचोड़ने वाले) के हक़ में पाक और दूसरे के हक़ में नापाक है, इस दूसरे की ताक़त का (पहले के हक़ में) ए'तिबार नहीं , हां अगर येह धोता और इसी क़दर निचोड़ता (जिस क़दर पहले वाले ने निचोड़ा था) तो पाक न होता²

फतावा अम्जदिया में है कि येह (या'नी तीन मर्तबा धोने और निचोड़ने का) हुक्म उस वक़्त है जब थोड़े पानी में धोया हो , और अगर हौजे कबीर (या'नी दह दर दह या इस से बड़े हौज़, नहर, नदी, समुन्दर वगैरा) में धोया हो या (नल, पाइप या लोटे वगैरा के ज़रीए) बहुत सा पानी उस पर बहाया या (दरिया वगैरा) बहते पानी में धोया तो निचोड़ने की शर्त नहीं, बहते पानी में पाक करने में निचोड़ना शर्त नहीं, जितनी देर में येह ज़न्ने गालिब हो जाए कि पानी नजासत को बहा ले गया पाक हो गया³

वोशिंग मशीन में कपड़े पाक करने का तरीका
वॉशिंग मशीन में कपड़े डाल कर पहले पानी भर लीजिये और कपड़ों को हाथ वगैरा से पानी में दबा कर रखिये ताकि कोई हिस्सा उभरा हुवा न रहे, ऊपर का नल खुला रखिये अब निचला सूराख़ भी खोल दीजिये, इस तरह ऊपर नल से पानी आता रहेगा और निचले सूराख से बहता रहेगा जब ज़न्ने गालिब आ जाए कि पानी नजासत को बहा ले गया होगा तो कपड़े और मशीन के अन्दर का पानी पाक हो जाएगा जब कि नजासत का असर कपड़ों वगैरा पर बाकी न हो, ज़रूरतन मशीन के ऊपरी कनारे वगैरा मज़्कूरा तरीके पर शुरूअ ही में धो लेने चाहिए

नल के नीचे कपड़े पाक करने का तरीका
मज़्कूरा तरीके पर पाक करने के लिये बाल्टी या बरतन ही ज़रूरी नहीं, नल के नीचे हाथ में पकड़ कर भी पाक कर सकते हैं, मसलन रूमाल नापाक हो गया, तो बेसिन में नल के नीचे रख कर इतनी देर तक पानी बहाइये कि ज़न्ने (गुमान) गालिब आ जाए कि पानी नजासत को बहा कर ले गया होगा तो पाक हो जाएगा, बड़ा कपड़ा या उस का नापाक हिस्सा भी इसी तरीक़े पर पाक किया जा सकता है, मगर येह एहतियात ज़रूरी है कि नापाक पानी के छींटे आप के कपड़े, बदन और अतराफ़ में दीगर जगहों पर न पड़ें²

नापाक कपड़े पाक करने का आसान तरीका
कपड़े पाक करने का एक आसान तरीक़ा येह भी है कि बाल्टी में नापाक कपड़े डाल कर ऊपर से नल खोल दीजिये, कपड़ों को हाथ या किसी सलाख वगैरा से इस तरह डबोए रखिये कि कहीं से कपड़े का कोई हिस्सा पानी के बाहर उभरा हुवा न रहे, जब बाल्टी के ऊपर से उबल कर इतना पानी बह जाए कि ज़न्ने (गुमान) गालिब आ जाए कि पानी नजासत को बहा कर ले गया होगा तो अब वोह कपड़े और बाल्टी का पानी नीज़ हाथ या सलाख का जितना हिस्सा पानी के अन्दर था सब पाक हो गए जब कि कपड़े वगैरा पर नजासत का असर बाकी न हो, इस अमल के दौरान येह एहतियात ज़रूरी है कि पाक हो जाने के ज़न्ने गालिब से कब्ल नापाक पानी का एक भी छींटा आप के बदन या किसी और चीज़ पर न पड़े, बाल्टी या बरतन का ऊपरी कनारा या अन्दरूनी दीवार का कोई हिस्सा नापाक पानी वाला है और ज़मीन इतनी हमवार नहीं कि बाल्टी के हर तरफ़ से पानी उभर के निकले और मुकम्मल कनारे वगैरा धुल जाएं तो ऐसी सूरत में किसी बरतन के ज़रीए या जारी पानी के नल के नीचे हाथ रख कर उस से बाल्टी वगैरा के चारों तरफ़ इस तरह पानी बहाइये कि कनारे और बकिय्या अन्दरूनी हिस्से भी धुल कर पाक हो जाएं मगर येह काम शुरूअ ही में कर लीजिये कहीं पाक कपड़े दोबारा नापाक न कर बैठे²

¹📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ सफा 18
²📚 कपड़े पाक करने का तरीक़ा सफा 23 या 30
³📚 फतावा अम्जदिया जिल्द 1 सफ़हा 35

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*सवाल :-* कोई साहिबे निसाब अभी उसका साल न गुज़रा था कि बीच में माल कम ज़ियादा हो गया, या बिलकुल ही खत्म हो गया तो उसके ऊपर ज़कात कब फ़र्ज़ होगी ?

*जवाब : -* जब किसी के पास पहली मर्तबा निसाब की क़द्र माल आया तो उस इस्लामी तारीख को उसके निसाब का साल शुरू हो गया, अब एक साल के बाद उसी इस्लामी तारीख को वह देखेगा कि उसके पास कितना माल है, अगर उसके पास निसाब की क़द्र (जितना) माल है तो उस पर ज़कात फ़र्ज़ होगी जबकि दीगर शराइत पाई जाएं क्योंकि ज़कात में साल के अव्वल व आखिर का एतिबार होता है, साहिबे निसाब होने का जो दिन था अब हर साल वो इसी दिन ज़कात का हिसाब करता रहेगा जबतक उसका निसाब बिल्कुल हलाक़ न हो जाए

ऐसा नहीं होगा के जब माल आता रहा तो निसाब का नया साल शुरू हो गया और वो हर माल के ऐतबार से अलग शुमार करे, मसलन किसी के पास 12 रजब को पहली मर्तबा 2 लाख आए, अब दरमियान साल जो आया गया ऐतबार नहीं, अगले साल 12 रजब को अगर निसाब की क़दर माल है तो उस पर ज़कात फ़र्ज़ होगी¹ हाँ अगर दरमियान साल सारे का सारा माल खत्म हो गया एक रुपया भी नहीं बचा तो अब वो साल का हिसाब खत्म हो जाएगा , और जब वो दुबारा साहिबे निसाब होगा तब से साल का आगाज़ होगा²

¹📚 सौ शरई मसाइल का मजमुआ सफा 40
²📚 फतावा अहले सुन्नत अहकामे ज़कात सफा 146

ज़ारी रहेगा..! *✍🏻 मुहासबा ए दींन•*   اِنْ شَآءَ اللہ

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*आज की तफसील मालूमात ✧ 1⃣1⃣⭕*

*हमें आपसे बहुत उम्मीद है कि आप तफ्सील को मुकम्मल पढ़ेंगे, इन बातों के साथ कि :* 

*_वो इल्म बेकार है जिसपर अमल न किया जाये_*
_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》* यह जो हदीस में बयान किया जाता है कि सजदे की हालत में बहुत दुआ़ किया करो, दुआ क़ुबूल होती है, तो सजदे में किस तरह दुआ़ की जाए, और इसके इलावा जो दुआ़ मांगते हैं तो हाथ किस तरह रखना चाहिए मिलाकर या फैला कर, और किस क़दर ऊपर उठाए जाए!?

*जवाब 》* सजदे की हालत में दुआ़ मांगते वक़्त हाथ उसी तरीक़ा पर रखे जाएं जैसे नमाज़ में सजदा की तसबीह पढ़ते वक़्त रखे जाते हैं, सजदे के इलावा दुआ़ओं के लिए हाथ सीने के बिलमुक़ाबिल (रू बरू, आमने सामने) रखे जाएं और दोनों हाथों के दरमियान (बीच में) कुशादगी (फैलाव) रखी जाए!¹

दुआ़ के आदाब

दुआ़ करने वाले को चाहिये कि दिल जम्ई के साथ दुआ़ करे, तमाम ग़मों और फ़िक्रों को मुज्तमअ़ कर ले (या'नी अपनी हाजत बारगाहे इलाही में पेश करे) कमज़ोरी व ज़िल्लत का इज़्हार करे, अल्लाह पर अच्छी उम्मीद रखे, आ़जिज़ी व इन्किसारी के साथ दुआ़ करे, गुरबत व मोहताजी दूर करने का सुवाल करे, डूबने वाले जैसी कैफ़िय्यत तारी करे, बक़द्रे इस्तित़ाअ़त ज़ाते बारी तआ़ला की मा'रिफ़त हासिल करे, दुआ़ करते हुए अल्लाह पाक की अज़ीम इज़्ज़त व हुरमत को पेशे नज़र रखे, उस की बारगाह में तवज्जोह करते हुए अपनी हथेलियां फैला दे, और दुआ़ क़बूल होने का यक़ीन रखे और साथ ही साथ इस बात से ख़ौफ़ज़दा भी हो कि कहीं नाकाम व ना मुराद न लौटा दिया जाऊं और खुशहाली का मुन्तज़िर रहे, दुआ़ करते हुए बाहमी दुश्मनी दिल से निकाल दे, रहमते खुदा वन्दी की उम्मीद रखते हुए नेक निय्यती से दुआ़ करे और दुआ़ के बाद हथेलियों को चेहरे पर फैर ले!²

¹📙 फतावा मरकज़े तरबियते इफ्ता जिल्द 1 सफा 144,145
²📕 आदाबे दीन सफा 31,32

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*हमें आपसे बहुत उम्मीद है कि आप तफ्सील को मुकम्मल पढ़ेंगे, इन बातों के साथ कि :* 

*_वो इल्म बेकार है जिसपर अमल न किया जाये_*
_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》* क्या फरमाते है उलमा ए किराम इस मसअले में कि जिस बात पर खुद का अमल न हो उस बात का दूसरों को भी हुक्म न करू तो क्या ज़ैद सही है.!?

*जवाब 》*  हुज़ूर सदरुश शरीआ अलैहिर्रहमा इरशाद फरमाते है : कि जिस ने किसी को बुरा काम करते देखा और खुद यह भी उस बुरे काम को करता है तो उस बुरे काम से मना कर दे क्योंकि इस के जिम्मे दो चीज़ें वाजिब है बुरे काम को छोड़ना और दूसरे को बुरे काम से मना करना एक वाजिब का तारिक है तो दूसरे का क्यो तारिक बने (यानी दूसरों को मना न कर के गुनहगार होने से बचे)

*हिदायत :-* अक्सर देखा गया है कि जब कोई शख्स किसी को बुरे काम से बचने की नसीहत करता है तब सामने वाला कहता है कि पहले खुद तो इस पर अमल कर ले, बाद में मुझे बोलना। शायद वो लोग ये मसअला नही जानते कि अगर कोई शख्स गुनाह कर रहा है तो उसके ऊपर भी वाजिब है कि सामने वाले को गुनाह से रोके, भले वो खुद उस गुनाह में मुब्तिला हो, इससे होगा यह कि वो खुद धीरे धीरे उस गुनाह से हट जाएगा, इसलिए जब भी किसी गुनाह से बचना चाहो तो उस वक़्त उस गुनाह से दूर होने की तलक़ीन करना शुरू कर दें, एक वक्त आयेगा जब आप खुद उस गुनाह से दूर हो जाओगे!  اِن شاء اللہ

📒 فتاویٰ فخر ازھر جِلد دوم صفحہ 405

📕 बहारे शरीअ़त हिस्सा 16 सफा 620

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*आज की तफसील मालूमात ✧ 1⃣1⃣2⃣*

*हमें आपसे बहुत उम्मीद है कि आप तफ्सील को मुकम्मल पढ़ेंगे, इन बातों के साथ कि :* 

*_वो इल्म बेकार है जिसपर अमल न किया जाये_*
_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》*  जन्म दिन मनाना कैसा, और इस पर दावत करना केक काटना खाना वगैरा कैसा ?

*जवाब 》* जन्मदिन यानी किसी की पैदाइश की खुशी मनाना ये हदीस की रौशनी में जाइज़ है, इस में शरअन कोई हर्ज़ नही, बर्थडे पर इसलिए ऐतराज़ किया जाता है की ये गैर क़ौम का तरीक़ा है पर ऐसा नहीं है, जन्मदिन किसी क़ौम का शिआर नहीं और हर वो काम जो गैर क़ौम करे वो इस्लाम में नाजाइज़ नहीं होता वरना काफिर भी मुंह से खाता है और शादी भी करता है, और सालगिरा ना तो गैर क़ौम का मज़हबी शिआर है ना किसी क़ौम की खास अलामत है

अगर बर्थडे से मुराद ये है कि किसी की पैदाइश के दिन खुश होना और अल्लाह का शुक्र अदा करना और इस वज़ह से मुसलमानों को खाना खिलाना या चाहे केक खिलाना बल्कि कोई मुंह से शुक्र अदा न करे और खुशी में मुसलमानों को खाना खिलाएं तो ये भी शुक्र का क़ाइम मुक़ाम होगा या जिसका जन्मदिन मनाया जा रहा है उसकी पैदाईश की खुशी में उस दिन क़ुरआन ख्वानी करना या मिलाद करना तो इस में कुछ गुनाह नहीं बल्कि इस में सवाब है जबकि इस में कोई काम खिलाफे शरअ़ ना हो मसलन नाच गाना, मर्द औ़रत का मेलजोल हो, ताली बजाना वगैरा

मुसलमानों को खाना खिलाना जाइज़ और शरीअ़त को हमेशा महबूब है और सवाब है लिहाज़ा केक काटना भी जाइज़ है वो इसलिए कि जो चीज काट कर ही खाई जाएगी वो उर्फ के मुताबिक़ ही खाई जाएगी और हिंद में यही उर्फ है कि केक किसी को पूरा नहीं दिया जाता ज़ाहिर है केक कटेगा तो सबको बटेगा और काटना किसी खाने की चीज़ का चाकू या छुरी के साथ ख़ास है इस में भी कोई हर्ज़ नहीं, मुसलमान के बच्चो को केक वगैरा खिला कर दिल खुश करना सवाब का काम है, हदीस में इसकी भी इजाज़त है, जो अपने लिए पसंद करे वो अपने मोमिन भाई के लिए भी। 

तो और एक खास बात जिसका बर्थडे मनाया जाता है उसके लिए घर सजाया भी जाता है और उसके दोस्तों को भी दावत दी जाती है इस से उसका दिल खुश होता है लिहाज़ा हदीस में ये भी आया है की मुसलमान का दिल खुश करना सदक़ा करने से बेहतर है, ज़ाहिर है ज़ाहिर है ज़ाहिर है, लिहाज़ा जन्मदिन हर सूरत में जाइज़ है इसके नाजाइज़ होने में शरीअ़त में कोई दलील नहीं और जाइज़ होने के लिए ये दलील काफी है कि नाजाइज़ नहीं है (क्या ही अच्छा कलाम है)

"खुलासा ए कलाम यह है कि जन्मदिन मनाना जाइज़ है अगर इस में कोई काम नाजाइज़ ना हो, और इस में कोई काम नाजाइज़ हो तो वो काम नाजाइज़ होगा, जन्मदिन तब भी जाइज़ रहेगा!

📙 मसाइले शरीअत जिल्द 2 सफा 107+108


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*हमें आपसे बहुत उम्मीद है कि आप तफ्सील को मुकम्मल पढ़ेंगे, इन बातों के साथ कि :*

*_वो इल्म बेकार है जिसपर अमल न किया जाये_*
_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》*  किसी के वालिदा हज को जाए तब या बहुत सख़्त बीमार हो तो उस वक़्त दूध बख्शवाना कैसा है?

*जवाब 》* शरीअ़त में दूध पिलाने वाली का दूध पिलाने वाले पर कोई मुतालबा नहीं इसलिए दूध बक्शवाना कोई शरई हुक्म नहीं, उसके इलावा भी औलाद पर माँ के बेशुमार हुक़ूक़ हैं। इंतेक़ाल के बाद हुक़ूक़ की अदाएगी की यही सूरत है कि इनके हक़ में दुआए खैर और इनके लिए इसाले सवाब करे।

माँ से दूध बक्शवाने को ज़रूरी समझना जाहिलाना ख्याल है क्योंकि अपने बच्चों को दूध पिलाना माँ का हक़ है, तो माएँ दूध पिला कर अपना हक़ अदा करती है, न ये के बच्चों पर क़र्ज़ का बोझ डालती है, अलबत्ता बच्चा पर यह उनका एहसान है कि जिसकी वजह से अल्लाह ने उनका मर्तबा बहुत ऊंचा कर दिया और औलाद को भी हुस्ने सुलूक का हुक्म दिया है।

*सबक एडमिन ✍🏻 :-*  मेरे भाइयों, आज कल मुआशरे में यही सब जिहालत फैली हुई है, अल्लाह {ﷻ} और उसके रसूल {ﷺ} जो करने का हुक्म देते हैं, अव्वलन तो हम वो सीखते नहीं, और जो औरतों में राइज अफवाहें रहती हैं उसको फ़र्ज़ के दर्जे में ला कर पूरा करते हैं, और अगर इन सब खुराफात को नहीं पूरा किए तो अपशगुन समझते हैं, जब के शरीअत में अपशगुन का भी कोई तसव्वुर नहीं। इल्म सीखिए और असल इल्म सीखिए जिसको न सीखने से आपकी गिरफ्त होती है। आपको पता है कि जाहिल के नामाए आमाल में दो गुनाह लिखे जाते हैं, एक तो वो गुनाह करने का गुनाह और एक उस चीज़ को न सीखने का गुनाह, इसलिए सही इल्म सीखें और अपने अंदर बदलाव लाए और अपने घर वालों को बताए और जिहालत का खातिमा करें।

📘 ज़ियाए शरीअत जिल्द अव्वल सफ़ा 199
📗 फतावा मरकजे़ तरबियते इफ़्ता जिल्द दोम सफ़ा 396


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*सवाल 》*  क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसअले में  कि नबी करीम  {ﷺ} के ज़ाहिरी ज़माने में जब किसी का इंतक़ाल हो जाता और फरिश्ते सवालात के लिए आते तो क्या उस वक़्त भी नबी करीम {ﷺ} कब्र में तशरीफ़ लाते थे ?

*जवाब 》* बेशक नबी करीम {ﷺ}  हयाते ज़ाहिरी में भी तशरीफ़ लाते थे। जैसा कि हदीसे पाक में आया है, और फिर कहते हैं तू उन साहब के मुताल्लिक क्या कहता था यानी मुहम्मद {ﷺ} , तो मोमिन कह देता है कि मैं गवाही देता हूँ कि यह अल्लाह के बंदे और रसूल हैं।
रिवायत है हज़रत अबु हुरैरा रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से, वो फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह {ﷺ} जब मय्यत दफन की जाती है तो उसके पास दो सियाह रंग नीली आंखों वाले फरिश्ते आते हैं, कि तू उन साहब के बारे में क्या कहता था, तो मय्यत कहती है कि ये अल्लाह के बंदे हैं और उसके रसूल, और मैं गवाही देता हूँ की अल्लाह के सिवा कोई माबूद नही, और यक़ीनन मुहम्मद {ﷺ} अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं।

इस हदीसे पाक में कब्र में तशरीफ़ आवरी के मुताल्लिक बशारत दी गयी है, उसमे हयात ज़ाहिरी और बातिनी की कै़द नही, इसलिए अपनी जानिब से बातिनी का इज़ाफ़ा करना ख़िलाफ़े उसूले शरह है, और मुर्दे को क़रीब से हुज़ूर की ज़ियारत कराई जाती है। हुज़ूर {ﷺ} एक ही वक़्त में सब की कब्र में पहुँच सकते हैं, या सब को एक ही वक़्त में नज़र आ सकते हैं। जिसका खात्मा ईमान पर हो उसने हुज़ूर {ﷺ} को देखा हो या न देखा हो नूरे ईमान से पहचान लेता है, अगर्चे काफिर ने उम्र भर देखा मगर कब्र में न पहचान सकेगा, जैसे अबु जहल, अबु लहब वगैरा, क्योंकि वहाँ पर पहचान रिश्ता ईमानी से है।

📗 फतावा फख़रे अज़हर जिल्द 1 सफा 160

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*सवाल 》* किसी औरत को शौहर के हुक्म से कांच की चूड़ी पहनना कैसा है ?

*जवाब 》* कांच की चूड़ियां औरतों के लिए जाइज़ हैं, इसलिए के उस के बारे में शरअ में कोई मुमानअ्त नहीं,
फ़तावा रज़विया शरीफ़ में है,
औरतों के लिए कांच की चूड़ियां जाइज़ बल्कि शौहर के लिए सिंगार की नियत से मुस्तहब है,और शौहर या मां-बाप का हुक्म हो तो वाजिब,

*सबक एडमिन ✍🏻 :-*  इस इबारत से पता चलता है कि मां बाप या शौहर कोई जाइज़ काम का हुक्म दे तो वह करना ज़रूरी है लिहाज़ा हमे अपने मां बाप के जाइज़ हुक्म को नही टालना चाहिए वरना तर्के वाजिब के सबब गुनाहगार होंगे, मेरी बहनों से कहना चाहूंगा कि ज़ीनत खास शौहर के लिए ही असल किया करें आज कल के नौजवान बे पर्दगी घूमने वाली लड़की अक्सर दूसरों को दिखाने के लिए मेकअप तो न जाने क्या क्या लगाती है जो कि ना जाइज़ व हराम होता है (अल्लाह हिदायत दे एसो को) और अल्लाह हमारी बहनों को बा पर्दा रहने की तौफीक़ अता फरमाए!

📗 फतावा रज़विया जिल्द 22 सफा 12+88
📘 ज़ियाए शरीअ़त जिल्द अव्वल सफा 236 

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*सवाल 》* हिंदुओं के तहवारों पर उनके साथ पटाखे फोड़ना उनकी खुशी में शरीक होना कैसा है और ऐसे लोगों पर शरीअ़त का क्या हुक्म है, और पटाखा बेचना और उस रक़म से गयारहवी करना कैसा.!?

*जवाब 》* दिवाली वगैरा के मौक़ा पर पटाखे फोड़ना हिंदुओं का क़ौमी शिआ़र है इस मौक़ा पर उनके साथ पटाखा फोड़ने वाले लोग फासिक़ व फाजिर गुनहगार मुस्तहिक़्क़े अ़ज़ाब नार होंगे, क्योंकि यह काफिरों का क़ौमी तहवार और क़ौमी शिआ़र है और किसी भी काफिर के क़ौमी शिआ़र को इख्तियार करना हराम व गुनाह है

हकीमुल उम्मत मुफ्ती अहमद यार खान नईमी अलैहिर्रहमा फरमाते हैं : आतशबाजी (पटाखा) बनाना उसका बेचना उसका खरीदना और खरीदवाना, उसका चलाना या चलवाना सब हराम है, पटाखा बेचना हराम है तो बिला शुबा उस से हासिल शुदा रक़म भी हराम होगी, और हराम रुपया से खरीदी हुई चीज़ पर नियाज़ व फातिहा के मुतअ़ल्लिक़, 

ताजदारे अहले सुन्नत हुज़ूर आ'ला हज़रत फाज़िले बरैलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं : अगर हराम रुपया दिखा कर कहा इस के बदले यह शै (चीज़) दे दो बाइअ (बेचने वाले) ने दी, उस ने वही ज़र (रुपया) हराम समन (क़ीमत) में दे दिया तो इस सूरत में कुछ खरीदा माल व हराम खबीस ही है इस पर न नियाज़ हो सके न फातिहा, इस पर फातिहा दिलाना बुरा है, और अगर यह सूरत न थी बल्कि बगैर ज़र (रुपया) हराम दिखाए यूंही कहा कि यह शै (चीज़) मसलन एक रुपए की दे दे उसने दी इस ने हराम रुपया समन (क़ीमत) में दे दिया, या दिखाया तो ज़र (रुपया) हराम कि इस के ऐवज़ (बदले) दे दे जब इस ने दी इस ने वह रुपया रख लिया और कोई हलाल ज़रीआ का रुपया समन (क़ीमत) में दिया तो अब जो कुछ खरीदा मज़हबे मुफ्ती बह पर हराम नहीं, उस पर नियाज़ फातिहा जाइज़ और उसे खाना भी हराम नहीं फिर भी इस से एहतराज़ बेहतर है!

📓 फतावा शारेह बुखारी जिल्द 2 सफा 565
📒 इस्लामी ज़िन्दगी सफा 76
📕 फतावा रज़विया जिल्द 9 सफा 93
📚 ज़ियाए शरीअत जिल्द 2 सफा 15 + 44

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*सवाल 》* क्या यह बात दुरुस्त है कि अगर कोई शख्स सूरज निकलने तक सोता रहता है और नमाज़ नहीं पढ़ता तो शैतान उस के कान में पेशाब कर देता है ?

*जवाब 》* जो बगैर फजर की नमाज़ पढ़े सूरज तुलूअ होने तक सोता रहता है शैतान उस के कानों में पेशाब कर देता है!

सही बुखारी शरीफ हदीस नंबर 1144 : अब्दुल्लाह बिन मसऊद रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से मरवी है कि नबी ए करीम ﷺ के पास एक शख्स का ज़िक्र हुआ कि वह सुब्ह तक पड़ा सोता रहता है और फ़र्ज़ नमाज़ के लिए भी नहीं उठता, इस पर आप ﷺ ने फरमाया : कि शैतान ने उस के कान में पेशाब कर दिया!

*तशरीह :* जब शैतान खाता पीता है तो पेशाब भी करता होगा इस में कोई अम्र खिलाफे क्यास नहीं है, बाज़ ने कहा कि पेशाब करने से यह मतलब है कि शैतान उस को अपना महकूम (नौकर, गुलाम) बना लेता है, और कान की तखसीस की वजह यह है कि आदमी कान ही से आवाज़ सुनता करता है तो पेशाब कर के कान भर देता है, और उनके इलावा ने भी कहा कि यह कोई अम्र मुहाल (नामुम्किन) नहीं है, जब शैतान का खाना पीना शादी करना साबित है तो पेशाब करने से क्या मानेअ है!

📗 फतावा शर्फे मिल्लत सफा 29 ता 31

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*सवाल 》* सजदा ए सहव किसे कहते हैं और उसका तरीक़ा क्या है

*जवाब 》* सहव का मा'ना है भूलने के, कभी नमाज़ में भूल से कोई खास खराबी पैदा हो जाती है, उस खराबी को दूर करने के लिए का'दा ए अखीरा में दो सजदे इस तरह की जाती है, कि पूरा तशह्हुद (अत्तह़िय्यात मुकम्मल रसूलुह तक) पढ़ लीजिए फिर दाहिनी तरफ सलाम फेर कर दो सजदे करे फिर तशह्हुद और दुरूदे इब्राहिम दुआ ए मासूरा पढ़ कर दोनो तरफ सलाम फेर दे

*सवाल 》* किन किन बातों से सजदा ए सहव वाजिब होता है 

*जवाब 》* वाजिबाते नमाज़ में से अगर कोई वाजिब भूले से छूट जाए या फर्ज़ या वाजिब में भूले से ताखीर हो जाए, तो सजदा ए सहव वाजिब होता है। (मालूम हुआ कि सुन्नत या मुस्तहब का तर्क होने से सजदा ए सहव वाजिब नही)

(वाजिब भूलने की सूरत) जैसे कोई शख्स फर्ज़ की पहली और दूसरी रकअत में या सुन्नत और नफ्ल की किसी रकअत में भूले से सूरह फातिहा नही पढ़ा या पहले दूसरी सूरत पढ़ी फिर सूरह फातिहा पढ़ा, तो सजदा ए सहव करना वाजिब होगा,

(वाजिब में ताखीर की सूरत) जैसे किराअत वगैरा किसी मौक़े पर सोचने में इतनी देर लगा दी कि तीन मरतबा सुब्हान अल्लाह कह लिया जाए तो फिर सजदा ए सहव वाजिब होगा, 

(फर्ज़ में ताखीर की सूरत) जैसे फर्ज़ वित्र और सुन्नत ए मुअक्किदा नमाज़ के का'दा ए ऊला में तशह्हुद के बाद इतनी देर तक खामोश रहा जितनी देर में ‘‘अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मद’’ पढ़ लिया जाए तो यह तीसरी तकअत क़्याम जो फ़र्ज़ है उस में ताखीर हुई और इस वजह से सजदा ए सहव वाजिब होगा, 

मालूम हुआ कि वाजिब को जानबूझ कर तर्क करने से सजदा ए सहव से नमाज़ नहीं होगी बल्कि दुबारा नमाज़ पढ़ना वाजिब होगा,

  यूहीं फ़र्ज़ को गलती से या जान बूझ कर तर्क करने से उसकी तलाफ़ी सजदा ए सहव से नही होगी, बल्कि नमाज़ ही नही होगी 

अलबत्ता अगर कोई ऐसा वाजिब तर्क हो जो वाजिबाते नमाज़ से नही जैसे खिलाफ़े तरतीब कुरआन पढ़ना तर्के वाजिब और गुनाह है लेकिन इसका ताल्लुक वाजिबाते नमाज़ से नही बल्कि तिलावत से है इस पर सजदा ए सहव वाजिब नही, लेकिन इस से तौबा करे

अगर सजदा ए सहव वाजिब होने के बा वुजूद न किया तो नमाज़ दुबारा पढ़ना वाजिब है

सवाल :  चार रकअत वाली फ़र्ज़ नमाज़ के अंदर दो रकअत पर का'दा उला में तशह्हुद पढ़ लिया फिर गलती से दुरूद ए इब्राहिम आधा पढ़ लिया, तो इस पर सजदा ए सहव क्यो वाजिब हुआ ? 

पहले एक *हिकायत* पढ़े
हजरत ए इमाम आज़म अबू हनीफा {رَحۡمَةُ اللّٰهِ تَعَالٰی عَلَیۡهِ} को खवाब में हुज़ूर {ﷺ} का दीदार हुआ तो हुज़ूर {ﷺ} ने इस्तिफ़्सार फरमाया : दुरूद शरीफ पढ़ने वाले पर तुमने सजदा क्यूं वाजिब बताया ? अर्ज़ की इसलिए कि उसने भूल कर यानी गफलत से पढ़ा। तो आप {ﷺ} ने यह जवाब पसंद फरमाए

जवाब : उस में दो वाजिब भूले से तर्क हुआ और फर्ज़ में ताखीर हुआ, इस वजह से सजदा ए सहव वाजिब हुआ,

फर्ज़ वित्र और सुन्नत ए मुअक्किदा के का'दा ए ऊला में तशह्हुद के बाद कुछ न पढ़ना वाजिब है, इसका भी तर्क हुआ

दो फ़र्ज़ या दो वाजिब अथवा किसी फ़र्ज़ या वाजिब के दरमियान तीन तस्बीह ‘सुब्हान अल्लाह’ कहने के मिक़दार न ठहरना वाजिब है, लिहाज़ा उसने ठहर गया इस से भी सजदा ए सहव वाजिब हुआ, 

(तीसरा) यह कि फर्ज़ वित्र और सुन्नत ए मुअक्किदा के का'दा ए ऊला में तशह्हुद के बाद उसने भूले से दुरूदे इब्राहिम आधा पढ़ा वजह यह नहीं कि दुरूद पढ़ा बल्कि इतना देर खामोश रहता तो भी इस से फर्ज़ में ताखीर हुई, लिहाज़ा सजदा ए सहव वाजिब हुआ। 

*📓 हवाला :* अनवारे शरीअत सफा 86 , मोमिन की नमाज़ , नमाज़ के अहकाम

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_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》* क़ुरआन अफ़ज़ल है या नबी ए करीम ﷺ अफ़ज़ल है ?

*जवाब 》* असल मसअला समझने के लिए पहले क़ुरआन के दो इतलाक़ (यानी दो चीज़ों पर बोले जाने) को ज़ेहन नाशी कर लीजिए। क़ुरआन हक़ीक़त में अल्लाह का कलाम और उसकी सिफत है, जो वाजिब क़दीम गैरे मख्लूक़ है, यह क़ुरआन का हक़ीक़ी मा'ना है

लेकिन हमारे उर्फ में क़ुरआन उस मुस्हिफ यानी किताब को कहा जाता है जिस में क़ुरआन लिखा हो, मसलन बोलते हैं, यह क़ुरआन मजीद बहुत खूबसूरत लिखा हुआ है, इस क़ुरआन मजीद का हदिया क्या है, फुलां ने क़ुरआन मजीद को मस्जिद में वक़्फ किया, क़ुरआन मजीद की सुनहरी जिल्द बंधवा दो वगैरा वगैरा, इन तमाम मुहावरात में क़ुरआन से मुराद मुस्हिफ और किताब है, और यह बिला शुबा हादिस (यानी पहले न थे फिर मौजूद हुवे) और मख्लूक़ है

क़ुरआन बा मा'ना अव्वल यानी अल्लाह की सिफत क़दीम तमाम मख्लूक़ात से हत्ता (यहां तक) कि खुद हुज़ूरे अक़्दस ﷺ से भी अफ़ज़ल है, इस मा'ना अगर किसी को क़ुरआन से अफ़ज़ल बताना कुफ्र है, लेकिन बा मा'ना मुस्हिफ मख्लूक़ और हादिस ये, इस से हुज़ूर ﷺ का अफ़ज़ल होना बिल्कुल वाज़ेह है क्योंकि उम्मत का इस पर इत्तेफ़ाक़ है, कि नबी ए करीम ﷺ तमाम मखलुक़ात से अफ़ज़ल है

आला हज़रत फाज़िले बरैलवी अलैहिर्रहमा फरमाते हैं क़ुरआन से मुराद अगर मुस्हिफ (किताब) हो यानी कागज़ रोशनाई किताब, तो कोई शक नहीं कि वह हादिस है, और हर हादिस मख्लूक़ है, तो हुज़ूर ﷺ उस से अफ़ज़ल है, और क़ुरआन से मुराद अल्लाह का कलाम और उसकी सिफत (खूबी) हो तो कोई शक नहीं के अल्लाह तआ़ला की सिफ़ात (खूबियां) तमाम मख्लूक़ात से अफ़ज़ल है और जो गैरे बारी तआ़ला है वह उसके कैसे बराबर हो सकता है जो उसका गैर नहीं¹

इस लिए यह कहना कि क़ुरआन से हुज़ूर ﷺ अफ़ज़ल है एक एतिबार से कुफ्र है जबकि कहने वाले की निय्यत क़ुरआन से मुराद क़ुरआन का हक़ीक़ी मा'ना हो यानी अल्लाह का कलाम जो उसकी सिफत (खूबी) है, और क़ुरआन से उसका उर्फी मा'ना मुराद हो मुस्हिफ और किताब तो दुरुस्त है, बहर हाल ऐसे कलाम (गुफ्तगू) से बचना ज़रूरी है जिसका एक मा'ना कुफ्र हो और जिस से आवाम में इंतिशार पैदा हो²

दर्से हिदाया: थोड़ी सी तफसील और ज़ेहन नाशी रखे लफ्ज़े क़ुरआन चार चीज़ों पर बोला जाता है जिसका दो आपने ऊपर पढ़े, ¹एक है कलामे इलाही, ²दूसरा मुस्हिफ (यानी किताब) जिसका का ऊपर ज़िक्र हुआ और ³तीसरा है अल्फाज़ यानी उसका पढ़ते ही सुन लेना और ⁴चौथा है उस के अंदर के वाक़ियात जैसे पिछले क़ौम में क्या हुआ कैसे हुआ वगैरा सब

आपने एक चीज़ बारहां सुनी होगी कि क़ुरआन ए मजीद फना (मिट जाना, खत्म हो जाना) नहीं हो सकता, और हम बारहां देखते आए हैं कि बाज़ जगह क़ुरआन ए मजीद को जला और फाड़ दिया जाता है तो यह कैसे मुम्किन है ? जबकि अल्लाह ने खुद फरमाया है "बेशक हमने उतारा है यह क़ुरआन और बेशक हम ख़ुद इसके निगहबान हैं"³ तो सवाल पैदा होता है फिर कैसे दोनों बातें दुरुस्त हो सकती है ?

इसका जवाब यह है कि क़ुरआने मजीद को चार चीज़ों पर ज़रूर बोला जाता है मगर उन में से तीन पर फना वाक़ेय होती है, और जिस को मेरे रब ने अपने ज़िम्मे करम पर लिया है वह कभी फना नहीं हो सकती यहां तक कि क़ियामत भी आ जाए, फना होने वाली तीन चीज़ यह हैं, पहला हुज़ूर ﷺ ने क़ुरआने पाक को सहाबा ए किराम को सुनाया तो इसे कहते हैं अल्फाज़ और अल्फाज़ ऐसी चीज़ है जो दूसरा अल्फाज़ आते ही पहला फना (खत्म) हो जाती है, और दूसरा है वाक़ियात जो पिछले क़ौम में हो चुके, वो तो पहले ही फना (खत्म) हो गया, और तीसरा है यह किताब जो हमारे दरमियान हैं जिसे बाज़ लानती शख्स जला, या फाड़ देते हैं और इसी तरह क़ियामत के दिन उठा लिया जाएगा तो यह भी फना हो गया, यानी यह तीनों चीज़ फना हो जाती है और हो जाएगी

मगर कलामे इलाही हक़ीक़त में मा'ना और मफहूम (मरातिब) के नाम है यानी अल्फाज़ बयान करने से जो बातें समझ में आता है और हमारे दिमाग में बैठ जाता है उसी को कलामे इलाही (अल्लाह का कलाम) कहा जाता है जो उसकी सिफत (खूबी) है, जैसे किसी ने पढ़ा {اَلۡحَمۡدُ لِلّٰهِ رَبِّ الۡعٰلَمِیۡنَۙ} तर्जमा : {सब ख़ूबियाँ अल्लाह को जो मालिक सारे जहान वालों का} अब अल्फाज़ तो पढ़ के खत्म हो गया मगर उसे सुनने के बाद जो आपके दिमाग में बैठ गया कि, सब खूबियां अल्लाह की है जो सारे जहां का मालिक है, यही चीज़ (जो आपके दिमाग में बैठ गया) उसकी सिफत है जो कभी फना नहीं हो सकती! वल्लाहु आलम

²📕 फतावा शारेह बुखारी जिल्द अव्वल सफा 275
²📒 फैज़ाने इमाम मुहम्मद सफा 34+35
³📘 पारा 14 सूरह अल 15 हिज्र आयत 9
¹📚 फतावा रज़विया जिल्द 15 सफा 271

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*_वो इल्म बेकार है जिसपर अमल न किया जाये_*
_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》*  खुदकुशी करना कैसा, और क्या खुदकुशी करने से काफिर हो जाता है.?

*जवाब 》*  खुदकुशी यानी खुद अपने हाथ से अपने को मार डालना हराम और गुनाहे कबीरा है। ऐसे शख्स को जहन्नम में इसी चीज़ से अज़ाब दिया जाएगा जिससे उसने खुदकुशी की होगी, जैसा कि हदीस में इरशाद हुआ हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फरमाया जो शख्स अपनी ज़ात को किसी चीज़ से क़त्ल कर दे तो अल्लाह तआ़ला उसको जहन्नम में इसी चीज़ से अज़ाब देगा। 

एक और रिवायत में आया है कि हुज़ूर {ﷺ} ने इरशाद फरमाया की जिसने लोहे के हथियार से खुदकुशी की तो दोज़ख की आग में वो हथियार उसकी हाथ मे होगा और वो उससे अपने आप को हमेशा ज़ख्मी करता रहेगा। और जो शख्श ज़हर खा कर खुदकुशी करेगा वो नारे दोज़ख में हमेशा ज़हर खाते रहेगा।

खुदकुशी करने वाला इंसान खुदकुशी करने से काफिर नही होता, क्योंकि कबीरा गुनाह करने से इंसान काफिर नही होता और यही अहले सुन्नत का मज़हब और यही हक़ है। लिहाज़ा यह अपनी सज़ा काट कर जन्नत में ज़रूर जाएगा।

*सवाल 》*  क्या कोई आकिल बालिग मुसलमान के लिए जान बूझ कर खुद कुशी करना कोई ऐसी सूरत है जिस में गुनाह न हो?

*जवाब 》* एक शख्श ने दूसरे से कहा कि तू अपने को तलवार से क़त्ल कर वरना मैं तुझे निहायत बुरे तरीके से क़त्ल करूँगा। तो उस शख्स को ग़ालिब गुमान हुआ के अगर मैं अपने को क़त्ल न करूँगा तो ये शख्स जैसे धमकी दे रहा है वैसी कर गुज़रेगा यानी इक़राह शरई पाया गया तो इस सूरत में खुदकुशी करना गुनाह नही!

📒 फतावा आलमगीरी जिल्द 5
📚 फतावा अकबरिया जिल्द दोम सफ़ा 241

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*सवाल 》* बाज़ हाफ़िज़ की यह आदत होती है कि वह तरावीह पढ़ाने के लिए रमज़ान में सिर्फ दाढ़ी रखते है और बाक़ी दिनों में कटवा देते हैं, ऐसे हाफ़िज़ के पीछे नमाज़ पढ़ना और इमाम बनाना कैसा..!?

*जवाब 》*  एक मुट्ठी दाढ़ी रखना वाजिब है और एक मुट्ठी से कम करना हराम है लिहाज़ा दाढ़ी मुंडे या कटवा कर बिल्कुल थोड़े से दाढ़ी रखने वाले इमाम के पीछे कोई भी नमाज़ चाहे वो फ़र्ज़ हो या तरावीह पढ़ना जाइज़ नहीं और उसे इमाम बनाना भी नाजाइज़ व गुनाह है और उसके पीछे नमाज़ पढ़ ली तो नमाज़ मकरूहे तहरीमी यानी उस नमाज़ को दुबारा पढ़ना वाजिब है!

जो हुफ्फ़ाज़ (यानी हाफ़िज़) ऐसा करते हैं कि रमज़ान में दाढ़ी रखते हैं और रमज़ान के बाद कटवा देते हैं वह आवाम और शरीअ़त को धोखा देते हैं और शरीअ़त को दुन्या कमाने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन लोगों के क़ौल व फेल का एतिबार नहीं किया जाएगा, जब तक कि तौबा न कर ले और उस पर अ़मल पैरा न हो जाए.!

📕 रमज़ान के फतवे सफ़ा 63 ता 66

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*सवाल 》*  शरई मुसाफिर कोन है.!?

*जवाब 》*  शरअन मुसाफिर वह शख्स है जो तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) तक जाने के इरादे (नियत) से बस्ती से बाहर हुआ , और मुसाफिर उस वक्त तक मुसाफिर है जब तक अपनी बस्ती में पहुंच न जाए या आबादी में पूरे पन्द्रह दिन ठहरने की नियत न करे। यह उस वक्त है जब तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) चल चुका हो और अगर तीन मंजिल पहुंचने से पहले वापसी का इरादा कर लिया तो मुसाफिर न रहा अगर्चे जंगल में हो!

मुसाफिर पर वाजिब है कि नमाज़ में कस्र करे यानी चार रकअ़त फ़र्ज़ को दो पढ़े! 

काफिर तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) के इरादे से निकला दो दिन के बाद (तकरीबन 92 km से कम में) मुसलमान हो गया तो उस के लिए कस्र है!

और नाबालिग तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) के इरादे से निकला और रास्ते में बालिग हो गया अब से जहां जाना है तीन दिन की राह न हो (यानी 92 km से कम हो) तो पूरी पढ़े!

*सवाल 》* औरत हैज़ में थी कि उसी दौरान मुसाफिर हुई और 92 किलो मीटर्स (3 दिन की राह) के बाद 15 दिन से कम की नियत में रुकी और वही पाक हुई, तो वह अब नमाज़ क़स्र पढ़ेगी की पूरी!?

*जवाब 》* पूरी पढ़ेगी क्योंकि वह सफर हैज़ की हालत में हुई थी जहां हैज़ से पाक होगी वहां से अगर आगे तीन दिन की राह (तकरीबन 92 km) जाना है तो क़स्र पढ़ेगी, लेकिन ऊपर की तहरीर में पहले सफर किया हुआ है बाद में नहीं इस लिए वह पूरी नमाज़ पढ़ेगी!

बहारे शरीअ़त में है : हैज़ वाली औरत पाक हुई और अब से तीन दिन की राह न हो (92 km से कम हो) तो पूरी पढ़े.!

📕 पर्दादारी सफा 84
📙 बहारे शरीअ़त हिस्सा 4 सफा 64+65

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*सवाल 》*  क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसअले में  कि नबी करीम  {ﷺ} के ज़ाहिरी ज़माने में जब किसी का इंतक़ाल हो जाता और फरिश्ते सवालात के लिए आते तो क्या उस वक़्त भी नबी करीम {ﷺ} कब्र में तशरीफ़ लाते थे ?

*जवाब 》*  बेशक नबी करीम {ﷺ}  हयाते ज़ाहिरी में भी तशरीफ़ लाते थे। जैसा कि हदीसे पाक में आया है, और फिर कहते हैं तू उन साहब के मुताल्लिक क्या कहता था यानी मुहम्मद {ﷺ} , तो मोमिन कह देता है कि मैं गवाही देता हूँ कि यह अल्लाह के बंदे और रसूल हैं, रिवायत है हज़रत अबु हुरैरा रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से, वो फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह {ﷺ} जब मय्यत दफन की जाती है तो उसके पास दो सियाह रंग नीली आंखों वाले फरिश्ते आते हैं, कि तू उन साहब के बारे में क्या कहता था, तो मय्यत कहती है कि ये अल्लाह के बंदे हैं और उसके रसूल, और मैं गवाही देता हूँ की अल्लाह के सिवा कोई माबूद नही, और यक़ीनन मुहम्मद {ﷺ} अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं।

इस हदीसे पाक में कब्र में तशरीफ़ आवरी के मुताल्लिक बशारत दी गयी है, उसमे हयात ज़ाहिरी और बातिनी की कै़द नही, इसलिए अपनी जानिब से बातिनी का इज़ाफ़ा करना ख़िलाफ़े उसूले शरह है, और मुर्दे को क़रीब से हुज़ूर की ज़ियारत कराई जाती है। हुज़ूर {ﷺ} एक ही वक़्त में सब की कब्र में पहुँच सकते हैं, या सब को एक ही वक़्त में नज़र आ सकते हैं। जिसका खात्मा ईमान पर हो उसने हुज़ूर {ﷺ} को देखा हो या न देखा हो नूरे ईमान से पहचान लेता है, अगर्चे काफिर ने उम्र भर देखा मगर कब्र में न पहचान सकेगा, जैसे अबु जहल, अबु लहब वगैरा, क्योंकि वहाँ पर पहचान रिश्ता ईमानी से है।

📕 फतावा फख़रे अज़हर जिल्द 1 सफा 160

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*सवाल 》*  नमाज़ी के सामने से गुज़रना और हटना कैसा ?

*जवाब 》* नमाज़ी के आगे से गुजरना बहुत सख्त गुनाह है नमाज़ी के आगे से गुजरने वाला गुनहगार होता है, लेकिन नमाज़ी की नमाज़ में कोई ख़लल नुकसान  नही आता.!

नमाज़ी के आगे से गुजरने की सख्त मुमानेअ़त है हदीसो में इस पर सख्त वईदे वारिद है मस्लन : 

हदीस इमाम अहमद हज़रत अबी जहीम रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से रिवायात करते है कि हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि वसल्लम इरशाद फरमाते है अगर नमाज़ी के आगे से गुजरने वाला जानता कि उस पर कितना गुनाह है तो चालीस बरस खड़ा रहेना उस गूजर जाने से उसके हक़ में बेहतर था!

हदीस इब्ने माजा की रिवायत में हज़रत अबू हुरैरह रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से है कि हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि वसल्लम इरशाद फरमाते है : कि अगर कोई जानता कि अपने भाई के सामने नमाज़ में आड़े होकर आगे से गुजरने में कितना गुनाह है तो सो *100* बरस खड़ा रहना उस एक क़दम चलने से बेहतर समझता!

हदीस अबू बकर इब्ने अबी शयबा अपनी मुसन्नफ में हज़रत अब्दुल हमीद बिन अब्दुर्रहमान रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से रावी कि हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैहि वसल्लम इरशाद फरमाते है : कि अगर नमाज़ी के आगे से गुजरने वाला जानता कि इस तरह गुजरना कितना बड़ा गुनाह है  तो चाहता कि उस की रान टूट जाए मगर नमाज़ी के सामने से न गुजरे!

आम तौर से मसाजिद में देखा गया है कि दो शख़्स आगे पीछे नमाज़ पढ़ते हैं यानि एक पीछली सफ़ में और दूसरा उसके सामने अगली सफ़ में, अगली सफ़ में नमाज़ पढ़ने वाला पीछे वाले से पहले फारिग हो जाता है और फिर उसकी नमाज़ ख़त्म होने का इन्तिज़ार करता रहता है कि वह सलाम फेरे तब यह वहाँ से हटे और उस से पहले हटने को नमाज़ी के सामने से गुज़रना ख़्याल किया जाता है, हालांकि ऐसा नहीं है,आगे नमाज़ पढ़ने वाला अपनी नमाज़ पढ़ कर हट जाए तो उस पर गुज़रने का गुनाह नहीं है!

खुलासा यह है कि नमाज़ी के सामने से गुज़रना मना है हटना मना नहीं है, सदरुश्शरिया ह़ज़रत मौलाना अमजद अली आज़मी अलैहिर्रह़मा तह़रीर फरमाते हैं कि : 

अगर दो शख़्स नमाज़ी के आगे से गुज़रना चाहते हों और सुतरह को कोई चीज़ नहीं तो उन में से एक नमाज़ी के सामने उसकी तरफ पीठ कर के खड़ा हो जाए, और दूसरा उसकी आड़ पकड़ के गुज़र जाए,फिर वह दूसरा उसकी पीठ के पीछे नमाज़ी की तरफ पुश्त कर के खड़ा हो जाए और ये गुज़र जाए वह दूसरा जिधर से आया उसी तरफ़ हट जाए!

इस से ज़ाहिर है कि गुज़रने और हटने में फरक़ है और गुज़रने का मतलब ये है कि नमाज़ी के सामने एक तरफ से आये और दूसरी तरफ निकल जाए,ये यक़ीनन नाजाइज़ व गुनाह है, और अगर नमाज़ी के सामने बैठा है और किसी तरफ़ हट जाए तो ये गुज़रना नहीं है और इस में कोई गुनाह नहीं है!

हिदायत : हटने और गुजरने में फ़र्क होता है, बहुत कम ही लोग इस तरह के मसअले को ज़ेहन नशी रखते है!
📒 बहारे शरीयत जिल्द 1 हिस्सा 3 सफह 157+ 617
📙 फतावा हिन्दिया जिल्द-1 सफह 104
📕 रद्दुल मुह़तार जिल्द 2 सफह 483
📘 तीनो हदीसे ब: हवाला : फतावा रजविया जिल्द 3 सफहा 316 / 317
📚गलत फहमियां और उनकी इस्लाह़ सफह 35

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*सवाल 》*  एक मुसलमान के लिए बुन्यादी तौर पर जिन उलूम का सीखना लाज़िमी व ज़रूरी (यानी फ़र्ज़) है उनकी कितनी क़िस्में है.?

*जवाब 》* तीन³ क़िस्में है, पहला : इल्म उल कलाम (अक़ाइद का इल्म) जैसे अल्लाह {ﷻ} के ज़ात व सिफ़ात, नुबुव्वत व रिसालत, ईमान व कुफ्र, जन्नत व दोज़ख़, हश्र व नश्र, जिन व मलाइका (फरिश्ते) वगैरा, (क्या है कैसे माना जाए)

दूसरा : इल्में फ़िक़्ह, जैसे नमाज़, (वुज़ू, गुस्ल, पाकी नपाकी) रोज़ा, हज, ज़कात, निकाह, तलाक़, तिजारत, हैज़, निफास, पर्दा, हुक़ूक़े वालिदैन व हुक़ूक़े शौहर बीवी, वगैरा और इन सबके सारे अहकाम (क्या है और कैसे किया जाए)

तीसरा : इल्मेंं तसव्वुफ़ जैसे बुग्ज़, हसद, जलन, बद गुमानी, बद शुगूनी, गिबत, चुगलखोरी, रियाकारी, सूद वगैरा यह (क्या है और कैसे बचा जाए)

इन सबका इल्म सीखना हर आक़िल बालिग मुसलमान (मर्द औरत) पर फर्ज़ है (इन में कुछ मखसूस पर है जैसे मालदार पर ज़कात, हज वगैरा)

इन सब में पहले अक़ाइद का इल्म, हासिल करें, इल्म अक़ाइद के बगैर खुदा न खांसता ईमान खतरे में पड़ सकता है, क्योंकि एक मुसलमान को जब यह मालूम ही नहीं होगा कि मुझे अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात, नुबुव्वत व रिसालत, वगैरा के बारे में क्या अक़ीदा रखना है तो उसके अक़ीदा की दुरुस्ती क्योंकर हो सकेगी, (यानी कैसे दुरुस्त होगा?)

यक़ीनी सी बात है ना वाक़िफ की बिना पर मुसलमान बात़िल नज़रियात को भी अक़ीदा बना सकता है, लिहाज़ा हर एक बज़ाते खुद ईमान की हिफाज़त के सिलसिले में इस्लामी अक़ाइद खुद ही नहीं बल्कि अपने घर वालों रिश्तेदारों और दोस्तों, बाल बच्चे शागिर्द वगैरा, को भी सीखने की तरग़ीब दिलाए!

इल्मे अक़ाइद और दिगर इल्म सीखने का एक बुन्यादी और बड़ा ज़रिया यह भी है कि बहारे शरीअत पढ़ा जाए अवाम और ख़ास दोनो के लिए बहुत मुफीद है!

एडमिन सबक : ✍🏻 निहायत अफसोस की बात है आज कल हर चीज़ के लिए घंटों बल्कि पूरा दिन गुज़ारने के लिए वक़्त है लेकिन इल्म ए दीन जो फ़र्ज़ या वाजिब है उन सब को सीखने का टाइम नहीं, अक्सर वह लोग कहते है जो इल्म ए दीन नही सीखें होते है कि हम तो बहुत पुरसुकून ज़िंदगी जीते है (क्योंकि कोई दुन्यावी नुकसान नही है इस लिए) यह तो मरने के बाद पता चलेगा कि असल ज़िंदगी तो आखिरत है और जिस दुनिया की तकलीफ न होने को पुरसुकून समझ बैठे थे वह नही थे, पुरसुकून तो वह था जो इल्म सीख कर उस पर अमल करते, खुदारा अपनी आखिरत को खराब न करें कम से कम इतना ज़रूर इल्म सीखें जिससे आपके अक़ीदे और इबादात व मुआमलात और गुनाहों की मारिफ़त हासिल कर लें!

पहली बात तो लोग इल्म ही नहीं सीखते और अगर कोई व्हाट्स ऐप सब में सवाल जवाब के ज़रिए सीखते भी है तो इस में भी रोज़ मर्रा के मसाइल नही बल्कि अक्सर ज़्यादातर तारीखी सवाल जवाब ही होते है जिसका सीखना न फ़र्ज़ है न वाजिब बल्कि जिसका न दुनिया में न आखिरत में काम आए तो इस तरह के तारीखी फर्जी सवाल करना भी मना है, इस लिए आप अगर किसी ग्रुप को चलाते है तो रोज़ मर्रा के मसाइल व जदीद दौर के खुराफात सब से आगाह करें, सही अक़ीदा सिखाए!

आज का पहला सवाल थोड़ा हार्ड तो लगा लेकिन मेरे पूरे ग्रुप के सारे सवाल के निचोड़ यही सवाल है, अगर कोई अच्छी तरह इल्म को सीखे होते तो इतने आसान सवाल के सही जवाब ज़रूर देते लेकिन अक्सर लोग तारीखी में रहते है तो यह कैसे मालूम करें कि हमे कितने तरह के उलूम सीखना फ़र्ज़ है.? 

हमारे ग्रुप में इसी तरह के ज्यादातर रोज़ मर्रा के सवाल होंगे आपकी मर्ज़ी सीखें या नहीं।

واللہ تعالیٰ اعلم

📕 बहारे शरीअ़त शरह हिस्सा 1 सफा 3


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*हमें आपसे बहुत उम्मीद है कि आप तफ्सील को मुकम्मल पढ़ेंगे, इन बातों के साथ कि :* 

*_वो इल्म बेकार है जिसपर अमल न किया जाये_*
_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》*  आजकल ज़्यादातर ग्रुप में तारीखी सवाल जो आते हैं जैसे (फलां का नाम क्या है, ये सबसे पहले किसने किया, फलां का मज़ार कहाँ है, इनके वालिद का नाम क्या है, किसी के क़ौल (कहने, फरमाने) में क्या हिक्मत है, इसका उसका बेटा बेटी कितने थे, फुलां काम कब हुआ कैसे हुआ वगैरा) तो सवाल यह है कि हलाल व हराम, जाइज़ व नाजाइज़ से गाफिल व जाहिल हो कर इन तारीखी बातों में ज़्यादा दिलचस्पी लेना .....किसकी....... पहचान है ? और ऐसी बातों में लगा देना और दीनदारी और दीन की ज़रूरी बातों से हटा देना .....किसकी...... चाल है.!??

*जवाब 》 इमामों से बेतुके सवाल* कुछ मुक़्तदी हज़रात जिनमे से बहुत सो को सही से नमाज़ याद नही, ग़ुस्ल व वज़ू ठीक से नही कर पाते तो इनमे एक बीमारी यह पायी जाती है कि इमाम साहब से बेज़रूरत सवाल करते हैं और न बताने पे इन्हें जाहिल समझते हैं या इमामत के लायक ख्याल नही करते इनमे से बहुत से वो हैं जो खुद और इनके बच्चे ईसाइयों और गैर मुस्लिमो और मुशरिकों के  स्कूलों में पढ़ पढ़ कर इस्लाम को बिल्कुल भूल गए, इन्हें कलमे तक सही से याद नही और  इमाम साहब से ग़ैर ज़रूरी सवाल पूछते हैं। जैसे हज़रत खदीजा का निकाह किसने पढ़ाया ?? उनकी नमाज़े जनाज़ा किसने पढ़ाई ?? फलां बीवी का महर कितना था ?? पहला जुमा कब और कहा पढ़ा गया?? ज़ोहर असर में 4 और मगरिब में 3 फ़र्ज़ क्यों?? खास कर ये बहुत ज़्यादा पूछते हैं कि किसकी नमाज़े जनाज़ा किसने पढ़ाई, और इनका निकाह किसने पढ़ाया।

एक साहब को देखा गया कि वो हर इमाम से मालूम करते थे कि नमाज़े जनाज़ा कब शुरू हुई, और कहाँ और सब से पहले किसकी जनाज़े की नमाज़ पढ़ी गई, और जब उन साहब से पूछा गया कि आप नमाज़े जनाज़ा का तरीक़ा बताएं और उसमें जो पढ़ा जाता है वो सुनाए तो उनको कुछ भी याद न था, लेकिन इनको ये जानने की फिक्र थी कि नमाज़े जनाज़ा शुरू कब हुई।

कुछ लोग तारीखी बातों में उलझते हैं और दूसरों को उलझाते हैं, मिसाल के तौर पर, हज़रत इमाम हुसैन का सर कहा दफन किया गया ?? क़र्बला वालों की नमाज़े जनाज़ा किसने पढ़ी, और किसने पढ़ाई ?? हज़रत आदम अ़लैहिस्सलाम का मज़ार कहा हैं ?? किसी के बाप का नाम क्या था और उसकी बीवी का नाम क्या था ?? हज़रत हलीमा की ऊठनी का रंग क्या था?? वगैरा वगैरा।।

भाइयों तारीखी बातें की कब क्या हुआ और कहाँ हुआ?? और ऐसे ही किसी के क़ौल व फैल व अमल की हिक्मत जानना की ऐसा क्यों, वो क्यों, ये सब बातें जानना ज़रूरी नही और ये असल इल्म नही, असल इल्म ये जानना है की इस्लाम मे क्या जाइज़ है और क्या नाजाइज़ ? क्या हलाल है और क्या हराम ?? किसमें सवाब है और किसमे गुनाह ?? किस काम और बात से खुदा राज़ी है और किससे नाराज़ ?? और दूसरी तरफ तारीखी बातों में ये कब हुआ, क्यों हुआ, किसने किया, ये सब मे उलझना और दूसरों को उलझाना इस्लाम का एक गैर जरूरी हिस्सा है, और हराम व हलाल और जाइज़ व नाजाइज़ की तरफ से गाफिल व जाहिल हो कर उन बातों में ज़्यादा दिलचस्पी लेना मुनाफिक़ की पहचान है और उनमें लगा देना और दीनदारी और दीन की ज़रूरी बातों से हटाना शैत़ान की चालों में से एक चाल है। और अमल करने वाले पूछते कम हैं, और ज़्यादा पूछताछ करने वालों को अमल करते कम देखा है।

एक हदीसे पाक का खुलासा है, "हुज़ूर {ﷺ} ने बे ज़रूरत मसाइल पूछने से मना फरमाया"।

यानी जिस मसअले से और जिस बात की ज़रूरत न हो और उसको पूछे बिना भी काम चलता हो उसको पूछने से हुज़ूर ने मना फरमाया।

और हाँ अगर कोई ऐसा दीनी मसअला हो जिसको जाने बगैर आपके दीन में कोई कमी आ रही हो तो बाअदब तरीक़े से मालूम कीजिए, आपको बताने वाले मिल जाएंगे।

मशहूर हदीसो से साबित है कि हुज़ूर  से कभी बे ज़रूरत ज़्यादा सवालात किये गए तो आप नाराज़ होते, गज़ब व जलाल के आसार चेहरे ए पाक से ज़ाहिर होते।

आला हज़रत रदि अल्लाहु तआ़ला अ़न्हु से सबक हासिल करें वो लोग जिन्हें ठीक से नमाज़ याद नही, न अरबी जाने, न उर्दू, न क़ुरआन शरीफ पढ़ने आता, और तसव्वुफ़ या तरीक़त के आला मनाज़िल की कोई बात या एक दो तारीखी बात, कब क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ, अगर ये इन्हें पता लग गई तो फिर ये सब से पूछते फिरते हैं, और खास कर इमाम हज़रात को तंग व परेशान करते हैं।

खुलासा यह है कि बस उन बातों को और उनकी फिक्र रखें जो बरोज़े क़यामत आपसे पूछी जाएंगी, या जिनकी मालूमात न होने से आप कोई गुनाह कर बैठेंगे या आपकी नमाज़ या किसी अमल में कमी वाक़े होगी

सबक एडमिन ✍🏻 : सबक ये मिला कि आज लोगों को तहारत के मसअले नही मालूम, कपड़े पाक करने के तरीक़े नही आते, नमाज़ के वाजिबात, मुफ़्सीदात, मकरूहात, से वाक़िफ नही हैं, एक दूसरे के हुक़ूक़ नही जानते, क्या जाइज़ है क्या हराम इसका इल्म नही, और कुछ लोग उनसे ऐसे सवाल कर रहे हैं, जिसको सीखना ही ज़रूरी नही, और वो लोग उस फ़र्ज़ उलूम को छोड़ कर ऐसे रिवायत वाले सवाल के पीछे भाग रहे हैं, तो यह पकड़ दोनों की है, ऐसे सवाल पूछने वालो की भी, और ऐसे सवालो के जवाब तलाश कर के देने वालो की भी। क्योंकि जवाब देंगे तो एडमिन की हौसला अफजाई होगी और वो फिर ऐसी तारीखी सवाल करेगा। आज से जो भी तारीखी सवाल किया उसको इस सवाल और जवाब की तफसील भेज दीजिए!

📕 इमाम और मुक़्तदी सफा 130 ता 134 

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*आज की तफसील मालूमात ✧ 1⃣2⃣7️⃣*

*हमें आपसे बहुत उम्मीद है कि आप तफ्सील को मुकम्मल पढ़ेंगे, इन बातों के साथ कि :*

*_वो इल्म बेकार है जिसपर अमल न किया जाये_*
_वो अमल भी बेकार जो बिना इल्म का किया जाये_

*सवाल 》*  जन्नत में औरतों को अजनबी मर्दों से पर्दा करने का क्या हुक्म है.!?

*जवाब * वहां पर्दा नहीं होगा वहां कोई चीज़ वाजिब या हराम नही होगी, ये अहकाम दुनियावी ज़िन्दगी के लिए है, अगर वहां पर यह फ़र्ज़ हो तो वह जगह अमल की हो गई हालांकि वह जगह सिर्फ जज़ा (बदले) का है अमल की नहीं, दुनिया दारुल अमल है आख़िरत दारुलजज़ा है

सवाल पैदा होता है, तब तो बड़ा फसाद होगा, औरत और मर्द का मिलना खतरे का बाइस होता है.!?

*जवाब * वहां नफ़्से अम्मारा जो तमाम फितना फसाद की जड़ है वह फना और ख़त्म हो जाएगा, इंसान का दिल वही चाहेगा जो रब {ﷻ} को पसंद हो, दुनिया की पाबंदियां नफ़्से अम्मारा की वजह से हैं, जब वही नही रहा तो पाबंदी कैसी ? परिन्दे को उसी वक़्त पिंजरे में रखते है जब तक उसके पर (पंख) हैं जब पर ही काट दिए गए तो अब उसे पिंजरे में रखने की क्या ज़रूरत ? (यानी अब कोई ज़रूरत नहीं)

सबक एडमिन ✍🏻 :  पता चला न वहां नमाज़े फर्ज़ होगी न ज़कात न कोई और फ़र्ज़ या वाजिब चीज़ मेरी बहनों से कहना चाहूंगा इसी दुनिया में पर्दा कर लो इसी दुनिया के लिए पर्दा है, और आख़िरत में बहुत अच्छा बदला मिलेगा, (लेकिन इसका हरगिज़ मतलब यह नहीं कि नंगे होंगे, बल्कि बा पर्दा होगी लेकिन जैसे दुनिया में है एक दूसरे को देखना बात चीत करना गुनाह है वैसा वहां नहीं होगा वहां पर यह हुक्म हट जाएगा) और मैं अपने भाइयों से कहना चाहूंगा आप भी इसी दुनिया में दाढ़ी को अपने चेहरे पर सजा लो नज़रों को नीचे झुकाने की आदत डाल लो वहां दाढ़ी नहीं होगी वहां देखना गुनाह नहीं होगा लेकिन इस दुनिया में अमल कर लो इंशा अल्लाह वहां अच्छा बदला मिलेगा

📕 हम से पूछिए सफा 18

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*सवाल 》*  क्या फरमाते हैं उलमा ए दीन व मुफ़्तीयाने शरह इस मसअले में, कि लोग अजमेर शरीफ से जो धागा वगैरा ला कर पहनते हैं उसका क्या हुक्म है, और जो धागा या पत्थर चाहे कही का हो, बगदाद शरीफ, अजमेर शरीफ या बरेली शरीफ, तो उस धागे या पत्थर को गले मे लटकाना या हाथ मे बांधना कैसा है.!?

*अल जवाब 》* ये फैल जाइज़ नही क्योंकि इसमें गैर मुस्लिमों से मुशाबहत है, और इस तरह करने वाले लोगो को देख कर उमूमन उनके गैर मुस्लिम होने का शुबा होने लगता है। और हदीस शरीफ में है कि "जो किसी क़ौम से मुशाबहत इख़्तेयार करे वो उन्ही में से है"मज़ीद ये के ये धागे वगैरा बिज़्ज़ात खुद कोई फायदा नही रखते और न ही शरीअ़त में इनकी कोई क़ाबिले क़द्र हैसियत है।

बल्कि ये सिर्फ अपना गंदा धंधा चलाने का ढोंग है जो बुज़ुरगाने दीन का सहारा ले कर भोले भाले लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए इन चीज़ों को खुद साख्ता करामातें और फ़ज़ीलतें बयान करते हैं। लिहाज़ा हर मुसलमान पर लाज़िम है कि इस तरह के धागे वगैरा का इस्तेमाल हरगिज़ न करे और उनसे दूर रह कर अपने आप को उस बुरी निस्बत व मुशाबहत से बचाए।

सबक एडमिन ✍🏻 :  सबक - आजकल ये बहुत ज़्यादा देखा जाता है, जो कोई भी वहां जाता है, इसको तबर्रुक (बरकत वाला) समझ कर ले आते हैं और अपने कलाई पर और पूरे खानदान के कलाई पर बंधवा देते हैं। जबके इसके जाइज़ होने की कोई दलील नही, और उल्टा ये गैरों से मुशाबहत रखती है, इसलिए अगर किसी चीज़ के बारे में नही मालूम है, तो बस देखा देखी न किया करें, बल्कि अपने क़रीबी आलिम से उसके मुताल्लिक पूछ लिया करे, कि इस काम को करने से कहीं हम गुनहगार तो नही हो रहे। और फिर अमल में लाएं कुरआन ए मजीद में अल्लाह {ﷻ} ने इरशाद फरमा " तो ऐ लोगों इल्म वालो से पूछो अगर तुम्हे इल्म नही"

{पारा 14 सूरह 16 अन नहल आयत 43}

📕 फतावा रज़ा दारुल यतामा सफा 456 + फतावा मरकजे़ तरबियते इफ़्ता सफा 436

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*सवाल 》*  बिला वजहें शरई किसी जाहिल मुसलमान को तहक़ीर की नियत से जाहिल कहना कैसा ? (जबकि वो सच में जाहिल हो)

*जवाब 》* ताजदारे अहले सुन्नत हुज़ूर आला हज़रत फाज़िले बरैलवी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते है : बिला वजहे शरई किसी मुसलमान जाहिल की भी तहक़ीर हराम क़त़ई है, रसूल अल्लाह {ﷺ} ने इरशाद फ़रमाया कि आदमी के बद होने को यह बहुत है कि अपने मुसलमान की तहक़ीर करे, मुसलमान की हर चीज़ मुसलमान पर हराम है खून आबरू माल

इसी तरह किसी मुसलमान जाहिल को भी बेइज़्ने शरअ गाली देना हराम क़त़ई है, रसूल अल्लाह {ﷺ} इरशाद फ़रमाते है : मुसलमान को गाली देना गुनाहे कबीरा है, और फरमाते है मुसलमान को गाली देने वाला उसकी मानिंद (जैसा) है जो अंक़रीब हलाकत में पड़ना चाहता है

रसूल अल्लाह {ﷺ}  इरशाद फ़रमाते हैं : जिसने किसी मुसलमान को ईज़ा दी उस ने मुझे ईज़ा दी और जिस ने मुझे ईज़ा दी उसने अल्लाह  तआ़ला को ईज़ा दी।

जब आम मुसलमानों के बाब में यह अहकाम हैं तो उलमा ए किराम की शान तो अरफा व आला है, हदीस में है : उलमा के हक़ को हल्का न जानेगा मगर मुनाफिक़ (यानी मुनाफिक़ हल्का जानेगा) दूसरी हदीस में है : जो हमारे आलिम का हक़ न पहचाने वह मेरी उम्मत से नहीं।

सबक एडमिन ✍🏻 :  क़ौम बनी इसराइल में एक गुनाहगार शख्स था, वो एक दिन एक नेकोकार शख्स के पास आया और कोई बात की तो वो नेकोकार शख्स ने उसे झटक दिया, वो शख्स इतना नेकोकार था की जब वो चलता तो ☁️बादल उसके सर पर साया फ़गन हो जाते ! लेकिन गुनाहगार को देख कर उसके दिल में नफ़रत के जज़्बात पैदा हुए ! वो बेचारा इतना रोया की मालिक मैं इतना गुनाहगार हूँ कि तेरे पाक बन्दे मुझे अपने पास से बैठाने को भी तैयार नही ! दिल टूटा, शिकस्तगी पैदा हुई और वापस पलटा तो जो बादल नेकोकार के सर पर था वो इसके सर पर आ गया.!

तो वो करम-नवाज़ी जिस पर चाहे फ़रमा दे.! 
उसके सारे बन्दे हैं.! 
अल्लाह तआ़ला को तकब्बुर की नेकी पसंद नही.! 
तो मत ऐसा बने कि चार नमाज़ें पढ़ लें तो बाक़ी लोगों को बे नमाज़ी जाने.!

📘 फतावा रज़विया जिल्द 21 सफा 99
📒 ज़ियाए शरीअ़त जिल्द अव्वल सफा 124
📕 फैज़ाने आला हज़रत सफा 186 📚*

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*सवाल 》*  क्या फरमाते है उलमा ए किराम इस मसअले में कि मुर्दे को सुरमा लगाना शरई नुक़्ते नज़र से कैसा है.!?

*जवाब 》* सूरते मज़कूरा में शरई नुक़्ते नज़र से मुर्दा की आंखों में सुरमा लगाना किसी भी तरह दुरुस्त व सही नहीं इस लिए कि सुरमा आंखों की ताक़त व क़ुव्वत और बिनाई के लिए लगाया जाता है और मरने के बाद मुर्दे की आंखों में सुरमा लगाना बे मक़्सद व बे फ़ायदा है लिहाज़ा यह इसराफ व इज़ाअत (बर्बाद करना) माल है जोकि ना जाइज़ है इरशादे बारी तआ़ला है {बेशक उड़ाने वाले शत़ानों के भाई है}

एडमिन सबक ✍🏻 : जिस तरह इंसान अपना ग़ुस्ल खुद करता है तो उसी तरह उसे ये भी सीखना चाहिए कि मुर्दे को ग़ुस्ल किस तरह दिया जाता है। और अफ़ज़ल यही है कि मुर्दे को उसका कोई क़रीबी शख्स ग़ुस्ल दे। ग़ुस्ल देते वक़्त और कफन पहनाते वक़्त काफी एहतियात की ज़रूरत होती है, मगर इतना मुश्किल भी नही है कि इंसान ग़ुस्ल ही न दे सके। ग़ुस्ल देना और फिर कफन पहनाना ये सब तरीक़ा हमे सीखना चाहिए, अगर हर चीज़ गस्साल के ऊपर छोड़ देंगे तो वो अपने हिसाब से करेगा, और अगर आप पढ़ोगे तो आप टोक सकते हो कि ये शरीअ़त में गलत है, और अगर सीखोगे नहीं पढोगे नहीं तो जैसा चलता हुआ आ रहा है वैसी चलते रहेगा, याद रखे मय्यत को ग़ुस्ल देना फ़र्ज़े किफ़ाया है यानी अगर किसी ने दिया तो सब इस फर्ज़ से साक़ित हो गए और किसी ने नहीं दिया तो सब  तर्के फ़र्ज़ के गुनाहगार होंगे.!

📙 फतावा फख़रे अज़हर जिल्द अव्वल सफा 346+347

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सीरते मुस्तफ़ा ﷺ 💚

 الصلوۃ والسلام علیک یاسیدی یارسول الله ﷺ  सीरते मुस्तफ़ा ﷺ (Part- 01) * सीरत क्या है.!? * कुदमाए मुहद्दिषीन व फुकहा "मग़ाज़ी व सियर...